दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, October 29, 2013

देखो ये चिता कितना धुंआ छोड़ती है




दिल्ली के लोधी रोड के उस आर्य समाजी श्मशान घाट पर मुझे घाट कहीं नहीं दिखा। राजेन्द्र यादव की जलती हुई चिता दिखी और लकड़ियों के तेज आग के बीच से खूब सारा धुंआ दिखा। उस धुंए में कई सारे उदास चेहरे दिखे। इन चेहरों में एक चेहरा मन्नु भण्डारी का था। एक शांत और भाव शून्य चेहरा। दाम्पत्य जीवन में बड़े बड़े संकट आसानी से कट जाते हैं लेकिन इस रिश्ते में पति और पत्नी के बीच एक अघोषित युद्ध हमेशा चलता रहता है। और ये युद्ध अक्सर श्मशान घाट या किसी कबि्रस्तान में उस वक्त खत्म होता है जब दोनों में से कोई एक नहीं रहता।
राजेन्द्र यादव की मौत मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। वह परसों तक हंस के दफ्तर में काम कर रहे थे। कल रात जिस वक्त उनकी तबियत बिगड़ी उनके घर पर कोई नहीं था। नौकर कालोनी के सिक्यो्रटी गार्ड को लेकर उन्हें अस्पताल ले गया। लेकिन रास्ते में हंस उड़ गया। डाक्टर ने सिर्फ घोषणा की कि राजेन्द्र जी नहीं रहे।
मयूर विहार के आकाश दर्शन अपार्टमेंट के उस कोने में सारा आकाश आकर सिमट गया था। राजेन्द्र जी के घर के ठीक सामने कोने में बच्चों का एक छोटा सा पार्क है। उस पार्क के सारे झूले आज वीरान पडे हैं। राजेन्द्र जी की देह को अंतिम दर्शन के लिए बाहर ही रखा गया है। देह के करीब ही कुर्सी पर मन्नु बैठी हैं। उनकी सफेद साड़ी पर मु्रझाए फूल के रंगीन प्रिंट टके हैं। घर पर ज्यादा भीड़ नहीं है। हंस से जुड़े रहे संजीव अपना गांधी झोला टांगे सामने ही खड़े हैं। बेटी रचना, दामाद, मैत्रेयी पुष्पा, निर्मला जैन, सुनील, विवेक मिश्र,अजय नावरिया, बाराबंकी के सत्यवान कुछ और करीबी लोग। सब अंतिम तैयारियों में जुटे हैं। मैं वहीं किनारे खड़ा हो गया हूं। टीवी चैनल और प्रेस के फोटोग्राफर खामोशी के साथ अलग अलग कोण से फूलों से सजी अर्थी की तस्वीरें खींच रहे हैं। सोच रहा हूं पत्रकारिता भी कितना संवेदनहीन और नामुराद धंधा है। दुख के पलों में भी ये कम्बखत अपनी तस्वीर को खूबसूरत बनाने में जान लगा देते हैं।

लेकिन मन्नु भण्डारी किसी और उधेड़बुन में हैं। वे कितने सालों से अलग हैं एक दूसरे से। बिना तलाक लिए दोनों दाम्पत्य का निर्वासित जीवन जी रहे थे। सार्वजनिक जीवन में वे एक अर्से से आमने सामने आना नहीं चाहते थे। पर अब आमने सामने आना पड़ा। राजेन्द्र यादव का चेहरा अर्थी पर चढ़े ढेर सारे फूलों के बीच छुपा है। बरबस मुझे यानिस की एक कविता याद आ जाती है- मैं मामूली चीजों के पीछे छुपता हूं। ताकि तुम मुझे पा सको। तुम मुझे नहीं पाओगी। तो उन चीजों को पाओगी। तुम उसे छुओगी जिसे मेरे हाथों ने छुआ है और हमारे हाथों की छाप आपस में मिल जाएगी।

लोदी रोड के उस श्मशान घाट पर लेखक, साहित्यकारों पत्रकारों का मेला जुटा है। नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, विश्वनाथ तिवारी, संगम पांडे, डीपी तिवारी, अशोक चक्रधर, ओम थानवी, दिबांग, प्रसून वाजपेयी और भी न जाने कौन कौन। मन्नु भण्डारी यहां भी आईं और एक बेंच पर बैठ गईं हैं। मैंने देखा राजेन्द्र यादव जीवन भर कर्मकाण्डों का विरोध करते रहे। लेकिन उनके अंतिम संस्कार में सारे वैदिक कर्मकाण्ड हुए। राम नाम सत्य है के उदघोष के साथ घर से अर्थी उठी और श्मशान में पंड़ित जी ने गायत्री मंत्र का पाठ किया। सोच रहा हूं मौत इंसान को कितना असहाय और निरीह बना देती है। मैंने करीब खड़े ओम थानवी जी से भी यही कहा। वे बोले ये मौत का सच है। क्रूर सच। मेरे बगल में बैठे नामवर सिंह एनडीटीवी के एक रिपोटर से बात कर रहे थे। उनसे कह रहे थे-बड़े लोगों की मौत के बाद अक्सर ये कहा जाता है कि है इनकी जगह कोई और नहीं भर पाएगा। राजेन्द्र यादव के बारे में यह कहावत एक दम सच है। अब कोई दूसरा राजेन्द्र यादव नहीं होगा।

कमलेश्वर की तरह राजेन्द्र यादव की चिता को मुखागि्न उनकी बेटी रचना ने दी। उनकी चिता में एक लकड़ी मैंने भी सजा दी। यही मेरी श्रद्धाजलि है। अपने युग के एक महान लेखक और संपादक के लिए मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाया। देखते-देखते चिता की धूं धूं करके चलने लगी। लकड़ियां सूखी थीं फिर भी गहरा घुंआ था। लखनऊ में लिए एक इंटरव्यू में मैंने उनसे उनके दुख के बारे में पूछा था। तो उन्होंने हंसते हुए एक शेर सुनाया था-जब्ते गम क्या है तुझे कैसे समझाऊं। देखना मेरी चिता कितना धुंआ छोड़ती है। राजेन्द्र जी को मैंने हमेशा हंसते देखा। क्या उनके सीने में सचमुच इतना गम था। जलती हुई अर्थी से निकलता धुंए का गुबार तो यही कहता है।







