दयाशंकर शुक्ल सागर

Wednesday, January 21, 2015

धार्मिक कट्टरता एक जहालत है



युवा मित्र यशार्थ मंजुल द्वारा भेजी गई बेहतरीन बांग्लादेशी फिल्म टेलीविजन देखी। शुक्रिया।  ये फिल्म बांग्लादेश के सुदूर गांव की कहानी है जो चारों तरफ से पानी के बीच घिरा है। गांव के इस्लामिक लीडर चेयरमैन अमीन को तस्वीरों खासतौर से टेलीविजन से नफरत है। गांव में उन्होंने टीवी देखने पर पाबंदी लगा रखी है। वह इसे हराम मानते हैं। टीवी पर इंटरव्यू भी देते हैं तो पर्दे में ताकि उनकी तस्वीर न आ जाए। अखबार भी पढ़ते हैं लेकिन अखबार में छपी सारी तस्वीरों को सफेद कागज से ढक देते हैं। वह नहीं चाहते कि आधुनिकता की हवा उनके गांव में दाखिल हो। इसके लिए उन्हें विरोध भी झेलना पड़ता है। पर वह अपनी इस्लामिक मान्यताओं पर अडिग हैं। उनके जीवन में सबसे तनावपूर्ण दौर तब आता है जब उनमें हज जाने इरादा जन्म लेता है। हज के लिए पासपोर्ट चाहिए और पासपोर्ट के लिए फोटो। मौलाना आंख बंद करके जीवन में पहली दफा अपनी तस्वीर खिंचवाते हैं। हज के लिए ढाका एयरपोर्ट पहुंचते हैं तो पता चलता है कि एजेंट ने सबको बेवकूफ बनाया है। हज जाने का उनका सपना टूट जाता है। वह मायूस होकर होटल के कमरे में आते हैं। उनका दिल टूटा हुआ है। वह किस मुंह से गांव लौटे अब। तभी सामने के कमरे से उन्हें टीवी चलने की आवाज सुनाई देती है। टीवी पर काबे की लाइव कवरेज है। वहां लाखों मुसलमान हज का अरकान अदा कर रहे हैं।  टेलीविजन पर यह चित्र देखकर चैयरमैन जार जार रोने लगते हैं। आसूंओं के साथ उनके होटों से आवाज निकलती है... ओह अल्लाह.... मैं भी मौजूद हूं। ....मैं भी मौजूद हूं। अंग्रेजी में सब टाइटल हैंः Oh GOD I'am Present. Oh GOD I'am Present.
यह फिल्म एक संदेश देती है। धार्मिक कट्टरता एक जहालत है। वक्त के साथ आपको बदलना ही पड़ेगा। हिन्दू धर्म  ऐसी जहालत से सराबोर है।  पीके हो या ओ माई गॉड। इन फिल्मों ने हिन्दू रूढियों और अंधविश्वास पर हमला बोला है। आसराम जैसे धर्म के ठेकेदार और भगवानों के कथित मैनेजर कैसे हिन्दू धर्म का मजाक उड़ा रहे हैं। समोसे की चटनी के बदले कृपा बांटने वाले निर्मल बाबा तो खुद अपने आप में मजाक हैं। उनका मजाक उड़ाने से अगर आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो बेशक हों।  निशाने पर ऐसे पाखंडी होने चाहिए न कि हिरानी या आमिर खान। धर्म कोई भी हो वह आलोचनाओं और नए विचारों के लिए खुला होना चाहिए वर्ना कोई भी धर्म घुट कर मर जाएगा। इसलिए हिन्दू और मुस्लिम दोस्तों से विनम्र गुजारिश है कि वह धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास के खिलाफ खड़े हों।





