दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, August 26, 2014

अलविदा एटनबरो



जब पहली दफा रिचर्ड एटनबरो की गांधी फिल्म देखी तब मैं करीब 12-13 साल का रहा हूंगा। और सच कहूं तो तब पहली दफा मैं चलते फिरते सिनेमा की ताकत से रूबरू हुआ। फिल्म में महात्मा का किरदार निभाने वाले शख्स बेन किंग्स्ले को देखकर मुझे पक्का यकीन हो गया कि गांधी सचमुच में ऐसे ही रहे होंगे। उनकी तेज चाल, बोलने का लहजा, तीखी निगाहें। मन में कहीं बस गया कि हां चर्चिल का वह अधनंगा फकीर जरूर ऐसा ही रहा होगा। बहुत साल बाद मैंने बेन किंग्स्ले को हालीवुड की बेमिसाल फिल्म 'शिंडलर्स लिस्ट' में एक यहूदी एकाउंटेंट और कारखाने के मैनेजर की भू‌मिका में देखा। तब वह नाजियों के जुल्म के शिकार के रूप में एकदम दूसरा आदमी था। तब मैंने पहली बार जाना की अभियन क्या चीज है। मुझे तब अमिताभ बच्चन से बड़ा हीरो मिल गया था।
लखनऊ के नावेल्टी सिनेमाघर से एटनबरो की गांधी देखने के बाद मैं वह शख्स नहीं था जो साढ़े तीन घंटे पहले था। दिलो दिमाग पर न जाने कितने तूफान चल रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि दोपहर बाद घर आ कर मैं आंखें बंद करके लेट गया था। फिल्म का एक एक सीन आंखों के सामने एक बार फिर से चलने लगा था। दक्षिण अफ्रीका के उस गुमनाम स्टेशन पर गांधी को फर्स्ट क्लास से धक्‍का देकर बाहर फेंकना। पखाना साफ करने को लेकर कस्तूरबा धक्के देकर घर से बाहर निकालना, डरते-डरते ब्रिटिश हूकूमत के खिलाफ आपने जीवन की पहली स्पीच देना और अन्त में हे राम।

मैं एटनबरो के बारे में सोचने लगा। कितनी मेहनत की होगी इस फिरंगी आदमी ने। फिर किसी ने मुझे बताया कि यह फिल्म वह पिछले बीस साल से प्लान कर रहे थे। उन्होंने नेहरू तक से इस बारे में बात की थी। वह इंदिरा से भी मिले थे। पर इंदिरा ये फिल्म नहीं देख पाईं। इंदिरा गांधी की मौत उसी साल हुई थी। उनकी मौत भी गांधी की तरह हुई थी। एटनबरो को गांधी बनाने की प्रेरणा लुई फिशर की किताब से मिली थी। सोचता हूं उन्हें गांधी की इस जीवनी में नाटकीयता के वह सारे तत्व आसानी से मिल गए थे जो किसी भी फिल्म के लिए जरूरी होते हैं। फिर उन्होंने किरदार की तलाश की। उन्होंने नसीरूद्दीन को भी गांधी के किरदार के लंदन बुलाया था। वहीं  बेन किंग्स्ले से पहली मुलाकात के बाद ही वह समझ गए कि यह रोल उनके हाथ से गया। फिल्म में नेहरू हों या जिन्ना या फिर कस्तूरबा के रोल में रोहिणी। यह एटनबरो का कमाल था कि उन्होंने मरे हुए लोग एक बार फिर पर्दे पर जिन्दा कर दिया था। कई बार मुझे लग एटनबरो एक बेहतरीन पेंटर हैं जिन्होंने सिनेमा के बिम्बों का इस्तेमाल कर जीवन्त दृश्यों का एक ऐसा एलबम तैयार किया जो एक महान कलाकृति के रूप में दुनिया के सामने आई।