Sunday, October 27, 2013

अलविदा इलाहाबाद



‘न दोस्त है न रकीब है तेरा शहर कितना अजीब है।’ कुछ इसी अंदाज से तीन साल पहले इलाहाबाद आना हुआ था। सब कुछ रुका-रुका-सा थमा-थमा-सा। जैसे जिंदगी ठहर गई हो। पहली नजर में यह शहर सोया-सोया, उनींदा-सा लगा था। हमारे अखबार ने ‘आओ संवारे इलाहाबाद’ की मुहिम शुरू की। शुरुआत सिविल लाइन्स के एमजी रोड से करनी थी। सवाल था लखनऊ का हजरतगंज संवर सकता है तो इलाहाबाद का सिविल लाइन्स क्यों नहीं? हमने शहर के जिम्मेदार लोगों को दफ्तर में बुला उन्हें कमिश्नर से लेकर डीएम तक से रूबरू कराया। सब उत्साहित थे। हमने यहां के अर्किटेक्ट और इंजीनियरों की एक टीम बनाई जिसे संवरे हुए सिविल लाइन्स का ब्लू प्रिंट तैयार करना था। इसके लिए वे स्वेच्छा से सामने आए थे। लेकिन मैं इस टीम के हर सदस्य को फोन करते-करते थक गया। पर मुझे आज तक उनसे ब्लू प्रिंट नहीं मिला। सब शहर की चिन्ता छोड़ अपने अपने काम में मशगूल हो गए। हमें लगा कि हम अकेले पड़ गए। लेकिन हिम्मत नहीं हारी। कलम की मुहिम जारी रही। और एक दिन एडीए ने वह ब्लू प्रिंट और सिविल लाइन्स के सुंदरीकरण का इस्टीमेट प्लान हमारे हाथ पर रख दिया। प्रस्ताव अब शासन के पास फण्ड के लिए रुका हुआ है। मैंने सीएम अखिलेश यादव से बात करनी चाही लेकिने उनके चेलों ने इस बारे में कोई मदद करने से इंकार कर दिया।
लेकिन मैं जानता हूं आज नहीं तो कल ये फण्ड मंजूर भी हो जाएगा। इलाहाबाद के नौजवान डीएम राजशेखर खुद इस काम में लगे हैं। लेकिन उनकी भी समीमाएं हैं। नगर विकास के प्रमुख सचिव कुंभ के लिए जो पैसा दिल्ली से आया वो इलाहाबाद पर खर्च नहीं करना चाहते। इलाहाबाद के विकास प्राधिकरण ने अपना फण्ड कुंभ पर खर्च कर दिया। अब राज्य सरकार वो पैसा वापस करने को तैयार नहीं। गजब नौटंकी चल रही है। खैर असल सवाल है कि इलाहाबाद के जिम्मेदार लोगों के पास अपने शहर के लिए वक्त क्यों नहीं है? या वह नींद से जागने को राजी नहीं हैं? जब मेरे एक मित्र विपिन गुप्ता ने इस शहर को ‘स्लीपिंग सिटी’ का फतवा दे दिया तोे मुझे यकीन करना पड़ा कि ये वाकई एक सोया हुआ शहर है। इसका कुछ नहीं हो सकता।
लेकिन मेरी यह धारणा बहुत जल्द धराशायी हो गई। आप किसी शहर को तब तक पूरी तरह नहीं समझ सकते जब तक आप खुद उसका हिस्सा नहीं बन जाते। शहर की धड़कन को एक टूरिस्ट की नजर से नहीं पकड़ा जा सकता। त्योहारों के मौसम में मैंने अपने दोस्तों के साथ इस शहर को बहुत करीब से जिया। पथरचट्टी की रामलीला में मैंने आसमान से ठीक नीचे बने कृत्रिम हिमालय की श्रृंखलाओं के बीच शिव द्वारा पार्वती को रामकथा सुनाते साक्षात देखा। देखा दशहरे में पूरा शहर कैसे रामदल की यात्राओं को उत्सव बना देता है। कैसे नवरात्र में गली-गली भव्य दुर्गा प्रतिमाएं सज जाती हैं। कैसे हाईकोर्ट की छूट के बावजूद श्रद्धालु अपनी देवी प्रतिमाओं को नदियों के बजाए झील और तालाबों में विसर्जित करने की होड़ करने लगते हैं ताकि हमारी गंगा-यमुना मैली न हो।
मैंने देखा कैसे मोहर्रम में शिया हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में दर्दनाक आवाज में मर्सिया पढ़ते-पढ़ते छुरीदार हंटर से खुद को लहुलुहान कर लेते हैं। चौक के रानीमंडी जैसे पुराने इलाके में ऐसा जूनन भरा माहौल होता है कि किसी अजनबी का दहशत से गला खुश्क हो जाए। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब का गजब संगम यहां सड़कों पर दिखा। दिसम्बर के जाड़ों में शहर के चर्च ऐसे सज जाते हैं मानो ईसा मसीह यहीं इलाहाबाद में ही पुनर्जन्म लेने वाले हों। मैंने देखा कुंभ में कैसे करोड़ों श्रद्धालु संगम में डुबकी लगा कर वापस लौट जाते हैं और शहर के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं होती। इको-स्पोट्र्स के जमाने में यहां गहरेबाजी के दौरान घोड़ों की रेस आज भी होती है, सड़क पर कबूतर लड़ाते और उड़ाते लोगों की भीड़ देखी। हाईकोर्ट में महत्वपूर्ण फैसले देने के बाद इलाहाबादी मूल के जजों को लोकनाथ में कचौड़ी की दुकान पर बड़ी सादगी से कहते सुना-‘का यार कुछ खिलौबो-पिलौबो नाही।’
कभी आरक्षण के पक्ष और विरोध में यहां कई-कई दिन तक शहर ठप हो जाता है लेकिन जल्द ही सलोरी-अल्लापुर इलाके में ठाकुर और यादवजी अपने नोट्स के संग गलबहियां डाले घूमते दिखते हैं। तो कभी जरा-सी बात पर काले कोट वाले पढ़े लिखे वकील, नादान छात्रों की तरह उपद्रवी बन शहर को सिर पर खड़ा कर लेते हैं। चोर यहां पूरा का पूरा एटीएम उखाड़ कर गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं और पुलिस दारू पीकर नाले में लोटपोट करती रहती है। कभी छेड़छाड़ से त्रस्त कोई लड़की लफंगे की बाइक में पेट्रोल छिड़क कर सरेआम आग लगा कर दुर्गा बन जाती है तो कभी इश्क में बेतरह डूबे लड़के यमुना के नए बने पुल से कूद कर बेवजह जान दे देते हैं। ‘गुनाहों के देवता’ यहां आज भी भटकते हैं।
अब ये गजब का शहर छोड़ रहा हूं। मैं समझ सकता हूं कि हरिवंश राय बच्चन से लेकर रवीन्द्र कालिया तक ने ये शहर क्यों छोड़ा। सब कुछ होने के बावजूद इस शहर ने तरक्की के सारे रास्ते बंद कर रखे हैं। लेकिन ये सच है यहां हर किस्सा पल भर में अफसाना बन जाता है और हर अफसाना एक मुकम्मल नॉवल। सब अपनी जिन्दगी में इस कदर मशगूल हैं कि कोई यह मानने को तैयार नहीं कि दुनिया चांद पर पहुंच चुकी है। जिस ‘गॉड पार्टिकल’ पर हिग्स-इंगलर्ट को इस साल नोबल के लिए चुना गया उसे इलाहाबादियों ने संगम की रेती के किनारे न जाने कब का खोज निकाला है। इतनी ठसक और विविधाता से भरा जीवन्त शहर आपको और कहां मिलेगा। क्या बता सकते हैं आप?

