अरबों के देश में-2
मुन्नवर भाई अपने फन में माहिर हैं। उन्हें मुशायरा हिट करने का हुनर मालूम है। अच्छे शेरों का उनके पास खजाना है। आसान और मुख्तसर से लफ्जों में वह गहरी बात कह जाते हैं। मां और बेटियों पर नाजुक शेर पढ़ते हुए बाजवक्त वे इतने जज्बाती हो जाते हैं कि उनकी बड़ी-बड़ी आंखें भर आती हैं। और तब उनकी आंखों में ममता का समन्दर साफ दिखता है जो बेशक उस अरब सागर से भी गहरा होता है जिसे हम लांघ कर यहां तक आए हैं। ‘सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम जो इस मुल्क की मिट्टी को मां कहते हैं।’उनकी शायरी मीर तकी मीर की शायरी की तरह क्लासिकल है गालिब की तरह अर्थपूर्ण लेकिन उनकी हर शायरी में दर्द मरसिये जैसा है। उनके अंदर का शायर न मायखाने से लड़खड़ाते हुए बाहर निकलता दिखता है और न तवायफ के कोठे से उतरता हुआ। न ये शायर हसिनाओं की जुल्फों से खेलता है और न हुस्नो इश्क के कसीदे पढ़ता है। ये शायर कभी नन्हा फरिश्ता बनकर मां के आंचल से लिपटना चाहता है कभी बूढ़ा बाप बनकर आंगन से विदा होती चिड़ियों को जाते देखकर फूट फूट कर रोना चाहता है।
खैर इससे पहले मुशयरा शुरू हो जनाब आफताब अल्वी यानी हमारे राजी भाई ने अवार्ड के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। और अब उनकी स्क्रिप्ट का चौंकाने वाला आगाज और अंदाज देखिए-‘लीटररी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए हमने जिस शख्सियत का इंतखाब किया है उनके किरदार और उनकी कलम के कई पहलू हैं और तमाम पहलू बड़े रोशन और मुस्तनद हैं। कभी उनका कलम तलवार होता है तो कभी उसी कलम से वो मजलूमों के जख्मों पे मरहम भी रख देते हैं। दयाशंकर शुक्ल सागर कलम का ऐसा ही सिपाही है जिसने कम उम्र में अपनी कलम से ऐसा इंकलाब बरपा किया है जिसकी सताइश सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं उन तमाम मुमालिक में की जा रही है जहां इंसानी दर्द पर आंसू बहाने वाले लोग मौजूद हैं। और उनके कलम की रोशनी वहां वहां महसूस की जा रही है जहां जहां जुल्म के अंधेरे सिर उठाने की कोशिश कर रहे हैं। आप सब जानते हैं ये अवार्ड उन्हें उस बा-मकसद और बा-मानी बहरीर के लिए पेश किया जा रहा है जिसका उनवान था ‘इस आंतकवादी की खता क्या है।’
उर्दू के ये दिलफरेब लफ्ज ऐसे थे जैसे दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा सौदा लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की शान में कसीदे पढ़ रहे हों। अगर मैं सच में नवाब होता तो सौदा की तरह राजी मियां को भी ‘मलिकुश्शुअर’ यानी कवि सम्राट की उपाधि से नवाज देता। कसीदे ऐसे ही होते हैं जैसे फ्रांस के फूलों के त्योहार में लोग एक दूसरे पर फूलों की बौछार करते हैं। खैर मेजबान का फर्ज भी है कि वह अपने मेहमान की शान में कसीदे पढ़े वह भी ऐसा मेहमान के जिसे अवार्ड दिया जाना है। वरना मैं नाचीज कलमकार अपनी हैसियत बखूबी जानता हूं। मैं अपने बरक्स कोई मुगालता नहीं पालता। मेरा दिल जानता है कि तनख्वाह के लिए महीने की पहली तारीख का मुझे कितनी शिद्दत से इंतजार रहता है। जानता हूं हमारे मुल्क में कलम से इंकलाब लाना नामुमकिन है जहां की हर चीज बिकाऊ है। बाजार में एक चीज जो सबसे सस्ती है वह ईमान है। अखबारनवीसी के शुरूआती दौर में जब मैंने पहली बार बसपा की बीट देखनी शुरू की तो बाबू सिंह नाम का एक शख्स मायावती का चपरासी हुआ करता था। बाद में वह केबिनेट मंत्री बन गया। देखते देखते वह करोड़पति हो गया। सुनते हैं वह किसी अखबार का मालिक भी बन गया है। आजकल जेल में है। कल छूट जाएगा। न जाने कितने पत्रकारों को नौकरी देगा। क्या आप सोचते हैं वहां नौकरी करने वाले पत्रकार इंकलाब लाएंगे?