इस फिल्म को देखने के बाद गांधी मेरी जिन्दगी का एक हिस्सा हो गए। मुझे लगा इस आदमी पर जितना भी काम किया जाए वह कम है। तब मैंने गांधी को पढ़ना शुरू किया। और मुझे लगा इस आदमी को एक क्या 100 एटनबरो भी नहीं समझ सकते। हालांकि एटनबरो ने इस फिल्म के शुरू में ही स्वीकार किया है कि ‌किसी भी आदमी की जीवन की कहानी एक ही बार में पूरी तरह नहीं कही जा सकती। एटनबरो सच थे। और तब मैंने महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर काम शुरू किया। मैंने पाया कि महात्मा एक साथ दो जिन्दगियां जी रहे थे। एक जीवन सार्वजनिक था दूसरा आध्यात्मिक। इन दोनों जीवन में एक चीज समान थी और वह थी जिद। और अपनी जिद मनवाने के लिए वह कभी भी अपने प्राण संकट में डाल सकते थे। इसलिए कोई हैरत की बात नहीं कि फिरंगी उन्हें एक खतरनाक इंसान मानते थे। लेकिन व्यक्ति चाहे कितना महान हो मानवीय पैमाने पर वह अपने जीवन के विरोधाभासों, कमजोरियों और गलतियों से मुक्त नहीं हो सकता। 
एटनबरो नहीं रहे। मैं उनसे कभी नहीं मिला। लेकिन उनके जाने की खबर से कहीं भीतर बहुत दुखी और उदास हूं। आप मुझे दिलासा देने के लिए कह सकते हैं कि शरीर नश्वर है एटनबरो जो पीछे छोड़ गए वह शाश्वत। आप सही हो सकते हैं लेकिन मेरे पास अपनी पीड़ा से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।

Sunday, August 24, 2014

शुक्रिया दोस्तों


मुझे याद नहीं आता कि आखिरी जन्मदिन मैंने कब मनाया था। मैं हमेशा से इसी ‌सिद्धान्त को मानता आया हूं कि कोई भी जन्मदिन, जन्म की कम और मौत की याद ज्यादा दिलाता है। हम पीछे की तरफ देखते हैं, आगे की तरफ नहीं देखते। हर जन्मदिन का मतलब सिर्फ यह है कि आदमी एक साल और मर गया, जिंदगी का एक साल और कम हुआ। आप कहेंगे ये सोच नकारात्मक है। पर सच तो यही है। ऐसे में मुझे मनोवैज्ञानिक जुंग की बात याद आती है जो कहता था आदमी मौत से इतना घबरा गया है कि उसने मृत्यु को अपने चेतन मन से बाहर कर दिया है। वह भूल कर भी मौत की बात नहीं करता। मौत का ख्याल भी कभी मन में नहीं लाता। इसी डर से शायद हम मृत्यु को बाहर रखते हैं और जन्म को भीतर रखते हैं।
इसलिए कोई हैरत की बात नही कि मनुष्य ने जन्मदिन को उत्सव में बदलने की कला विकसित कर ली। एक ऐसा उत्सव जिसकी पूरी परिकल्पना झूठ पर खड़ी है। फिर भी रात बारह बजे से फेसबुक के इनबाक्स पर जन्मदिन की बधाइयां जिस रफ्तार से गिरनी शुरू हुईं मन का एक कोना कहीं भीग गया। इतने दोस्त और शुभचिन्तक कब बन गए पता ही नहीं चला। यह बेशक एक मीठा अहसास है। इसी मिठास के साथ मैं उन आपने तमाम जाने अनजाने मित्रों को साधुवाद देता हूं जिन्होंने मुझे मेरे जन्मदिन पर शुभकामनाओं के फूल भेंट किए।

