बेटी ही बचाएगी-2
दुनिया में
कोई भी इंस्टीट्यूट ऐसा नहीं
हो सकता जो सरकारी अफसरों को
संवेदनशीलता की ट्रेनिंग दे
सके। संवेदनशीलता एक ऐसा गुण
है जो दूसरों के दर्द से खुद
आपको घायल करता है। जाहिर है
ये जोखिम उठाना सबके बस की बात
नहीं। अक्सर ऐसा होता है कि
किसी जिम्मेदार पद पर पहुंचने
के बाद हम भूल जाते हैं कि हम
क्या थे? यही
वजह है कि अधिकांश अफसरान
रिटायरमेंट के बाद वहीं पहुंच
जाते हैं जहां से वह चले थे।
वे गुमनामी और अंधकार के कुंए
में कहीं गुम हो जाते हैं।
यह
तल्खी वाकई तकलीफदेह है।
लेकिन इसके पीछे की कहानी इससे
भी ज्यादा दिल दुखाने वाली
है। ऐसे दौर में जबकि पूरे देश
में स्वच्छता अभियान चल रहा
है। यह बात हैरान करने वाली
है कि हिमाचल की राजधानी शिमला
में सचिवालय से महज 4
किलोमीटर
दूर संजौली में 52
साल
पुराने एक सरकारी प्राइमरी
स्कूल में एक अदद टायलेट तक
नहीं है। इस स्कूल में 6
से
13
साल
के 127
छात्र
-
छात्राएं
पढ़ रहे हैं। इनमें 78
बच्चियां
और 49
लड़के
शामिल हैं। क्लास खत्म होने
के बाद इस स्कूल के लड़के तो
सड़क के किनारे खड़े होकर
नेचुरल काल से निजात पा जाते
हैं लेकिन बेचारी असुरक्षित
लड़कियों को पहाड़ी के नीचे
जंगल की तरफ जाना पड़ता है।
बेशक इन लाड़लियों के लिए यह
बेहद शर्मिंदगी का अहसास था।
अमर उजाला के लिए यह सवाल नारी
सम्मान से जुड़ गया। हमने इस
समस्या को एक अति संवेदनशील
मुददे के रूप में उठाया। ताकि
और भी जिन स्कूलों में टालेट
नहीं है वहां के बारे में भी
अफसर कुछ करें। अमर उजाला ने
सरकारी सिस्टम की बेशर्मी पर
तीखे सवाल उठाए। २० सितम्बर
से २० नवम्बर पूरे दो महीने
हो गए और अब तक यह सिस्टम स्कूल
के मासूम बच्चों को दो कमरे
का टायलेट नहीं दे पाया। वह
भी तब जबकि खुद मुख्यमंत्री
ने अगले ही दिन इस मामले की
संवेदनशीलता को समझते हुए
यहीं नहीं बल्कि प्रदेश के
सभी स्कूलों में टायलेट जैसी
जरूरी चीज मुहैया कराने का
साफ निर्देश दे चुके थे।
अपने सामाजिक
सरोकार के लिए प्रतिबद्ध अमर
उजाला पहले दिन से ही खबर को
पूरी शिद्दत से फालो कर रहा
है। खबर लिखने के अलावा हमने
इस मामले से जुड़े ऊपर से लेकर
नीचे तक सारे अफसरों से निजी
तौर पर आग्रह किया कि वह इस
काम को जल्द से जल्द पूरा कराएं।
लेकिन सरकारी सिस्टम अपनी
तरह से काम करता है। एक दिन तो
हार कर हमारे संवादददाता ने
शिक्षा महकमे से जुड़े एक अफसर
से पूछ ही लिया कि अगर उस स्कूल
में आपकी बच्ची पढ़ती तो भी
क्या आपका यही रवैया होता?
इस तल्ख
सवाल पर अफसर बेतरह नाराज हो
गए। स्कूल में शौचालय बनाने
के लिए अगले ही दिन डेढ़ लाख
रुपए जारी हो गए। लेकिन धनराशि
जारी होने के बावजूद अब तक
टायलेट बन कर तैयार नहीं हुए।
स्कूल ने
इतनी मेहरबानी जरूर की कि उसने
सुरक्षा के लिहाज से बच्चियों
के साथ एक शिक्षिका को जंगल
में भेजना शुरू कर दिया। १९
नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस
है। यह बेहतर मौका है कि हम इस
सवाल पर गंभीरता से चिंतन
करें। हमारे नौकरशाहों और
राजनेताओं के लिए ये बेशक एक
प्रेरणादायक कहानी हो सकती
है। बड़ी बड़ी योजनाओं पर
दिमाग खपाने के बजाए वह रोजमर्रा
के जिन्दगी से प्रेरणा लेकर
बड़े काम कर सकते हैं। शुरूआत
बहुत छोटी-छोटी
चीजों से होती है। मोदी ने जब
लाल किले से स्वच्छ शौचालय
की बात उठाई तो वह खुद जानते
थे कि लोग कहेंगे ये कैसा
प्रधानमंत्री है?
लेकिन आज
यह छोटी सी शुरूआत एक बड़ा
आंदोलन बन गई है। हम भी नई
शुरूआत कर सकते हैं। संजौली
के इस छोटे से स्कूल से।
और एक नई शुरूआत हुई- देखें कैसे
छुट्टियों के बाद स्कूल खुला और टायलेट बन कर तैयार था-
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