दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, February 4, 2014

जिनेवा के रेस्टोरेंट में बम्बई की बिरयानी

मेरी यूरोप डायरी-4

सुबह सो कर उठा तो मौसम साफ था। चमकदार धूप। रात आसपास बर्फबारी हुई इसलिए हवा में गहरी ठंडक है। लेकिन इस ठंडक में वह गलन और तीखापन नहीं जैसा हिन्दुस्तान की सर्दियों में दिखता है। मार्च में एक इनर, कमीज और कोट पहन लीजिए काम चल जाएगा। दस्तानों की जरूरत नहीं पड़ती। 
कल रात भी हवा में ऐसी ही ठंडक थी। सोचा आज होटल में नहीं बाहर डिनर लिया जाए। यूरोपीय खाना भी अजब है। ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर में तकरीबन एक सी चीजें होती हैं। ब्रेड, बटर और उबले हुए बिना मसाले के तमाम तरह के गोश्त के व्यंजन। हिन्दुस्तानी रेस्‍त्रां खोजते-खोजते हम पैदल बहुत दूर निकल आए थे। पूछने पर मालूम चला था कि यहां एक सबसे अच्छा हिन्दुस्तानी रेस्टोरेंट है-रेस्टोरेंट बम्बई। और थोड़ी पूछताछ के बाद अब हम इस रेस्टोरेंट के सामने खड़े थे। हमने राहत की सांस ली। टहलते-टहलते भूख भी बढ़ गई थी। इससे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि चार दिन बाद हमारी मेज पर जाने पहचाने व्यंजन होंगे। हिन्दुस्तानी सजावट के साथ रेस्टोरंट साफ सुथरा था। मैं रेस्टोरेंट के मैनेजर से बात करने लग तो चौंका। पता चला इस रेस्टोरंट का मालिक पाकिस्तानी है। रेस्टोरंट का नाम बम्बई इसलिए रखा क्योंकि यहां शुरू से हिन्दुस्तानी ज्यादा आते हैँ। पाकिस्तानी मालिक के पूर्वज भी बम्बई से पाकिस्तान जा कर बस गए थे। फिर पाकिस्तान छोड़कर जिनेवा आ गए। मैंने मैनेजर को बताया कि आपको पता है बम्बई अब हिन्दुस्तान से विदा हो गया। अब वहां मुम्बई है। मैँने कहा कि शुक्र है यहां राज ठाकरे का राज नहीं वर्ना रेस्टोरेंट के शीशी वीशे सब टूट गए होते। मैंनेजर हंसने लगा। उसने हैड शैफ को बुलकर हिदायत दी कि वह हमारा खास ख्याल रखे। रेस्टोरेंट में हर तरह के हिन्दुस्तानी व्यंजन मुहैया थे। मैं शाकाहारी नहीं हूं इसलिए विकल्प की कोई कमी नहीं थी।

