ईश्वर की खोज-२
मेरे नास्तिक दोस्त कहते हैं ईश्वर मनुष्य की निराशा और हताशा का दूसरा नाम है। ईश्वर को हमने बनाया। हम नहीं रहेंगे तो ईश्वर भी नहीं रहेगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह सिर्फ हमारा अहंकार है कि हम उसे अपनी कृति अपनी खोज मानते हैं। जबकि सच है कि हमने उसे कभी खोजने या जानने की कोशिश नहीं की। और खोजना भी क्यों? वह तो है हमारे आसपास कहीं। हम ही उसे महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि हमारी संवेदनाएं कहीं खो हो गई हैं।
रवींद्रनाथ की एक मशहूर रचना है-गीतांजलि। इसमें उन्होंने ईश्वर के गीत गाए हैं। इसी कृति पर उन्हें नोबल प्राइज मिला। सारी दुनिया में उनकी चर्चा हो गई। लेकिन रवींद्रनाथ के घर के पास ही एक बुजुर्ग रहता था। उसने रवींद्रनाथ से एक दिन पूछ लिया- तुमने सच में ईश्वर को जाना है? रवीन्द्रनाथ सकपका गए। ये सवाल उनसे किसी ने नहीं पूछा था। रवींद्रनाथ ईमानदार आदमी थे तो झूठ भी नहीं बोल सकते थे। वे बिना जवाब दिए आगे बढ़ गए। इसके बाद तो वह बुजुर्ग उनके पीछे पड़ गया। जब रवीन्द्र नाथ दिखते वह उनसे रोक कर पूछता-तुमने सच में ईश्वर को जाना है? सच बताओ? नोबल प्राइस विनर रवीन्द्र परेशान हो गए। उस बुजुर्ग से बच कर निकलने लगे। सोचने लगे-गीतांजली लिखना गुनाह हो गया इस बुड्ढे की वजह से।
रवीन्द्रनाथ ने कभी ईश्वर को खोजने की कोशिश नहीं की थी। लेकिन इस आदमी ने उनके लिए मुश्किल पैदा कर दी। वह कहीं भी जाते उनके दिमाग में यह प्रश्न होता ईश्वर कहां है? कैसा है? उसे कैसे पाया जा सकता है। उसे कैसे समझा जाए? ताकि वह उस बुजुर्ग को समझा पाएं कि हां मैंने ईश्वर को जाना है। लेकिन इसका कोई उपाय नहीं था।
कई साल गुजर गए। वे बारिश के दिन थे। नई—नई बारिश हुई। आषाढ़ का महीना और पहले मेघ बरसे। डबरे, तालाब, पोखरों पर नया पानी भर गया है। सड़क के किनारे जगह—जगह गड्डे भर गए हैं। सौंधी मिट्टी की खुशबू से उनका कमरा भर गया। बाहर आसमान में काले बादल उमड घुमड़ रहे थे। वे खुद को घर में रोक नहीं पाए। चल पड़े समुद्र की तरफ। समुद्र के तट पर खड़े थे। सूरज निकला। समुद्र में सूरज की छाया बनी, प्रतिबिंब बना। सूरज समुद्र में झलकने लगा। दर्शन किया सूरज का, दर्शन किया प्रतिबिंब का। लौटने लगे घर को। एक—एक पोखरे में सूरज झलकता था। एक—एक छोटे से डबरे में, सड़क के किनारे गंदा पानी भरा था, वहां भी सूरज झलकता था। सब तरफ सूरज झलकता था। गंदे डबरे में भी, सागर में भी, स्वच्छ पोखर में भी, सब तरफ सूरज झलकता था। रवीन्द्रनाथ नाचते हुए घर लौटे।
इस पूरी खोज में उन्हें एक सच हाथ लगा वह यह कि प्रतिबिंब कभी गंदा नहीं होता। सूरज का प्रतिबिंब स्वच्छतम पानी में भी पड़ा है तो भी उतना ही ताजा और स्वच्छ है और गंदे से गंदे पानी में भी पड़ रहा है तो भी उतना ही पवित्र है। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता। रिफ्लेक्यान तो कैसे गंदा होगा! गंदा पानी हो सकता है, पर जो सूरज की छाया उसमें बन रही है, जो सूरज उसमें झांक रहा है, वह तो गंदा नहीं है। वह तो बिलकुल ताजा है, वह तो बिलकुल स्वच्छ है। उसे तो कोई पानी गंदा नहीं कर सकता।
इस अनुभव से उन्हें पता चला कि ईश्वर क्या है? वह एक बड़ा प्रतिबिम्ब है। जो हर इंसान में है। पापी में भी है पुण्यात्मा में भी। वह उतना ही शुद्ध और पवित्र है। लौटते वक्त वह बुजुर्ग भी मिला। लेकिन इस बार उसने रवीन्द्रनाथ को रोक कर वह सवाल नहीं पूछा। बुजुर्ग ने उन्हें गले लगा लिया। और कहा -तेरे चेहरे की चमक बता रही है कि तूने ईश्वर को जान लिया। अब तू नोबल से बड़े पुरस्कार का हकदार हो गया।