धार्मिक कट्टरता एक जहालत है



युवा मित्र यशार्थ मंजुल द्वारा भेजी गई बेहतरीन बांग्लादेशी फिल्म टेलीविजन देखी। शुक्रिया।  ये फिल्म बांग्लादेश के सुदूर गांव की कहानी है जो चारों तरफ से पानी के बीच घिरा है। गांव के इस्लामिक लीडर चेयरमैन अमीन को तस्वीरों खासतौर से टेलीविजन से नफरत है। गांव में उन्होंने टीवी देखने पर पाबंदी लगा रखी है। वह इसे हराम मानते हैं। टीवी पर इंटरव्यू भी देते हैं तो पर्दे में ताकि उनकी तस्वीर न आ जाए। अखबार भी पढ़ते हैं लेकिन अखबार में छपी सारी तस्वीरों को सफेद कागज से ढक देते हैं। वह नहीं चाहते कि आधुनिकता की हवा उनके गांव में दाखिल हो। इसके लिए उन्हें विरोध भी झेलना पड़ता है। पर वह अपनी इस्लामिक मान्यताओं पर अडिग हैं। उनके जीवन में सबसे तनावपूर्ण दौर तब आता है जब उनमें हज जाने इरादा जन्म लेता है। हज के लिए पासपोर्ट चाहिए और पासपोर्ट के लिए फोटो। मौलाना आंख बंद करके जीवन में पहली दफा अपनी तस्वीर खिंचवाते हैं। हज के लिए ढाका एयरपोर्ट पहुंचते हैं तो पता चलता है कि एजेंट ने सबको बेवकूफ बनाया है। हज जाने का उनका सपना टूट जाता है। वह मायूस होकर होटल के कमरे में आते हैं। उनका दिल टूटा हुआ है। वह किस मुंह से गांव लौटे अब। तभी सामने के कमरे से उन्हें टीवी चलने की आवाज सुनाई देती है। टीवी पर काबे की लाइव कवरेज है। वहां लाखों मुसलमान हज का अरकान अदा कर रहे हैं।  टेलीविजन पर यह चित्र देखकर चैयरमैन जार जार रोने लगते हैं। आसूंओं के साथ उनके होटों से आवाज निकलती है... ओह अल्लाह.... मैं भी मौजूद हूं। ....मैं भी मौजूद हूं। अंग्रेजी में सब टाइटल हैंः Oh GOD Iam Present. Oh GOD Iam Present.
यह फिल्म एक संदेश देती है। धार्मिक कट्टरता एक जहालत है। वक्त के साथ आपको बदलना ही पड़ेगा। हिन्दू धर्म  ऐसी जहालत से सराबोर है।  पीके हो या ओ माई गॉड। इन फिल्मों ने हिन्दू रूढियों और अंधविश्वास पर हमला बोला है। आसराम जैसे धर्म के ठेकेदार और भगवानों के कथित मैनेजर कैसे हिन्दू धर्म का मजाक उड़ा रहे हैं। समोसे की चटनी के बदले कृपा बांटने वाले निर्मल बाबा तो खुद अपने आप में मजाक हैं। उनका मजाक उड़ाने से अगर आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो बेशक हों।  निशाने पर ऐसे पाखंडी होने चाहिए न कि हिरानी या आमिर खान। धर्म कोई भी हो वह आलोचनाओं और नए विचारों के लिए खुला होना चाहिए वर्ना कोई भी धर्म घुट कर मर जाएगा। इसलिए हिन्दू और मुस्लिम दोस्तों से विनम्र गुजारिश है कि वह धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास के खिलाफ खड़े हों।





