दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, April 13, 2015

गांधी के ब्रह्मचर्य पर अमर्ष के छींटे राजकिशोर

Sunday, August 10, 2008


गांधी ब्रह्मचर्य विवाद


एक तो ब्रह्मचर्य खुद ही बहसतलब चीज है और दूसरे, जब गांधीजी ही खुद को ठीक से समझ नहीं पाए, तब दूसरे क्या खा कर उन्हें समझेंगे। जब इसमें एक तीसरा तत्व गांधी-द्वेष का जुड़ जाता है, तो स्थिति जटिलतर हो जाती है। मैंने दयाशंकर शुक्ल सागर द्वारा बहुत मेहनत से तैयार की हुई पुस्तक 'महात्मा गांधी : सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोग' बड़ी उम्मीद से पढ़ना शुरू किया था। खुशी यह थी कि जिस विषय पर आजकल हर दूसरे साल अंग्रेजी में एक नई किताब जाती है, उस विषय पर चलो किसी हिन्दी लेखक ने कलम चलाने का बीड़ा तो उठाया। किताब का आकार भी साधारण नहीं हैं -- 432 पन्ने। सो यह अनुमान आधारहीन नहीं था कि यह गाली-गलौज की एक और किताब नहीं, बल्कि गांधी के घटिया आलोचकों को जवाब देने वाली शोध कृति होगी। लेकिन किताब को पूरा पढ़ लेने के बाद मैं स्वीकार करता हूं कि लिफाफा देख कर खत का मजमूं भांप लेने की कला मुझमें नहीं है।
सबसे पहले तो किताब के नाम को ले कर ही घिचपिच है। जिल्द खोल कर आगे बढ़ते ही पता चलता है कि किताब का नाम है : महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग। आगे हर बाएं पन्ने पर भी यही नाम अंकित है। पर मेरे पास एक ऐसी प्रति भी है, जिसके कवर पर भी किताब का नाम यही लिखा है - महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग। ऐसा लगता है कि इस सीधे-सादे, परंतु सटीक नाम से लेखक या प्रकाशक को पूरा संतोष नहीं हुआ। इस टाइटिल से गांधी पर ज्यादा आंच नहीं आती थी। सो पुस्तक छप चुकने के बाद यह विचार टपका कि नाम को थोड़ा रसीला बनाया जाए। इस समय बाजार में जो प्रतियां होंगी, उनके कवर पर लिखा हुआ मिलेगा -- महात्मा गांधी : सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोग। लेकिन सिर्फ कवर पर ही, क्योंकि इस बदलाव को भीतर तक ले जाने का कष्ट (कॉस्ट) नहीं उठाया गया है। मेरे पास यह दूसरी प्रति भी है। अभी तक किसी ने यह दावा नहीं किया है कि गांधीजी ने सेक्स के प्रयोग भी किए थे। कामुक वे बचपन से ही थे, यह वे खुद बता कर गए हैं। हो सकता है, यौन सुख को बढ़ाने के लिए उन्होंने सेक्स के भी कुछ प्रयोग किए हों। पर उन्होंने कहीं इस विषय को छुआ है, उनके किसी आलोचक ने। दयाशंकर शुक्ल सागर भी इस पहलू पर प्रकाश नहीं डाल पाए हैं। जिन प्रयोगों की मीमांसा की गई है, उन सभी का संबंध किसी और चीज से है -- संयम कहिए, ब्रह्मचर्य कहिए, स्त्री के साहचर्य की इच्छा कहिए या इसे अपनी कसौटी बनाने की कामना कहिए। हो सकता है, इसके माध्यम से गांधीजी कुछ और ही चीज खोज रहे थे, जिसकी ओर संकेत करना उन्होंने उचित नहीं समझा। जिसे वे खुद ही प्रयोग कहते थे, उसका निष्कर्ष वे क्या बतलातेे? गांधीजी ने अपने जीवन को 'सत्य के प्रयोग' कहा है। क्या यह तजवीज गलत होगी कि इस गुह्य क्षेत्र में भी वे सत्य ही के किसी पहलू से मुठभेड़ कर रहे थे?
