दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, September 16, 2013

मीरगंज की इन तवायफों का क्या किया जाए?



देश के जिन जवानों को तिब्बत की सीमा पर शहीद होना चाहिए था उनका खून मीरगंज की बदनाम गलियों में बेवजह बह गया। यह झगड़ा न किसी तवायफ के साथ पैसे के लेनदेन से जुड़ा था न किसी एकतरफा इश्क से। यह एक दलाल टाइप के आशिक का क्षणिक आक्रोश था जिसे कुछ महीने पहले ही जिला प्रशासन ने बड़े सम्मान से राइफल का लाइसेंस दिया था। वह मुस्कान नाम की एक तवायफ का दलाल था और उसी के सामने जवानों ने उसे गिरा कर पीट दिया था। सो उसने राइफल से गोली दाग कर सरकारी लाइसेंस का हक अदा कर दिया। एक मायने में ये एक ऑनर किलिंग का केस था बस। दो दिन हल्ला मचा फिर सब शांत। मीरगंज फिर गुलजार है।
इसमें जवानों पर कोई बहुत ज्यादा हिकारत भरी नजर से नहीं देखा जा सकता क्योंकि अंग्रेजों ने मीरगंज का ये इलाका उन अंग्रेज फौजियों की यौन इच्छाओं की तृप्ति के लिए ही बसाया था जो लंदन से दूर हिन्दुस्तानियों पर हुकूमत कर रहे थे। अंग्रेजी फौज को गए जमाने बीत गए लेकिन मीरगंज के इस इलाके में आज भी ये धंधा बदस्तूर जारी है। आखिर क्यों? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? पुलिस, प्रशासन, देश का कानून या फिर खुद हम?
इसकी पड़ताल बहुत जरूरी है। इलाहाबाद में सबको पता है कि मीरगंज के इसी इलाके में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ था। यह इलाका तब भी इतना ही बदनाम था। मोतीलाल नेहरू की वकालत जब चल निकली तो उनका परिवार चमक दमक वाले सिविल लाइन्स के 9 एलिगन रोड के एक किराए के बंगले में आकर बस गया था। इसके बाद नेहरू परिवार आनंद भवन चला गया। नेहरू परिवार ने तरक्की की लेकिन मीरगंज के सभी लोग इतने किस्मत वाले नहीं थे। वह इलाका आज भी उतना ही बदनाम और दयनीय है जितना तब था।
शरीफ लोग मीरगंज की उन गलियों की तरफ नहीं जाते। इसलिए अगर आप ये समझते हैं कि मीरगंज बहुत मौज मस्ती और ग्लैमर से भरपूर कोई तड़क भड़क वाली जगह है तो आप बिलकुल गलत हैं। इन गलियों में परचून और चांदी गलाने की छोटी-छोटी अंधेरी दुकानों के बीच मकानों की सीढ़ियों पर आपको पाउडर और लिपिस्टक से रंगे हुए बेनूर और मुरझाए हुए चेहरे दिखेंगे जिनकी आंखों में उदासी और छटपटाहट के सिवा कुछ नहीं। छोटी बच्चियां जिनकी उम्र फ्रॉक पहन कर स्कूल जाने की है वह आपको यहां बेहद भदेस ढंग से जिस्म की नुमाइश करती मिलेंगी। पहली नजर में आपको पता लग जाएगा कि इन नाबालिग जिस्मों को जानवरों को दिए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन देकर खास इसी देह व्यापार के मकसद से तैयार किया गया है। यकीन जानिए इनमें कोई भी लड़की अपनी मर्जी या खुशी से इस धंधे में नहीं आई। इनमें ज्यादातर लड़कियां बलात्कार की शिकार हुईं या घर से भाग कर यहां आईं। या अपने ही परिवार के किसी सदस्य या दलालों द्वारा इस मंडी में बेच दी गईं। या फिर घर में गरीबी से तंग आकर यहां फंस गईं।



