दयाशंकर शुक्ल सागर

Wednesday, January 29, 2014

रावण जैसे मरना नहीं चाहते थे महात्मा

महात्‍मा गांधी का अंतिम दिन-2



बिरला हाउस में गोडसे की सेमी आटोमैटिक पिस्तौल की तीन गोलिया बापू के सीने में धंसी थी। मनु समझ नहीं सकी कि अचानक क्या हुआ। मनु ने नीचे देखा। उसे महात्मा के ‘सफेद वस्त्र पर सुर्ख रंग का
धब्बा फैलता नजर आया।’ बापू के हाथ जो सभा को नमस्कार करने के लिए उठे थे, धीरे - धीरे नीचे आ गये। उनका शिथिल शरीर धीरे से धरा पर लुढ़क गया। मनु की गोद में महात्मा हमेशा के लिए सो गए। उस वक्त शाम के 5 बजकर ठीक 17 मिनट हुए थे। गोली के धमाके से प्रार्थना सभा में भगदड़ मच गई। एक महात्मा का ऐसा दर्दनाक अंत। कोई पत्‍थर दिल इंसान भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था।
लेकिन पुणे का रहने वाला 38 साल का नौजवान नाथूराम गोडसे पत्‍थर ‌दिल रहा होगा।वह आरएसएस का सक्रिय सदस्य था जिसे बाद में जाहिरी तौर पर आरएसएस ने अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया था। हालांकि नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अंत तक कहा कि उसके पूरे परिवार ने आरएसएस की सदस्यता ले रखी है। नाथूराम की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं थी। उसका असली नाम रामचन्द्र था। रामचन्द्र के जन्म से पहले उसके तीन भाई और एक बहन थी। नाथूराम के पिता पोस्ट आफिस में काम करते थे।उनका नाम विनायक वामनराव गोडसे था। रामचन्द्र के तीनों भाई पांच साल की उम्र से पहले ही चल बसे। पिता विनायक और मां लक्ष्मी को लगता कि अगला बेटा भी नहीं बचेगा। रामचन्द्र का जन्म हुआ तो गोडसे दंपति ने उसे लड़की की तरह पाला। वे उसे लड़कियों के कपड़े पहनाते। विनायक ने उसके लिए एक नथ भी बनवा कर पहना दी थी। उसे सब प्यार से नाथू-नाथू कह कर बुलाने लगे। रामचन्द्र का एक भाई और हुआ। तब जाकर रामचन्द्र को लड़की के रूप में छुटकारा मिला। लेकिन नाथू नाम से नहीं। उसका नाम रामचन्द्र की जगह नाथूराम हो गया। और संयोग देखिए महात्मा की मौत इस रामचन्द्र के हाथों ही लिखी थी।    

मनु को महात्मा के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिए थे। मनु के अलावा यह शब्द वहां खड़ी हजारों की भीड़ में किसी और ने नहीं सुने। इसलिए महात्मा के अंतिम शब्द ‘हे राम’ ही मान लिए गए। महात्मा की हत्या के बाद पूरे देश में भावुकता का जो माहौल बना था उसमें इस शब्द पर बहस की कोई गुंजाइश भी नहीं थी। महात्मा की समाधि से लेकर संपूर्ण गांधी वाङ्मय तक में ‘हे राम’ का प्रयोग किया गया।
बाद में खुद महात्मा के निजी सचिव प्यारेलाल ने ‘अत्यंत सावधानी और परिश्रमपूर्वक जांच’ करने के बाद नतीजा निकाला कि गांधीजी के मुंह से मूर्च्छित होते समय जो शब्द निकले थे वह ‘हे राम’ नहीं थे।  उन्होंने नए सिरे से खोज शुरू की। कई लोगों से बातचीत की।  और इस नतीजे पर पहुंचे कि बापू के  ‘अंतिम शब्द राम राम थे।’ ‘वह कोई आह्वान नहीं था परंतु सामान्य नाम स्मरण था।’ उन्होंने लिखा - ‘राम राम’ के बजाय ‘हे राम’ कर देना जनता की ऐसी ही भूलों का एक और उदाहरण है जो अंबर के टुकड़ों में घुन की तरह लगकर इतिहास में चिरकाल के लिए अंकित हो जाती हैं।’