Thursday, October 17, 2013

साहित्य के माफिया डॉन के लिए


 मैं राजेन्द्र यादव का न वकील हूं न कोई जज। महामंडलेश्वर भी नहीं जो उन्हें धर्मात्मा की उपाधि दूं। मैंने उनके बारे में अपनी निजी राय और अनुभव फेसबुक पर ‘राजेन्द्र यादव के नाम एक खत’ के रूप में शेयर किए हैं। इस पर कई तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। कि मैं उन्हें क्लीन चिट दे रहा हूं या धर्मात्मा के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा हूं। हो सकता है आप या अन्य महानुभव उससे सहमत न हों। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन आप उनकी तुलना आसाराम जैसे धूर्त आदमी से कतई नहीं कर सकते जो अपने भोले भाले पर बेवकूफ भक्तों की आध्यात्मिक भावनाओं को ठगता है और उनकी बेटियों को अपने आश्रम में बुलाकर तरह तरह की तांत्रिक क्रियाएं करता है। आसाराम की आंखों में मैंने हमेशा एक चालक लोमड़ी वाली चमक देखी है। पर मुझे याद नहीं आता कि ‘बीमार विचारों’ वाले इस साहित्यकार पर कभी किसी हिंसक या वनैले जानवर की तरह किसी महिला पर टूट पड़ने का आरोप लगा हो। साहित्यिक समारोहों की रिपोर्टिंग के दिनों में मैंने उन्हें हमेशा महिला फैन्स और लेखिकाओं के बीच में घिरे हुए देखा है। सिगार का कश लगाते वक्त वह और भी खतरनाक लगने लगते हैं। मैंने यह भी देखा कि उन समारोहों के लंच या डिनर के दौरान अन्य बुजुर्ग-युवा साहित्यकार और कथाकार कैसे जलन भरी नजरों से इस दिलफेक बुड्ढे को देखते थे। उनमें से कइयों की आंखों में मैंने तब भी आसाराम की आंखों वाली चमक देखी थी। मैंने कई बार अपनी अखबारी रिपोर्ट लिखा भी कि काला चश्मा पहने ये आदमी मुझे हमेशा मारियो पूजो के उपन्यास के नायक ‘गॉडफादर’ जैसा डराता है। कुछ कुछ फ्रांसिस फोर्ड की अमेरिकी फिल्म ‘दि गॉडफादर’ के नायक जैसा। हालांकि गॉडफादर ने परिवार की परिकल्पना को एक गजब की ऊंचाई दी। शायद इसलिए अमेरिका ने उसे नायकत्व प्रदान किया। पर इस मामले में राजेन्द्र यादव एकदम उलट हैं। मैंने उन्हें हमेशा साहित्य की दुनिया का माफिया डॉन कहा। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह अपनी शर्तों पर कहानियां छापते हैं। प्रगतिशीलता की उनकी परिभाषा एकदम अलग है। वह मुंशी प्रेमचंद की ‘हंस’ के संपादक हैं लेकिन उनकी ‘हंस’ में प्रेमचंद कहीं नहीं दिखते। ज्यादातर कहानियां अब प्यारेलाल आवारा टाइप लेखक/लेखिकाओं की सस्ती कथाओं जैसी होती हैं। साहित्य की अंधेरी कोठरी की घुटन से मुक्त होकर कई लेखिकाएं ‘ अब हंस’ में सेक्स पर खुल कर लिख पा रही हैं। और राजेन्द्र यादव उन पर निर्मल बाबा की तरह ‘कृपा’ बरसा रहे हैं। युवा लेखकों को ये बात बेशक तकलीफदेह लगती होगी। लेकिन माफिया दूसरों की तकलीफों की परवाह कहां करते हैं। मैं कहानियां न पढ़ता हूं न लिखता हूं। सच तो ये है कि मेरे पास ‘हंस’ पढ़ने का वक्त नहीं है। किसी कहानी की चर्चा हो जाती है तो पुराना अंक निकाल कर वह कहानी पढ़ लेता हूं।
पर इतना जानता हूं कि राजेन्द्र यादव ने किसी न किसी बहाने बाकायदा लिखत पढ़त में अपने कई सारे गुनाह कबूल किए हैं। ये आसान बात नहीं है। गांधी भी ये नहीं कर पाए थे। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ लिखते वक्त वह अपनी कथित ‘आध्यात्मिक पत्नी’ श्रीमती सुशीला देवी का पूरा प्रसंग छुपा ले गए। फिर राजेन्द्र यादव खुदा नहीं हैं और न धर्मात्मा जिनसे हमेशा सच बोलने की उम्मीद की जाए। उन्होंने कभी गांधी की तरह सत्य के प्रयोग का दावा भी नहीं किया। मेरी समझ से ये बिलकुल गैरजरूरी विवाद है जिसे कथित बाप-बेटी के बीच ही महदूद रखा जाना चाहिए। आप उन पर बेशक पत्थर बरसाइए। मैं उनके बारे में अपनी राय तब तक नहीं बदलूंगा जब तक मुझे यकीन नहीं हो जाएगा कि इस बुड्ढे का दिमाग अब सचमुच खराब हो गया है और उन्हें अब किसी दिमागी अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत है।

Tuesday, October 15, 2013

राजेन्द्र यादव के नाम एक खत


 

प्रिय राजेन्द्र जी,
मुझे आप पर पूरा यकीन है। मनु, सुशीला, आभा जैसी लड़कियों से गांधी के अनर्गल संबंधों को लेकर भी कम्बखत लोग इसी तरह से दुष्प्रचार करते रहे हैं। आपसे मेरी जितनी मुलाकातें हुईं हैं उन सब में मुझे आप कभी बनावटी, झूठे और मक्कार नहीं लगे। आपने खुद को गुनाहों का देवता माना। कई साल पहले आप कथाक्रममें हिस्सा लेने लखनऊ आए थे। और मैंने एक अखबार के लिए आपका इंटरव्यू लिया था। जिसमें मैंने आपसे पूछा था कि आपके दोस्त बताते हैं कि आप अपनी फ्रिज में वियाग्रा रखते हैं?’ और तब आपने हंसते हुए कहा था कि-तुम भी यार वियाग्रा भी कोई फ्रिज में रखने की चीज है।तब मुझे अपनी नासमझी पर अफसोस भी हुआ था। फिर आपकी महिला मित्रों को लेकर कुछ सवाल हुए थे। इंटरव्यू हू बहू छपा। आपका तो फोन नहीं आया लेकिन दिल्ली से आपकी उस महिला मित्र और नामचीन बोल्ड लेखिका ने फोन पर मुझसे बड़ी मासूमियत से पूछा था-क्या मैं आपको ऐसी औरत लगती हूं।और सच कहूं तो उस दिन से मंटो की तरह मेरी भी बोल्ड लेखिकाओं के बारे में धारणा बदल गई। लेसबियन औरतों पर लिखी विवादित कहानी लिहाफके बारे में इस्मत चुगताई से मंटो ने एक दफा पूछा था कि-आखिर तूने लिहाफ में झांक कर ऐसा क्या देखा जो तेरी चीख निकल गई?’ इस्मत बेतरह शरमा गई। मंटो ने कहा-कम्बखत आखिर ये भी औरत निकली। 

