आप ईश्वर में यकीन करें या न करें इससे आपके जीवन में जरा-सा भी बदलाव नहीं होने वाला। क्योंकि ईश्वर की मानवीय कार्यों में जरा भी दिलचस्पी नहीं। अगर वह दखल देने लगे तो उसकी मुसीबत कितनी बढ़ जाएगी इसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। तो जब हम कहते हैं कि ईश्वर मानवीय कार्यों में दखल नहीं देता तो हम एक तरह से ईश्वर का बचाव ही करते हैं क्योंकि इस तर्क से दुनिया में चल रहे तमाम बुरे कार्यों को करने का ठीकरा ईश्वर के सिर पर नहीं फूटता। कोई गरीब घर में पैदा हुआ, कोई मासूम बिना आंख लिए जनमा। कोई रेल पलट गई। कोई प्लेन क्रैश हो गया। किसी तुफान, किसी भूकंप ने हजारों जानें ले लीं। कहीं जम्मू में श्रद्धालुओं की बस पर आतंकी हमला हुआ तो कहीं हज के दौरान भगदड़ में सैकडों जाने चली गईं। इसके लिए ईश्वर या खुदा बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं क्योंकि सच पूछिए तो ईश्वर दुनियावी कार्यों में बिलकुल दिलचस्पी नहीं लेता। भले ही आप किसी ऊंचे पर्वत शिखर पर ईश्वर के दर्शन करने ही निकलें हों। कोई गांरटी नहीं कि ग्लेशियर से उतरा कोई भयानक सैलाब आपको बहा ले जाए। तो फिर हमारे सुख-दुख और आशा-निराशा से भरे जीवन को कौन संचालित कर रहा है। मैं कहूंगा नियति, किस्मत या डेस्टनी। इधर मैंने किस्मत पर खूब चिंतन किया तो कई दिलचस्प चीजें सामने आईं।
मनुष्यों ने ईश्वर के बाद जो सबसे गजब परिकल्पना की है वह किस्मत या नियति की है। तकरीबन सभी धर्म और पुरानी किताबें किस्मत पर यकीन करती हैं। हिंदू धर्म में नियतिवाद का दर्शन सबसे पुराना है। फिर प्राचीन सुमेरियों, बेबीलोनियन धर्म में, प्राचीन यूनानी धर्म के अनुयायी ने भाग्य पर काफी कुछ लिखा है। वाल्मीकि राामायण से लेकर शेक्सपियर के मैकबैथ जैसे नाटकों तक में आप किस्मत के खेल के दिलचस्प किस्से पाएंगे।
यह इतनी साफ चीज है कि इसे हम सभी अपने और अपने आसपास के जीवन में इसे बखूबी महसूस करते हैं। आप जरा गौर करें तो पाएंगे कि आपके जीवन को आप नहीं यह नियति चला रही है। आज जो हम हैं, जैसे भी हैं, नियति ने ऐसा ही तय कर रखा है। ये अब तक केवल नेहरू और मोदी की नियति में पहले से तय था कि वे आजाद भारत के लगातार तीन बार प्रधानमंत्री बनेंगे। नियति के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक लड़का इतना अमीर था कि उसके कपड़े लंदन धुलने जाते थे और दूसरा इतना गरीब कि उसे घर चलाने के लिए रेलवे प्लेटफार्म पर चाय बेचनी पड़ती थी। नियति राजा को रंक बनाती है और रंक को राजा। यह नियति ही है कि घड़ी किसी दूसरे के हाथ में होती है और वक्त आपका होता है।
आखिर किस्मत है क्या। आप गहरे जाएं तो पाएंगे कि ये ब्रह्मांड के लिए पहले से तय ऐसी अपरिहार्य घटनाएं हैं जो टाली नहीं जा सकतीं। इन्हें बदला नहीं जा सकता। ये खुद ब खुद बदलती हैं। यानी आगे जो कुछ भी होने वाला है वह पहले से तय है। उसे आप किसी कीमत पर बदल नहीं सकते। किस्मत एक तरह से कुछ रहस्यमयी धागों की कताई की तरह है जिसके जरिए पूरे ब्रह्मांड की घटनाएं तय होती हैं। जो न सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष बल्कि किसी संस्था, किसी समूह या किसी स्थान या पूरे ब्रह्मांड का भाग्य और भविष्य तय करती हैं। तो आप देखिए नियति का दायरा कितना बड़ा है। इसमें हमारा जीवन सबसे छोट इकाई है।
सब कुछ यानी हमारे जीवन हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना पहले से तय है। लेकिन वह घटना हमें चौंकाती है क्योंकि हमें उसके पीछे के सूत्रों का जरा भी पूर्वाभास नहीं होता।