मेरे नास्तिक दोस्त कहते हैं ईश्वर मनुष्य की निराशा और हताशा का दूसरा नाम है। ईश्वर को हमने बनाया। हम नहीं रहेंगे तो ईश्वर भी नहीं रहेगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह सिर्फ हमारा अहंकार है कि हम उसे अपनी कृति अपनी खोज मानते हैं। जबकि सच है कि हमने उसे कभी खोजने या जानने की कोशिश नहीं की। और खोजना भी क्यों? वह तो है हमारे आसपास कहीं। हम ही उसे महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि हमारी संवेदनाएं कहीं खो हो गई हैं।
रवींद्रनाथ की एक मशहूर रचना है-गीतांजलि। इसमें उन्होंने ईश्वर के गीत गाए हैं। इसी कृति पर उन्हें नोबल प्राइज मिला। सारी दुनिया में उनकी चर्चा हो गई। लेकिन रवींद्रनाथ के घर के पास ही एक बुजुर्ग रहता था। उसने रवींद्रनाथ से एक दिन पूछ लिया- तुमने सच में ईश्वर को जाना है? रवीन्द्रनाथ सकपका गए। ये सवाल उनसे किसी ने नहीं पूछा था। रवींद्रनाथ ईमानदार आदमी थे तो झूठ भी नहीं बोल सकते थे। वे बिना जवाब दिए आगे बढ़ गए। इसके बाद तो वह बुजुर्ग उनके पीछे पड़ गया। जब रवीन्द्र नाथ दिखते वह उनसे रोक कर पूछता-तुमने सच में ईश्वर को जाना है? सच बताओ? नोबल प्राइस विनर रवीन्द्र परेशान हो गए। उस बुजुर्ग से बच कर निकलने लगे। सोचने लगे-गीतांजली लिखना गुनाह हो गया इस बुड्ढे की वजह से।
रवीन्द्रनाथ ने कभी ईश्वर को खोजने की कोशिश नहीं की थी। लेकिन इस आदमी ने उनके लिए मुश्किल पैदा कर दी। वह कहीं भी जाते उनके दिमाग में यह प्रश्न होता ईश्वर कहां है? कैसा है? उसे कैसे पाया जा सकता है। उसे कैसे समझा जाए? ताकि वह उस बुजुर्ग को समझा पाएं कि हां मैंने ईश्वर को जाना है। लेकिन इसका कोई उपाय नहीं था।
कई साल गुजर गए। वे बारिश के दिन थे। नई—नई बारिश हुई। आषाढ़ का महीना और पहले मेघ बरसे। डबरे, तालाब, पोखरों पर नया पानी भर गया है। सड़क के किनारे जगह—जगह गड्डे भर गए हैं। सौंधी मिट्टी की खुशबू से उनका कमरा भर गया। बाहर आसमान में काले बादल उमड घुमड़ रहे थे। वे खुद को घर में रोक नहीं पाए। चल पड़े समुद्र की तरफ। समुद्र के तट पर खड़े थे। सूरज निकला। समुद्र में सूरज की छाया बनी, प्रतिबिंब बना। सूरज समुद्र में झलकने लगा। दर्शन किया सूरज का, दर्शन किया प्रतिबिंब का। लौटने लगे घर को। एक—एक पोखरे में सूरज झलकता था। एक—एक छोटे से डबरे में, सड़क के किनारे गंदा पानी भरा था, वहां भी सूरज झलकता था। सब तरफ सूरज झलकता था। गंदे डबरे में भी, सागर में भी, स्वच्छ पोखर में भी, सब तरफ सूरज झलकता था। रवीन्द्रनाथ नाचते हुए घर लौटे।
इस पूरी खोज में उन्हें एक सच हाथ लगा वह यह कि प्रतिबिंब कभी गंदा नहीं होता। सूरज का प्रतिबिंब स्वच्छतम पानी में भी पड़ा है तो भी उतना ही ताजा और स्वच्छ है और गंदे से गंदे पानी में भी पड़ रहा है तो भी उतना ही पवित्र है। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता। रिफ्लेक्यान तो कैसे गंदा होगा! गंदा पानी हो सकता है, पर जो सूरज की छाया उसमें बन रही है, जो सूरज उसमें झांक रहा है, वह तो गंदा नहीं है। वह तो बिलकुल ताजा है, वह तो बिलकुल स्वच्छ है। उसे तो कोई पानी गंदा नहीं कर सकता।
इस अनुभव से उन्हें पता चला कि ईश्वर क्या है? वह एक बड़ा प्रतिबिम्ब है। जो हर इंसान में है। पापी में भी है पुण्यात्मा में भी। वह उतना ही शुद्ध और पवित्र है। लौटते वक्त वह बुजुर्ग भी मिला। लेकिन इस बार उसने रवीन्द्रनाथ को रोक कर वह सवाल नहीं पूछा। बुजुर्ग ने उन्हें गले लगा लिया। और कहा -तेरे चेहरे की चमक बता रही है कि तूने ईश्वर को जान लिया। अब तू नोबल से बड़े पुरस्कार का हकदार हो गया।
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