लालच और मुफलिसी ने हर दूसरे इंसान को इस हद तक खुदगर्ज बना दिया है कि कोई किसी के लिए फिक्रमंद नहीं। संवेदनाएं मर चुकी हैं और जज्बात कत्ल हो रहे हैं। उस दिन मैं अखबारनवीसी के अपने पच्चीस साल के अनुभव से पहली नजर में आतंकवादी की उस मां को देखकर समझ गया कि उसका बेटा आतंकवादी नहीं है। जिसके घर में एक बूढ़ी मां और पांच अनब्याही बहनें हो वह आतंकवादी कैसे हो सकता है? लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में जब बम के धमाके हो रहे थे तब वह कलकत्ता के कलपुर्जे जोड़ने वाले एक बड़े कारखाने में काम कर रहा था। उसकी लाचार मां कारखाने का हाजिरी रजिस्टर और बैंक में उसके मुफलिस एकाउंट के दस्तावेज लेकर लखनऊ की कचहरी में जमानत के लिए घूम रही थी। उसके वकील ने मुझे उसकी मां से मिलवाया था। बेशक आतंकी का वह हिम्मती वकील भी अपने दूसरे साथी वकीलों की नफरत का शिकार था। सारे दस्तावेज इकट्ठा करने के बाद मैं पूछते पूछते थक गया लेकिन यूपी पुलिस के डीजीपी से लेकर इस केस के इंक्वाइरी आफिसर तक ये बताने को राजी नहीं हुए कि उसके खिलाफ ऐसा क्या सबूत मिल गया कि वह आतंकी है। सिवाए इसके कि उसका नाम बांगलादेश के किसी आतंकी से मिलता जुलता है। उस ‘आतंकी’ के पास तो मोबाइल फोन तक नहीं था कि पुलिस साबित करती कि वह पाकिस्तान या दुबई के लश्कर-ए-तोएबा के किसी आतंकी सरगना के सम्पर्क में है। पुलिस प्रेस कान्फ्रेंस में उसे बांग्लादेश का एक खूंखार आतंकवादी बता रही थी जबकि उसका स्थायी पता बंगल के नार्थ 24 परगना जिले का था। खबर छपी और आखिर यूपी की पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा। लेकिन आतंकवादी होने का जेल में उसने जो सदमा उठाया उसका क्या? मुझे तो इस स्टोरी के लिए वजीरे आजम तक से इंटरनेशनल अवार्ड मिल गया पर उन बेगुनाहों की खबर कौन लिखेगा जो आज भी ‘आतंकवादी’ बने हिन्दुस्तानी जेलों में एडिया रगड़ रहे हैं। ये सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है। इसलिए राजी की इंकलाब लाने वाली लफ्फाजी पर मैं बहुत खुश नहीं हुआ।
खैर अब हम मुशायरे पर वापस लौटते हैं। मुन्नवर भाई, हबीब हाशमी, वासिफ फारुखी, डा. तारिक कमर, उस्मान मिनाई, अनिल चौबे, नजमा नूर, शाहिद नूर, अनु सपन, नोमान शौक और अलताफ जिया सबने बारी बारी से अपनी शायरी की। इनमें शायद ही कोई ऐसा शायर या कवि हो जिसे दुबई की पब्लिक ने शोर मचा कर दोबारा पढ़ने के लिए न बुलाया हो। ईटीवी के डा. तारिक कमर ने अपनी खूबसूरत नज्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ पढ़ी। गंगा पर सूफिययाना अंदाज में शायरी मैंने पहली दफा सुनी। बनारस से आए हास्य कवि अनिल चौबे ने अपने चचा एनडी तिवारी पर खूब फिकरे कसे। बोले-बेचारे बुजुर्ग तिवारीजी खून लेने के लिए पूरा देश पीछे पड़ गया। कोर्ट कचहरी पुलिस वाले सब। फिर चौबे जी ने चौपाई पढ़ी -‘नही कोई जोर चलता है, महज रिक्वेस्ट होता है/इश्क में दौलत-ए-दिल का बड़ा इनवेस्ट होता है/जवानी में मुहब्बत की जिन्हें गिनती नहीं आती /बुढ़ापे में उन्हीं का तो डीएनए टेस्ट होता है।’ सबसे ज्यादा तालियां चौबेजी ने बटोरी। बाद में मैंने और हमारे दुबई के दोस्त हरीश मिश्रा ने चुटियाधारी चौबेजी की खूब खिंचाई की। चौबेजी खुद दुबले पतले मरियल से हैं। हरीश बोले-पंड़ितजी आपका तो बुढ़ापे में डीएनए टेस्ट भी नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए खून चाहिए। मैंने कहा-अपनी चोटी से पकड़े जाएंगे क्योंकि अब तो कम्बखत बाल भी दिल की फिसलन के राज फाश कर देते हैं। बेचारे हास्य कवि चौबे जी संकुचा गए। बताते चले कि यह वही कवि हैं जिन्होंने कलयुग में सूपनखा को खोज निकाला। वो तो भला हो अखिेलेश यादव का कि चुनाव जीत कर सरकार बना ली वरना मायावती के राज में पंड़ित जी जेल में रामचरित मानस के लिए चौपाई लिख रहे होते।
और यकीन जानिए दुबई के शेख राशिद आडिटोरियम में मुशायरा सचमुच सुपर हिट रहा। सुबह साढे़ तीन बजे तक पूरा आडिटोरियम खचाखच भरा था। काली शेरवानी में रेहान, अफताब और फरहान के चेहरे दमक रहे थे। चटक गुलाबी ब्लाऊज और गुलाबी किनारे वाली क्रीम साड़ी के खालिस हिन्दुस्तानी लिबास में खूबसूरत शाजिया की खुशी से चहक रही थी। जैसे निकाह के बाद घर से बेटी की बारात विदा हुई हो।
जारी
दुबई के उस शानदार हिन्दुस्तानी स्कूल के बड़े से आडिटोरियम में मुशायरे की सारी तैयारी पूरी हो चुकी है। लेकिन इस बार ऐन मौके पर राहत इंदौरी नहीं आए। राहत भाई के शायरी पढ़ने के अंदाज पर दुबाईवाले भी गजब फिदा हैं। शेर पढ़ने का उनका नाटकीय ढंग सबको भाता है-‘किसने दस्तक दी ये दिल पे, कौन है? फिर राहत भाई इस लाइन को अपने खास अंदाज में एक-एक लफ्ज पर जोर देकर तीन बार दोहराएंगे। फिर मुशायरे में थोड़ा समां बांधेंगे-‘मैं शेर पढ़ कर बताता हूं मुन्नवर भाई आप सुन कर बताइएगा।’ फिर अगली लाइन में चौकाएंगे-‘आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है?’ इस तरह पब्लिक को किसी हुनरमंद मदारी की तरह खुश करके राहत भाई खूब तालियां बटोरते हैं। लेकिन इस बार वह दुबई नहीं आए। रेहान भाई ने बताया कि उनके जिस्म में शक्कर की गिनती अचानक इतनी बढ़ गई है कि डाक्टर ने घर से निकलने से मना कर दिया। ये अफवाह नहीं पक्की खबर थी। क्योंकि इस मामले में राहत भाई अक्सर ये कह कर सब पर इलजाम लगाते हैं कि ‘अफवाह थी कि मेरी तबियत खराब है/ लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया।’ अरे भाई लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया कि आप खुद बे-परहेजी के शिकार हो गए। पर मैं जानता हूं शायरों की दुकान ऐसे ही चलती है।