Saturday, January 17, 2015


क्या आप सूफी संत सरमद को जानते हैं


आज संत सरमद शहीद के बारे में पढ़ रहा हूं। अद्भुत आदमी था ये। वह सूफी था और औरंगजेब के हुक्‍म से मस्‍जिद में उसका कत्‍ल किया गया। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह आधा कलमा पढ़ता था। आधा कलमा था-अल्‍लाह ही एक मात्र परमात्‍मा है। वह कलमा का अगला हिस्सा मानने को तैयार नहीं था जिसमें कहा गया है सिर्फ मुहम्‍मद ही अल्‍लाह के पैगंबर है।
वह मानता था कोई भी अकेला पैगंबर नहीं हो सकता। कोई भी आदमी—फिर से जीसस हो या मोहम्‍मद या मोज़ेज या बुद्ध, एकमात्र नहीं हो सकता। सरमद का कत्‍ल कर दिया गया मुगल बादशाह औरंगजेब के हुक्‍म से। उसने मुल्लाओं के साथ साजिश की थी। लेकिन सरमद हंसता रहा। उसने कहा, मरने के बाद भी मैं यही कहूंगा।
एक दफा औरंगजेब की बेटी जेबुनिशा ने महल की खिड़की से देखा कि एक नग्न फकीर कीचड़ में खेल रहा है। उसने पूछा क्या कर रहे हो। सरमद ने कहा-जन्नत बना रहा हूं। जेबुनिशा का कहा -मुझे बेचोगे? सरमद ने कहा -जरूर। कितने में? सरमद बोले-हुक्के के तम्बाकू की कीमत में। जेबुनिशा ने जन्नत खरीद ली। सरमद ने तख्ती लगा दी -ये जन्नत जेबुनिशा की मलकियत है। एक दिन औरंगजेब ने ये देखा तो चौंक गया। बेटी से पूछा-ये क्या तमाशा है? बेटी ने सरमद के बारे में बताया। औरंगजेब सरमद से मिलने गया। कहा मेरे लिए एक ऐसी ही जन्नत महल में बना दो। सरमद बोला-ये मुमकिन नहीं। ऐसे चमत्कार रोज नहीं होते।
दिल्‍ली के मौलवी सरमद से किसी तरह छुटकारा पाना चाहते थे। लेकिन उन दिनों सरमद का जादू दिल्‍ली के लोगों पर तारी था। उसे कुछ हो जाता तो बवाल खड़ा हो सकता था। लोगों में यक अफवाह जड़ जमा चुकी थी कि सरमद दारा को एक सिंहासन देना चाहता था। औरंगज़ेब ने सरमद को बुलवा कर इस बारे में सफाई पेश करने के लिए कहा।
सरमद ने बताया कि वह किसी मिट्टी के सिंहसन की बात नहीं कर रहा था, वह तो स्‍वर्ग के सिंहासन की और इशारा कर रहा था। जब औरंगज़ेब को भरोसा न हुआ तो सरमद ने उसे कहा, ‘’आंखे बंद करो और खुद देख लो।‘’
औरंगज़ेब ने आंखे बंद कीं तो उसे यह नज़ारा दिखाई दिया कि दारा स्‍वर्ग में एक सिंहासन पर बैठा है। और औरंगज़ेब उसके सामने एक भिखारी की तरह खड़ा है। यह देखकर औरंगज़ेब आगबबूला हुआ। और तबसे सरमद उसकी आंखो की किरकिरी हो गया। उसे दहशत पैदा हुई कि यह नज़ारा सरमद कहीं और लोगों को न दिखाये।

दिल्‍ली की विशाल जामा मस्‍जिद, जहां सरमद का कत्‍ल किया गया। इस महान व्‍यक्‍ति की स्‍मृति लिये खड़ी है। बड़ी बेरहमी से, अमानवीय तरीके से उसका कत्‍ल हुआ। उसका कटा हुआ सिर मस्‍जिद की सीढ़ियों पर लुढ़कता हुआ चिल्‍ला रहा था: ‘’ला इल्‍लाही इल अल्‍लाहा।‘’ वहां खड़े हजारों लोग इस वाकये को देख रहे थे।
दिल्‍ली की मशहूर जामा मस्‍जिद से कुछ ही दूर, बल्‍कि बहुत करीब, एक मज़ार है जिस पर आज भी हजारों मुरीद फूल चढ़ाते, चादर उढ़ाने आते है। इत्र की बोतलों और लोबान की खुशबू से महक उठता है उसका परिवेश। वह मज़ार है हज़रत  सरमद की। अब जब मैं  दिल्ली गया तो वहां जरूर जाउंगा। आप भी कभी जरूर जा‌इए।



