लेकिन मैं जानता हूं आज नहीं तो कल ये फण्ड मंजूर भी हो जाएगा। इलाहाबाद के नौजवान डीएम राजशेखर खुद इस काम में लगे हैं। लेकिन उनकी भी समीमाएं हैं। नगर विकास के प्रमुख सचिव कुंभ के लिए जो पैसा दिल्ली से आया वो इलाहाबाद पर खर्च नहीं करना चाहते। इलाहाबाद के विकास प्राधिकरण ने अपना फण्ड कुंभ पर खर्च कर दिया। अब राज्य सरकार वो पैसा वापस करने को तैयार नहीं। गजब नौटंकी चल रही है। खैर असल सवाल है कि इलाहाबाद के जिम्मेदार लोगों के पास अपने शहर के लिए वक्त क्यों नहीं है? या वह नींद से जागने को राजी नहीं हैं? जब मेरे एक मित्र विपिन गुप्ता ने इस शहर को ‘स्लीपिंग सिटी’ का फतवा दे दिया तोे मुझे यकीन करना पड़ा कि ये वाकई एक सोया हुआ शहर है। इसका कुछ नहीं हो सकता।
लेकिन मेरी यह धारणा बहुत जल्द धराशायी हो गई। आप किसी शहर को तब तक पूरी तरह नहीं समझ सकते जब तक आप खुद उसका हिस्सा नहीं बन जाते। शहर की धड़कन को एक टूरिस्ट की नजर से नहीं पकड़ा जा सकता। त्योहारों के मौसम में मैंने अपने दोस्तों के साथ इस शहर को बहुत करीब से जिया। पथरचट्टी की रामलीला में मैंने आसमान से ठीक नीचे बने कृत्रिम हिमालय की श्रृंखलाओं के बीच शिव द्वारा पार्वती को रामकथा सुनाते साक्षात देखा। देखा दशहरे में पूरा शहर कैसे रामदल की यात्राओं को उत्सव बना देता है। कैसे नवरात्र में गली-गली भव्य दुर्गा प्रतिमाएं सज जाती हैं। कैसे हाईकोर्ट की छूट के बावजूद श्रद्धालु अपनी देवी प्रतिमाओं को नदियों के बजाए झील और तालाबों में विसर्जित करने की होड़ करने लगते हैं ताकि हमारी गंगा-यमुना मैली न हो।
मैंने देखा कैसे मोहर्रम में शिया हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में दर्दनाक आवाज में मर्सिया पढ़ते-पढ़ते छुरीदार हंटर से खुद को लहुलुहान कर लेते हैं। चौक के रानीमंडी जैसे पुराने इलाके में ऐसा जूनन भरा माहौल होता है कि किसी अजनबी का दहशत से गला खुश्क हो जाए। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब का गजब संगम यहां सड़कों पर दिखा। दिसम्बर के जाड़ों में शहर के चर्च ऐसे सज जाते हैं मानो ईसा मसीह यहीं इलाहाबाद में ही पुनर्जन्म लेने वाले हों। मैंने देखा कुंभ में कैसे करोड़ों श्रद्धालु संगम में डुबकी लगा कर वापस लौट जाते हैं और शहर के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं होती। इको-स्पोट्र्स के जमाने में यहां गहरेबाजी के दौरान घोड़ों की रेस आज भी होती है, सड़क पर कबूतर लड़ाते और उड़ाते लोगों की भीड़ देखी। हाईकोर्ट में महत्वपूर्ण फैसले देने के बाद इलाहाबादी मूल के जजों को लोकनाथ में कचौड़ी की दुकान पर बड़ी सादगी से कहते सुना-‘का यार कुछ खिलौबो-पिलौबो नाही।’
कभी आरक्षण के पक्ष और विरोध में यहां कई-कई दिन तक शहर ठप हो जाता है लेकिन जल्द ही सलोरी-अल्लापुर इलाके में ठाकुर और यादवजी अपने नोट्स के संग गलबहियां डाले घूमते दिखते हैं। तो कभी जरा-सी बात पर काले कोट वाले पढ़े लिखे वकील, नादान छात्रों की तरह उपद्रवी बन शहर को सिर पर खड़ा कर लेते हैं। चोर यहां पूरा का पूरा एटीएम उखाड़ कर गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं और पुलिस दारू पीकर नाले में लोटपोट करती रहती है। कभी छेड़छाड़ से त्रस्त कोई लड़की लफंगे की बाइक में पेट्रोल छिड़क कर सरेआम आग लगा कर दुर्गा बन जाती है तो कभी इश्क में बेतरह डूबे लड़के यमुना के नए बने पुल से कूद कर बेवजह जान दे देते हैं। ‘गुनाहों के देवता’ यहां आज भी भटकते हैं।
अब ये गजब का शहर छोड़ रहा हूं। मैं समझ सकता हूं कि हरिवंश राय बच्चन से लेकर रवीन्द्र कालिया तक ने ये शहर क्यों छोड़ा। सब कुछ होने के बावजूद इस शहर ने तरक्की के सारे रास्ते बंद कर रखे हैं। लेकिन ये सच है यहां हर किस्सा पल भर में अफसाना बन जाता है और हर अफसाना एक मुकम्मल नॉवल। सब अपनी जिन्दगी में इस कदर मशगूल हैं कि कोई यह मानने को तैयार नहीं कि दुनिया चांद पर पहुंच चुकी है। जिस ‘गॉड पार्टिकल’ पर हिग्स-इंगलर्ट को इस साल नोबल के लिए चुना गया उसे इलाहाबादियों ने संगम की रेती के किनारे न जाने कब का खोज निकाला है। इतनी ठसक और विविधाता से भरा जीवन्त शहर आपको और कहां मिलेगा। क्या बता सकते हैं आप?
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