लेकिन मकबूल शायर मुन्नवर राना सुबह की फ्लाइट से वक्त पर आ गए। मुशायरे का अब सारा दारोमदार उन्हीं पर है। मुन्नवर राना को दुबई के ये बच्चे ‘बाबा’ कहते हैं। बाबा ने मंच का जिम्मा बखूबी संभाला। उन्होंने शुरूआत एक कहानी से की- एक हवाई जहाज बादलों के तूफान में फंस गया। सारे मुसाफिर डरे हुए थे। सबके होश उड़े थे। लेकिन एक लड़का निडर बैठा खेल रहा था। लोगों ने उससे पूछा ‘तुम्हें डर नहीं लग रहा।’ लड़के ने कहा ‘नहीं क्योंकि ये जहाज मेरा बाप चला रहा है।’ ऐसे ही इन बच्चों ने ये जिम्मेदारी मुझे दी है। अब इस जहाज को मुझे संभालना है। बच्चे बेफिक्र हो गए। मुन्नवर भाई अपने फन में माहिर हैं। उन्हें मुशायरा हिट करने का हुनर मालूम है। अच्छे शेरों का उनके पास खजाना है। आसान और मुख्तसर से लफ्जों में वह गहरी बात कह जाते हैं। मां और बेटियों पर नाजुक शेर पढ़ते हुए बाजवक्त वे इतने जज्बाती हो जाते हैं कि उनकी बड़ी-बड़ी आंखें भर आती हैं। और तब उनकी आंखों में ममता का समन्दर साफ दिखता है जो बेशक उस अरब सागर से भी गहरा होता है जिसे हम लांघ कर यहां तक आए हैं। ‘सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम जो इस मुल्क की मिट्टी को मां कहते हैं।’उनकी शायरी मीर तकी मीर की शायरी की तरह क्लासिकल है गालिब की तरह अर्थपूर्ण लेकिन उनकी हर शायरी में दर्द मरसिये जैसा है। उनके अंदर का शायर न मायखाने से लड़खड़ाते हुए बाहर निकलता दिखता है और न तवायफ के कोठे से उतरता हुआ। न ये शायर हसिनाओं की जुल्फों से खेलता है और न हुस्नो इश्क के कसीदे पढ़ता है। ये शायर कभी नन्हा फरिश्ता बनकर मां के आंचल से लिपटना चाहता है कभी बूढ़ा बाप बनकर आंगन से विदा होती चिड़ियों को जाते देखकर फूट फूट कर रोना चाहता है।
खैर इससे पहले मुशयरा शुरू हो जनाब आफताब अल्वी यानी हमारे राजी भाई ने अवार्ड के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। और अब उनकी स्क्रिप्ट का चौंकाने वाला आगाज और अंदाज देखिए-‘लीटररी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए हमने जिस शख्सियत का इंतखाब किया है उनके किरदार और उनकी कलम के कई पहलू हैं और तमाम पहलू बड़े रोशन और मुस्तनद हैं। कभी उनका कलम तलवार होता है तो कभी उसी कलम से वो मजलूमों के जख्मों पे मरहम भी रख देते हैं। दयाशंकर शुक्ल सागर कलम का ऐसा ही सिपाही है जिसने कम उम्र में अपनी कलम से ऐसा इंकलाब बरपा किया है जिसकी सताइश सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं उन तमाम मुमालिक में की जा रही है जहां इंसानी दर्द पर आंसू बहाने वाले लोग मौजूद हैं। और उनके कलम की रोशनी वहां वहां महसूस की जा रही है जहां जहां जुल्म के अंधेरे सिर उठाने की कोशिश कर रहे हैं। आप सब जानते हैं ये अवार्ड उन्हें उस बा-मकसद और बा-मानी बहरीर के लिए पेश किया जा रहा है जिसका उनवान था ‘इस आंतकवादी की खता क्या है।’