पूत के पांव



करीब पन्द्रह साल हो गए। लखनऊ में वह रिपोर्टिंग के शुरूआती दिन थे। तब वह किंग जार्ज मेडिकल कालेज हुआ करता था। हम गांधी वार्ड को नर्क का द्वार कहते थे। वार्ड के मुख्य द्वार से निकलने से पहले आपको अक्सर थोड़ा ठहरना पड़ता था क्योंकि वहां से हर दस मिनट में किसी मरीज की लाश बाहर निकलती दिखती थी। मुझे गांधी वार्ड पर एक लाइव रिपोर्ट तैयार करनी थी। हमारे फोटोग्राफर संदीप रस्तोगी ने भी तब पत्रकारिता की शुरूआत ही की थी। हम दोनों अंदर पहुंचे। रेजिडेंट डाक्टर मरीजों को देख रहे थे। और तभी हमसे बात करते-करते एक रेजिटेंट ने मरीज के बेड पर अपना एक पांव रख दिया। संदीप से तब मेरी सिर्फ आंखों आंखों में बात हुई थी। सीधे फोटो हो नहीं सकती थी। सो वह आगे बढ़ गया और दूसरी तरफ पड़े मरीजों की फोटो खींचने लगा। और वही से घूम कर पीछे से उसने यह तस्वीर ‌क्लिक की।
डॉक्टरी पढाई का पहला कदम मरीज के बिस्तर पर- जगरण में इस हैडिंग से खबर छपी तो अगले दिन हंगामा मच गया। किंग जार्ज के  रेजिडेंट डाक्टरों ने तो जागरण पर हल्ला बोलने की तैयारी कर ली थी। इत्तेफाक से हमारे तेजतर्रार संपादक विनोद शुक्ल को किंग जार्ज मेडिकल कालेज जाना था। उनकी कार पर कहीं जागरण का स्टीकर लगा था। डाक्टरों ने गाड़ी में तोड़फोड़ शुरू कर दी। किसी तरह वह बच कर वापस आए। हमे लगा कि अब गए काम से। विनोद जी के गुस्से से हम सब वाकिफ थे। संदीप तो बेतरह डर गया था। मुझे अपने कमरे में बुलाया। बोले-तुम लोग सुधरोगे नहीं। फिर खूब जोर से हंसे। बोले- मुझे ऐसे ही लड़के चाहिए। अपने जैसे दो तीन लड़के और ले आओ।
संदीप ने १९९९ की ये फोटो आज फेसबुक पर शेयर की तो पुरानी कई यादें ताजा हो गई। संदीप इस फोटो के लिए १५ साल बाद एक बार फिर बधाई।

कोल्हू के बैल



राजेन्द्र यादवजी के जाने के बाद साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ना छूट ही गया था। लखनऊ की डाक से अभी 'मंतव्य' का पहला अंक मिला। सबसे पहले किताबनुमा पत्रिका को बीच से खोल कर मैं छपे हुए शब्दों की स्याही की खुशबू अपने भीतर तक ले गया। नई किताब हाथ में आने के बाद मैं अक्सर ऐसा करता हूं। हर नई किताब या पत्रिका का अपनी अलग खुशबू होती है। कवर पेज पर लगी बेहतरीन और विचारोत्तेजक तस्वीर को काफी देर तक देखता रहा। रस्सी पर चल रहा नट अपने कंधे पर एक गधा ढो रहा है। गधे के आंख पर पट्टी बंधी हैं और नट के पांव में घुंघरू। सोचने लगा नट ने गंधे की आंख पर पट्टी क्यों बांधी होगी?
यह तस्वीर देख कर मुझे कोल्हू के बैल की एक दिलचस्प कहानी याद आ गई। एक व्यापारी ने अपनी दुकान के पीछे कोल्‍हू लगा रखा था। कोल्हू का बैल बिना किसी के हांके चल रहा था। बैल की आंखों पर पट्टी बंधी थी। एक मुसाफिर यह  मजेदार नजारा देखकर रुक गया। उसने व्यापारी से पूछा-बड़ा सीधा है तुम्हारा ये बैल। तुम इधर दुकान पर बैठे हो और वह बिना किसी के हांके चल रहा है। व्यापारी ने कहा इसीलिए तो उसकी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। बैल को पता ही नहीं चलता कि उसे कोई देख भी रहा है। मुसाफिर ने कहा वो तो ठीक है लेकिन अगर बैल चलते-चलते रूक कर सुस्ताने लगा तो तुम्हें कैसे पता चलेगा? व्यापारी ने कहा-उसका भी इंतजाम मैंने कर रखा है। ध्यान से देखो मैंने बैल के गले में घुंघरू बांध रखे हैं। वह जैसे ही रुकता है मुझे पता चल जाता है और मैं उसे हांक देता हूं।  मुसाफिर भी हार मानने वाला नहीं था। उसने कहा अगर बैल खड़ा रहकर गर्दन हिलाता रहे तब क्या करोगे? व्यापारी ने कहा-महोदय आप अपना रास्ता देखिए। इस तरह के आइडिया देकर मेरे सीधे-सादे बैल को चालाकी मत सिखाइए।
व्यापारी के ये बैल मुझे हमेशा से सरकारी नौकरों का स्मरण कराते रहे हैं। खैर पन्ने पलट रहा हूं। हरे प्रकाश उपाध्यायजी ने बड़ी खूबसूरती से इस पत्रिका को सजाया है। सामग्री के चयन में भी काफी मेहनत की है। देख रहा हूं हरे प्रकाश ने साहित्य में मफियावाद कड़ी चुनौती दी है। संपादन व चयन चुस्त है। कंटेंट भी सराहनीय है। फिलहाल तो इस खूबसूरत पत्रिका के लिए उपाध्याजी और उनकी टीम को मेरी ढेर सारी बधाई।

