महात्मा ने कभी कोई स्वतंत्र किताब के रूप में ‘आत्मकथा’ नहीं लिखी। उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ नाम की एक लेखमाला लिखी जिसने बाद में किताब की शक्ल ले ली। इस ‘आत्मकथा’ में भी 1921 तक उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं का ब्योरा है। महात्मा की ‘आत्मकथा’ पूरी दुनिया में मशहूर हुई। महात्मा की आत्मस्वीकृतियों का पूरी दुनिया ने स्वागत किया। उनके नैतिक साहस को सबने सराहा। अपने जीवन के कड़वे सच स्वीकार करना बड़ी बात थी। वह भी तब जब मोहनदास कर्मचंद गांधी महात्मा बन चुके थे। इस ‘आत्मकथा’ ने महात्मा को जीते जी और महान बना दिया। दुनिया ने देखा कि एक महात्मा कैसे अपने आपको ही ‘एक्सपोज’ कर रहा है। महात्मा की हत्या के साल भर बाद ही जॉर्ज आरवेल ने अपने एक लेख में लिखा - ‘‘महात्मा गांधी ने ‘आत्मकथा’ में जवानी के सभी कुकृत्यों को पूरी तरह स्वीकार किया। जबकि सच तो यह है कि स्वीकार करने को उनके पास कुछ है नहीं। कुछ सिगरेट, मांस के कुछ निवाले, बचपन में नौकरानी के पैसों में से चुराए गए कुछ आने, दो बार वेश्यागमन, (वह भी हर मौके पर वह ‘बिन कुछ किए वापस’ आ गए) प्लाइमथ में अपनी गृहस्वामिनी के प्रति फिसलने से बार - बार बचना, एक बार क्रोध से उबल पड़ना - बस यही पूरा संकलन है।’’28
जबकि सत्य यह है कि महात्मा ने आत्मकथा यानी ‘सत्य के प्रयोग’ में पूरा सच नहीं लिखा। उनकी ‘आत्मकथा’ पहली बार ‘यंग इंडिया’ में 1925 से करीब चार साल तक कई किस्तों में छपी। इस ‘आत्मकथा’ में सरला देवी का एक बार जिक्र भी आया लेकिन उन्होंने इसमें सरला देवी से उनके कथित ‘आध्यात्मिक प्रेम’ का जिक्र नहीं किया। यह बात केवल पांच साल पुरानी थी और तब सरलादेवी जीवित थीं। हालांकि ‘आत्मकथा’ के अंतिम अनुच्छेद में उन्होंने लिखा - ‘हिंदुस्तान आने के बाद भी मैं अपने भीतर छिपे हुए विकारों को देख सका हूं, शर्मिंदा हुआ हूं, किंतु हारा नहीं हूं।’ ‘आत्मकथा’ लिखने के दस साल बाद मार्गरेट सेंगर को दिए एक साक्षात्कार में सरला देवी के मामले में उन्होंने अपनी ‘भावनात्मक फिसलन’ का जिक्र किया। लेकिन इसके लिए उन्होंने कारण अपनी पत्नी का ‘अनपढ़’ होना बताया। महात्मा अक्सर कस्तूरबा से सरला की तुलना करते। कस्तूरबा उनके लिए ‘घासलेट के तेल के जलते दीए’ के समान थी जबकि सरला देवी ‘सुबह के उगते सूरज’ की तरह चमकदार।
इस ‘आत्मकथा’ में 1921 से आगे के वर्षों के महात्मा के जीवन का सिलसिलेवार ब्योरा नहीं मिलता। महात्मा ने अपनी ‘आत्मकथा’ की ‘पूर्णाहुति’ करते हुए अंतिम पाठ में लिखा - ‘इसके आगे मेरा जीवन इतना सार्वजनिक हो गया है कि शायद ही कोई चीज ऐसी हो, जिसे जनता न जानती हो।’ महात्मा पर बहुत दबाव था कि ‘आत्मकथा’ को उन्होंने ‘जहां से छोड़ा है, वहां से आगे उसे शुरू करें।’ लेकिन महात्मा आगे के बारे में सत्य लिखना लगातार टालते रहे। महात्मा कहते - ‘यह सब लिखना मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन यह फुरसत पर निर्भर करता है। वर्तमान कठिन परिस्थिति में कर्तव्य समझकर ‘हरिजन’ शुरू किया है। उसका काम मुश्किल से पूरा कर पाता हूं। ऐसी हालत में सत्य के जो प्रयोग हुए हैं, उनको खोज निकालने के लिए जैसी फुरसत चाहिए, वह नहीं मिल रही। लेकिन अगर भगवान उन्हें लिखवाना चाहेगा, तो वह रास्ता भी सुझाएगा।’
लेकिन भगवान ने उन्हें ‘सत्य के प्रयोग’ के बारे में आगे लिखने का रास्ता नहीं सुझाया। ब्रह्मचर्य के प्रयोग से जुड़ी कुछ बातें उन्होंने कभी - कभी अपनी पत्रिका हरिजन में रखीं। लेकिन वह कभी इसके विस्तार में नहीं गए। जीवन के कुछ अंतिम वर्षों में लड़कियों के साथ नग्न सोने की बातें तो उन्होंने (कुछ करीबी मित्रों के बीच बांटने के अलावा)तब तक गोपनीय रखीं जब तक वह किसी और माध्यम से उजागर नहीं हो गईं। सच तो यह है कि महात्मा अपने जीवन के बाद के 27 सालों की असली कहानी लिखने का साहस नहीं जुटा पाए।
जारी
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