अब कुछ शीर्षकों और उपशीर्षकों पर ध्यान दें : मोहन और मीरा, ऐतिहासिक उपवास और ठहरा हुआ गर्भ, गांधी और गंदे सपने, महात्मा और मनु, अतृप्त वासनाएं और संघर्ष, मगर सब चुप रहे, दस्तावेजों में छुपे रहस्य, गोरी वेश्याओं की बस्ती में, चंपारन और नीली आंखों वाली मिस एस्थर, तलवार की धार पर प्यार, एक छोटी-सी प्रेम कहानी का अंत, नींद में दो बार स्खलन, लड़कियों के कंधे पर हाथ, साबरमती आश्रम पर पाप की छाया, पारिजात के फूल, तू देवी नहीं, तुझे मासिक धर्म होता है, आश्रम में वासना, आश्रम में गुप्त रोग, वासनामयी स्पर्श, आखिर भाग गई नीला, फिर वीर्य स्खलन, कलकत्ते की काली रातें, गांधीजी की कुटिया और 'रावण का महल', ब्रह्मचर्य नहीं, संभोग सुख चाहिए * इसके बाद लेखक की 'अपनी बात' के ये वाक्य पढ़ें : 'मुझे लगता है कि अब वक्त गया है जब हम किसी नए नजरिए से अपने महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखें। और ऐसा करते वक्त हम किसी शल्य चिकित्सक की तरह तटस्थ हों। तब मन में उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा भक्ति हो, घृणा या तिरस्कार का कोई भाव। एक तरह की अनासक्ति हो। यह जोखिम भरा काम है। पर ये खतरे उठाने होंगे।' मुक्तिबोध की इस पंक्ति ने कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, बहुतों का नुकसान किया है। मुझे बहुत खुशी होगी, अगर हमारे लेखक-पत्रकार इस तरह के खतरे उठाने का साहस दिखाएं। किसी के भी प्रति विद्वेष आग है। इस आग से खेलने में अपना ही कोई सुंदर हिस्सा जल कर भस्म हो जाता है।
आग से छेड़छाड़ के उदाहरण पूरी किताब में फैले हुए हैं। 'भूमिका' में लेखक गांधीजी की 'यौन कुंठाओं' का कैलेडर तैयार करते हुए हमें बताते हैं, 'पानी के जहाज से दक्षिण अफ्रीका जा रहे 28 साल के मोहनदास यात्रा की थकान मिटाने के लिए हब्शी औरतों की बस्ती में एक वेश्या की कोठरी में घुस जाते हैं लेकिन फिर वहां से 'बिना कुछ किए' शर्मसार हो कर बाहर निकलते हैं।' (पृष्ठ 16) जंजीबार की इस घटना के बारे में स्वयं गांधीजी ने ही लिखा है। इसका कोई और साक्ष्य नहीं है। गांधीजी का वृत्तांत यह है : 'मुझ पर कप्तान के प्रेम का पार था। इस प्रेम ने मेरे लिए उलटा रूप धारण किया। उसने मुझे अपने साथ सैर के लिए न्यौता। एक अंग्रेज मित्र को भी न्यौता था। हम तीनों कप्तान की नाव पर सवार हुए। मैं इस सैर का मर्म बिलकुल नहीं समझ पाया था। कप्तान को क्या पता कि मैं ऐसे मामलों में निपट अजान हूं। हम लोग हब्शी औरतों की बस्ती में पहुंचे। एक दलाल हमें वहां ले गया। हममें से हरएक एक-एक कोठरी में घुस गया। पर मैं तो शरम का मारा वहां गुमसुम ही बैठा रहा। बेचारी उस स्त्री के मन में क्या विचार उठ रहे होंगे, सो तो वही जाने। कप्तान ने आवाज दी। मैं जैसा अंदर घुसा था, वैसा ही बाहर निकला। कप्तान मेरे भोलेपन को समझ गया। पहले तो मैं बहुत ही शर्मिंदा हुआ। पर मैं यह काम किसी भी दशा में पसंद नहीं कर सकता था, इसलिए मेरी शर्मिंदगी तुरंत दूर हो गई, और मैंने इसके लिए ईश्वर का उपकार माना कि उस बहन को देख कर मेरे मन में तनिक भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। मुझे अपनी इस दुर्बलता पर घृणा हुई कि मैं कोठरी में घुसने से इनकार करने का साहस दिखा सका।' (सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, मो. क. गांधी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, 90) झूठ और सच का फर्क इतना ज्यादा है कि अलग से टिप्पणी क्या की जाए।