Wednesday, January 14, 2015

जीवन चलने का नाम



दोपहर जब दफ्तर से निकला तो देवदार के पेडों के बीच से बर्फ रुई के फाए की तरह मेरे कोट पर आकर चिपकने लगी थी। सफेद बर्फ के बेहद नर्म, मुलायम और मासूम फाए। हवा में एक विचित्र सा ठंडापन है। इसे आप जाड़ा नहीं कह सकते। क्योंकि हाथ और जूते में छुपे पांव में जरा भी गलन महसूस नहीं हो रही है। शिमला में यह मेरा पहला जाड़ा है। और आप यकीन मानिए ये अब तक का सबसे आरामदायक सर्दियों के दिन हैं। दिल्ली और यूपी की सर्दी एक खीज पैदा करती है। वहां की सर्द हवा में एक अजीब-सा तीखापन है। सर्द हवा आपके परिधानों को पार करके सीधे हड्डी में दाखिल हो जाती है। फिर चाहे आप कम्बल ओढ़िए या अलाव तापिए। लेकिन शिमला में ऐसा नहीं है। शरीर ढका हो तो जाड़ा त्वचा तक भी नहीं पहुंचता। हवा का ठंडापन मई-जून की हवाओं से थोड़ा ही ज्यादा सर्द होता है। मैंने इसकी वजह जाननी चाही तो पता चला यहां उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह कोहरा नहीं गिरता। कोहरा हवा में एक अजीब तरह का तीखापन भर देता है। सूखा और तिक्त तीखापन।
बर्फ शाम तक पूरे शहर को अपनी आगोश में ले चुका है। देवदार के पेड़, सड़कें, बिजली के तार, घर, बाजार सब बर्फ की चादर ओढ़ चुकी है। लेकिन सर्दी का नामो निशान नहीं। रात करीब बारह बजे दफ्तर से निकला तो देखा मेरी कार भी बर्फ की चादर ओढ़े खड़ी है। पहली नजर में लगा कि कार जैसे किसी फ्रिजर में रखी हो। कार की विंड स्क्रीन बर्फ से ढकी थी। वाइपर चलाया पर कोई असर नहीं। कार स्टाट करके हीटर चलाया लेकिन कोई असर नहीं। सोचा अंदर जाकर पता करुं कि इस समस्या से निपटने के लिए स्‍थानीय लोग क्या उपाय करते हैं। फिर एक सामान्य सा आइडिया आया कि क्यों न पानी कुनकुना करके विंड स्क्रीन पर डाला जाए। गरमाहट पा कर बर्फ हट जाएगी। आइडिया काम कर गया। बाद में पता चला स्‍थानीय लोग भी यही करते हैं। पल भर में विंड स्क्रीन पारदर्शी हो गई।
तो बर्फ यहां जिन्दगी रोकती नहीं। शर्त यह है कि आप चलते रहिए। कहीं रुकिए नहीं। हिमाचल में एक बहुत सुंदर कहावत है- हिऊं बीचै हांडदा मांछ नेंई मरदा। यानी बर्फ के बीच चलता हुआ व्यक्ति नहीं मरता है, क्योंकि चलते हुए व्यक्ति को ठंड नहीं लगती। 
 