 दुनिया में जिस्मफरोशी को लेकर तीन तरह की व्यवस्थाएं हैं। पहली, जो जिस्मफरोशी को खतरनाक मानती है और इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। इसे मानने वाले अमेरिका के अधिकांश राज्य और तकरीबन सारे मुस्लिम देश हैं जिनके यहां किसी भी तरह की जिस्म फरोशी कानूनन जुर्म है। इन देशों में वेश्या, ग्राहक और दलाल सबके लिए दंड की व्यवस्था है। बावजूद इसके इनमें से हर देश में जिस्मफरोशी का धंधा अवैध रूप से चल रहा है।
दूसरी व्यवस्था में जर्मनी, वियना, स्विट्जरलैंड जैसे देश हैं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दे दी है। इन देशों की मान्यता है कि वेश्याएं समाज में ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम करती हैं। ये शरीफ औरतों को मर्दो के यौन आक्रमण से बचाती हैं। इस व्यवस्था में इन वेश्याओं के लिए शहर के खास इलाके चिन्हित किए जाते हैं। उन्हें वहीं रखा जाता है। उनकी नियमित मेडिकल जांच होती है और वे सरकार को बाकायदा अपनी कमाई से टैक्स देती हैं। ब्रिटेन और भारत में पहले यही व्यवस्था थी। दिल्ली में जीबी रोड, मेरठ में कबाड़ी बाजार और इलाहाबाद में मीरगंज जैसे इलाके तभी बसे थे। तब हर शहर में इस तरह के ‘रेड लाइट’ इलाके होते थे।
तीसरी व्यवस्था ‘सहनशील व्यवस्था’ के नाम से प्रचलित हुई। 1949 के देह व्यापार और वेश्या शोषण के दमन संबंधी संयुक्त राष्ट्र संघ के समझौते पर कई देशों ने दस्तखत किए। इनमें ब्रिटेन, फ्रांस और हमारा महान भारत भी शामिल था। इस प्रणाली की मान्यता है कि जिस्म फरोशी का धंधा उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। ये सामाजिक बुराई है लेकिन इसे खत्म करना असंभव है। ज्यादा से ज्यादा इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ताकि सामाजिक स्वास्थ्य के लिए खतरा न पैदा करे। इस प्रणाली के तहत वेश्यावृत्ति अपराध नहीं। वह अपराध तब है जब उसे देह व्यापार का रूप दिया जाए और उसमें दलाल जैसे अन्य लोग भी शामिल हों। इस प्रणाली में भी वेश्या को दंडित करने की व्यवस्था नहीं है लेकिन अलग-अलग देशों ने और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इस बहाने वेश्याओं को दंडित करने का कानून बना दिया। लेकिन किसी भी देश ने ग्राहक को दंड देने का कानून नहीं बनाया क्योंकि जब वेश्यावृत्ति अपराध नहीं तो दण्ड काहे का।
समझौते के सात साल बाद भारत में नेहरूजी के जमाने में महिला और बालिका अनैतिक देह व्यापार दमन एक्ट (सीता) 1956 बनाया गया। इसमें कई कमियां दिखी तो 1987 में एक्ट को संशोधन कर इसे अनैतिक देह व्यापार नियंत्रण एक्ट (टीपा) का नाम दिया गया। यह कानून भी जिस्मफरोशी पर सीधे रोक नहीं लगाता। ये कानून औरतों व लड़कियों की खरीद फरोख्त करने वालों और दलालों को अपराधी मानता है।
अब देखिए कितनी विचित्र स्थिति है। जिस्मफरोशी अपराध नहीं क्योंकि भारत का कानून व्यस्क स्त्री-पुरुष को सहमति से यौन संबंध बनाने की इजाजत देता है। शर्त यह है कि यह संबंध सार्वजनिक तौर पर न बनाए जा रहे हों। फिर भी पुलिस वसूली के लिए वेश्याओं और ग्राहकों को परेशान करती है। इस एक्ट की धारा 3 कहती है कि किसी सार्वजनिक स्थल पर वेश्यालय नहीं चलाया जा सकता फिर भी मीरगंज में ये धंधा सार्वजनिक तौर पर खुलेआम चल रहा है। उसके दस कदम पर बादशाही मंडी पुलिस चौकी है। कानून का ऐसा मजाक दुनिया के किसी और कोने में शायद ही उड़ता हो। जाहिर है इलाहाबाद पुलिस और प्रशासन ने पीढ़ियों से इस धंधे को अघोषित रूप से कानूनी मान्यता दे रखी है। मेरी इस बात पर डीएम राजशेखर ने सख्त ऐतराज किया और कहा कि कोई शिकायत तो करें। ठीक है कोई शिकायत नहीं करता। या शिकायत करता भी है तो उसे फाइलों के कूड़ेदान में डाल दिया जाता है। मीरगंज मोहल्ले में कई घर ऐसे हैं जहां तख्ती टंगी है कि ‘ये फैमिली क्वार्टर है। ऊपर चढ़ना मना है।’ आप ये मनोस्थिति समझ सकते हंै जब किसी को अपने घर में तख्ती लगानी पड़ती है कि ‘ये चकलाघर नहीं है कृपया अंदर न आएं।’
क्या ऐसे में प्रशासन की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है? प्रशासन को शायद परवाह नहीं कि मीरगंज में एशिया में सबसे बड़ा ‘ओपन एचआईवी डिस्टीब्यूशन सेंटर’ चल रहा है। इन लड़कियों की न कोई मेडिकल जाँच होती है न मानीटरिंग। यहां की कितनी ही लड़कियां एचआईवी और दूसरे यौन संक्रमण रोगों से ग्रस्त हैं और अपने ग्राहकों को एड्स बांट रही हैं।
एनजीओ के दबाव में प्रशासन कभी-कभी अभियान चला कर इन मजबूर लड़कियों को वेश्यालयों से छुड़ाता है और उन्हें सरकारी सुरक्षा गृहों में भेज देता है जिसे नारी निकेतन का नाम दिया गया है। लेकिन सच तो यह है कि उन्हें इन नारी निकेतनों में भी न सिर्फ अपमानित किया जाता है बल्कि जरूरी सुविधाओं से महरूम रखा जाता है।
समाज इन्हें स्वीकार नहीं करता और सरकार के पास इनके पुनर्वासन की कोई योजना नहीं। आखिर में थक हार कर डाल का पक्षी वापस अपनी डाल पर आ जाता है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। अब सवाल है दुनिया के सबसे प्राचीन धंधे के चक्रव्यूह में फंसी इन बेचारी बेकसूर लड़कियों का क्या किया जाए? क्या आप कोई रास्ता बता सकते हैं?