रवींद्रनाथ ठाकुर की भांजी सरला देवी, जिसका विवाह पंजाब के एक जमींदार रामभज दत्त चौधरी से हुआ था, से गांधीजी के अनुराग का किस्सा बहुत मशहूर है। रसाल इशारे फेंकते हुए लिखते हैं कि 1919 में दोनों की पहली मुलाकात हुई थी और जलियांवाला बाग हत्याकांड उन्हें एक बार फिर करीब ले आया था। 'छात्रों को ब्रह्मचर्य की सलाह देने वाले गांधीजी पंजाब के इस दौरे के बाद सरला के और करीब गए थे।' (86) 'एस्थर (वही नीली आंखों वाली डेनिश लड़की, जो गांधीजी के प्रति आकृष्ट थी - रा.) उन्हें पत्र-पर-पत्र लिख रही थी, लेकिन सरला के आतिथ्य का सुख उठा रहे गांधीजी के पास अब जवाब देने का वक्त नहीं था। दिल्ली से लौट कर उन्होंने एस्थर को लिखा - 'फिलहाल तुम मुझसे नियमित उत्तर की आशा रखना। मुझे जीवन के मूल्यवान अनुभव हो रहे हैं।"(86) सरला देवी के संदर्भ में कुछ और वर्णन मुख्तसर में -- 1. इधर सरला देवी फिर गांधीजी की साधना में लग गई। (89) 2. सरला देवी अपने प्रिय अतिथि का हर खयाल रखती। वह बापू की सेवा का कोई मौका नहीं खोना चाहती थी। मेहमान के रूप में गांधीजी भी बहुत बारीकी से सरला देवी के चेहरे और मनोभावों का अध्ययन करते। (89-90) 3. लेकिन इस वियोगिनी ने (सरला देवी ने जब गांधीजी को लाहौर आने का निमंत्रण दिया था, उस समय उनके पति वहां नहीं थे। इसलिए गांधीजी ने सरला देवी के लिए सगी बहन के साथ-साथ वियोगिनी शब्द का भी प्रयोग किया था - रा.) गांधीजी का ऐसा सत्कार किया कि वह उसके प्रेम के कैदी हो कर रह गए। वियोगिनी को एक योगी मिल गया था। वियोगिनी इस योगी की तपस्या भंग करने में लगी थी। (94) 4. महात्मा ने अपने भाषण में सरला की तुलना अपनी पत्नी कस्तूरबा से यूं ही नहीं की थी। महात्मा के अनुसार 'वह अब बूढ़ी हो चली थीं।' (100) (बा के बूढ़ी हो चलने का प्रसंग यह है कि उन्हीं दिनों गांधीजी ने अपने दक्षिण अफ्रीका वासी जर्मन दोस्त हरमन कैलेनबैक को पत्र लिखा था, जिसमें वे कहते हैं -- 'अभी मैं देवदास और एक दूसरे विश्वस्त साथी (सरला देवी) के साथ यात्रा कर रहा हूं। उसे देखोगे तो उस पर मुग्ध हो जाओगे। बात यह है कि उस महिला से मेरा बहुत घनिष्ठ संपर्क हो गया है। वह अकसर यात्रा में मेरे साथ रहती है। उसके साथ मेरे संबंधों को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। मैं उसे अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहता हूं। एक मित्र ने हमारे संबंधों को बौद्धिक विवाह कहा है। मैं चाहता हूं तुम उससे मिलो। मैं अपने लाहौर और पंजाब के निवास-काल में कई महीने उसी के घर ठहरा था। श्रीमती गांधी आश्रम में हैं। वे वृद्ध तो काफी हो गई हैं, लेकिन बहादुर पहले की तरह हैं। तुमने उनके गुण-दोष-सहित उन्हें जिस रूप में देखा था, अब भी वे वैसी ही हैं।' (101) -रा.)