उर्दू के ये दिलफरेब लफ्ज ऐसे थे जैसे दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा सौदा लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की शान में कसीदे पढ़ रहे हों। अगर मैं सच में नवाब होता तो सौदा की तरह राजी मियां को भी ‘मलिकुश्शुअर’ यानी कवि सम्राट की उपाधि से नवाज देता। कसीदे ऐसे ही होते हैं जैसे फ्रांस के फूलों के त्योहार में लोग एक दूसरे पर फूलों की बौछार करते हैं। खैर मेजबान का फर्ज भी है कि वह अपने मेहमान की शान में कसीदे पढ़े वह भी ऐसा मेहमान के जिसे अवार्ड दिया जाना है। वरना मैं नाचीज कलमकार अपनी हैसियत बखूबी जानता हूं। मैं अपने बरक्स कोई मुगालता नहीं पालता। मेरा दिल जानता है कि तनख्वाह के लिए महीने की पहली तारीख का मुझे कितनी शिद्दत से इंतजार रहता है। जानता हूं हमारे मुल्क में कलम से इंकलाब लाना नामुमकिन है जहां की हर चीज बिकाऊ है। बाजार में एक चीज जो सबसे सस्ती है वह ईमान है। अखबारनवीसी के शुरूआती दौर में जब मैंने पहली बार बसपा की बीट देखनी शुरू की तो बाबू सिंह नाम का एक शख्स मायावती का चपरासी हुआ करता था। बाद में वह केबिनेट मंत्री बन गया। देखते देखते वह करोड़पति हो गया। सुनते हैं वह किसी अखबार का मालिक भी बन गया है। आजकल जेल में है। कल छूट जाएगा। न जाने कितने पत्रकारों को नौकरी देगा। क्या आप सोचते हैं वहां नौकरी करने वाले पत्रकार इंकलाब लाएंगे?
लालच और मुफलिसी ने हर दूसरे इंसान को इस हद तक खुदगर्ज बना दिया है कि कोई किसी के लिए फिक्रमंद नहीं। संवेदनाएं मर चुकी हैं और जज्बात कत्ल हो रहे हैं। उस दिन मैं अखबारनवीसी के अपने पच्चीस साल के अनुभव से पहली नजर में आतंकवादी की उस मां को देखकर समझ गया कि उसका बेटा आतंकवादी नहीं है। जिसके घर में एक बूढ़ी मां और पांच अनब्याही बहनें हो वह आतंकवादी कैसे हो सकता है? लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में जब बम के धमाके हो रहे थे तब वह कलकत्ता के कलपुर्जे जोड़ने वाले एक बड़े कारखाने में काम कर रहा था। उसकी लाचार मां कारखाने का हाजिरी रजिस्टर और बैंक में उसके मुफलिस एकाउंट के दस्तावेज लेकर लखनऊ की कचहरी में जमानत के लिए घूम रही थी। उसके वकील ने मुझे उसकी मां से मिलवाया था। बेशक आतंकी का वह हिम्मती वकील भी अपने दूसरे साथी वकीलों की नफरत का शिकार था। सारे दस्तावेज इकट्ठा करने के बाद मैं पूछते पूछते थक गया लेकिन यूपी पुलिस के डीजीपी से लेकर इस केस के इंक्वाइरी आफिसर तक ये बताने को राजी नहीं हुए कि उसके खिलाफ ऐसा क्या सबूत मिल गया कि वह आतंकी है। सिवाए इसके कि उसका नाम बांगलादेश के किसी आतंकी से मिलता जुलता है। उस ‘आतंकी’ के पास तो मोबाइल फोन तक नहीं था कि पुलिस साबित करती कि वह पाकिस्तान या दुबई के लश्कर-ए-तोएबा के किसी आतंकी सरगना के सम्पर्क में है। पुलिस प्रेस कान्फ्रेंस में उसे बांग्लादेश का एक खूंखार आतंकवादी