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि प्यारेलाल को बापू के कथित अंतिम शब्दों पर संदेह क्यों उठा? वह खुद बापू के प्रिय थे और अंतिम दिनों तक उनके साथ थे। उन्होंने अपनी किताब पूर्णहुति में इसका जिक्र नहीं किया कि उन्होंने बापू के अंतिम शब्दों पर इतनी मेहनत क्यों की? क्या ये इतना जरूरी प्रश्न था?
मैंने गोडसे का कथन भी खोजा। उसका पूरा ध्यान गांधी पर रहा होगा। महात्मा को गोली मारने वाले हत्यारे नाथूराम गोडसे का दावा था कि महात्मा के मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द ‘आह’ था। ‘हे रा...’ या ‘हे राम’ या ‘राम राम’ नहीं। हत्यारे के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता लेकिन मनु के दिमाग में ‘हे रा...’ शब्द यूं ही नहीं आ गया था। महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा लेंगे, ये बात उसके अवचेतन में कहीं मौजूद थी।
इस सिलसिले में मैंने महात्मा की पोती मनु की डायरी दोबारा पढ़ी। दिलचस्प संयोग है कि उस दिन भी 30 जनवरी थी। 30 जनवरी 1947। बापू तब मनु के साथ नोआखली के आमकी गांव में थे। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर उठे विवादों के दौरान महात्मा ने मनु से कहा - ‘यदि मैं रोग से मरूं, तो यह मान लेना कि मैं इस पृथ्वी पर दंभी और रावण जैसा राक्षस था। परंतु यदि राम नाम रटते हुए जाऊं तो ही मुझे सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा महात्मा मानना।’ और इत्तेफाक देखिए उसके ठीक एक साल बाद उसी दिन यानी 30 जनवरी, 1948 को महात्मा का देहावसान हुआ। मनु की डायरी ‘एकला चलो रे’ के नाम से पहली बार 1957 में बाजार में आई। यानी बापू की हत्या के नौ साल बाद। वह मनु ही थी जो इस बात का सबसे बेहतर प्रमाण दे सकती थी कि मोहनदास कर्मचंद गांधी वाकई एक ‘सच्चे ब्रह्मचारी और सच्चे महात्मा’ थे। क्योंकि प्रयोग के दौरान उसने नोआखली के जंगलों कई रातें महात्मा के साथ निर्वस्‍त्र सो कर बिताई थीं। और यह प्रमाण उसने 30 जनवरी, 1948 की शाम यह कह कर दे दिए कि महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा हुए। निसंदेह उसके अवचेतन में कहीं रहा होगा कि महात्मा गांधी राम का नाम लेते हुए इस दुनिया से विदा होना चाहते थे। हालांकि ये प्रमाण भी महात्मा के ब्रह्मचर्य के प्रयोग की तरह अधूरे थे। मनु ने सिर्फ हे रा.... सुना था। अगर मनु की माने तो महात्मा राम का नाम पूरा नहीं ले पाए थे। मैँ आज भी सोचता हूं कि महात्मा के गले में यह शब्द क्यों
अटक गया? जीवन भर दूसरों को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले महामानव की मौत हिंसा से हुई। महात्मा के जीवन का विरोधाभास उनके अंतिम क्षणों तक उनके सामने खड़ा था।


'महात्मा गांधीः किताब ब्रह्मचर्य के प्रयोग' पुस्तक से

खुद को मुर्दा कहने लगे थे महात्‍मा गांधी

महात्‍मा गांधी का अंतिम दिन-1
 30 जनवरी 1948 को महात्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। गांधीजी पर अध्ययन के दौरान उनके जीवन के कई अनझुए पहलुओं से दो चार हुआ। इस दौरान यह बात भी सामने आई कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द 'हे राम' नहीं थे।  इस प्रसंग को मैंने अपनी किताब 'महात्मा गांधीः किताब ब्रह्मचर्य के प्रयोग' में कलमबंद किया है। किताब आने पर इसे लेकर काफी विवाद भी उठा जिसकी खबरें गुगल पर मौजूद हैं। महात्मा के अंतिम दिनों के बारे में यदि आपके पास कुछ तथ्य हों तो साझा कीजिए। पढ़िए हत्या के दिन का घटनाक्रम-
 