हैरत के समुंदर में गोते लगात हुए आप कल्पना कर सकते हैं इसे किसी अदृश्य शक्ति या ईश्वर ने पहले से तय कर रखा है। लेकिन यकीन करें ये अदृश्य शक्ति या ईश्वर हमारे लिए तय इस जीवन के तय कार्यक्रम में कोई अंतिम लमहे तक कोई बदलाव नहीं करता। कोई पूजा, पाठ, यज्ञ, हवन या चमकीला पत्थर होनी को नहीं टाल सकता।
व्यक्ति का वर्तमान में लिया गया कोई भी फैसला पूर्व में लिए गए किसी फैसले की कड़ी का हिस्सा होता है। यानी वर्तमान में लिया गया हर फैसला उस व्यक्ति के भविष्य की किसी नई घटना की नींव रखता है। मसलन के तौर पर भोजपुरी गायक पवन सिंह को किस्सा लें। बीजपी ने बैठे बिठाए इस लोकप्रिय गवैए को आसनसोल का टिकट दे दिया था। लेकिन ठीक अगले दिन टिकट कट गया क्योंकि उनका दस साल पुराना कोई गीत वायरल हो गया जिसमें उनने बंगाली औरतों का मजाक उड़ाया था। दस साल पहले विवाद उठा और खत्म हो गया। लेकिन इस घटना से दस साल बाद उनके जीवन में घटने वाली एक अन्य महत्वपूर्ण घटना की नींव रख दी थी। इसका उन्हें या किसी और को कोई अंदाजा नहीं था। तो नियति इस तरह बेरहमी से काम करती है।
अब सवाल उठता है कि किसी क्षण हम कोई फैसला लेते हैं तो क्या वह फैसला सिर्फ हमारा ही होता है। प्रत्यक्ष तौर पर फैसला हम ही लेते दिखते हैं। पर जरा गौर से सोचें तो हम पाएंगे कि यह फैसला नियति ले रही होती है जिसने आपके लिए सब कुछ पहले से तय कर रखा है। यानी हमारे निर्णय भी वास्तव में हम नहीं ले रहे होते हैं। कोई और है जो हमारे जरिए निर्णय लेता है। वह हालत ऐसे बनाता है कि हम वही निर्णय लेने के लिए बाध्य होते हैं। तो आखिर में पाएंगे कि आप एक कठपुतली से ज्यादा कुछ और नहीं है जिसकी डोर किसी और के हाथ में है। वह नियति है।
तो क्या फिर हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और सब नियति पर छोड दें। मजे की बात है कि आप ऐसा भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये फैसला भी नियति को लेना है। नियति आपको हाथ पर हाथ धरे बैठने नहीं देगी। या हो सकता है बैठने भी दे। ये भी आप तय नहीं करेंगे। यह भी नियति तय करेगी। आप कल्पना कर सकते हैं कि नियति जितनी रहस्यम है, उतनी ही क्रूर और आक्रामक है। सही मायनों में वह एक तानाशाह है।
तो क्या नियति ही ईश्वर है। अनंत ब्रह्मांडों या आकाशगंगाओं के पीछे कहीं कोई दूर बैठा न दिखने वाला ईश्वर कोई आठ अरब मनुष्यों और ब्रहमांड के अनंत जीवों के भाग्य या किस्मत का लेखा जोखा रखे यह बात न तार्किक लगती है न व्यावहारिक। दुख में ईश्वर का स्मरण मनौवैज्ञानिक रूप से एक उम्मीद एक सहारा जरूर देता है। लेकिन इससे कुछ हासिल होगा या इससे आपके दुख दूर हो जाएंगे, ये कहना मुश्किल है। क्योंकि सच पूछिए तो ईश्वर की आपकी जिन्दगी में दखल देने में कोई दिलचस्पी नहीं है। तो आप फिर करें क्या। इसका सबसे सटीक जवाब मेरी प्रिय पुस्तक श्रीमद् भगवद् गीता में है कि नतीजों की आकांक्षा किए बिना सिर्फ कर्म करने की सलाह देती है। खूब परोपकार करें जो आपको आंतरिक शांति देगा। खुद को सदकर्मों के लिए प्रेरित करें। इससे आपके नजदीक जो परिस्थितियां बनेंगी वे आपके जीवन के फैसलों को सकरात्मक रूप से प्रभावित करेंगी। और उसके नतीजे भी अन्तत सकारात्मक होंगे। आपके जीवन से जुड़ी घटनाएं भी सकारात्मक होंगी। शायद इसीलिए हिंदू, इस्लाम, ईसाई, यहूदी जैसे दुनिया के तमाम धर्म दया, परोपकार, सत्य अहिंसा, सेवा का पाठ पठाते दिखते हैं। तो आप भले नास्तिक हों इन धर्म ग्रंथों की अच्छी बातें अपने जीवन में उतारें। क्योंकि नियति ने और कोई रास्ता आपके आगे नहीं छोड़ा है।
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