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी) में आज मुझे अपनी रिपार्ट पेश करनी है। भारत की सीमा से लगे पाकिस्तान, भूटान, बंगलादेश और नेपाल की तरफ से होने वाली विदेशी सिगरटों की तस्करी पर। दफ्तर से छुट्टी लेकर करीब एक महीने भारत की सरहदों पर भटका था। तस्वीरों के साथ अच्छी रिपोर्ट तैयार हो गई थी। मेरा काम सिर्फ ये रिपोर्ट तैयार कर एक अन्तराष्ट्रीय संगठन- एफसीआई को देना था। ये एक तरह की स्कालरशिप थी। लेकिन बाद में उन्होंने तय किया कि जिस रिपोर्टर ने रिपोर्ट तैयार की वही इसे यूएन में पेश करे। आनन-फानन में यात्रा की तारीख तय हो गई। ये मेरी पहली विदेश यात्रा थी। बचपन से सुनता आया था कश्मीर भारत का स्वीट्जरलैंड है। कश्मीर जाने का बहुत मन था। पर कभीाछ  जा नहीं पाया। लेकिन उस दिन मेरे मेल के इनबाक्स में टिकट आया तो सीधे स्वीट्जरलैंड का। सच पूछिए तो उस वक्त मुझे ईश्वर के सेंस आफ ह्यूमर पर भी बहुत हंसी आई। पासपोर्ट तो मैंने एक साल पहले तभी बनवा लिया था जब मुझे भूटान जाना था। हालांकि मैं जानता था कि भूटान जाने के लिए आपका काम राशन कार्ड से भी चल जाएगा। वहां कोई भी हिन्दुस्तानी अपना कोई भी पहचान पत्र दिखा कर अराइवल वीजा बनवा सकता है। वहां पासपोर्ट की जरूरत नहीं। स्वीज वीसा लेने मुझे दिल्ली आना पड़ा था। स्वीज अम्बेसी बड़ी शालीनता से वीजा जारी कर दिया। वीजा हाथ में आया तो पता चला ये संजैन वीजा है यानी इस वीजे पर मैं पूरा यूरोप घूम सकता हूं। ये एक रोमांचक अहसास था।
खैर डब्लूएचओ की ये कान्फ्रेंस सीआईसीजी यानी सेंटर इंटरनेशल द कान्फ्रेंस जिनेवा में होनी थी। सेहत को लेकर चिन्तित करीब 250 देशों के प्रतिनिधि यहां इकट्ठा थे। थोड़ी घबराहट थी। पर सिगरेट के अवैध कारोबार पर मेरा पीपीटी तैयार था। सोचने लगा स्वामी विवेकानंद की तरह यहां मैं अपनी बात भाइयों-और बहनों के मशहूर सम्बोधन के साथ शुरू करुँ। पर जल्द ही इस ख्याल पर हंसी आ गई। यहां कोई आध्यात्मिक प्रवचन नही देना था। मुझे मालूम था कि रिपोर्ट पेश करने के बाद हमले शुरू हो जाएंगे। और यही हुआ पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रतिनिधियों ने सवाल उठा दिए। उनका कहना था कि भारत ने उन्हें बदनाम करने के लिए ये रिपोर्ट तैयार कराई है। वह तस्करी की वीडियो रिकार्डिंग पर भी यकीन करने को तैयार नहीं थे। मैँ निराश नहीं था क्योंकि मुझे पहले बता दिया गया था कि ये जरूर होगा। अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में हर देश अपने आपको पाक साफ बताने की कोशिश करता है। यही वजह है कि अक्सर इन अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों किसी एक बात पर सहमति नहीं बन पाती।

फिर चाहे वह पर्यावरण से जुड़ा कोई मुद्दा हो या स्‍वस्‍थ्य से जुड़ा। दिन भर बहस चली और कोई नतीजा नहीं निकला। निकलना भी नहीं था। बाद में मैंने अपने पाकिस्तानी मित्र से पूछा-क्या यार तुम्हे पता नहीं है कि नेपाल की तरफ से पूरा बार्डर खुला है। तुम लोग सारी खुराफातें करते हो। और अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में आकर सूफी संत बन जाते हो। वह हंसने लगा। बोला-यार नौकरी भी तो हिफजत करनी है। तुम ठहरे सहाफी जो चाहे सो लिख दो। हम सरकारी मुलाजिम हैं। हमें पहली ट्रेनिंग यही दी जाती है कि अन्तराष्ट्रीय मंच पर हर उस रिपोर्ट की मुखालफत करो जो आपके मुल्क को बदनाम करती हो चाहे वो कितनी सही क्यों न हो। अपने मंत्रालय के अफसर से पूछिए वह भी यही बताएंगे। अब मुझे इस नामुराद मसले ज्यादा डिबेट नहीं करनी थी। मेरा काम खत्म हो चुका था। मेरे सामने दुनिया की सबसे खूबसूरत धरती थी और नीला खुला आसमान था। मेरे सामने असल चुनौती ये थी कि मैं कम से कम वक्त में सात समन्दर पार के इस जहान को अपने भीतर समेट लूं। मेरा जेहन आगे की योजनाएं बनाने में मसरुफ हो गया।    

जारी