अपनी मौत से एक महीना पहले तक महात्मा अकेले और अलग-थलग पड़ गए थे। इस दौर में उनके निजी सचिव प्यारेलाल ने उन्हें सबसे ज्यादा दुखी पाया। महात्मा ने किसी को पत्र लिखा कि ‘आलीशान भवन में मैं प्रेमी मित्रों के बीच घिरा हूं परंतु मेरे भीतर शांति नहीं है।’ महात्मा के पुराने मित्रों ने उनसे किनारा कर लिया था। उनकी जी हुजूरी में लगे रहने वाले सभी कांग्रेस नेता राजसत्ता की मद में डूब चुके थे। वे उनकी सुनते नहीं थे। महात्मा को डर था कि वह किसी भी दिन उनसे आकर कहेंगे - ‘इस बूढ़े की बात हमने बहुत रखी, अब वह हमें अपना काम क्यों नहीं करने देता।’ उनके रास्ते पर चलने वाले सीमांत गांधी और विनोबा जैसे कुछ संत रह गए थे। महात्मा देख रहे थे कि ‘कांग्रेस के भवन की एक के बाद दूसरी ईंट ढीली होकर गिर रही है। कांग्रेस निस्तेज हो गई है।’ देश सेवा के नाम पर तमाशा चल रहा है। दिल्ली की फैशनपरस्त अमीर औरतें बन - संवर कर निराश्रितों के कैंप में स्वयंसेवा करतीं। महात्मा उन्हें उलाहना देते - ‘निराश्रित कैसे आप का विश्वास और आदर कर सकते हैं। जबकि आप रेशमी साड़ियां पहने इंद्र की परियां बनकर उनके बीच आती हैं।’ वह कहते कि ये आजादी नहीं है। भारत स्वाधीन नहीं हुआ। राजधानी मुर्दों की नगरी दिखाई देती है। हर आदमी दूसरे के खून का प्यासा है। हिंदुस्तानी अपने हिंदुस्तानी भाई से डरता है। इसे आप स्वाधीनता कहेंगे? अपने अंतिम वक्त में महात्मा चिड़चिड़े हो चले थे। बात - बात पर कहते - ‘देखते नहीं मैं अपनी चिता पर बैठा हूं।’ कभी कहते - ‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि एक मुर्दा तुमसे यह कह रहा है।’
30 जनवरी, 1948 को जीवन के अंतिम क्षणों में मनु और आभा महात्मा के साथ थीं। प्रार्थना सभा जाते वक्त महात्मा का हाथ दो नवयुवतियों के कंधे पर था। महात्मा इन लड़कियों से बात कर रहे थे। यह अंतिम बातचीत कुछ इस तरह थी।
आभा ने कहा : ‘बापू आपकी घड़ी को जरूर यह लगता होगा कि आप उसकी परवाह नहीं करते। आप उसकी तरफ देखते ही नहीं।’
मैं क्यों देखूं, जब दोनों मुझे ठीक समय बता देती हो?
दोनों लड़कियों में से एक ने पूछा : ‘लेकिन आप तो समय बताने वाली लड़कियों की तरफ देखते ही नहीं।’ बापू फिर हंसे। प्रार्थना स्थल की सीढ़ियों तक पहुंचते हुए उन्होंने अंतिम बात कही : प्रार्थना में दस मिनट देर से पहुंचा हूं इसमें तुम्हारी गलती है। नर्सों का यह धर्म है कि यदि साक्षात् ईश्वर भी बैठा हो तो भी उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। यदि किसी मरीज को दवा देने का समय हो और उसमें हिचकिचाहट हो तो मरीज तो मर जाएगा। यहां भी यही बात है। प्रार्थना में एक मिनट भी देर से आने से मुझे तकलीफ होती है।
और तभी नाथू राम गोडसे ने उन पर गोलियां बरसा दीं। जैसा कि बाद में मनु गांधी ने अपने बयान में कहा - ‘प्रार्थना सभा के बीच रस्सियों से घिरे रास्ते से जाते वक्त महात्मा ने जनता के नमस्कारों का जवाब देने के लिए लड़कियों के कंधों से हाथ उठा लिए। एकाएक भीड़ में से कोई भीड़ को चीरता हुआ उनकी ओर आया। मनु गांधी ने सोचा कि वह आदमी गांधीजी के पांव छूने के लिए आगे बढ़ रहा है। इसलिए उसने उसे वैसा करने के लिए झिड़का क्योंकि प्रार्थना को पहले ही देर हो चुकी थी। मनु ने उस आदमी का हाथ पकड़कर उसे रोकने की कोशिश की लेकिन उसने जोर से मनु को धक्का दिया जिससे उसके हाथ की ‘भजनावली’, माला और गांधीजी का पीकदान नीचे गिर गया। ज्यों ही वह बिखरी चीजों को उठाने के लिए झुकी, वह आदमी गांधीजी के बिलकुल सामने खड़ा हो गया और पिस्तौल से जल्दी - जल्दी तीन गोलियां दाग दीं। ‘गांधीजी के मुंह से जो अंतिम शब्द निकले, वे थे ‘हे रा...।’
जारी

