मैं
कोई छह साल पहले मैसूर गया था।
मनोरम पहाड़ियों के बीच बने
चामुंडा देवी के मंदिर भी गया।
दक्षिण शैली में बना वह एक
खूबसूरत है। इस मंदिर में
दुर्गा की एक मनमोहक प्रतिमा
है। मैंने उसकी तस्वीर खींच
कर उसे फ्रेम करा लिया था।
लौटकर फ्रेम में मढ़ी यह तस्वीर
मैंने अपनी मां को उपहार में
दी थी। और तब मां का कहना था
कि इससे सुंदर तोहफा मैंने
उन्हें इससे पहले कभी नहीं
दिया। खैर मुझे अच्छी तरह याद
है तब उस इलाके में महिषासुर
की कीर्ति गाथा मुझे कहीं
सुनने को नहीं मिली।
इस
बारे में एसआर दारापुरी साहब
ने मैसूर विश्वविद्यालय के
पत्रकारिता विभाग के प्रोफ़ेसर
महेश चन्द्र गुरु के हवाले
से बताया “वह एक बौद्ध राजा
था जो कि आम लोगों के मानवाधिकारों
का बहुत ख्याल रखता था परन्तु
ब्राह्मण वर्ग ने उसे एक असुर
के रूप में प्रचारित किया एवं
दावा किया कि उसे चामुंडेशवरी
(दुर्गा
का अवतार) ने
मारा था जो कि एक कल्पित देवी
थी।” चामुंडा पहाड़ी पर महिषा
जयंती मनाई जाती है। इस सूचना
पर मुझे जरा भी संदेह नहीं न
कोई हैरत है। क्योंकि हमारे
देश के तकरीबन हर गांव में
आपको पौराणिक आख्यानों पर
ऐसे मिथक व पुराकथाएं सुनने
को मिल जाएंगी। इनका न कोई
ऐतिहासिक आधार है न वैज्ञानिक।
यह जनश्रुतियों पर आधारित
कथाएं हैं जिन्हें एकत्र करके
कोई भी नया विवाद खड़ा कर सकता
है। ठीक वैसे जैसे बौद्ध कथाएं
कहती हैं कि सीता राम की बहन
थी। फिर उन्होने साउथ के किसी
लेखक सिद्धास्वामी की पुस्तक
“महिषासुर मंडल” (महिषासुर
राज्य) के
हवाले से बताया कि पहाड़ी के
प्रवेश पर महिषा की मूर्ति
चिक्क्देवाराजा वाडियार के
राज काल में स्थापित की गयी
थी। अब देखिए इतिहास में
चिक्क्देवाराजा वाडियार 1673
ईसवी में मैसूर
के राजा थे। यह मुगलों का दौर
था। बस इनका इतिहास बोध यही
आकर खत्म हो जाता। जबकि भारत
के प्राचीन साहित्य में दुर्गा
एक आदि देवी रही हैं। यह परिकल्पना
बेशक हमारे देश की मातृसत्तात्मक
परिवार संस्कृति से निकली
होगी। मातृदेवी की पूजा के
चिन्ह हमारी सबसे पुरानी
मोहनजोदाडो सभ्यता से मिलते
हैं। उससे भी पहले हमारी कबीलाई
संस्कृति में इसके सैकडों
चिन्ह मिले हैं। पहली बार
उत्तर वैदिक युग के साहित्य
में दुर्गा का जिक्र आया।
तैत्तिरीय आरण्यक में शिव को
उमा या अम्बिका का पति बताया
गया। केन उपनिषद में हैमवती
उमा का उल्लेख है। पौराणिक
ग्रंथ महाभारत में दुर्गा के
दो लम्बे आख्यान स्तोत्र व
भीष्म पर्व में पढ़ने को मिलते
हैं। लेकिन दुर्गा और उनके
सम्प्रदाय पर सबसे अधिक काम
मार्कण्डेय पुराण में हुआ।
आज हम दुर्गा को जिस महिषमर्दिनी
के रूप में जानते हैं उसका मूल
स्रोत मार्कण्डेय पुराण ही
है। इस पुराण का एक हिस्सा
देवी माहात्म्य या सप्तशती
कहलाता है जो पूरी तरह देवी
दुर्गा को समर्पित है। इसमें
महिषासुर वध की पूरी कथा है।
ये पुराण कितने प्राचीन हैं
इसका अंदाजा आज तक कोई नहीं
लगा सका। क्योंकि ऋग्वेद में
भी पुराण शब्द का उल्लेख है।
फिर भी दुर्गा सप्तशती की सबसे
प्राचीन पाण्डुलिपि ९९८ ईसवी
की प्राप्त हुई है। लेकिन
इतिहासकार मानते हैं यह इससे
भी पुराना है। जोधपुर में
सर्वमंगलमांगल्ये नामक अभिलेख
मिला है जो ६०८ ईसवी का है।
जिसमें देवीमाहात्म्य का
श्लोक अंकित है। यानी दुर्गा
सप्तशती 600 ई.
