देश के जिन जवानों को तिब्बत की सीमा पर शहीद होना चाहिए था उनका खून मीरगंज की बदनाम गलियों में बेवजह बह गया। यह झगड़ा न किसी तवायफ के साथ पैसे के लेनदेन से जुड़ा था न किसी एकतरफा इश्क से। यह एक दलाल टाइप के आशिक का क्षणिक आक्रोश था जिसे कुछ महीने पहले ही जिला प्रशासन ने बड़े सम्मान से राइफल का लाइसेंस दिया था। वह मुस्कान नाम की एक तवायफ का दलाल था और उसी के सामने जवानों ने उसे गिरा कर पीट दिया था। सो उसने राइफल से गोली दाग कर सरकारी लाइसेंस का हक अदा कर दिया। एक मायने में ये एक ऑनर किलिंग का केस था बस। दो दिन हल्ला मचा फिर सब शांत। मीरगंज फिर गुलजार है।
इसमें जवानों पर कोई बहुत ज्यादा हिकारत भरी नजर से नहीं देखा जा सकता क्योंकि अंग्रेजों ने मीरगंज का ये इलाका उन अंग्रेज फौजियों की यौन इच्छाओं की तृप्ति के लिए ही बसाया था जो लंदन से दूर हिन्दुस्तानियों पर हुकूमत कर रहे थे। अंग्रेजी फौज को गए जमाने बीत गए लेकिन मीरगंज के इस इलाके में आज भी ये धंधा बदस्तूर जारी है। आखिर क्यों? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? पुलिस, प्रशासन, देश का कानून या फिर खुद हम?
इसकी पड़ताल बहुत जरूरी है। इलाहाबाद में सबको पता है कि मीरगंज के इसी इलाके में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ था। यह इलाका तब भी इतना ही बदनाम था। मोतीलाल नेहरू की वकालत जब चल निकली तो उनका परिवार चमक दमक वाले सिविल लाइन्स के 9 एलिगन रोड के एक किराए के बंगले में आकर बस गया था। इसके बाद नेहरू परिवार आनंद भवन चला गया। नेहरू परिवार ने तरक्की की लेकिन मीरगंज के सभी लोग इतने किस्मत वाले नहीं थे। वह इलाका आज भी उतना ही बदनाम और दयनीय है जितना तब था।
शरीफ लोग मीरगंज की उन गलियों की तरफ नहीं जाते। इसलिए अगर आप ये समझते हैं कि मीरगंज बहुत मौज मस्ती और ग्लैमर से भरपूर कोई तड़क भड़क वाली जगह है तो आप बिलकुल गलत हैं। इन गलियों में परचून और चांदी गलाने की छोटी-छोटी अंधेरी दुकानों के बीच मकानों की सीढ़ियों पर आपको पाउडर और लिपिस्टक से रंगे हुए बेनूर और मुरझाए हुए चेहरे दिखेंगे जिनकी आंखों में उदासी और छटपटाहट के सिवा कुछ नहीं। छोटी बच्चियां जिनकी उम्र फ्रॉक पहन कर स्कूल जाने की है वह आपको यहां बेहद भदेस ढंग से जिस्म की नुमाइश करती मिलेंगी। पहली नजर में आपको पता लग जाएगा कि इन नाबालिग जिस्मों को जानवरों को दिए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन देकर खास इसी देह व्यापार के मकसद से तैयार किया गया है। यकीन जानिए इनमें कोई भी लड़की अपनी मर्जी या खुशी से इस धंधे में नहीं आई। इनमें ज्यादातर लड़कियां बलात्कार की शिकार हुईं या घर से भाग कर यहां आईं। या अपने ही परिवार के किसी सदस्य या दलालों द्वारा इस मंडी में बेच दी गईं। या फिर घर में गरीबी से तंग आकर यहां फंस गईं।
दुनिया में जिस्मफरोशी को लेकर तीन तरह की व्यवस्थाएं हैं। पहली, जो जिस्मफरोशी को खतरनाक मानती है और इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। इसे मानने वाले अमेरिका के अधिकांश राज्य और तकरीबन सारे मुस्लिम देश हैं जिनके यहां किसी भी तरह की जिस्म फरोशी कानूनन जुर्म है। इन देशों में वेश्या, ग्राहक और दलाल सबके लिए दंड की व्यवस्था है। बावजूद इसके इनमें से हर देश में जिस्मफरोशी का धंधा अवैध रूप से चल रहा है।
दूसरी व्यवस्था में जर्मनी, वियना, स्विट्जरलैंड जैसे देश हैं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दे दी है। इन देशों की मान्यता है कि वेश्याएं समाज में ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम करती हैं। ये शरीफ औरतों को मर्दो के यौन आक्रमण से बचाती हैं। इस व्यवस्था में इन वेश्याओं के लिए शहर के खास इलाके चिन्हित किए जाते हैं। उन्हें वहीं रखा जाता है। उनकी नियमित मेडिकल जांच होती है और वे सरकार को बाकायदा अपनी कमाई से टैक्स देती हैं। ब्रिटेन और भारत में पहले यही व्यवस्था थी। दिल्ली में जीबी रोड, मेरठ में कबाड़ी बाजार और इलाहाबाद में मीरगंज जैसे इलाके तभी बसे थे। तब हर शहर में इस तरह के ‘रेड लाइट’ इलाके होते थे।