Monday, January 27, 2014

लेक दा जिनेवा के किनारे एक शाम

मेरी यूरोप डायरी-3




रात में पहाड़ों पर बर्फ पड़ी थी और नीचे भी। पहाड़ जिनेवा शहर से बस थोड़ी दूरी पर हैं। उसकी बर्फ से ढकी सफेद चादरें साफ दिखती है। हवा में ठंडक बढ़ गई है। बर्फ के कुछ फाहे अभी तक पेड़ों की टहनियों पर अटके हैं। उन घोसलों पर भी बर्फ जमी है जो स्विट्जरलैंड के लोगों ने अपने पक्षियों के रहने के लिए शाखों पर बनाए हैं। चिड़ियों के ये कृत्रिम घरोंदे बहुत सुंदर हैं।  आज कान्फ्रेंस नहीं थी। सुबह होटल के कमरे से तैयार होकर निकला तो पूरे शहर में हैरतनाक ढंग से सन्नाटा पसरा था। इस सन्नाटे की वजह पूछने पर पता चला संडे़ को पूरा स्विट्जरलैंड बंद रहता है। रेस्त्रां को छोड़कर कोई दुकान नहीं खुलती।
दिन में घूमने के लिए हम ‘लेक दा जिनेवा’ की तरफ आ गए हैं। पूरा जिनेवा शहर इस नीली खूबसूरत झील के किनारे बसा है। शहर में आकर ये विश्व प्रसिद्ध झील बड़ी नजाकत से नदी में तबदील हो जाती है। इस नदी के दोनों तरफ 17वीं व 18वीं सदी की खूबसूरत और विशालकाय इमारतें। हर इमारत यूरोपियी वास्तुशिल्प का एक अद्वितीय नमूना है।
 पाकिस्तान दोस्त डॉ. असलम फुआद साथ हैं। कराची में डब्लूएचओ के लिए काम करते हैं। एक और दोस्त प्रणय भी साथ में हैं जो अक्सर जिनेवा आते रहते हैं। करीब 50 किलोमीटर लम्बी इस झील का कहीं छोर नहीं दिखता। किनारे पक्की सड़क बनी है। झील के समानंतर एक अंतहीन पार्क। झील के किनारे बसे इस पार्क में सबकुछ है। पुरानी खूबसूरत इमारतें, म्यूजियम, मूर्तियां, स्क्लपचर सब कुछ। झील के किनारे एक स्विस महिला की पत्थर की मूर्ति है। जो
 घुटने के बल बैठकर पीछे जिनेवा शहर की ऊंची इमारतों की तरफ देख रही है। उस निर्वस्त्र मूर्ति में जरा भी अश्लीलता नहीं दिखती। कोलम्बिया की दो लड़कियां मूर्ति के साथ अपनी तस्वीरें खिंचवाना चाहती हैं। वह कैमरा आगे बढ़ाते हुए फोटो खींचने का आग्रह करती हैं। उनके कैमरे से उनकी फोटो खीचता हूं। उनमें से एक कहती है- आर यू इंडियन? मेरे ‘हां’ कहने का इंतजार किए बिना वह कहती
 हैं-‘नमस्ते’। फिर खिलखिला कर हंसने लगती हैं। गैलेडिया बताती है कि वह हिन्दी फिल्मों की शौकीन है। शाहरुख खान उसे बहुत पसंद है। कोलम्बिया में हिन्दुस्तानी संगीत बहुत पसंद है। खासकर गानों की धुनें। हम आगे बढ़ते हैं। एक स्विज दम्पति अपने नन्हें बच्चों के साथ झील के किनारे बैठे हैं। दूध से सफेद तीन बच्चे। रंग बिरंगे गर्म कपड़ों में तीनों बच्चों की उम्र एक-सी है। शायद दो साल के रहे होंगे।
 दम्पति की इजाजत लेकर हम इन बच्चों की तस्वीरें लेने लगते हैं। उन्हें बताता हूं कि मैं भारत से हूं और डा. असलम पाकिस्तान से। अपने बच्चों के साथ खेलती वह युवती हैरत भरे स्वर में पूछती है-‘यू बोथ ऑर टुगैदर।’ यानी आप दोनों एक साथ। हम बताते हैं कि यही सच है। दूरियां दो मुल्कों में है दिलों में नहीं। उन्हें यह सुनकर अच्छा लगता है। पर उन्हें अभी तक यकीन नहीं कि असलमपाकिस्तानी है।शाम ढलने लगी है। सेहत के लिए फिक्रमंद कई लड़कियां उस शांत पार्क में दौड़ रही हे। एक दूसरे में गुम प्रेमी जोड़े बैंचों पर बैठे हैं। ठंड में वह थोड़ा और सिमट गए हैं। हमें शहर लौटना है। वापसी ‌के लिए सिटी बस पकड़नी है। एक खम्बे पर लगी हरे रंग तख्ती पर बस स्टाप लिखा है। उसी पर एक टाइम टेबिल भी लगा है। इस स्टाप पर अगली बस का वक्त शाम 6.24 मिनट है। मैं घड़ी देखता हूं
 जिस पर मैंने स्विस टाइम सेट किया है। घड़ी ठीक 6.24 बता रही है और तभी सिटी बस स्टाप पर आकर रुक जाती है। हम दंग हैं। एकदम सही टाइमिंग। क्या महज इत्तेफाक है। एक स्‍थानीय मित्र बताते हैं कि नहीं...शहर की हर रेड लाइट पर सेंसर लगे हैँ। इसलिए रेड लाइट बस का साथ देती है। ठीक वक्त पर बस अपने नियत स्टाप पर आकर ब्रेक लगाती है। हम बस में बैठ गए हैँ। दूर से देखता हूं दुकानों की शो विंडों रोशनी से जगमगाने लगे हैं। महंगी स्वीज घड़ियां शो केस में सजी है। एक शो रूम में ऐश्वर्य राय बच्चन का एक आदमकद पोस्टर किसी स्विस घड़ी का प्रचार करता दिख रहा है। दुकानों के दरवाजे तक शीशे के हैं। अंदर की तेज चमकदार रोशनी से लगता है कि हर दुकान खुली है। पर ऐसा नहीं है। दुकानों के अंदर यह रोशनियां हमेशा जलती रहती हैं। चाहे दुकान खुली हो बंद। यानी विंडों शापिंग के लिए चौबीस घंटें का आमंत्रण। अब हम सड़क पर तेजी से झील को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। दूर घुटने के बल बैठी महिला की मूर्ति हमें अब तक देख रही है। उदास निगाहों से। कह रही है अलविदा जिनेवा लेक फिर मिलेंगे कभी इस झील के किनारे।
 जारी