खैर, पुरानी बातें जाने दीजिए। आप पहले ही बता चुके हैं कि आदमी की निगाह में औरत एक शरीर है, सेक्स है और वहीं से उसकी स्वतंत्रता की चेतना और स्वतंत्र व्यवहार पैदा होते हैं। अब इस सत्य का आपको बखूबी अंदाजा भी हो गया होगा। अनिल यादव भी मेरा दोस्त है और जितना मैं उसे जानता हूं वह लिखने पढ़ने में काफी हद तक ईमानदार है। सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए वह अनर्गल बातें कभी नहीं लिखेगा।
ज्योति कुमारी ने एक बुजुर्ग को मुसीबतों के कटघरे में खड़ा कर रखा है। दोनों तरफ विश्वसनीयता का गजब संकट है। दोनों कसमे खा-खा कर एक दूसरे को बाप-बेटी मान रहे हैं लेकिन कम्बखत दुनिया यह यकीन नहीं कर पा रही। लानत है ऐसी दुनिया पर। मैं ज्योति मोहतरमा को तो नहीं जानता लेकिन आपको बखूबी जानता हूं। और जितना जानता हूं उसकी बिना पर कह सकता हूं कि औरतों की आजादी को लेकर आपमें एक खास तरह का पागलपन की हद तक उत्साह है। ज्योति जैसी लड़कियों को ज्वालाबनाने की जो तरक्कीपसंद मुहिम आपने बा-जरिए हंसछेड़ी थी, अब मान लीजिए उसमे आप खासे कामयाब हो गए हैं। गांधी के प्रयोग तो नाकाम रहे लेकिन आपके क्रान्तिकारी प्रयोग आपके जीते जी सफल हो रहे हैं। बधाई।

खुदा आपको लम्बी उम्र दे और परहेज करने की ताकत अता फरमाए।

 

Monday, October 7, 2013

शुक्रिया जौनपुर के पत्रकार दोस्तों






जौनपुर के पत्रकारों ने अपने प्रेस क्लब के 10वें स्थापना दिवस के मौके पर मुझे बुलाया था। पीटीआई जौनपुर के पत्रकार डा. मधुकर तिवारी का न जाने कितनी दफा फोन आया। मैं दुबई से लौटा और बेतरह थका हुआ था। लेकिन ग्रामीण अंचल के पत्रकारों को लेकर मेरे भीतर एक अलग तरह का लगाव है। बहुत इच्छा थी कि जाऊं पर विन्रमता से क्षमा मांग ली। फिर सिराज मेहंदी साहब का फोन आ गया। उन्होंने न केवल पुरानी दोस्ती का हवाला दिया बल्कि कहीं से गाड़ी का इंतजाम करके मेरे घर के सामने खड़ी करा दी। सो इलाहाबाद से निकल पड़ा और टूटी फूटी सड़कों को पार करते हुए तीन घंटे में मैं जौनपुर प्रेस क्लब के सामने था।
तय वक्त से तीन घंटे देरी से पहुंचा। देखा वहां हमारी उप्र मान्यता कमेटी के अध्यक्ष हेमंत तिवारी भी मौजूद है। वह जौनपुर के हैं मेरे सीनियर भी रहे हैं। जौनपुर के सभी अखबारों और चैनलों के पत्रकार जिस बेचैनी से मेरा इंतजार कर रहे थे उससे मैं अभिभूत हो गया। मैं खुद पत्रकार हूं और जानता हूं कि हम पत्रकार किसी को सेटते नहीं। होगा कोई तुर्रम खान। सबसे समझौता कर लेंगे स्वाभिमान से नहीं। और फिर मैंने देखा कि एक पत्रकार दूसरे पत्रकार का कैसे सम्मान करता है। जैसे एक राजा दूसरे राजा का करता है। जैसा सम्मान सिकंदर ने पराजित राजा पोरस के साथ किया होगा। कमरे में कोई सौ सवा सौ पत्रकार रहे होंगे और सबने एक एक करके मुझे गेंदे की माला पहनाई। ये सब मुझे बहुत अटपटा लग रहा था। बहुत संकोच लग रहा था क्योंकि ऐसा बर्ताव मैंने अब तक सिर्फ राजनेताओं के साथ होते हुए देखा था। लेकिन अपने पत्रकार मित्रों के सम्मान और स्नेह के आगे मैं नतमस्तक था। समझ नहीं पाया कि क्या लोग सम्मानित होने के लिए उतावले भी होते हैं? क्या सम्मान जैसी चीज खरीदी जा सकती है? क्या ये जुगाड़ से हासिल की जा सकती है?
मैं जानता हूं जौनपुर के ये पत्रकार किसी संपादक का सम्मान नहीं कर रहे थे। ये अपने बीच के एक पत्रकार का सम्मान कर रहे थे क्योंकि उन्होंने मुझे बताया कि पिछले 20 सालों से वे मेरी लिखी खबरें पढ़ते रहे हैं। और खबरें बता देती हैं कि आप कितने ईमानदार या बेईमान हैं? खैर बातचीत शुरू हुई और मैंने उन्हें बताया कि असली खबरें गांव से निकलती हैं। अब तक दो खबरों पर मुझे पत्रकारिता के दो बड़े अवार्ड मिले। दोनों खबरें शहर में बैठ कर नहीं लिखी गईं। सीतापुर में मनरेगा घोटाला और बाराबंकी का सिलाई मशीन घोटाला गांव में बेहद नंगे और भेदस रूप में मिला। मैंने देखा किस तरह गरीब मजदूरों का मनरेगा का पैसा ग्राम प्रधान, सहकारी बैंक, बीडीओ और डीएम मिल कर खा रहे हैं। मैंने उसका पर्दाफाश और उसके बाद राज्य सरकार को नियम बनाना पड़ा कि अब मजदूरों का पैसा राष्ट्रीयकृत बैंकों से ही भुगतान करना होगा। 
खैर वहां से गदगद होकर लौटा तो अगले दिन जौनपुर से लोकेश त्रिपाठी का फोन आया। मेरी उनसे एक बार की कभी मुलाकात है। बहुत नाराज थे। कहने लगे आप आए और बताया भी नहीं। मैंने बताया कि बहुत हड़बड़ी में आया। लेकिन जौनपुर वालों ने जो सम्मान दिया उससे मैं गदगद हूं। तो उन्होंने कहा एक कहानी सुनिए-‘एक शराबी को नाले में एक चमकता हुआ पत्थर मिला। उसने उठा लिया। सोचा बेच दूंगा तो दो दिन दारू का इंतजाम हो जाएगा। वह चमकदार पत्थर लेकर आगे बढ़ा तो चरवाहे ने वह पत्थर देखकर उसे खरीदने की इच्छा जताई। चरवाहे ने सोचा ये चमकदार पत्थर भेड़ के गले में लटका दूंगा तो उन्हें रात के अंधेरे में भी पहचान लूंगा। उसने 10 रुपए में शराबी से पत्थर खरीद लिया। चरवाहा आगे बढ़ा तो एक जौहरी उधर से गुजरा। जौहरी ने देखा एक बहुमूल्य पत्थर भेड़ के गले में लटका है। उसने 100 रुपए में वह चमकदार पत्थर चरवाहे से खरीद लिया। जैसे ही वह पत्थर जौहरी के हाथ में आया उसकी चमक गायब हो गई। जौहरी हतप्रभ था। तभी पत्थर में से आवाज आई-‘शराबी और चरवाहा मेरा मूल्य नहीं जानते थे। पर तुम तो जानते थे। फिर भी तुमने मेरी कीमत 100 रुपए लगाई। तुम मेरे लायक नहीं हो।’
त्रिपाठी जी बोले-‘आप वैसे ही चमकदार पत्थर हैं। और हम जौनपुर वाले मूर्ख जौहरी नहीं हैं।’ अब बताइए मैं उनसे क्या बोलूं। जौनपुर के एक लगभग अपरिचित पत्रकार ने मेरी बोलती बंद कर दी।
         