Friday, September 13, 2013

अपनी बात




मां सावित्री शुक्ला

और पिता

पं. श्री सीताराम शुक्ल

के चरणों में

सादर समर्पित

जिनका कहना है कि

गांधी को समझने के लिए

तुम्हें कई और जन्म लेने होंगे


आभार

इतिहास से गुजरना एक अंधे युग से गुजरने जैसा है। एक सीमा पर आकरनो - इंट्रीकी तख्ती लग जाती है कि आप उपलब्ध साक्ष्यों के आगे नहीं बढ़ सकते। मैं शुक्रगुजार हूं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन प्रकाशित महात्मा गांधी संपूर्ण वाङ्मयके उन अज्ञात शोधार्थियों का जिन्होंने रात - दिन मेहनत करके महात्मा गांधी द्वारा लिखित सामग्री दुनिया के हर कोने से एकत्र की। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार का भी आभारी हूं जिसने अतीत को जिंदा रखने के लिए तमाम दुर्लभ पत्र और अन्य दस्तावेज संजोकर रखे हैं।

इस किताब को लिखते वक्त महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य व्रत को लेकर मेरी सर्वश्री नवीन जोशी, एम.एम. बहुगुणा, बृजेश शुक्ल, उमेश रघुवंशी, मंजरी मिश्र, हेमंत शर्मा, तारा पाण्डे, राकेश मंजुल, शैली, .एस.पांडेय, शशांक तिवारी और ऋतिका आदि से लंबी - लंबी बहसें हुईं। कई बार तो झगड़े तक हुए। इन बहसों और आलोचनाओं ने प्रेरणा और प्रोत्साहन का काम किया। प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश, प्रभाष जोशी, ज्ञानरंजन, विष्णु नागर, डॉ. जय नारायण बुधवार, आदि लेखक - संपादकों ने समय - समय पर मार्ग दर्शन किया। लेखक - पत्रकार दयानंद पांडेय और अयोध्या के युवा कवि यतींद्र मिश्र का विशेष रूप से आभारी हूं, जिन्होंने इस कार्य को अंतिम रूप देने में मेरी मदद की। मैं लखनऊ के गांधी भवन पुस्तकालय के लाइब्रेरियन सुशील चंद्र गुप्त का भी आभारी हूं जिन्होंने इसयज्ञके लिए सामग्री जुटाने में हर संभव मदद की।