Friday, January 24, 2014

हां कामरेड मैं फासिस्ट हूं



और मैंने देखा कल अपनी वॉल पर उन कामरेडों ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अकेला पा कर घेर लिया। एक कामरेड ‌मित्र ने लिखा-‘सुभाष चन्द्र बोस का आकलन समग्रता में किया जाना चाहिये न कि भावुकतापूर्ण इकतरफा तरीके से। हिटलर और तोजो जैसे नरभक्षियों से उनकी मित्रता और संबंधों को भुला देना ऐतिहासिक रूप से घातक हो सकता है।’ गोया कि सुभाषचन्द्र बोस मेरे हीरो हैं फिर भी मैंने अपने कामरेड दोस्त की इस पोस्ट को लाइक किया। लगा एक खिड़की खुली नेताजी को भावुकता से इतर सोचने-समझने की। यही तो मजा है फेसबुक का। खैर मैँ दृष्टा बन गया इस पोस्ट का। और उस दीवार में गिरने वाले कमेंट्स का जायजा लेने लगा।
पहले प्रगतिशील कामरेड ने कमेंट गिरा- फ़ासिस्‍टों के साथ मोर्चा बनाने की सोच के अलावा भी सुभाष की राजनीति के अन्‍य पहलू है जो यह ज़ाहिर करते हैं कि वह आम मेहनतकश आबादी की सामूहिक शक्ति की बजाय चंद नायकों को इतिहास का निर्माता मानते थे। उनका नारा 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्‍हें आज़ादी दूंगा' भी इसी सोच का सूचक है। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने की बजाय युद्ध‍बंदियों को संगठित करके आज़ाद हिन्‍द फौज के ज़रिये आज़ादी हासिल करने का रास्‍ता भी इसी ओर इंगित करता है।
इस दीवार पर एक और कामरेड अवतरित हुईं। उनकी भाषा हिकारत से भरी जैसे कोई कविता हो। उन्होंने नया फतवा जारी किया-‘वह फा‌सिस्ट तो नहीं, हां एक निम्‍न पूँजीवादी उग्र राष्‍ट्रवादी थे।’‘मार्क्‍सवाद तो शायद उन्‍होंने पढ़ा तक नहीं था और समाजवाद की उनकी समझ नितांत सतही थी। सुभाष जनक्रान्ति के पक्षधर नहीं थे। उनका आर्थिक कार्यक्रम भी नेहरू के मुक़ाबले अधिक सतही राजकीय पूँजीवादी था।’ उनके विचारों का अंत इस वाक्य से हुआ...‘अफसोस की बात है कि जो कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी कभी उन्‍हें 'फासिस्‍ट सुभाष' कहते हुए एक छोर का अतिरेकी मूल्‍यांकन कर रहे थे, वे अब दूसरे छोर पर जाकर सुभाष को महान क्रान्तिकारी और समाजवादी तक सिद्ध करने में लगे हैं। यह अधिभूतवादी नज़रिया काफ़ी भ्रम पैदा कर रहा है। और नुकसानदायक भी है।’
इस बहस में कुछ उदारवादी कामरेडो ने हस्तक्षेप की कोशिश की लेकिन उनके विचार कुचल दिए गए। वे चुप हो गए। सोचा था इस बहस में नहीं पड़ूंगा पर नहीं रहा गया।
मैंने अपने कामरेड मित्र से निवेदन किया-‘मुझे लगता है नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज को थोड़ा गहराई से समझने की जरूरत है। देख रहा हूं कई लोग गलत नतीजे पर पहुंचने के लिए बेताब हैं। नेताजी का केवल एक लक्ष्य था भारत की आजादी। गांधी एंड पार्टी से निराश होने के बाद नेताजी के पास कोई और चारा नहीं बचा था। लेकिन वह जानते थे कि फा‌सिस्ट हिटलर को कैसे डील करना है। हिटलर अंत तक नेताजी की राजनीतिक विचाराधारा समझ नहीं पाया। वह उनका ‘पोलिटिकल कॉन्सेप्ट’ जानना चाहता था। सुभाष को ये नागवार गुजरा। उन्होंने एडम वॉन ट्रोफ्फ ज़ु सोल्ज (स्पेशल इण्डिया ऑफिस के चीफ) के जरिए हिटलर को जवाब भिजवाया- “अपने हिज एक्सेलेन्सी से जाकर कहिए कि मैंने अपनी सारी जिन्दगी राजनीति में बितायी है और मुझे किसी की भी सलाह की जरुरत नहीं है।”
मैंने हिकारत की कवियत्री को ‌चिढ़ाया-’क्या क्रान्तिकारी कामरेडों को याद नहीं कि इस युद्ध स्तालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था। सोवियत सैनिकों को एक कदम भी पीछे हटाने का आदेश नहीं था- पीछे हटने वाले सैनिकों को गोली मारने के लिए स्तालिन ने बाकायदे दस्ते तैयार कर दिए थे। इस दस्ते ने कैसे अपने ही उन सैनिकों को गोलियों से भूना था जिन्हें लड़ने के लिए बंदूक भी नहीं
दी गई थी।’
