दयाशंकर शुक्ल सागर

Saturday, May 14, 2016

हिन्दू आतंकवाद और इस्लाम

हिन्दू आतंकवाद शब्द का मुहावरा जिन्होंने भी गढ़ा वह निहायत ही बेवकूफ किस्म का इंसान रहा होंगे। उन्हें न भारतीय इतिहास का पता है न यहां की संस्कृति का। हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं रहा उस दौर में भी जब उन पर जुल्मों सितम की इन्तहा थी। आप उस दौर का इतिहास पढ़िए जब भारत में इस्लाम नया नया आया था। उस दौर में भारत में तीन तरह के नागरिक थे। एक तुर्क सरदार जिनके इशारे पर सल्तनत काल में शासक बने। ये जातीय श्रेष्ठता के घमंड में रहते थे। दूसरे भारतीय मुसलमान जिन्हें निहायत नीची नजर से देखा जाता था। और तीसरे गैर मुसलमान जिन्हें हिन्दू कह कर बुलाया जाता था। शुरूआती दौर में दरबार में कोई बड़ा पद हिन्दुओं  और भारतीय मुसलमानों को नहीं दिया जाता। इब्‍न बतूता के मुताबिक दरबार के मंत्री, सचिव, जज, सब विदेशी मुसलमान थे। उनके लिए खुरासानी शब्द चल पड़ा। इनकी दिलचस्पी भारत में सिर्फ लूट खसोट की थी। बर्नी ने लिखा है-सल्तनत की नीति थी कि हिन्दुओं पर इतने टैक्स लगा दिए जाएं कि बगावत की सोच तक न पाएं। उनके खेतों में सिर्फ इतना अनाज छोड़ा जाए ताकि वह गुजर बसर करें और अपने खेत छोड़ कर न भाग जाएं। बर्नी की तारीख ए फिरोजशाही की रामपुर पोथी पढ़िए। सल्तनत के जुल्मों से शिकार लोगों ने बीस गुना लगान से नाराज होकर अपने खलियान जला दिए। दस बीस लोगों के जत्‍थे बनाकर वे जंगलों में जाकर छिप गए। लगान वसूलने वाले लगान के खाली रजिस्टर लेकर राजधानी पहुंचे। नाराज सुल्तान ने लश्कर लेकर दोआब पर धावा बोल दिया। बेगुनाहों का कत्लेआम हुआ। बागियों को जिन्दा लटका दिया गया। छुटपुट तौर पर हिन्दुओं की तरफ से प्रतिक्रिया हुई। बर्नी लिखता है कि हिन्दुओं की हमलावरों के प्रति नफरत सिर्फ उनके सामाजिक बर्ताव में झलकती थी लेकिन उनकी हिंसा का जवाब हिंसा से देने का ख्याल उनके दिल में कभी नहीं आया। हिन्दुओं को सिर्फ आत्मरक्षा के लिए हिंसा की इजाजत है

ईश्वर तुम्हारे करीब है

ईश्वर की खोज-२



मेरे नास्तिक दोस्त कहते हैं ईश्वर मनुष्य की निराशा और हताशा का दूसरा नाम है। ईश्वर को हमने बनाया। हम नहीं रहेंगे तो ईश्वर भी नहीं रहेगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह सिर्फ हमारा अहंकार है कि हम उसे अपनी कृति अपनी खोज मानते हैं। जबकि सच है कि हमने उसे कभी खोजने या जानने की कोशिश नहीं की। और खोजना भी क्यों? वह तो है हमारे आसपास कहीं। हम ही उसे महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि हमारी संवेदनाएं कहीं खो हो गई हैं।
रवींद्रनाथ की एक मशहूर रचना है-गीतांजलि। इसमें उन्होंने ईश्वर के गीत गाए हैं। इसी कृति पर उन्हें नोबल प्राइज मिला। सारी दुनिया में उनकी चर्चा हो गई। लेकिन रवींद्रनाथ के घर के पास ही एक बुजुर्ग रहता था। उसने रवींद्रनाथ से एक दिन पूछ लिया- तुमने सच में ईश्वर को जाना है? रवीन्द्रनाथ सकपका गए। ये सवाल उनसे किसी ने नहीं पूछा था। रवींद्रनाथ ईमानदार आदमी थे तो झूठ भी नहीं बोल सकते थे। वे बिना जवाब दिए आगे बढ़ गए। इसके बाद तो वह बुजुर्ग उनके पीछे पड़ गया। जब रवीन्द्र नाथ दिखते वह उनसे रोक कर पूछता-तुमने सच में ईश्वर को जाना है? सच बताओ? नोबल प्राइस विनर रवीन्द्र परेशान हो गए। उस बुजुर्ग से बच कर निकलने लगे। सोचने लगे-गीतांजली लिखना गुनाह हो गया इस बुड्ढे की वजह से।
रवीन्द्रनाथ ने कभी ईश्वर को खोजने की कोशिश नहीं की थी। लेकिन इस आदमी ने उनके लिए मुश्किल पैदा कर दी। वह कहीं भी जाते उनके दिमाग में यह प्रश्न होता ईश्वर कहां है? कैसा है? उसे कैसे पाया जा सकता है। उसे कैसे समझा जाए? ताकि वह उस बुजुर्ग को समझा पाएं कि हां मैंने ईश्वर को जाना है। लेकिन इसका कोई उपाय नहीं था।