मैं अपनी पत्नी ज्योति और बेटी अरुंधती का भी आभारी हूं जिनके हिस्से का काफी वक्त मैंने इस किताब को दिया। मेरे शुभचिंतक जगदीश यानी काकाजी छोटा भाई सचिन, उसकी पत्नी तूलिका और बिटिया आनंदिनी अगर पीछे नहीं पड़ते तो यह किताब दो - तीन साल और आगे खिंच जाती।

- दयाशंकर शुक्ल सागर

अपनी बात

सत्य के मुखमंडल पर

एक स्वर्णावरण चढ़ा हुआ,

प्रभु! इस आवरण को

हटाओ

ताकि मैं यथार्थ में

सत्य के दर्शन कर सकूं।

- ईशावास्य उपनिषद् से
महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु से ठीक एक साल पहले कहा था किमैं शारीरिक इच्छा से मुक्त हूं या नहीं, इस बात का पता शायद मेरी मृत्यु के बाद लगे।लेकिन दुर्भाग्य है कि गांधीजी की मौत के बाद बुद्धिजीवियों ने इस प्रश्न पर चालाकी से चुप्पी साध ली। उन्हें डर था कि यह प्रश्न अगर उठाया गया तो गांधीजी की महान तसवीर खंडित होगी। गांधीवाद के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकना और दुकान चलाना कठिन हो जाएगा। इसलिए इसमहान प्रयोगसे जुड़े तमाम सारे सवाल खामोशी से दफन कर दिए गए। सत्य और अहिंसा के अलावा महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य पर कीमती प्रयोग किए। महात्मा के सत्य और अहिंसा से जुड़े प्रयोगों पर बहुत काम हुआ लेकिन ब्रह्मचर्य के प्रयोग को इतिहास की रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।

चीन के बौद्धिक जगत में एक कहावत मशहूर है - हर महापुरुष एक सामाजिक संकट है।महात्मा गांधी के बारे में भी यह बात बहुत दिनों तक कही जाती रही। लेकिन हत्यारे नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में तीन गोलियां उतार कर महात्मा गांधी के जीवन और उनके विचारों पर चलने वाली तमाम बहसों को हमेशा के लिए शांत कर दिया। महात्मा गांधी अगर अपनी स्वाभाविक मौत मरते तो निःसंदेह उनके विचारों, आदर्शों और उनके प्रयोगों पर आलोचनात्मक ढंग से टीकाएं सामने आतीं। तब हम अपने महात्मा को शायद संपूर्णता से समझ पाते और उनके बारे में अपनी कोई राय कायम करते। लेकिन भारत का धर्मभीरु समाज मृतकों को उनके सारे गुनाहों के लिए केवल माफ कर देता है बल्कि उन पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझता।

गांधीजी पर बहुत लिखा गया और थोड़ा - बहुत उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर भी। इस संदर्भ में मैंने जितने लेख, किताबें और टिप्पणियां आदि पढ़ीं उनमें इस प्रयोग का जिक्र टुकड़ों में पाया। सब कुछ बहुत दबे - ढके शब्दों में था ताकि गांधीजी कामहात्मापनकहीं आहत हो। सच तो यह है कि इन आधी - अधूरी जानकारियों ने ही गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के बारे में गलतफहमी का माहौल पैदा किया।

ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर पश्चिम के विद्वानों ने काफी काम किया। आर्थर कोएलस्कर ने 1960 मेंदॅ लोटस एंड दॅ रैबिटलिखी। एरिक एच एरिक्सन ने 1969 मेंगांधी ट्रूथ : आन ओरिजिन्स आफ मिलीटेंट नान - वायलेंसलिखी। वेद मेहता ने 1976 मेंमहात्मा गांधी एंड हिज अपोसेल्सनाम से एक बेहतरीन किताब लिखी। लेकिन अंग्रेजी में लिखी ये किताबें आम हिन्दी पाठकों की समझ और पहुंच से बहुत दूर थीं। पर इन किताबों और लेखों ने यह प्रेरणा जरूर दी कि इस गंभीर विषय पर एक लंबे और सार्थक काम की जरूरत है।

महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर काम करते वक्त कई मित्रों ने पूछा कि मैं कीचड़ में कंकड़ डालने का काम क्यों कर रहा हूं? जाहिर था कि वे लोग मेरे इस काम से प्रसन्न नहीं थे। मजे की बात यह थी कि इनमें से अधिकांश लोग गांधीजी के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। उन लोगों ने कभी गांधीजी के बारे में पाठ्य पुस्तकों में दर्ज बातों के अलावा कुछ आगे पढ़ने की जहमत की थी। लेकिन फिर भी वह गांधीजी के खिलाफ कुछ भी पढ़ने - सुनने को राजी नहीं थे।

कुछ मित्रों का कहना था कि हिन्दी में यह किताब महात्मा की छवि ध्वस्त करेगी। राष्ट्रपिता के बारे में ऐसी बातों से कितनों की भावनाएं और आस्थाएं आहत होंगी। एक आदमी जो इस दुनिया में जीवित नहीं है उसके बारे में लिखने का क्या मतलब? मुझे यह तर्क बेमानी लगा। इस देश में गांधीजी की छवि इतनी कमजोर नहीं जो एक मामूली - से धक्के से टूट कर बिखर जाए। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर यह बहस उस समय भी हुई थी जब खुद महात्मा जिंदा थे। उन्होंने अपने ऊपर लगे एक - एक आरोप का जवाब दिया। ये जवाब बाकायदा लिखत - पढ़त में आज भी मौजूद और सार्वजनिक हैं। यह अलग बात है कि ये जवाब कई दफा बहुत ज्यादा संतोषजनक और तर्कसंगत नहीं दिखते। लेकिन अगर पाठकों को उन जवाबों से संतुष्टि मिल जाती है तो यह गांधीजी और उनके प्रयोग की सफलता कही जा सकती है या फिर गांधीजी के प्रति उनकी कोरी आस्था। इस विषय में अंतिम फैसला मैंने पाठकों पर ही छोड़ दिया है।

इतिहास का पुनर्लेखन या कहें पुनर्पाठ एक खतरे से भरा खेल है। वक्त के साथ घटनाओं के संदर्भ और अर्थ बदल जाते हैं। समय उन ऐतिहासिक घटनाओं को समझने का नजरिया बदल देता है। एड्स के इस खतरनाक युग में ब्रह्मचर्य की अपनी महत्ता और जरूरत है। गांधीजी के युग में ब्रह्मचर्य चाहे इतनी बड़ी समस्या रही हो लेकिन आज के युग में ब्रह्मचर्य केवल प्रासंगिक है बल्कि यह प्रश्न अनिवार्य भी होता जा रहा है। अब समय गया है जब हम ब्रह्मचर्य पर नए और आधुनिक ढंग से सोचें और उसे पुनर्परिभाषित करें। और इसकी शुरुआत अगर महानायक महात्मा गांधी से हो तो क्या बुरा है।

डीजी तेंदुलकर की महान ग्रंथ शृंखलामहात्माकी भूमिका लिखते वक्त जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - महात्मा गांधी के जीवन की असली कहानी वही लिख सकता है जो उनके जैसा महान हो।लेकिन मुझे लगता है कि अब वक्त गया है जब हम नए नजरिए से अपने महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखें। और ऐसा करते वक्त हम किसी शल्य चिकित्सक की तरह तटस्थ हों। तब मन में उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा -भक्ति हो, घृणा या तिरस्कार का कोई भाव। एक तरह की अनासक्ति हो। यह जोखिम भरा काम है। पर ये जोखिम उठाने होंगे।

महात्मा के ब्रह्मचर्य का प्रयोग उनके जीवन के अंतिम समय तक चलता रहा। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इससे पहले महात्मा यह कभी नहीं बता पाए कि उनके ब्रह्मचर्य के महान प्रयोग का क्या नतीजा निकला। वह इस अद्भुत प्रयोग के नतीजे दुनिया को नहीं दे पाए। महात्मा नहीं बता सके कि वह युवा लड़कियों के साथ नग्न सो कर पूर्ण ब्रह्मचर्य प्राप्त कर सके अथवा नहीं। उनके प्रयोग का रहस्य उनकी राख के साथ ही गंगा की पवित्र धारा में बह गया। लेकिन इस प्रयोग से जुड़े कई सवाल वह पीछे छोड़ गए। जिनके जवाब खोजने का साहस पुरानी पीढ़ी तो नहीं जुटा सकी, शायद नई पीढ़ी खोज ले।

2अक्टूबर 2006