Friday, August 1, 2014

शुक्रिया श्रीमती एलन


शिमला की उस सकरी सड़क पर मैं उस महिला को झाड़ू लगाते हुए देख रहा था। ‌शिमला की सड़कों पर न कूडा होता है और न धूल मिट्टी। ज्यादा से ज्यादा देवदार की पत्तियां सड़क पर बिखरी होती हैं। फिर शिमला नगर निगम शहर की खूबसूरती बनाए रखने के लिए साफ सफाई पर ज्यादा ध्यान देती है। शिमला निगर निगम के कुछ कायदे बड़े दिलचस्प हैं। मसलन अगर आप अपने पालतू कुत्ते के गले में पट्टा नहीं बांधते तो आपको भारी भरकम जुर्माना देना पड़ सकता है। अगर आपने अपने घर में २४ घंटे से ज्यादा कूड़ा रखा तो आपको जुर्माना देना होगा। खैर मैं उस सफाई कर्मी की बात कर रहा था जो अल सुबह लंबे हत्‍थ झाड़े से सड़क साफ कर रही थी। वह अपने काम को बेहद पेशेवर ढंग से अंजाम दे रही थी। ऐसे प्रोफेशनल और कर्मठ सफाईकर्मी मैंने जिनेवा की सड़कों पर देखे थे। कैसे वहां महिला सफाईकर्मी कार से उतरती है। चेंज रूम में जाकर अपनी वर्दी पहनती है और अपने काम में जुट जाती है। पूरी गरिमा और सम्मान के साथ। हमारे साथ सबसे बड़ी ‌दिक्कत यही है कि हम जीवन की इस गरिमा को नकार कर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को ज्यादा तरजीह देते हैं।
खैर मैं नहीं जानता की लंबे हत्‍थ झाडू का आविष्कार किसने किया। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूं भारत के पहले अमेरिकी राजदूत एल्सवर्थ बंकर की पत्नी हैरिएट एलन का जिन्होंने भारत में सफाईकर्मियों को छोटे झाडू से निजात दिलाई। एलन बेहद संवेदनशील महिला थीं। दिल्ली आईं तो उन्होंने देखा कि यहां महिलाएं छोटे झाडू से बैठ कर सड़क साफ करती हैं। उन्हें जीवन भर छोटी सी झाडू से झुक कर काम करना पड़ता है। इससे उनकी कमर झुक वक्त से बहुत पहले झुक जाती है। एक इतवार जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें प्रधानमंत्री आवास चाय पर बुलाया। वह बुजुर्ग महिला अपनी बड़ी सी कैडिलक कार से आईं। अपनी कार की ‌डिग्गी में वह लम्बा झाड़ू लेकर आईं थीं। उन्होंने पीएम निवास के सामने सड़क पर लम्बे हत्‍थे की झाडू से सफाई करवायी। नेहरू इस डैमो से बहुत प्रभावित हुए। वह भी संवेदनशील राजनेता थे। उन्होंने तुरंत दिल्ली नगर निगम व नगर पालिका में लंबे हत्‍थे वाले झाडू के इस्तेमाल करने का इंतजाम करवा दिया। बाद में यह व्यवस्‍था पूरे भारत में लागू हो गई। 
हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं के लिए ये बेशक एक प्रेरणादायक कहानी हो सकती है। बड़ी बड़ी योजनाओं पर दिमाग खपाने के बजाए वह रोजमर्रा के जिन्दगी से प्रेरणा लेकर बड़े काम कर सकते हैं।