Tuesday, January 13, 2015

पहले इस्लाम को समझें


फेसबुक पर इस्लाम बनाम हिन्दुत्व पर विमर्श अच्छा जा रहा है। एक मित्र Ashutosh Ashu ने मुझसे पूछा-सवाल तो वही है मेरा कि हिन्दू धर्म पर आप निडर हो कर बोल सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा विरोध होगा मोर्चा निकलेगा पोस्टर फाडे जाएंगे बस। दूसरे धर्म के बारे में बोलने वालों का अंजाम आप देख रहे हैं। सच्चा वही है जो सबके बारे में समान बोले।
सच है हिन्दू धर्म पर हम निडर होकर बोल सकते हैं क्योंकि हिन्दू धर्म इसकी मान्यता देता है। बुद्ध, महावीर, शबर से लेकर चार्वाक तक एक लम्बी और शानदार परम्परा है। इनमें कइयों ने तो हिन्दुओं के कर्मकाण्डों और पूजा पाठ का मजाक तक उड़ाया। लेकिन हमारे यहां किसी को सूली पर नहीं लटकाया गया। महात्मा बुद्ध को तो आगे चलकर विष्‍णु के दस अवतारों में एक मान लिया गया। मोटे तौर पर आज हिन्दुओं को तीन हिस्सों में रखा जाता है। पहले सनातनी जो पुरानी परम्पराओं को ज्यों का त्यों मान्यता देते हैं। दूसरे कट्टर सुधारवादी जो पूजा पाठ और कर्मकाण्‍डों के विरोध के बावजूद हिन्दू धर्म को मान्यता देते हैं और तीसरे समन्वयवादी जो हिन्दु धर्म की पुरानी और नवीन परम्पराओं का समावेश चाहते हैं। इस 21सवीं सदी में तीसरी श्रेणी के हिन्दू ज्यादा हैं।
अब रही दूसरे धर्म की बात। बेशक आप इस्लाम की बात कर रहे हैं। इस्लाम, बौद्ध और जैनियों की तरह हमारी मिट्टी में नहीं जनमा। यह अरब की कबिलाई संस्कृति में पैदा हुआ एक धर्म है। अरब लोग कबिलों में बंटे थे। हर कबिले के अपने देवी देवता होते थे उनकी मूर्ति होती थी जिसे वह सनम कहते थे। आपको यह जानकर हैरत होगी यह सनम यानी मूर्तियां बाकायदा मस्जिद में रखी जाती थीं। मुहम्मद साहब का भी अपना कबिला था जिसे कुरैश कहा जाता था। इस कबिले का धर्मस्‍थल काबा था जहां मूर्तियां रखी जाती थीं। आसपास के कबिलों के लोग यहां हर साल हज करने आते और मूर्ति पूजा करते थे। यहां हिंसा वर्जित थी। इन मूर्तियों और इबादतगाहों से सबका सीधा और मजबूत रिश्ता था। तब ईश्वर के बारे में अरब वासियों की एक अस्पष्ट-सी धाराणा थी।
तब मुहम्मद साहब को वैसे ही ज्ञान की प्राप्ति हुई जैसे हमारे देश में बुद्ध और महावीर को। उनके संदेश और धर्म सिद्धान्त को मानने वालों को मुसलमान का नाम दिया गया। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे। लेकिन मक्का में मूर्ति पूजा के विरोध का खामियजा मुहम्मद साहब और उनके अनुयायियों को उठाना पड़ा। वे सब मदीने की तरफ कूच कर गए। मक्के से मदीने की इस यात्रा यानी हिजरा के साथ इस्लाम का इतिहास शुरू हुआ। इसी समय से मुस्लिम कलैंडर यानी हिजरी सन् की शुरूआत हुई।
जैसा कि फिल्म द मैसेज की पोस्ट में मैंने बताया कि पैगम्बर के समानता के संदेश के साथ क्यों इस्लाम दूर दूर तक लोगों को प्रभावित करने लगा और कैसे मदीना इस्लामिक राज्य की पहली राजनीतिक राजधानी बनी और मक्का इस्लाम के धार्मिक केन्द्र के रूप में उभरा। इस्लाम के कारण अरब में पहली बार इस्लामिक एकता का विस्तार हुआ। मुहम्मद के बाद कोई दूसरा पैगम्बर नहीं बन सकता था इसलिए पैगम्बर के प्रतिनिधि यानी खलीफा बनने शुरू हो गए। ‌खलीफों की यानी खिलाफत परम्परा खत्म हुई तो सल्तनतों का उदय हुआ। और इस्लाम पूरी दुनिया पर छा गया।
मुहम्मद साहब सरल व्यक्ति थे उनके संदेश भी उतने सरल और उदार थे। लेकिन उनके अनुयायियों ने राजनीतिक कारणों से इस्लाम के विस्तार के नाम पर इन संदेशों और धार्मिक आचरणों को कट्टर बनाते गए। बहुत थोड़े सूफियों ने इस्लाम को इस सांसारिकता से मुक्त कराके उन्हें निजी आध्यात्मिकता की तरफ ले जाने की कोशिश की लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। इस्लाम में अपने धर्म के खिलाफ बोलने की आजादी खुद किसी मुसलमान को नहीं। तो दूसरे उनके धर्म के खिलाफ बोलें ये उन्हें कतई गवारा नहीं। यह बात हर मुस्लिम के डीएनए में इस कदर पैठ चुकी है कि दुनिया का बड़ा से बड़ा उदारवादी मुसलमान इस ख्याल से आजाद नहीं हो सकता।
नतीजतन इस्लामिक संसार में एक बड़े पैमाने पर कट्टरवादी सोच का विस्तार होता गया। कट्टरवादी संगठनों ने इस्लाम को तोड़ मरोड़ कर जाहिलों की एक फौज तैयार की। एक धारा आतंकवाद की तरफ मुड़ गई और दूसरी असहिष्‍णुता की ओर।
लेकिन इस विरोधाभास के बावजूद मुझे लगता है कि वक्त के साथ मुसलमानों के धार्मिक व सामाजिक जीवन में गहराई आई है। दुनिया में मुस्लिम आबादी का एक बड़ा तबका शांति से जीना चाहता है। वह इस हिंसा और प्रतिक्रियावादी सोच से नफरत करता है। जैसे जैसे इस्लामिक दुनिया में शैक्षिक पिछड़ापन घटेगा इस सोच का विस्तार होगा।
कुंठित और जाहिल लोग चाहे हिन्दू धर्म में हो या इस्लाम में वह दया के पात्र हैं। हम उनकी तरह नहीं बन सकते। ऐसे लोग किसी भी धर्म के हों वह न धर्म को समझते हैं न ईश्वर को। उनकी तरह असहिष्‍णु बनकर आचरण करना या उनकी तरह सोचना एक मूर्खता है। मुझे लगता है हर समझदार आदमी इस बात से सहमत होना चाहिए।