बस फिर क्या था। सुभाष बाबू तो किनारे निकल गए और मैं कामरेडो के गिरोह में फंस गया। कामरेड मित्र ने मुझे लिखा- इतिहास में हमारा आकलन हमारे इरादों से नहीं अपितु हमारे क्रियाकलापों और उनके परिणामों/ संभावित परिणामों से होता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत छोड़ने के बाद अपने अंतिम क्षणों तक वे फासिस्टों के मित्र और कनिष्ठ सहयोगी बने रहे . और जहां तक 'स्टालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था' वाली टिप्पणी का प्रश्न है आशा ही कर सकता हूँ कि आप उनमें से नहीं हैं जो हर मुद्दे को भटका कर स्टालिन और साम्यवाद पर हमले का मौका तलाश करते हैं . बात सुभाष और उनके फासिस्टों से संबंधों के बारे में चल रही है इसमें स्टालिन कहाँ से आ गया ?
मैंने उन्हें सफाई दी कि- मुझे नहीं लगता सुभाष का कोई भी क्रियाकलाप उन्हें विश्व इतिहास में खलनायक ठहराता है। इसीलिए मुझे स्तालिन के क्रियाकलाप की याद आ गई ताकि कामरेड मित्रों का दिमाग एक तरफा न बहके। वैसे मुझे आपके कई विचार निजी तौर पर पसंद हैं। मैं चाहता था कि आपकी वॉल पर चल रही बहस में संतुलन बना रहे।
कामरेड मित्र ने मेरी असहमति का पूरा आदर देते हुए कहा कि- पर सुभाष को खलनायक तो यहां भी कोई नहीं ठहरा रहा है . खलनायक तो आपने स्टालिन को ठहराया है ' हिटलर का बाप ' कह कर .जबकि स्टालिन का ज़िक्र तो पूरी चर्चा में कहीं था ही नहीं . फैज़ की याद दिला दी आपने - वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।
मैंने भी उतनी ही विनम्रता से कहा- ‘जी, लगता है हम दोनों ने एक दूसरे की दुखती नब्ज पर हाथ रख दिया। खैर स्टालिन की क्रूरता के किस्से सारी दुनिया ने सुने हैँ। वह कम से कम मेरा नायक तो नहीं हो सकता। खैर एक शेर मैं भी अर्ज कर दूं नामालुम किसका है लेकिन मौजू है- हम जो डूबे हैं अब तक तो बड़े ताव में हो, तुम ये क्यों भूल गए तुम भी इसी नाव में हो’।
यह कह कर मैंने कहा कि चलता हूं अब। कामरेड मित्र ने बेहद सभ्य लहजे में धमकाया कि यही बेहतर होगा आपके लिए।
इसी बीच बहस में एक तीसरे कामरेड आ गए। बोले- ‘ ये दया सागर जी शायद ट्रोटस्की वादी हैं ....तभी तो स्टालिन को ''हिटलर का बाप'' बता बैठे ...शायद स्टालिन को ढंग से समझ ही नहीं पाए है ..की किस परिस्थिति में फासिस्टो से लोहा लिया ...और सर्वहारा के राज्य की रक्षा की थी....।’
अब परेशान होने की बारी मेरी थी। अब ट्रोट्स्की कहां से आ गए बीच में। मैं तो बेचारे को जानता तक नहीं। ट्रोट्स्की के बारे में खोजबीन की तो पता चला उन्हें १९२९ में ही सोवियत संघ से निकाल दिया गया था. इसी के साथ कई और तथ्य पता चले। जैसे-१९३३ में हिटलर के सत्ता में आने पर, स्टालिन ने हिटलर को बधाई सन्देश भेजे थे। पता चला कि ‘स्टालिन साहब इस जुगाड़ में लगे रहे कि किसी तरह हिटलर के साथ उसका समझौता हो जाए। आखिर में सितम्बर १९३९ में स्टालिन ने यह कारनामा कर दिखाया. उसने हिटलर के साथ एक युद्ध संधि की जिसके अनुसार पोलैंड से शुरू करके समूचे यूरोप को हिटलर और स्टालिन की फौजों ने मिलकर चबा जाना था. दुनिया भर की स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी इस संधि से हतप्रभ रह गईं।’
कुल जमा मतलब यह कि ट्रोट्स्की ठीक वैसा सोचते थे जैसा कि मैं यहां सोच रहा हूं। सोच क्या रहा हूं स्टालिन के बारे में अब तक जितना कुछ पढ़ा, समझा और यूरोप की फिल्मों में जो देखा उसी से उनके बारे में ये धरणा बनी। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि सुभाष बाबू ने ऐसा क्या अत्याचार किया कि वह कामरेडो के निशाने पर आ गए। आपके पास एक भी तथ्य नहीं। सोच रहा हूं किसी विचारधारा का कैदी होना कितना खतरनाक है। साले, हिन्दुस्तान में जनमे। आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हो। हम जैसे सर्वहारा के टुकडों पर पल रहे हो। और गीत स्टालिन के गा रहे हो। अब आप कहेंगे मैं फासिस्ट हूं। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा देने वाले सुभाषचन्द्र बोस के साथ खड़ा होना अगर फांसीवाद है तो हां मैं फासिस्ट हूं। कोई शक?

