दिल्ली
के लोधी रोड के उस आर्य समाजी
श्मशान घाट पर मुझे घाट कहीं
नहीं दिखा। राजेन्द्र यादव
की जलती हुई चिता दिखी और
लकड़ियों के तेज आग के बीच से
खूब सारा धुंआ दिखा। उस धुंए
में कई सारे उदास चेहरे दिखे।
इन चेहरों में एक चेहरा मन्नु
भण्डारी का था। एक शांत और भाव
शून्य चेहरा। दाम्पत्य जीवन
में बड़े बड़े संकट आसानी से
कट जाते हैं लेकिन इस रिश्ते
में पति और पत्नी के बीच एक
अघोषित युद्ध हमेशा चलता रहता
है। और ये युद्ध अक्सर श्मशान
घाट या किसी कबि्रस्तान में
उस वक्त खत्म होता है जब दोनों
में से कोई एक नहीं रहता।
राजेन्द्र
यादव की मौत मेरे लिए किसी
सदमे से कम नहीं थी। वह परसों
तक हंस के दफ्तर में काम कर
रहे थे। कल रात जिस वक्त उनकी
तबियत बिगड़ी उनके घर पर कोई
नहीं था। नौकर कालोनी के
सिक्यो्रटी गार्ड को लेकर
उन्हें अस्पताल ले गया। लेकिन
रास्ते में हंस उड़ गया। डाक्टर
ने सिर्फ घोषणा की कि राजेन्द्र
जी नहीं रहे।
मयूर विहार
के आकाश दर्शन अपार्टमेंट के
उस कोने में सारा आकाश आकर
सिमट गया था। राजेन्द्र जी
के घर के ठीक सामने कोने में
बच्चों का एक छोटा सा पार्क
है। उस पार्क के सारे झूले आज
वीरान पडे हैं। राजेन्द्र जी
की देह को अंतिम दर्शन के लिए
बाहर ही रखा गया है। देह के
करीब ही कुर्सी पर मन्नु बैठी
हैं। उनकी सफेद साड़ी पर मु्रझाए
फूल के रंगीन प्रिंट टके हैं।
घर पर ज्यादा भीड़ नहीं है।
हंस से जुड़े रहे संजीव अपना
गांधी झोला टांगे सामने ही
खड़े हैं। बेटी रचना, दामाद,
मैत्रेयी पुष्पा,
निर्मला जैन, सुनील,
विवेक मिश्र,अजय
नावरिया, बाराबंकी
के सत्यवान कुछ और करीबी लोग।
सब अंतिम तैयारियों में जुटे
हैं। मैं वहीं किनारे खड़ा
हो गया हूं। टीवी चैनल और प्रेस
के फोटोग्राफर खामोशी के साथ
अलग अलग कोण से फूलों से सजी
अर्थी की तस्वीरें खींच रहे
हैं। सोच रहा हूं पत्रकारिता
भी कितना संवेदनहीन और नामुराद
धंधा है। दुख के पलों में भी
ये कम्बखत अपनी तस्वीर को
खूबसूरत बनाने में जान लगा
देते हैं।
लेकिन
मन्नु भण्डारी किसी और उधेड़बुन
में हैं। वे कितने सालों से
अलग हैं एक दूसरे से। बिना
तलाक लिए दोनों दाम्पत्य का
निर्वासित जीवन जी रहे थे।
सार्वजनिक जीवन में वे एक
अर्से से आमने सामने आना नहीं
चाहते थे। पर अब आमने सामने
आना पड़ा। राजेन्द्र यादव का
चेहरा अर्थी पर चढ़े ढेर सारे
फूलों के बीच छुपा है। बरबस
मुझे यानिस की एक कविता याद
आ जाती है- मैं मामूली
चीजों के पीछे छुपता हूं। ताकि
तुम मुझे पा सको। तुम मुझे
नहीं पाओगी। तो उन चीजों को
पाओगी। तुम उसे छुओगी जिसे
मेरे हाथों ने छुआ है और हमारे
हाथों की छाप आपस में मिल जाएगी।
लोदी रोड
के उस श्मशान घाट पर लेखक,
साहित्यकारों पत्रकारों
का मेला जुटा है। नामवर सिंह,
अशोक वाजपेयी,
रवीन्द्र कालिया,
विश्वनाथ तिवारी,
संगम पांडे, डीपी
तिवारी, अशोक चक्रधर,
ओम थानवी, दिबांग,
प्रसून वाजपेयी और
भी न जाने कौन कौन। मन्नु
भण्डारी यहां भी आईं और एक
बेंच पर बैठ गईं हैं। मैंने
देखा राजेन्द्र यादव जीवन भर
कर्मकाण्डों का विरोध करते
रहे। लेकिन उनके अंतिम संस्कार
में सारे वैदिक कर्मकाण्ड
हुए। राम नाम सत्य है के उदघोष
के साथ घर से अर्थी उठी और
श्मशान में पंड़ित जी ने
गायत्री मंत्र का पाठ किया।
सोच रहा हूं मौत इंसान को कितना
असहाय और निरीह बना देती है।
मैंने करीब खड़े ओम थानवी जी
से भी यही कहा। वे बोले ये मौत
का सच है। क्रूर सच। मेरे बगल
में बैठे नामवर सिंह एनडीटीवी
के एक रिपोटर से बात कर रहे
थे। उनसे कह रहे थे-बड़े
लोगों की मौत के बाद अक्सर ये
कहा जाता है कि है इनकी जगह
कोई और नहीं भर पाएगा। राजेन्द्र
यादव के बारे में यह कहावत एक
दम सच है। अब कोई दूसरा राजेन्द्र
यादव नहीं होगा।
कमलेश्वर
की तरह राजेन्द्र यादव की चिता
को मुखागि्न उनकी बेटी रचना
ने दी। उनकी चिता में एक लकड़ी
मैंने भी सजा दी। यही मेरी
श्रद्धाजलि है। अपने युग के
एक महान लेखक और संपादक के लिए
मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर
पाया। देखते-देखते
चिता की धूं धूं करके चलने
लगी। लकड़ियां सूखी थीं फिर
भी गहरा घुंआ था। लखनऊ में लिए
एक इंटरव्यू में मैंने उनसे
उनके दुख के बारे में पूछा था।
तो उन्होंने हंसते हुए एक शेर
सुनाया था-जब्ते
गम क्या है तुझे कैसे समझाऊं।
देखना मेरी चिता कितना धुंआ
छोड़ती है। राजेन्द्र जी को
मैंने हमेशा हंसते देखा। क्या
उनके सीने में सचमुच इतना गम
था। जलती हुई अर्थी से निकलता
धुंए का गुबार तो यही कहता है।
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