दयाशंकर शुक्ल सागर

Sunday, September 14, 2025

सितारों के बीच मां

 



मुझे याद है मां बचपन में बताती थीं कि मरने के बाद इंसान आसमान में तारे बन जाते हैं। बहुत सालों तक मैं इस पर यकीन करता रहा। मां के जाने के बाद मैं कई सालों तक अंधेरी रातों में आसमान में तारों के बीच आपनी मां को खोजा करता था। मेरा अटूट विश्वास था कि मां अरबों तारों की भीड़ में कहीं होंगी। कहीं दूर आसमान में कोई तारा टिमटिमाता तो मुझे लगता मां मुझसे कुछ कहना चाहती हैं। फिर एक वक्त आया जब आसमान को घंटों निहराने का मौका निकल गया। दुनियादारी में इतना व्यस्त हो गया कि इत्मीनान से आसमान की तरफ देखने की फुर्सत ही नहीं मिली। दिन, महीने और साल  बीतते गए। सितारों से संवाद बिलकुल टूट गया। लेकिन  मन में गहरे कहीं धारणा बनी रही कि शायद हम मरने के बाद तारे बन जाते हैं। ये ख्याल मन और हमारी संवेदनाओं को काफी तसल्ली देता था कि हमारे प्रियजन हमसे दूर नहीं गए हैं। मन का आसमान साफ होते ही वे हमारे सामने होंगे। धार्मिक व पारिवारिक मान्यताएं, कई निजी व सामाजिक अनुभव और स्मृतियां हमारे मस्तिष्क में ऐसी धारणाओं का जाल बुनती चली जाती हैं कि हम उसे सार्वभौमिक सत्य मान लेते हैं और उसी सत्य को अटूट मानकर सारी ज़िंदगी गुजार देते हैं। ये एक अंधेरी सुरंग में भटकने जैसा है। मैं उस पवित्र किताब बाइबिल को पढ़ने वाले उन ईसाई  लोगों के बारे में सोचता हूं जो सदियों तक मानते रहे कि पृथ्वी इस ब्रह्मांड का केन्द्र है और सूर्य व बाकी ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं। मैं भी उनसे अलग कहां, जो बीसवीं सदी में जन्म लेने के बावजूद बरसों बरस तक मानता रहा कि मरने के बाद इंसान तारे बन जाते हैं। जबकि वे गैस और धूल से बने चमकीले पिंड से ज्यादा कुछ नहीं। ये तारे लाखों, अरबों बरस पुराने हैं और तब के बने हुए हैं जब हम इंसान तो क्या ये पृथ्वी भी नहीं बनी थी। हमारी आकाशगंगा में अरबों तारे हैं जिनमें हम बामुश्किल तीन से पांच हजार तारे ही देख सकते हैं, क्योंकि हम केवल एक समय में आकाश के आधे हिस्से को ही देख पाते हैं। और तारे टिमटिमाते हैं, क्योंकि वे बहुत दूर होते हैं और उनकी रोशनी वायुमंडल से गुज़रने पर प्रभावित होती है। किताबों में तारों के बारे में जितना जानता गया उतना ही हैरानी के समन्दर में डूबता गया। तारे पृथ्वी से बहुत दूर होते हैं। प्रकाश को एक निश्चित दूरी तय करने में कुछ समय लगता है, इसलिए मैं जो रोशनी देखता था, वह उतने समय पुरानी होती है जितना वक़्त उस तारे से पृथ्वी तक  प्रकाश को आने में लगा होगा। यानी जब हम रात के आकाश को देखते हैं, तो  हमें ब्रह्मांड की एक बहुत पुरानी तस्वीर दिखाई देती है, क्योंकि तब हम अरबों साल पहले के तारों की रोशनी देख रहे होते हैं। 

इस तरह ज्ञान आपकी सारी मान्यताओं, धारणाओं, संवेदनाओं और आस्थाओं को एक एक करके तोड़ता चला जाता है। फिर एक दिन आता है जब सितारों में आपको मां दिखना बंद हो जाती है और तब आपको जीवन और मृत्यु का असली मतलब समझ में आता है। आपको समझ में आता है कि आप कितनी झूठी दुनिया में रहते हैं। तब आप सत्य का रास्ता खोजना चाहते हैं। और तब आपको ईशावास्योपनिषद्  के प्रसिद्ध श्लोक "हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्"का अर्थ समझ में आता है कि  सत्य का मुख एक सुनहरे या चमकदार पात्र से ढका हुआ है यानी सांसारिक मोह-माया या भौतिक सुख-सुविधाएं सत्य को छिपा देती हैं। तब कोई वैदिक ऋषि सूर्यदेव से प्रार्थना करते हैं कि वह इस आवरण को हटा दें ताकि सत्य का साक्षात्कार हो सके।

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