Wednesday, October 2, 2013

दुबई का मुशायरा और एक आतंकी की खता

अरबों के देश में-2



दुबई के उस शानदार हिन्दुस्तानी स्कूल के बड़े से आडिटोरियम में मुशायरे की सारी तैयारी पूरी हो चुकी है। लेकिन इस बार ऐन मौके पर राहत इंदौरी नहीं आए। राहत भाई के शायरी पढ़ने के अंदाज पर दुबाईवाले भी गजब फिदा हैं। शेर पढ़ने का उनका नाटकीय ढंग सबको भाता है-‘किसने दस्तक दी ये दिल पे, कौन है? फिर राहत भाई इस लाइन को अपने खास अंदाज में एक-एक लफ्ज पर जोर देकर तीन बार दोहराएंगे। फिर मुशायरे में थोड़ा समां बांधेंगे-‘मैं शेर पढ़ कर बताता हूं मुन्नवर भाई आप सुन कर बताइएगा।’ फिर अगली लाइन में चौकाएंगे-‘आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है?’ इस तरह पब्लिक को किसी हुनरमंद मदारी की तरह खुश करके राहत भाई खूब तालियां बटोरते हैं। लेकिन इस बार वह दुबई नहीं आए। रेहान भाई ने बताया कि उनके जिस्म में शक्कर की गिनती अचानक इतनी बढ़ गई है कि डाक्टर ने घर से निकलने से मना कर दिया। ये अफवाह नहीं पक्की खबर थी। क्योंकि इस मामले में राहत भाई अक्सर ये कह कर सब पर इलजाम लगाते हैं कि ‘अफवाह थी कि मेरी तबियत खराब है/ लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया।’ अरे भाई लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया कि आप खुद बे-परहेजी के शिकार हो गए। पर मैं जानता हूं शायरों की दुकान ऐसे ही चलती है।
लेकिन मकबूल शायर मुन्नवर राना सुबह की फ्लाइट से वक्त पर आ गए। मुशायरे का अब सारा दारोमदार उन्हीं पर है। मुन्नवर राना को दुबई के ये बच्चे ‘बाबा’ कहते हैं। बाबा ने मंच का जिम्मा बखूबी संभाला। उन्होंने शुरूआत एक कहानी से की- एक हवाई जहाज बादलों के तूफान में फंस गया। सारे मुसाफिर डरे हुए थे। सबके होश उड़े थे। लेकिन एक लड़का निडर बैठा खेल रहा था। लोगों ने उससे पूछा ‘तुम्हें डर नहीं लग रहा।’ लड़के ने कहा ‘नहीं क्योंकि ये जहाज मेरा बाप चला रहा है।’ ऐसे ही इन बच्चों ने ये जिम्मेदारी मुझे दी है। अब इस जहाज को मुझे संभालना है। बच्चे बेफिक्र हो गए। 
मुन्नवर भाई अपने फन में माहिर हैं। उन्हें मुशायरा हिट करने का हुनर मालूम है। अच्छे शेरों का उनके पास खजाना है। आसान और मुख्तसर से लफ्जों में वह गहरी बात कह जाते हैं। मां और बेटियों पर नाजुक शेर पढ़ते हुए बाजवक्त वे इतने जज्बाती हो जाते हैं कि उनकी बड़ी-बड़ी आंखें भर आती हैं। और तब उनकी आंखों में ममता का समन्दर साफ दिखता है जो बेशक उस अरब सागर से भी गहरा होता है जिसे हम लांघ कर यहां तक आए हैं। ‘सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम जो इस मुल्क की मिट्टी को मां कहते हैं।’उनकी शायरी मीर तकी मीर की शायरी की तरह क्लासिकल है गालिब की तरह अर्थपूर्ण लेकिन उनकी हर शायरी में दर्द मरसिये जैसा है। उनके अंदर का शायर न मायखाने से लड़खड़ाते हुए बाहर निकलता दिखता है और न तवायफ के कोठे से उतरता हुआ। न ये शायर हसिनाओं की जुल्फों से खेलता है और न हुस्नो इश्क के कसीदे पढ़ता है। ये शायर कभी नन्हा फरिश्ता बनकर मां के आंचल से लिपटना चाहता है कभी बूढ़ा बाप बनकर आंगन से विदा होती चिड़ियों को जाते देखकर फूट फूट कर रोना चाहता है।
खैर इससे पहले मुशयरा शुरू हो जनाब आफताब अल्वी यानी हमारे राजी भाई ने अवार्ड के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। और अब उनकी स्क्रिप्ट का चौंकाने वाला आगाज और अंदाज देखिए-‘लीटररी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए हमने जिस शख्सियत का इंतखाब किया है उनके किरदार और उनकी कलम के कई पहलू हैं और तमाम पहलू बड़े रोशन और मुस्तनद हैं। कभी उनका कलम तलवार होता है तो कभी उसी कलम से वो मजलूमों के जख्मों पे मरहम भी रख देते हैं। दयाशंकर शुक्ल सागर कलम का ऐसा ही सिपाही है जिसने कम उम्र में अपनी कलम से ऐसा इंकलाब बरपा किया है जिसकी सताइश सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं उन तमाम मुमालिक में की जा रही है जहां इंसानी दर्द पर आंसू बहाने वाले लोग मौजूद हैं। और उनके कलम की रोशनी वहां वहां महसूस की जा रही है जहां जहां जुल्म के अंधेरे सिर उठाने की कोशिश कर रहे हैं। आप सब जानते हैं ये अवार्ड उन्हें उस बा-मकसद और बा-मानी बहरीर के लिए पेश किया जा रहा है जिसका उनवान था ‘इस आंतकवादी की खता क्या है।’
उर्दू के ये दिलफरेब लफ्ज ऐसे थे जैसे दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा सौदा लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की शान में कसीदे पढ़ रहे हों। अगर मैं सच में नवाब होता तो सौदा की तरह राजी मियां को भी ‘मलिकुश्शुअर’ यानी कवि सम्राट की उपाधि से नवाज देता। कसीदे ऐसे ही होते हैं जैसे फ्रांस के फूलों के त्योहार में लोग एक दूसरे पर फूलों की बौछार करते हैं। खैर मेजबान का फर्ज भी है कि वह अपने मेहमान की शान में कसीदे पढ़े वह भी ऐसा मेहमान के जिसे अवार्ड दिया जाना है। वरना मैं नाचीज कलमकार अपनी हैसियत बखूबी जानता हूं। मैं अपने बरक्स कोई मुगालता नहीं पालता। मेरा दिल जानता है कि तनख्वाह के लिए महीने की पहली तारीख का मुझे कितनी शिद्दत से इंतजार रहता है। जानता हूं हमारे मुल्क में कलम से इंकलाब लाना नामुमकिन है जहां की हर चीज बिकाऊ है। बाजार में एक चीज जो सबसे सस्ती है वह ईमान है। अखबारनवीसी के शुरूआती दौर में जब मैंने पहली बार बसपा की बीट देखनी शुरू की तो बाबू सिंह नाम का एक शख्स मायावती का चपरासी हुआ करता था। बाद में वह केबिनेट मंत्री बन गया। देखते देखते वह करोड़पति हो गया। सुनते हैं वह किसी अखबार का मालिक भी बन गया है। आजकल जेल में है। कल छूट जाएगा। न जाने कितने पत्रकारों को नौकरी देगा। क्या आप सोचते हैं वहां नौकरी करने वाले पत्रकार इंकलाब लाएंगे?