जिसे लेखक ने 'आध्यात्मिक रोमांस' कहा है और जिसके बीतने को 'एक छोटी-सी प्रेम कहानी का अंत', वह गांधीजी के लिए एक तूफानी घटना थी। इसे ले कर उस समय के वरिष्ठ कांग्रस नेता काफी परेशान थे। कइयों ने गांधीजी को समझाया भी कि वे यह संबंध तोड़ दें। संबंध टूटा, पर इसलिए कि गांधीजी को सरला देवी से जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हो पाई। गांधीजी की मुश्किल यह थी कि वे जिससे भी प्यार करते थे, उसे अपने विश्वासों के अनुसार ढालने लगते थे। बहरहाल, दो व्यक्तियों के बीच, खासकर स्त्री-पुरुष के बीच, जो चल रहा है, उसे कोई और समझ नहीं सकता। इसलिए आरोप लगाने की मानसिकता दोषपूर्ण है। लेकिन सागर ने मजा लेने की कोशिश की है। यही मानसिकता मीराबेन के प्रसंग में, विवस्त्र लड़कियों के साथ विवस्त्र सोने में, स्नानागार में सुशीला नैयर के साहचर्य आदि प्रसंगों में व्यक्त हुई है। इसमें सुविधा प्रदान करने के लिए गांधीजी भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। वे महिलाओं को लिखे अपने पत्रों को अकसर प्रेम पत्र बताते थे, सरला देवी को उन्होंने अपनी आध्यात्मिक पत्नी घोषित कर दिया था, मेडेलिन स्लेद का नामकरण मीरा किया था, उन्हें कई बार लगभग रोज पत्र लिखते थे और महिलाओं को अकसर लिखते थे कि आज सोते समय तुम्हारी बहुत याद आएगी। इस रस को वे कभी छोड़ नहीं पाए। महात्मा ने खुद स्वीकार किया है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद चार औरतों ने उन्हें स्त्री के रूप में विचलित किया। इनमें से तीन की पहचान उनके जीवनीकार पौत्र ने कर ली है, पर चौथी को नहीं जाना जा सका है ( गुड बोटमैन) उन्हें चौथेपन में भी स्वप्नदोष होता रहा। लेकिन क्या ये असाधारण घटनाएं हैं ? महात्मा बार-बार कहते थे कि अपनी परिभाषा के अनुसार मैं पूरा ब्रह्मचारी नहीं हो पाया हूं। पर क्या यह संभव भी था? सेक्स, ब्रह्मचर्य और महात्मा के संबंधों में पेच ही पेच हैं। इन्हें समझने के लिए जासूसी और मसखरापन नहीं, प्रेम तथा सहानुभूति चाहिए। क्या पता तब भी किस हद तक समझ में आए। लेकिन जो चीज समझ में आए, उसे हमेशा गंदा ही क्यों मान लिया जाए? खेद है कि पांच साल लगाने और काफी शोध करने पर भी दयाशंकर शुक्ल सागर अपने चरित नायक के साथ न्याय नहीं कर पाए। फिर भी इस पुस्तक में ऐसी अनंत जानकारियां हैं जिनसे पाठक अपना स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सकता है। पुस्तक की भाषा-शैली तो किसी भी पत्रकार के लिए काबिले-रश्क है।
इसमें कण भर भी संदेह नहीं कि महात्मा गांधी को स्त्रियां बहुत आकर्षित करती थीं। रसाल ने महात्मा का यह वाक्य उद्धृत किया है -- 'मैं स्वयं तो भिखारी हूं; अपनी भिक्षा में मैं विशेष रूप से बहनों की खोज में रहता हूं।' महात्मा को यह भिक्षा भरपूर मिली। इस दृष्टि से कोई भी उनसे ईर्ष्या कर सकता है। लेकिन इस खोज का रहस्य क्या था? शायद वे स्त्री तत्व को बहुत महत्व देते थे और उसके पीछे दीवाना थे। उन्होंने कई जगह लिखा है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियां बेहतर मनुष्य हैं, जो शायद वह हैं। इस गणित पर भी विचार करना चाहिए कि महात्मा लाखों पुरुषों के संपर्क में आए थे, जबकि स्त्रियों की संख्या सैकड़ों या हजारों में ही होगी। घनिष्ठता के स्तर पर दस पुरुष और एक स्त्री या शायद इससे भी कम का अनुपात बैठता है। फिर स्त्री-पुरुष समानता की मांग करने वाले इतनी हायतौबा क्यों मचाते हैं? पुरुष का पुरुष से मिलना स्वाभाविक है और स्त्री से मिलना कामुकता है? यह त्रेता युग का दर्शन होगा, आधुनिक समय का नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य की बहुत उपेक्षा की गई है। यह मिथक को फैलाने में गांधीजी ने भी कम सहयोग नहीं किया कि उनके और पत्नी कस्तूर के बीच असीम प्रेम लगाव था। असलियत बहुत खूंखार है। समीक्षित पुस्तक के लेखक द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के अनुसार, 1914 में कस्तूरबा के बारे में गांधीजी की राय यह थी --'वह ऐसी जहर उगलने वाली महिला है जैसी मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखी। वह कभी नहीं भूलती, मुझे कभी माफ नहीं करती।' 'वे कहते, कस्तूरबा में 'अत्यंत सूक्ष्म रूप में राक्षस और देवता की भावनाएं निवास करती हैं।' बदले में कस्तूरबा गांधीजी को 'फुंफकारते हुए सांप जैसा' बतातीं।' (ये तीनों उद्धरण समीक्षित पुस्तक से) 

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