कई साल गुजर गए। वे बारिश के दिन थे। नई—नई बारिश हुई। आषाढ़ का महीना और पहले मेघ बरसे। डबरे, तालाब, पोखरों पर नया पानी भर गया है। सड़क के किनारे जगह—जगह गड्डे भर गए हैं। सौंधी मिट्टी की खुशबू से उनका कमरा भर गया। बाहर आसमान में काले बादल उमड घुमड़ रहे थे। वे खुद को घर में रोक नहीं पाए। चल पड़े समुद्र की तरफ। समुद्र के तट पर खड़े थे। सूरज निकला। समुद्र में सूरज की छाया बनी, प्रतिबिंब बना। सूरज समुद्र में झलकने लगा। दर्शन किया सूरज का, दर्शन किया प्रतिबिंब का। लौटने लगे घर को। एक—एक पोखरे में सूरज झलकता था। एक—एक छोटे से डबरे में, सड़क के किनारे गंदा पानी भरा था, वहां भी सूरज झलकता था। सब तरफ सूरज झलकता था। गंदे डबरे में भी, सागर में भी, स्वच्छ पोखर में भी, सब तरफ सूरज झलकता था। रवीन्द्रनाथ नाचते हुए घर लौटे।
इस पूरी खोज में उन्हें एक सच हाथ लगा वह यह कि प्रतिबिंब कभी गंदा नहीं होता।  सूरज का प्रतिबिंब स्वच्छतम पानी में भी पड़ा है तो भी उतना ही ताजा और स्वच्छ है और गंदे से गंदे पानी में भी पड़ रहा है तो भी उतना ही पवित्र है। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता। रिफ्लेक्यान तो कैसे गंदा होगा! गंदा पानी हो सकता है, पर जो सूरज की छाया उसमें बन रही है, जो सूरज उसमें झांक रहा है, वह तो गंदा नहीं है। वह तो बिलकुल ताजा है, वह तो बिलकुल स्वच्छ है। उसे तो कोई पानी गंदा नहीं कर सकता।
इस अनुभव से उन्हें पता चला कि ईश्वर क्या है? वह एक बड़ा प्रतिबिम्ब है। जो हर इंसान में है। पापी में भी है पुण्यात्मा में भी। वह उतना ही शुद्ध और पवित्र है। लौटते वक्त वह बुजुर्ग भी मिला। लेकिन इस बार उसने रवीन्द्रनाथ को रोक कर वह सवाल नहीं पूछा। बुजुर्ग ने उन्हें गले लगा लिया। और कहा -तेरे चेहरे की चमक बता रही है कि तूने ईश्वर को जान लिया। अब तू नोबल से बड़े पुरस्कार का हकदार हो गया।