Saturday, January 18, 2014

विरोध में टंगी एक अपाहिज कुर्सी

मेरी यूरोप डायरी -2


जिनेवा। रात के करीब दो बजे हैं होटल क्रिस्टल के नीचे चिल्लाने की आवाजों से नींद खुल जाती हैं। खिड़की से नीचे झांकता हूं। एक आदमी और औरत झगड़ रहे हैं। आदमी कह रहा है ‘डोंट टच मी’। और उससे लिपटते हुए कह रही है ‘आई विल टच यू’। बार-बार चिल्लाते हुए एक ही वाक्य- आईविल टच यू। कौतूहलवश खिड़की का पर्दा थोड़ा और हटाता हूं। दोनों की निगाह मुझ पर पड़ती है वे झगड़ना बंद कर देते हैं। दोनों मुझसे चिल्ला कर फ्रेंच में कुछ कहते हैं। मैं मतलब निकालता हूं-आप सोइए महाराज। हम ठीक हैं। यहां मामला प्रेम का है, झगड़े का नहीं।
अगले दिन सुबह ‘नेशनस’ चला आया। ‘नेशनस’ यानी जिनेवा में यूएन का बस स्टॉप। चोरों तरफ संयुक्त राष्ट्र के कई दफ्तरों के बीच एक हरे मैदान में एक विशालकाय कुर्सी पर नजर अटक गई। इसे यहां सब इसे ‘द ब्रोकन चेयर’ के नाम से जानते हैं। स्विस कलाकार डेनिलय बरसेट की इस कृति को देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। टीक की लकड़ी से बनी यह 12 मीटर ऊंची कुर्सी जैसे हवा में लटकी है। इसका एक पाया कटा हुआ है। तीन पाए की कुर्सी उन मजदूरों की याद में बनी है जो खानों में बारूद बिछाते वक्त अपनी जान गंवा बैठे या अपाहिज हो गए। कुर्सी की कहानी भी खासी दिलचस्प है। अंगोला, कम्बोडिया और तमाम अफ्रीकी देशों में हर साल बारूदी सुरंगों से लाखों लोग मर जाते हैं या अपाहित हो जाते हैं। यह कुर्सी इन खान मजदूरों की आवाज बनकर संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय के सामने टंगी है। डेनियल कहते हैं यह कुर्सी मैं पत्थर की भी बना सकता था पर जानता हूं इंसान पत्थर नहीं हो सकता। यूएन प्रशासन ने तीन साल पहले ये कुर्सी अपने मुख्यालय के सामने लगाने की इजाजत दी थी। सोचा गया था कि संयुक्त राष्ट्र आने वाले राष्ट्राध्यक्षों को इस कुर्सी के बहाने अपंग मजदूरों की याद आएगी। शुरू में यह अपाहिज कुर्सी केवल तीन माह के लिए लगी थी पर यह हटाई नहीं गई। ‘माइन बैन ट्रीटी’ पर दुनिया के केवल 122 मुल्कों ने दस्तखत किए। हवा में लटकी इस कुर्सी को अभी कुछ और दस्तखतों का इंतजार है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के दफ्तर के ठीक सामने खाली पड़ी यह जगह अब दुनिया भर के नाराज लोगों के प्रदर्शन का केन्द्र बन गई है। लेकिन ये प्रदर्शन भी किसी पिकनिक से कम नहीं होता। कम्बोडिया से आए कुछ स्त्री पुरुष और बच्चे यहां विरोध के लिए जमा है। सारी रात हवा में अटकी यह कुर्सी दिमाग में घूमती रही। सुबह के चार बजे हैं। होटल के नीचे तेज शोर से आंखें खुल जाती हैं। खिड़की से झांकता हूं तो नीचे एक गाड़ी मशीन से सड़क साफ कर रही है। एक आदमी पालीथिन बैग में जमा कचरा उठाकर गाड़ी के पीछे डाल रहा है। उसके कंधे के नीचे एक बैसाखी है। उसका एक पांव कटा है। शायद बारूद के विस्फोट से गंवा दिया हो। उसकी नजर ऊपर खिड़की पर पड़ती है वह हाथ हिलाकर कहता है-‘बुनजोरनो।’ मैं अंदाज लगता हूं इसका मतलब ‘गुड मार्निंग’ होगा। मैं सही निकला। मेरे एक स्विस दोस्त गुर्जियों ने बताया कि यह इतालवी शब्द है जिसका अर्थ है ‘गुड मार्निंग’।
....जारी