तीसरी व्यवस्था ‘सहनशील व्यवस्था’ के नाम से प्रचलित हुई। 1949 के देह व्यापार और वेश्या शोषण के दमन संबंधी संयुक्त राष्ट्र संघ के समझौते पर कई देशों ने दस्तखत किए। इनमें ब्रिटेन, फ्रांस और हमारा महान भारत भी शामिल था। इस प्रणाली की मान्यता है कि जिस्म फरोशी का धंधा उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। ये सामाजिक बुराई है लेकिन इसे खत्म करना असंभव है। ज्यादा से ज्यादा इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ताकि सामाजिक स्वास्थ्य के लिए खतरा न पैदा करे। इस प्रणाली के तहत वेश्यावृत्ति अपराध नहीं। वह अपराध तब है जब उसे देह व्यापार का रूप दिया जाए और उसमें दलाल जैसे अन्य लोग भी शामिल हों। इस प्रणाली में भी वेश्या को दंडित करने की व्यवस्था नहीं है लेकिन अलग-अलग देशों ने और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इस बहाने वेश्याओं को दंडित करने का कानून बना दिया। लेकिन किसी भी देश ने ग्राहक को दंड देने का कानून नहीं बनाया क्योंकि जब वेश्यावृत्ति अपराध नहीं तो दण्ड काहे का।
समझौते के सात साल बाद भारत में नेहरूजी के जमाने में महिला और बालिका अनैतिक देह व्यापार दमन एक्ट (सीता) 1956 बनाया गया। इसमें कई कमियां दिखी तो 1987 में एक्ट को संशोधन कर इसे अनैतिक देह व्यापार नियंत्रण एक्ट (टीपा) का नाम दिया गया। यह कानून भी जिस्मफरोशी पर सीधे रोक नहीं लगाता। ये कानून औरतों व लड़कियों की खरीद फरोख्त करने वालों और दलालों को अपराधी मानता है।
अब देखिए कितनी विचित्र स्थिति है। जिस्मफरोशी अपराध नहीं क्योंकि भारत का कानून व्यस्क स्त्री-पुरुष को सहमति से यौन संबंध बनाने की इजाजत देता है। शर्त यह है कि यह संबंध सार्वजनिक तौर पर न बनाए जा रहे हों। फिर भी पुलिस वसूली के लिए वेश्याओं और ग्राहकों को परेशान करती है। इस एक्ट की धारा 3 कहती है कि किसी सार्वजनिक स्थल पर वेश्यालय नहीं चलाया जा सकता फिर भी मीरगंज में ये धंधा सार्वजनिक तौर पर खुलेआम चल रहा है। उसके दस कदम पर बादशाही मंडी पुलिस चौकी है। कानून का ऐसा मजाक दुनिया के किसी और कोने में शायद ही उड़ता हो। जाहिर है इलाहाबाद पुलिस और प्रशासन ने पीढ़ियों से इस धंधे को अघोषित रूप से कानूनी मान्यता दे रखी है। मेरी इस बात पर डीएम राजशेखर ने सख्त ऐतराज किया और कहा कि कोई शिकायत तो करें। ठीक है कोई शिकायत नहीं करता। या शिकायत करता भी है तो उसे फाइलों के कूड़ेदान में डाल दिया जाता है। मीरगंज मोहल्ले में कई घर ऐसे हैं जहां तख्ती टंगी है कि ‘ये फैमिली क्वार्टर है। ऊपर चढ़ना मना है।’ आप ये मनोस्थिति समझ सकते हंै जब किसी को अपने घर में तख्ती लगानी पड़ती है कि ‘ये चकलाघर नहीं है कृपया अंदर न आएं।’
क्या ऐसे में प्रशासन की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है? प्रशासन को शायद परवाह नहीं कि मीरगंज में एशिया में सबसे बड़ा ‘ओपन एचआईवी डिस्टीब्यूशन सेंटर’ चल रहा है। इन लड़कियों की न कोई मेडिकल जाँच होती है न मानीटरिंग। यहां की कितनी ही लड़कियां एचआईवी और दूसरे यौन संक्रमण रोगों से ग्रस्त हैं और अपने ग्राहकों को एड्स बांट रही हैं।
एनजीओ के दबाव में प्रशासन कभी-कभी अभियान चला कर इन मजबूर लड़कियों को वेश्यालयों से छुड़ाता है और उन्हें सरकारी सुरक्षा गृहों में भेज देता है जिसे नारी निकेतन का नाम दिया गया है। लेकिन सच तो यह है कि उन्हें इन नारी निकेतनों में भी न सिर्फ अपमानित किया जाता है बल्कि जरूरी सुविधाओं से महरूम रखा जाता है।
समाज इन्हें स्वीकार नहीं करता और सरकार के पास इनके पुनर्वासन की कोई योजना नहीं। आखिर में थक हार कर डाल का पक्षी वापस अपनी डाल पर आ जाता है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। अब सवाल है दुनिया के सबसे प्राचीन धंधे के चक्रव्यूह में फंसी इन बेचारी बेकसूर लड़कियों का क्या किया जाए? क्या आप कोई रास्ता बता सकते हैं?