लालच और मुफलिसी ने हर दूसरे इंसान को इस हद तक खुदगर्ज बना दिया है कि कोई किसी के लिए फिक्रमंद नहीं। संवेदनाएं मर चुकी हैं और जज्बात कत्ल हो रहे हैं। उस दिन मैं अखबारनवीसी के अपने पच्चीस साल के अनुभव से पहली नजर में आतंकवादी की उस मां को देखकर समझ गया कि उसका बेटा आतंकवादी नहीं है। जिसके घर में एक बूढ़ी मां और पांच अनब्याही बहनें हो वह आतंकवादी कैसे हो सकता है? लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में जब बम के धमाके हो रहे थे तब वह कलकत्ता के कलपुर्जे जोड़ने वाले एक बड़े कारखाने में काम कर रहा था। उसकी लाचार मां कारखाने का हाजिरी रजिस्टर और बैंक में उसके मुफलिस एकाउंट के दस्तावेज लेकर लखनऊ की कचहरी में जमानत के लिए घूम रही थी। उसके वकील ने मुझे उसकी मां से मिलवाया था। बेशक आतंकी का वह हिम्मती वकील भी अपने दूसरे साथी वकीलों की नफरत का शिकार था। सारे दस्तावेज इकट्ठा करने के बाद मैं पूछते पूछते थक गया लेकिन यूपी पुलिस के डीजीपी से लेकर इस केस के इंक्वाइरी आफिसर तक ये बताने को राजी नहीं हुए कि उसके खिलाफ ऐसा क्या सबूत मिल गया कि वह आतंकी है। सिवाए इसके कि उसका नाम बांगलादेश के किसी आतंकी से मिलता जुलता है।  उस ‘आतंकी’ के पास तो मोबाइल फोन तक नहीं था कि पुलिस साबित करती कि वह पाकिस्तान या दुबई के लश्कर-ए-तोएबा के किसी आतंकी सरगना के सम्पर्क में है। पुलिस प्रेस कान्फ्रेंस में उसे बांग्लादेश का एक खूंखार आतंकवादी बता रही थी जबकि उसका स्थायी पता बंगल के नार्थ 24 परगना जिले का था। खबर छपी और आखिर यूपी की पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा। लेकिन आतंकवादी होने का जेल में उसने जो सदमा उठाया उसका क्या? मुझे तो इस स्टोरी के लिए वजीरे आजम तक से इंटरनेशनल अवार्ड मिल गया पर उन बेगुनाहों की खबर कौन लिखेगा जो आज भी ‘आतंकवादी’ बने हिन्दुस्तानी जेलों में एडिया रगड़ रहे हैं। ये सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है। इसलिए राजी की इंकलाब लाने वाली लफ्फाजी पर मैं बहुत खुश नहीं हुआ।
खैर अब हम मुशायरे पर वापस लौटते हैं। मुन्नवर भाई, हबीब हाशमी, वासिफ फारुखी, डा. तारिक कमर, उस्मान मिनाई, अनिल चौबे, नजमा नूर, शाहिद नूर, अनु सपन, नोमान शौक और अलताफ जिया सबने बारी बारी से अपनी शायरी की। इनमें शायद ही कोई ऐसा शायर या कवि हो जिसे दुबई की पब्लिक ने शोर मचा कर दोबारा पढ़ने के लिए न बुलाया हो। ईटीवी के डा. तारिक कमर ने अपनी खूबसूरत नज्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ पढ़ी। गंगा पर सूफिययाना अंदाज में शायरी मैंने पहली दफा सुनी। बनारस से आए हास्य कवि अनिल चौबे ने अपने चचा एनडी तिवारी पर खूब  फिकरे कसे। बोले-बेचारे बुजुर्ग तिवारीजी खून लेने के लिए पूरा देश पीछे पड़ गया। कोर्ट कचहरी पुलिस वाले सब। फिर चौबे जी ने चौपाई पढ़ी -‘नही कोई जोर चलता है, महज रिक्वेस्ट होता है/इश्क में दौलत-ए-दिल का बड़ा इनवेस्ट होता है/जवानी में मुहब्बत की जिन्हें गिनती नहीं आती /बुढ़ापे में उन्हीं का तो डीएनए टेस्ट होता है।’ सबसे ज्यादा तालियां चौबेजी ने बटोरी। बाद में मैंने और हमारे दुबई के दोस्त हरीश मिश्रा ने चुटियाधारी चौबेजी की खूब खिंचाई की। चौबेजी खुद दुबले पतले मरियल से हैं। हरीश बोले-पंड़ितजी आपका तो बुढ़ापे में डीएनए टेस्ट भी नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए खून चाहिए। मैंने कहा-अपनी चोटी से पकड़े जाएंगे क्योंकि अब तो कम्बखत बाल भी दिल की फिसलन के राज फाश कर देते हैं। बेचारे हास्य कवि चौबे जी संकुचा गए। बताते चले कि यह वही कवि हैं जिन्होंने कलयुग में सूपनखा को खोज निकाला। वो तो भला हो अखिेलेश यादव का कि चुनाव जीत कर सरकार बना ली वरना मायावती के राज में पंड़ित जी जेल में रामचरित मानस के लिए चौपाई लिख रहे होते।   
और यकीन जानिए दुबई के शेख राशिद आडिटोरियम में मुशायरा सचमुच सुपर हिट रहा। सुबह साढे़ तीन बजे तक पूरा आडिटोरियम खचाखच भरा था। काली शेरवानी में रेहान, अफताब और फरहान के चेहरे दमक रहे थे। चटक गुलाबी ब्लाऊज और गुलाबी किनारे वाली क्रीम साड़ी के खालिस हिन्दुस्तानी लिबास में खूबसूरत शाजिया की खुशी से चहक रही थी। जैसे निकाह के बाद घर से बेटी की बारात विदा हुई हो।
जारी

Tuesday, October 1, 2013

डरावना रेगिस्तान और दोस्तों का दुबई


अरबों के देश में-1


 

लखनऊ से पाकिस्तान और फिर अरब सागर पार करते हुए दुबई का सफर सचमुच दिलचस्प है। अरब सागर पार करें तो हवाई जहाज से नीचे डरावना रेगिस्तान साफ दिखने लगता है। ये रेगिस्तान फिल्मों में दिखने वाला साफ सुथरा और सलीकेदार नहीं है। बल्कि ये सीमेंट जैसी काली परतदार रेत का रेगिस्तान है जिसमें रेत की गहरी और खौफनाक खाइयां हैं। ये बहुत नया रेगिस्तान है जहां कभी अरब सागर रहा होगा। दूर-दूर तक सिर्फ सन्नाटा। सभ्यता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं। न कोई दरख्त, न पौधा, न हरियाली, न परिंदे, न जिंदगी का कोई और नामो निशान।  जहाज की खिड़की से इस रेगिस्तान को देखते हुए जिस्म कई दफा इस ख्याल से सिहर गया कि खुदा न खास्ता कोई गरीब यहां इस वीराने में फंस जाए तो उसका क्या अंजाम हो?