-ये सब मेरे निजी विचार हैं। कृपया इसे मेरे पेशे से न जोड़ें।








Friday, January 9, 2015

एक टूटे हुए इंसान के रूप में वापस लौटे थे गांधी


 महात्मा के भारत वापसी के सौ साल हो गए। अपने अध्ययन के दौरान मैंने पाया था महात्मा गांधी एक टूटे हुए इंसान के रूप में वापस लौटे थे। यह दिलचस्प प्रकरण है आपको जरूर पढ़ना चाहिए।

मोहनदास गांधी दक्षिण अफ्रीका से लंदन होकर स्वदेश लौट रहे थे। वह उदास और निराश थे। ऐसी निराशा जो लंबे संघर्ष के बाद होती है। जब लगता है कि इस लड़ाई में कितना कुछ खो गया। उन्हें टॉलस्टॉय का कथन याद आया - ‘जैसे - जैसे हम मंजिल के निकट जाते हैं वह और दूर होती जाती है।’ उनकी सेहत टूट गई थी। सफेद गेहूं के ब्रेड खाने से उनकी बवासीर फिर उभर आई थी। उन्होंने जहाज से ही अपने मित्र कैलेनबैक को लिखा - ‘मेरा मन अस्थिर है और उन चीजों की इच्छा करता है, जो मैं छोड़ चुका हूं। हम कैसे छले जाते हैं? हम मान बैठते हैं कि कुछ इच्छाओं से हम मुक्त हो चुके हैं किंतु अचानक हमें लगता है कि वे केवल हमारे भीतर सो रही थीं और समाप्त नहीं हुई थीं। लंदन में मेरा भला नहीं हुआ। स्वस्थ और आशावान व्यक्ति के रूप में भारत लौटने की बजाय मैं एक ऐसे टूटे हुए इंसान के रूप में भारत जा रहा हूं जो यह भी नहीं जानता कि भारत में उसे क्या करना या क्या बनना है और मैं यह पहले भी नहीं जानता था। परंतु न जानना खुशी का एक कारण था जो अब नहीं है। मुझे उत्साहित करने वाला आशा का कोई आधार नहीं है। इसलिए प्रिय लोअर हाउस (इस शब्द में अब भी मिठास मौजूद है) लंदन में बचकर रहना। तुम अंधकार के शहर में हो। तुम अपनी आंतरिक शक्ति से प्रेरणा लेते रहना और सही रास्ते पर चलते रहना। मैं उस स्थान से बहुत दूर हूं, फिर भी वह मेरे भीतर गूंजता रहता है।’
अंधकार के शहर’ लंदन से होते हुए मोहनदास गांधी ने 9 जनवरी, 1915 को हिंदुस्तान की जमीन पर कदम रखा। अपोलो बंदरगाह पर एक भीड़ उनके लिए खड़ी थी। उसी दिन ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे अपना शेष जीवन भारतीय समस्याओं के ‘अध्ययन’ में लगाना चाहते हैं और यदि कोई ‘अनपेक्षित परिस्थिति’ उन्हे बाध्य नहीं कर देती तो वे अपने पिछले कार्यक्षेत्र में ‘वापस’ नहीं जाना चाहते।
    मोहनदास गांधी और उनकी पत्नी का उस बंबई शहर में भव्य स्वागत हुआ जिस शहर को वह ‘लंदन की जूठन’ मानते थे। उन्हें ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर’ की उपाधि दी गई। हिंदुस्तान के सत्कार और यहां के पवित्र वातावरण में मोहनदास गांधी बहुत जल्द खुद को तरोताजा महसूस करने लगे। अब उन्हें अगली लड़ाई के लिए तैयार होना था। उन्हें ऊंचाइयों और महानता की नई मंजिल पर ले जाने वाला एक नया सफर उनकी राह देख रहा था। हालांकि हिंदुस्तान उनके लिए लगभग अनजाना देश था।