Monday, May 2, 2016

ईश्वर क्या हैः एक वैज्ञानिक अध्ययन



विज्ञान और नास्तिकों की बेचैनी और छटपटाहट मैं समझ सकता हूं। दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में गिने जाने वाले स्टीफन हॉकिंग ने हाल में कहा है कि इस दुनिया को बनाने वाला कोई भगवान नहीं है। यह दुनिया भौतिकी के नियमों के हिसाब से अस्तित्व में आई। उनके मुताबिक बिंग बैंग गुरुत्वाकर्षण के नियमों का ही नतीजा था। स्टीफन हॉकिंग ने अपनी नई किताब 'द ग्रैंड डिजाइन' में ईश्वर की किसी भी भूमिका की संभावना खारिज करते हुए कहा कि ब्रह्मांड का निर्माण शून्य से भी हो सकता है।
पता नहीं क्यों मुझे डार्विन की थ्योरी ठीक लगती है कि इंसान जानवरों का वंशज है। ईश्वर ने उसे पैदा नहीं किया। क्योंकि उसे सीधे ईश्वर ने बनाया होता तो वह इतना उपद्रवी कैसे हो सकता है? जितना मैंने पढ़ा और समझा है मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमने ईश्वर को अपनी कल्पनाओं में इन बेकार के कामों में जबरदस्ती फंसा दिया है। ईश्वर कोई मिस्‍त्री नहीं जो बनाने बिगाड़ने का काम करे। वह किसी इंसान बनाने वाली फैक्ट्री की मशीन भी नहीं जो बतौर प्रोडक्ट इंसान पैदा करता चला जाए। पहले इंसान को पैदा करे फिर एक दिन मार दे। फिर किसी नए गर्भ में जन्म दे और एक दिन उसे कत्ल कर दे। कभी रोग से कभी किसी एक्सीडेंट में या कभी उम्र के साथ शरीर को जीर्ण शीर्ण करके। फिर कभी कोई जन्म से विकृत बच्चा हो तो उसका जिम्मेदार भी ये खुदा है। पंड़ित मौलवी कहें ये तुम्हारे और इस नवजात  के पूर्व जन्म का फल है। और इसके लिए आप ईश्वर को कोसें। नही माफ कीजिए ईश्वर ये सब नहीं करता और न ये सब करना चाहता है।
और सृष्टि को बनाना और फिर उसे चलाना भी कितना बोरिंग, कितना ऊबाऊ काम है। क्या आप सोचते हैं अरबों से साल ईश्वर यही काम कर रहा है? जैसे कि वह कोई की-मैन हो। सुबह पानी की सप्‍लाई ऑन करे शाम को आफॅ करे। कुछ नहीं तो रोज सुबह उठ कर सृष्टि में घड़ी की तरह चाभी भरे।  
स्टीफन एकदम सही कह कहे हैं कि ब्रह्मांड या प्रकृति के सारे नियमों को विज्ञान से समझा जा सकता है। बस हमें सूत्र पकड़ने हैं। सटीक तौर पर वह थ्योरम खोजनी है जिससे यह सृष्टि बनी। या सृष्टि का शून्य से विस्तार हुआ तो उसका फार्मूला क्या था? यह कोई कठिन काम नहीं। मुझे पूरी उम्मीद है एक न एक दिन विज्ञान ये साबित कर देगा हमारे जिन्दा रहते।
तो ये सारा ड्रामा क्या है?
इसका जवाब मैंने वेद, उपनिषदों और आगे वेदान्त में पाया। दरअसल हमने सृष्टि और सृष्टा को अलग अलग मान लिया। जैसे कि पश्चिम ने मान लिया। लेकिन हमारे वेद फिर तैतरीय उपनिषद ने साफ कहा-शुरू में कुछ नहीं था न सत न असत न स्वर्ग न अंतरिक्ष न पृथ्वी। यानी शून्य था और उसी से सृष्टि का विस्तार हुआ।   भारतीय धर्मग्रन्थ कहते है की सृष्टि की रचना के पहले कुछ नहीं था न प्रकाश था न अन्धकार था न पृथ्वी थी न आसमान था अगर था तो सिर्फ शून्य। बाद में शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवाद सिद्धान्त में कहा- ब्रह्मांड में सिर्फ ईश्वर है और कोई दूसरा अन्य नहीं। यानी पेड़ पौधे हवा मनुष्य जो भी है वो ईश्वर है और ईश्वर के सिवाय और कुछ नहीं। । विज्ञान कहता है की शून्य से अचानक ही एक बैंग के साथ ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई यानी सम्पूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति किसी एक से ही हुई है। तो शंकराचार्य और पौराणिक ग्रन्थ दोनों ही स्टीफन के दावों की पुष्टि करते हैं। विज्ञान कहता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के पहले कुछ नहीं था।  हमारे ग्रं‌थ भी कहते है की ब्रह्मांड की उत्पत्ति कुछ नहीं था।