लेकिन जहाज जैसे दुबई के आसमान पर पहुंचा तो नजारा बदला हुआ था। एक तरफ ईरान दूसरी ओर ईराक और तीसरी तरफ सऊदी अरब। इन तीन देशों के ठीक बीच परर्शियन गल्फ में समन्दर के किनारे दुनिया की सबसे शानदार और खूबसूरत इमारतों का जंगल।  दुबई के अल-मकदूम इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एयर इंडिया एक्सप्रेस का थका हुआ जहाज हॉफते-हॉफते सही पर वक्त से थोड़ा पहले पहुंच गया। सामने इमीग्रेशन काउंटर पर सिर से पांव तक अरब के परम्परागत सफेद लिबास में लिपटे इमीग्रेश्न के अफसर। दो काउंटर पर काले लिबास में महिला अफसर बैठी हैं। सबके सिर ढके हुए हैं। लेकिन चेहरे पर बुर्का नहीं। वे मर्दों से भी डील कर रही हैं। फितरत से सब के सब सरल और सहज। न सिक्योर्टी का तामझाम न तलाशी की दहशत। मेरे पास वीजा की सिर्फ फोटो स्टेट कापी है। पासपोर्ट देखने के बाद उस अरबी अफसर ने उसी फोटो स्टेट वीजा पर ठप्पा लगाया और अरबी में कुछ बोला जिसका मतलब था- दुबई का आपका स्वागत है।दुबई का ये एयरपोर्ट दुनिया का अकेला एयरपोर्ट है जहां आप सिर्फ 20 सकेंड में इमीग्रेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी कर स्मार्ट गेट से शहर में दाखिल हो सकते हैं। मुझे अमेरिका के न्यू जर्सी का इमीग्रेशन काउंटर याद आया जहां तलाशी के नाम पर बस कपड़े नहीं उतारे थे। 

किसी भी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से बाहर निकलने से पहले मैं फॉरन करेंसी एक्सचेंज से रुपए को उस देश की मुद्रा में परिवर्तित कराता हूं। इससे थोड़ी सहूलियत हो जाती है। मैंने दस हजार रुपए दिए बदले में 540  दिरहम मिले। दिरहम दुबई की करेंसी है। सौ-सौ के 5 नोट और दस के 4 नोट।  सरदार मनमोहन सिंह के राज में अपने देश के रुपए की औकात देखकर हमेशा की तरह फिर शर्मिदगी हुई। चुपचाप नोट मैंने अपने पर्स में रख लिए।

दुबई में मैं मुशायरा और कवि सम्मेलन के एक जलसे में शिरकत करने आया हूं। यह सालाना जलसा हमारी एसोसिएशननाम की संस्था कराती है। अप्रवासी भारतीयों की यह संस्था हर साल मुन्नवर राना, राहत इंदौरी, इकबाल अशार, डा. तारिक कमर जैसे शायरों और कुमार विश्वास जैसे कवियों को आमंत्रित करती है। साथ में किसी एक हिन्दुस्तानी साहित्यकार या पत्रकार को मोइन-उर-रहमान किदवाई लिटररी एक्सीलेंस अवार्डसे नवाजती है। इस साल के अवार्ड के लिए मुझे चुना गया था। मुझे बताया गया कि ये अवार्ड मेरी स्टोरी इस आंतकी की खता क्या हैऔर महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोगजैसी नामुराद किताब के लिए दिया जा रहा है जिसे तारीफ कम और लानते ज्यादा मिलीं।  दुबई में हमारी ऐसोसिएशनकोई पांच साल पहले वजूद में आई। रेहान लखनऊ से और शाजिया किदवई और फरहान वास्ती बाराबंकी से कई साल पहले दुबई में नौकरी करने आए थे। रेहान लाजवाब स्वाद वाली आईसक्रीम कंपनी बास्किन राबिन से जुड़े हैं। शाजिया अबूधाबी कामर्शियल बैंक से। आफताब अल्वी मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस ग्रुप से जुड़े हैं और बाराबंकी मसौली के मीठी जवान वाले फरहान वास्ती भी किसी मल्टी नेशनल कंपनी के कारिंदे हैं। सभी तरक्कीपसंद और शेरो शायरी के जबरदस्त शौकीन हैं। अरबों के इस देश में बाराबंकी के बड़ा गांव की शाजिया का आत्मविश्वास तो गजब है। वह पढ़ी लिखी होशमंद और खूबसूरत खातून हैं। अपने दिल को बखूबी समझती हैं और परदेस में अपनी मुशकिलात से वाकिफ हैं। अपनी ड्यूटी से वक्त निकाल कर हिन्दुस्तान की ये बिटिया अपने दोस्तों के साथ मुशायरे को कामयाब बनाने की तैयारियों में जुटी है। उनके शौहर भी साथ में हैं। शाजिया कहती हैं ये सिलसिला एक शौक के रूप में शुरू हुआ था जो अब एक जूनन बन गया है। 

दुबई में आधी से ज्यादा आबादी हिन्दुस्तानियों की है। ये सब अपने मुल्क को बेतरह मिस करते हैं। सो एक दिन ख्याल आया कि क्यों न यहां हर साल एक मुशायरा और कवि सम्मेलन कराया जाए। दुबई हिन्दुस्तानी कल्चर से बावस्ता होगा। शुरू में तो इन लोगों ने अपनी तनख्वाह के पैसे जोड़ कर मुशायरा कराया। यह प्रोग्राम कामयाब हुआ तो दुबई में कुछ बड़ी कंपनियों के स्पांसर भी मिल गए। यू-ट्यूब पर जारी मुशायरे के वीडियो को अब तक लाखों लाइक हासिल हो चुकी हैं। बाद के सालों में हमारी एसोसिएशन ने आर्थिक रूप से कमजोर शायर व कवियों की मदद के लिए बैनेफिशरी अवार्ड शुरू किया। पिछले दो साल में ये अवार्ड शायर अजमल सुल्तानपुरी व बुद्ध देव शर्मा को दिया गया। हमारी एसोसिएशन ने साहित्यकारों के लिए लिटररी अवार्ड भी शुरू किया। पिछले साल ये अवार्ड प्रो. वली उल्लाह हक अंसारी को मिला। प्रो. अंसारी लखनऊ में पर्शियन के अकेले प्रोफेसर हैं जिन्हें राष्ट्रपति अवार्ड भी मिल चुका है। इस साल के लिटटरी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए इस खाकसार को चुना गया। सबसे बड़ी बात जिस मुहब्बत और खुलूस से नौजवान अप्रवासियों की ये टोली भारत से आए मेहमान शायरों और कवियों की खातिरदारी में पलक पावड़े बिछा देती है वह वाकई दिल छू लेने वाली है।