मेरी किताब महात्मा गांधीः ब्रह्मचर्य के प्रयोग का एक अंश

Thursday, January 8, 2015

द मैसेज



 मैं बहुत धार्मिक आदमी नहीं हूं लेकिन मेरा साफ मानना है कि किसी की धाार्मिक भावनाओं का मजाक उड़ाना ठीक नहीं। लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं कि आप किसी अखबार या पत्रिका के दफ्तर पर हमला कर दें। ये जहालत है। अगर आप अपनी धार्मिक या किसी भी तरह की भावना पर काबू नहीं रख सकते है तो यकीन जानिए आप निहायत कमजर्फ इंसान हैं।
इस्लाम में मुहम्मद साहब की तस्वीर बनाना गुनाह है। पेरिस में मीडिया हाउस पर हुए हमले के सिलसिले में मुझे याद आता है कई साल पहले मैंने एक फिल्म देखी-द मैसेज। इस्लाम की शुरूआत कैसे हुई इस पर इससे बेहतरीन फिल्म आज तक नहीं बनी। फिल्म पैगम्बर मुहम्मद साहब पर है। लेकिन पूरी फिल्म में वह कहीं नहीं दिखते। डायरेक्टर मुस्तफा अक्कद ने इस बात का ख्याल रखा कि मुहम्मद साहब की तस्वीर न दिखे। वह इसमें कामयाब हुए। इस फिल्म का एक दृश्य मुझे भूलता नहीं। पैगम्बर साहब मदीने का बसा रहे थे। पहली बार नमाज के लिए गांव वालों को बुलाया जाना था। कैसे सबको बुलाया जाए। तो पैगम्बर ने अजान के लिए हब्‍शी बिलाल को चुना क्योंकि उसका गला सुरीला था। बिलाल की आवाज में जादू था। उसकी आवाज कान से सीधा दिल की गहराइयों में उतर जाती थी। फिल्म में अजान सुन कर मैं भी अंदर तक सिहर गया। जिस दुनिया में काले हब्शियों को जानवर से बद्तर समझा जाता हो उसमें इस्लाम ने बिलाल को हजरत का दर्जा दिया। तब मैं समझा क्यों इस्लाम इतनी तेजी से दुनिया में फैल गया।
मुझे यह जानकर हैरत हुई कि मुहम्मद साहब पर ईमान रखने वाले मेरे तमाम दोस्तों ने यह बेहतरीन फिल्म नहीं देखी थी। कितने ही दोस्तों को मैंने यह फिल्म बांटी। और फिल्म देखने के बाद भावुक होकर मेरे तमाम दोस्तों ने मेरे हाथ को चूम कर शुक्रिया अदा किया।
मेरे कहने का मतलब ये है कि अभिव्यक्ति का एक तरीका यह भी है। ‌अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह नहीं कि आप मुहम्मद साहब को अपनी पत्रिका का अतिथि संपदाक बना कर उनका कार्टून पहले पेज पर छापें। या टाललेट पेपर पर किसी धर्म का मजाक उड़ाएं।