Saturday, January 11, 2014

विश्व शांति के शहर जिनेवा में

मेरी यूरोप डायरी-1


जिनेवा यानी शांति का शहर। दुनिया भर के देश आपस में झगड़ते हैं। कभी सरहद के लिए, कभी ईंधन के लिए कभी वर्चस्व, तो कभी हथियारों पर कब्जे के लिए। लेकिन अंत में उन्हें शांति की तलाश में जिनेवा आना पड़ता है। ये शांति प्रतीकात्मक है। लाल बत्ती से फर्राटा भरती कारों के अलावा पूरे शहर में आपकों कहीं कोई शोर गुल नहीं मिलेगा। पत्थरों की विशालकाय इमारतों के सामने से गुजरती चौड़ी सड़कों पर पैदल चलते लोग खामोशी से मुस्करा
कर आपका स्वागत करेंगे कि आप विदेशी है और यहां शांति की तलाश में आए है।
मार्च बीतने वाला है लेकिन सर्दी यहां अभी विदा नहीं हुई। शून्य से 4 डिग्री कम तापमान में ठिठुरन बिल्कुल नहीं है। धूप इतनी मीठी और गुनगुनी है कि ठंड का अहसास केवल खुली सड़कों पर पैदल चलने पर होता है। पर इस ठंड में भी यहां के लोगों की गर्मजोशी हथेलियों में महसूस होती है। मेट्रो ट्रेन से एयरपोर्ट से जिनेवा शहर आने में बमुश्किल दस मिनट लगे। कार्नवीन मेट्रों स्टेशन पर उतरा तो होटल का पता करना मुश्किल पड़ रहा है। ज्यादातर लोग फ्रेंच बोलते हैं। जो फ्रेंच नहीं जानते वह जर्मन या इतालवी में बात करने लगते हैं। भाषा को लेकर उनके भीतर एक खास तरह का आग्रह है। इन्हें न अंग्रेजी बोलना पसंद है न सुनना। लेकिन इससे उनकी भलमसाहत में कोई कमी नहीं आती। मेट्रो स्टेशन पर करीब अस्सी साल की एक भद्र बुजुर्ग महिला ने दो बार इतालवी में होटल क्रिस्टल का नाम दोहराया। होतेल क्रिस्तल। ओके। फिर वह पीछे आने का इशारा करते हुए आगे बढ़ गई। यकीन कीजिए करीब डेढ़ किलोमीटर चलकर किसी शार्टकर्ट रास्ते से मेट्रो स्टेशन के बाहर पहुंची। बाहर निकलते ही मैनें पाया कि मैं होटल क्रिस्टल के सामने खड़ा हूं। मैने पीछे पलट कर देखा वह भद्र महिला बिना शुक्रिया पाने का इंतजार किए वापस स्टेशन के भीतर जा रही थीं। शायद उन्हें कोई ट्रेन पकड़नी थी। मुझे शुक्रिया कहने के लिए वापस दौड़कर उनके सामने जाना पड़ा।
दोपहर में सड़कों पर अकेले घूमते वक्त न जाने कब भूख लग गई। मैकडॉनल्ड से बर्गर लिया जो साढ़े छह स्विज फ्रैंक का था यानी भारतीय मुद्रा के हिसाब से करीब 300 रूपए का। यूरोप में अगर आप कुछ खरीदते समय यूरो या स्विज फ्रैंक को भारतीय मुद्रा में बदलते रहें तो यकीन मानिए आपको कई रातें बिना खाए गुजारनी पडेंगी। रेस्त्रां के बाहर सड़क के किनारे पत्थर की मेज पर अपनी प्लेट रख देता हूं। सामने सड़क पर तेजी से स्केट करते लड़को को देखने लगता हूं। अचानक मेरी पत्थर की मेज पर एक गौरेया आकर बैठ जाती है। एकदम निडर। मुझे लगता है कि वह खाने की मेज पर मेरा साथ देने आई है। मैं बर्गर का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़कर उस चिड़िया की तरफ बढ़ता हूं। वह अपने दो नन्हे कदम आगे बढ़ी है। मैं अपना हाथ थोड़ा और आगे करता हूं। वह मेरे हाथों से बर्गर का टुकड़ा लेकर वही चुपचाप खाने लगती है स्विट्जरलैंड के पक्षियों में भी इतनी आत्मीयता है। मेरा दिल भर जाता है।