अब आप कहेंगे फिर ईश्वर बीच में कहां से आ गया? क्यों आ गया?
बिलकुल ठीक प्रश्न है। हमारे प्राचीन ग्रंथ और कुछ आधुनिक दार्शनिकों ने इसे बखूबी समझाया है। रसायन विज्ञान में एक अजीबो गरीब वैज्ञानिक प्रक्रिया है कैटेलेटिक एजेंट । ये ऐसे तत्वों का जोड़ है जो खुद किसी क्रिया में हिस्सा नहीं लेता लेकिन फिर भी इनके बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। इसे ऐसे समझें। जल यानी पानी हाईड्रोजन और ऑक्सीजन का जोड़ है। विज्ञान भी कहता है कि हाईड्रोजन और ऑक्सीजन के अलावा पानी में और कुछ नहीं है। यानी जल एक रसायनिक पदार्थ है जिसका रसायनिक सूत्र H2O है। यानी हाईड्रोजन के दो अणु और आक्सीजन के एक अणु से मिलकर पानी बनता है। लेकिन विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सिर्फ हाईड्रोजन और ऑक्सीजन मिलने से पानी नहीं बनता। उसे पानी बनने के लिए कैटेलेटिक एजेंट की भी जरूरत पड़ती है। हैरत की बात है कि अगर आप हाईड्रोजन और ऑक्सीजन के जोड़ को तोड़ें तो ये केटेलेटिक एजेंट की ऊर्जा आपको कहीं नहीं दिखेगी।  केटेलेटिक एजेंट की मौजूदगी ही उसका रोल उसकी भूमिका है। ये करता कुछ नहीं सिर्फ मौजूद रहता है। ये न हो तो पानी का अस्तित्व भी न हो। ऐसे ही ईश्वर है। वह करता कुछ नहीं सिर्फ मौजूद रहता है। उसके रहने भर से प्रकृति अपना काम करती है। कल ये प्रकृति भी नहीं रहेगी तो वह रहेगा। क्योंकि प्रकृति से पहले भी वह था। उसकी मौजूदगी के बिना यह सृष्टि नहीं चल सकती। इसकी मौजूदगी में सृष्टि खुद ब खुद चलती है।
फिर आप कह सकते हैं कि बस इतना सा ही काम है तो उसका होना क्यों जरूरी है?
ये सवाल उठ सकता है। बेशक ये तार्किक प्रश्न है। इसे ऐसे समझें। हर एक बीज अपने आप में एक ब्रह्मांड है। एक बीज में कितनी आपर संभावनाएं छिपी हैं। दुनिया के सारे पेड़ नष्ट हो जाएं ‌सिर्फ एक बीज पूरे संसार को पेडों से ढक सकता है। वह बीज पेड बनेगा। उस पर फूल और फल आएंगे और उसके साथ आएंगे अन्नत बीज। फिर हर बीज से एक नया पेड़ बनेगा। यह प्रक्रिया जारी रहेगी। आप समझें ईश्वर हर बीज को अंकुरित नहीं कर रहा है। यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जिसके तहत बीज अंकुरित होते हैं। तो इस हिसाब से सारे बीज अनिवार्य रूप से अंकुरित होने चाहिए। लेकिन नहीं। ऐसा नहीं होता। सिर्फ वही बीज अंकुरित होते हैं जिन्हें ईश्वर चाहता है। बीज के अंकुरण में ईश्वर की मौजूदगी अनिवार्य है। यही ईश्वर की  महत्ता है। ये वाकई एक अबूझ पहेली है। लेकिन दिलचस्प है। ईश्वर की मेरी खोज जारी है। और आपकी?



 संदर्भ ग्रंथ-
कॉसमाालॉजी आफ ‌दि ऋग्वेदा-एच डब्लू वालिस
तैतरीय उपनिषद तृतीय संस्करण चौखम्बा प्रकाशन
आईडिया आफ गॉड -प्रिगिंल, पैटिसन
तर्कदीपिका अथल्ये का द्वितीय संस्करण
Times of Refreshing: A Worship Ministry Devotional By Tom Kraeuter, Gerrit Gustafson, Kent Henry, Bob Kauflin, Patrick Kavanaugh
Man's Fate and God's Choice: An Agenda for Human Transformation-By Bhimeswara Challa