से भी प्राचीन
है। तो महिषासुर को आराध्य
मानने वालों का तर्क है कि
दुर्गा ने महिषासुर को धोखे
से मारा। महिषासुर एक बहादुर,
स्वाभिमानी
नेता था,
जिसे
आर्यों द्वारा शादी के झांसे
में फंसाया। इस काल्पनिक कथा
को प्राचीन ग्रंथ सप्तशती
के तथ्य धव्स्त कर देते हैं।
क्योंकि इसमें सिर्फ महिषासुर
के वध का ही जिक्र नहीं है।
इसके अलग अलग पाठों में ध्रुमलोचन
वधन, चण्ड
और मुण्ड वध, रक्तबीज
वध, निशम्भु
वध का भी जिक्र है। तो क्या
देवी दुर्गा ने इन सबसे विवाह
किया था? यह
कल्पना भी हास्यास्पद है। तो
आप समझ सकतें हैं मिथ के हवाले
से कैसी फर्जी कहानियां गढ़ी
जाती हैं। इसका मकसद सिर्फ
दलित और आदिवासियों को भड़का
कर उन्हें गोलबंद करना होता
है।
जारी
इस
बारे में एसआर दारापुरी साहब
ने मैसूर विश्वविद्यालय के
पत्रकारिता विभाग के प्रोफ़ेसर
महेश चन्द्र गुरु के हवाले
से बताया “वह एक बौद्ध राजा
था जो कि आम लोगों के मानवाधिकारों
का बहुत ख्याल रखता था परन्तु
ब्राह्मण वर्ग ने उसे एक असुर
के रूप में प्रचारित किया एवं
दावा किया कि उसे चामुंडेशवरी
(दुर्गा
का अवतार) ने
मारा था जो कि एक कल्पित देवी
थी।” चामुंडा पहाड़ी पर महिषा
जयंती मनाई जाती है। इस सूचना
पर मुझे जरा भी संदेह नहीं न
कोई हैरत है। क्योंकि हमारे
देश के तकरीबन हर गांव में
आपको पौराणिक आख्यानों पर
ऐसे मिथक व पुराकथाएं सुनने
को मिल जाएंगी। इनका न कोई
ऐतिहासिक आधार है न वैज्ञानिक।
यह जनश्रुतियों पर आधारित
कथाएं हैं जिन्हें एकत्र करके
कोई भी नया विवाद खड़ा कर सकता
है। ठीक वैसे जैसे बौद्ध कथाएं
कहती हैं कि सीता राम की बहन
थी। फिर उन्होने साउथ के किसी
लेखक सिद्धास्वामी की पुस्तक
“महिषासुर मंडल” (महिषासुर
राज्य) के
हवाले से बताया कि पहाड़ी के
प्रवेश पर महिषा की मूर्ति
चिक्क्देवाराजा वाडियार के
राज काल में स्थापित की गयी
थी। अब देखिए इतिहास में
चिक्क्देवाराजा वाडियार 1673
ईसवी में मैसूर
के राजा थे। यह मुगलों का दौर
था। बस इनका इतिहास बोध यही
आकर खत्म हो जाता। जबकि भारत
के प्राचीन साहित्य में दुर्गा
एक आदि देवी रही हैं। यह परिकल्पना
बेशक हमारे देश की मातृसत्तात्मक
परिवार संस्कृति से निकली
होगी। मातृदेवी की पूजा के
चिन्ह हमारी सबसे पुरानी
मोहनजोदाडो सभ्यता से मिलते
हैं। उससे भी पहले हमारी कबीलाई
संस्कृति में इसके सैकडों
चिन्ह मिले हैं। पहली बार
उत्तर वैदिक युग के साहित्य
में दुर्गा का जिक्र आया।
तैत्तिरीय आरण्यक में शिव को
उमा या अम्बिका का पति बताया
गया। केन उपनिषद में हैमवती
उमा का उल्लेख है। पौराणिक
ग्रंथ महाभारत में दुर्गा के
दो लम्बे आख्यान स्तोत्र व
भीष्म पर्व में पढ़ने को मिलते
हैं। लेकिन दुर्गा और उनके
सम्प्रदाय पर सबसे अधिक काम
मार्कण्डेय पुराण में हुआ।
आज हम दुर्गा को जिस महिषमर्दिनी
के रूप में जानते हैं उसका मूल
स्रोत मार्कण्डेय पुराण ही
है। इस पुराण का एक हिस्सा
देवी माहात्म्य या सप्तशती
कहलाता है जो पूरी तरह देवी
दुर्गा को समर्पित है। इसमें
महिषासुर वध की पूरी कथा है।
ये पुराण कितने प्राचीन हैं
इसका अंदाजा आज तक कोई नहीं
लगा सका। क्योंकि ऋग्वेद में
भी पुराण शब्द का उल्लेख है।
फिर भी दुर्गा सप्तशती की सबसे
प्राचीन पाण्डुलिपि ९९८ ईसवी
की प्राप्त हुई है। लेकिन
इतिहासकार मानते हैं यह इससे
भी पुराना है। जोधपुर में
सर्वमंगलमांगल्ये नामक अभिलेख
मिला है जो ६०८ ईसवी का है।
जिसमें देवीमाहात्म्य का
श्लोक अंकित है। यानी दुर्गा
सप्तशती 600 ई.
से भी प्राचीन
है। तो महिषासुर को आराध्य
मानने वालों का तर्क है कि
दुर्गा ने महिषासुर को धोखे
से मारा। महिषासुर एक बहादुर,
स्वाभिमानी
नेता था,
जिसे
आर्यों द्वारा शादी के झांसे
में फंसाया। इस काल्पनिक कथा
को प्राचीन ग्रंथ सप्तशती
के तथ्य धव्स्त कर देते हैं।
क्योंकि इसमें सिर्फ महिषासुर
के वध का ही जिक्र नहीं है।
इसके अलग अलग पाठों में ध्रुमलोचन
वधन, चण्ड
और मुण्ड वध, रक्तबीज
वध, निशम्भु
वध का भी जिक्र है। तो क्या
देवी दुर्गा ने इन सबसे विवाह
किया था? यह
कल्पना भी हास्यास्पद है। तो
आप समझ सकतें हैं मिथ के हवाले
से कैसी फर्जी कहानियां गढ़ी
जाती हैं। इसका मकसद सिर्फ
दलित और आदिवासियों को भड़का
कर उन्हें गोलबंद करना होता
है।
जारी
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