मुझे बताया गया था कि एयरपोर्ट की लॉबी आपको कोई रिसीव करने आएगा। लेकिन लॉबी में मुझे कोई नहीं दिखा। मैं वहीं एयरपोर्ट पर कोस्टा कैफे में मीडियो अमेरिकैनो का आर्डर देकर उनका इंतजार करने लगा। वहीं बगल की कुर्सियों पर लखनऊ के डा. तारिक कमर के संग कुछ और शायर भी बैठे अपने मेजबान का इंतजार कर रहे थे। हालांकि मैं तब उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। आधा घंटा बीत गया पर कोई नहीं आया। ऐसा पहली दफा हुआ कि मेरे पास आयोजकों का स्थानीय फोन नम्बर भी नहीं था। न पता था कि कहां जाना है। अजनबी देश में यह अनुभव सचमुच खौफनाक है। कुछ रेगिस्तान के वीराने में फंसने की दहशत सरीखा अनुभव जो मैंने जहाज पर महसूस किया था। लेकिन अल्लाह का शुक्र है ये हालात ज्यादा देर नहीं टिके। भीड़ में रेहान का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा तो राहत की सांस ली। रेहान ने आते ही देरी के लिए माफी मांगी और बताया कि वे शाम के ट्रैफिक में फंस गए थे। रेहान भाई से तीन महीने पहले लखनऊ में मुलाकात हुई थी इंन्दिरा प्रतिष्ठान के एक मुशायरे में। उनसे एक पुराने दोस्त आफताब अल्वी ने मिलवाया था। रेहान मियां बेहद शरीफ और सलीकेदार इंसान हैं। उनके चहेरे का भोलापन आकर्षित करता है। उनके चेहरे में एक खास तरह की खुद एतिमादी यानी आत्म विश्वास झलकता है ये कहने की जरूरत नहीं कि ये खुद एतिमादी इंसान के किरदार के लिए कितनी जरूरी है। 

खैर आफताब को हम लोग राजी के नाम से जानते हैं। राजी अखबारनवीसी के शुरूआती दिनों के दोस्त हंै। तब वे अपने बड़े भाई शहाब अल्वी के साथ हफ्तेवार अखबार मानस मेलनिकाला करते थे। तब मैंने उर्दू हफ्तेवार जदीद मरकजसे अपना करियर शुरू किया था। आफसेट प्रेस जमाना था। कटिंग पेस्टिंग से अखबार निकलता था। खबर लिखने से लेकर उसे ब्राडशीट पर चिपकाने तक का काम हमें खुद करना पड़ता था। हमारे एडीटर हिसाम सिद्दीकी नफासतपंसद और जिन्दा दिल इंसान थे। तनख्वाह कम देते थे लेकिन काम की पूरी आजादी देते थे। वह कलम से इंकलाब लाने के कायल थे। तब मुलायम की नाक के बाल हुआ करते थे। उन्होंने समाजवादी जिन्दाबाद के खूब नारे लगाए। मुलायम को मुसलमानों का कायल बनाने के गुनाह में वह भी शामिल थे। पर अब सुनते हैं समाजवादी लीडर खंजर लेकर उनकी तलाश में हैं। खैर प्रेस में बेहद घरेलू माहौल था और उनकी शरीके हायात और हमारी साहेबा भाभी लाजवाब बिरयानी बनाती और सबको प्यार से खिलाती थीं। जुमे रात को देर रात तक काम चलता और हम अखबार बिछा कर डुंडे के कबाव और आलमगीर की दुकान के मस्त पराठे और सालन खाते थे। क्या हसीन दिन थे वे। मेरे पिताजी कहते लड़का मलेच्छहो गया और हाथ से जाता रहा। वे मेरे पेशे पर लानत मलानत भेजते नहीं थकते। लेकिन वक्त सब बदल देता है। वक्त के साथ राजी से राब्ता भी टूट गया। वह मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस डिवीजन का नेशनल हैड बन गया और मैं कम्बखत अखबारनवीसी की गलियों में भटकते हुए दुनिया भूला बैठा।  

अल-मकदूम एयरपोर्ट से हमारी कार बाहर निकली तो बातें शुरू हो गईं। बातचीत हिन्दुस्तान के हालात से शुरू होकर मुजफ्फर नगर के दंगों पर खत्म हुई। रेहान ने बताया कि यहां हम सबका दिल कैसे हर वक्त हिन्दुस्तान में अटका रहता है। स्टेलाइट डिश टीवी से घर पर हर वक्त सिर्फ हिन्दुस्तानी चैनल चलते रहते हैं। ये चैनल मुल्क से बिछड़ने का दर्द कम कर देते हैं। बालिका वधु, कामेडी विद कपिल, सीआईडी जैसे टीवी सीरियल हर हिन्दुस्तानी घर में मकबूल हैं। घर की चहारदीवारी में लगता ही नहीं कि आप परदेस में हैं। रेहान याद करते हैं कि कैसे वह दस साल पहले दुबई में भारत-पाक क्रिकेट के लिए वह अपने एक पाकिस्तानी रिश्तेदार से भिड़ गए थे। और फोन पर उन्होंने अपने पाकिस्तानी रिश्तेदार की मादर-फादर कर दी थी। बातचीत में मेरे लिए एक नई चीज ये निकल कर आई कि नई पीढ़ी पूरी तरह से हिन्दुस्तानी हो गई है। अब भारत-पाक मैच में पाक जीतने पर गलियों में पटाखे नहीं फूटते। 80 और 90 के दशक में ऐसा खूब होता था। दरअसल भारत के तमाम मुसलमानों के रिश्तेदार पाकिस्तान में बसे थे। पाकिस्तान से उनका एक स्वभाविक लगाव था। वह पराया मुल्क नहीं था। जबकि हिन्दुओं ने मुल्क के तकसीम होते ही पाकिस्तान को दुश्मन देश मान लिया। मुसलमान ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि उनके चचा, मामू, खालू सब वहीं बस गए थे। वे दुश्मन कैसे हो सकते थे। लेकिन मुसलमानों की नई पीढ़ी का पाकिस्तान से ऐसा कोई सीधा लगाव नहीं रह गया। यहीं इतना बड़ा कुनबा हो गया कि उनको कौन याद करे। अब पाकिस्तान, हिन्दुस्तानी सैनिकों की लाशें सरहद से इधर भेजता है तो उनका भी खून खौल उठता है। यह सच है। रेहान बताते हैं कि यहां दुबई में मेरे केवल एक जिगरी दोस्त हैं हरीश मिश्र जो लहसुन प्याज तक नहीं खाते । हमने अपने शाकाहारी पंड़ित मेहमानों को संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं को दी है।फिर मैंने पूछा नान वेज पंड़ित मेहमानों के लिए क्या इंतजाम है? रेहान भाई ने हंसते हुए कहा उनके लिए तपन दुबे हैं ना, वह भी मिश्राजी की तरह इंदौर से हैं। अपन तपन वाले। अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल वाले तपन मुस्कुराने लगे।

जारी