बता रही थी जबकि उसका स्थायी पता बंगल के नार्थ 24 परगना जिले का था। खबर छपी और आखिर यूपी की पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा। लेकिन आतंकवादी होने का जेल में उसने जो सदमा उठाया उसका क्या? मुझे तो इस स्टोरी के लिए वजीरे आजम तक से इंटरनेशनल अवार्ड मिल गया पर उन बेगुनाहों की खबर कौन लिखेगा जो आज भी ‘आतंकवादी’ बने हिन्दुस्तानी जेलों में एडिया रगड़ रहे हैं। ये सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है। इसलिए राजी की इंकलाब लाने वाली लफ्फाजी पर मैं बहुत खुश नहीं हुआ।
खैर अब हम मुशायरे पर वापस लौटते हैं। मुन्नवर भाई, हबीब हाशमी, वासिफ फारुखी, डा. तारिक कमर, उस्मान मिनाई, अनिल चौबे, नजमा नूर, शाहिद नूर, अनु सपन, नोमान शौक और अलताफ जिया सबने बारी बारी से अपनी शायरी की। इनमें शायद ही कोई ऐसा शायर या कवि हो जिसे दुबई की पब्लिक ने शोर मचा कर दोबारा पढ़ने के लिए न बुलाया हो। ईटीवी के डा. तारिक कमर ने अपनी खूबसूरत नज्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ पढ़ी। गंगा पर सूफिययाना अंदाज में शायरी मैंने पहली दफा सुनी। बनारस से आए हास्य कवि अनिल चौबे ने अपने चचा एनडी तिवारी पर खूब फिकरे कसे। बोले-बेचारे बुजुर्ग तिवारीजी खून लेने के लिए पूरा देश पीछे पड़ गया। कोर्ट कचहरी पुलिस वाले सब। फिर चौबे जी ने चौपाई पढ़ी -‘नही कोई जोर चलता है, महज रिक्वेस्ट होता है/इश्क में दौलत-ए-दिल का बड़ा इनवेस्ट होता है/जवानी में मुहब्बत की जिन्हें गिनती नहीं आती /बुढ़ापे में उन्हीं का तो डीएनए टेस्ट होता है।’ सबसे ज्यादा तालियां चौबेजी ने बटोरी। बाद में मैंने और हमारे दुबई के दोस्त हरीश मिश्रा ने चुटियाधारी चौबेजी की खूब खिंचाई की। चौबेजी खुद दुबले पतले मरियल से हैं। हरीश बोले-पंड़ितजी आपका तो बुढ़ापे में डीएनए टेस्ट भी नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए खून चाहिए। मैंने कहा-अपनी चोटी से पकड़े जाएंगे क्योंकि अब तो कम्बखत बाल भी दिल की फिसलन के राज फाश कर देते हैं। बेचारे हास्य कवि चौबे जी संकुचा गए। बताते चले कि यह वही कवि हैं जिन्होंने कलयुग में सूपनखा को खोज निकाला। वो तो भला हो अखिेलेश यादव का कि चुनाव जीत कर सरकार बना ली वरना मायावती के राज में पंड़ित जी जेल में रामचरित मानस के लिए चौपाई लिख रहे होते।
और यकीन जानिए दुबई के शेख राशिद आडिटोरियम में मुशायरा सचमुच सुपर हिट रहा। सुबह साढे़ तीन बजे तक पूरा आडिटोरियम खचाखच भरा था। काली शेरवानी में रेहान, अफताब और फरहान के चेहरे दमक रहे थे। चटक गुलाबी ब्लाऊज और गुलाबी किनारे वाली क्रीम साड़ी के खालिस हिन्दुस्तानी लिबास में खूबसूरत शाजिया की खुशी से चहक रही थी। जैसे निकाह के बाद घर से बेटी की बारात विदा हुई हो।
जारी
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