एक सवाल
है। जो मैं अक्सर सोचता हूं।
भारत में वर्ण व्यवस्था इतनी
खराब है तो भारत की पांच हजार
साल पुरानी संस्कृति अब तक
कैसे जिन्दा है?
पिछली करीब नौ दस
सदियों से हिन्दू-मुसलमान
इस देश का अभिन्न हिस्सा कैसे
बने रहे? जबकि
उनके सामाजिक जीवन में एक खास
दूरी हमेशा से बनी रही है?
फिर भी इकबाल को
क्यों कहना पड़ता है कि कुछ
बात है कि हस्ती मिटती नहीं
हमारी?
आखिर वह
क्या बात है?
एक मिसाल देंखे।
१४५३ में तुर्कों ने यूनान
पर हमला किया। लेकिन यूनान
के यूनानी यूनानी रहे और तुर्की
तुर्की। यूरेशिया में टर्की
एक देश है। वहां पहले यूनानी
रहते थे। ट्राय की मशहूर जंग
यही समुन्द्र के किनारे हुई।
तब तक यहां रोमन साम्राज्य
था। तुर्कों ने हमला कर उन्हें
खत्म कर दिया। वहां अब भी तुर्की
बोली जाती है। वह टर्की की
राजभाषा है। तुर्कों ने भारत
पर भी हमला किया। यहां तुर्की
कभी राजभाषा नहीं बन पाई।
तुर्क भारत में घुल मिल गए।
अवध में वे अवधी बोलते हैं।
और सिंध में सिंधी। बंगाल में
बंगाली। तुर्की के कुछ शब्द
हिन्दुस्तानी भाषा में घुल
मिल गए। पूरे देश में आपको एक
भी घर ऐसा नहीं मिलेगा जहां
तुर्की बोली जाती हो। ऐसा ही
इससे पहले ग्रीक,
कुषाण,
हुण के साथ हुआ। वह
कहां हैं आज किसी को नहीं पता।
इस्लाम के उदय के बाद अरब,
तुर्क और मुगल
आक्रमणकारी भारत आए। जाति
व्यवस्था से त्रस्त हिन्दुओं
का एक बड़ा तबका मुसलमान बना।
इन नए मुसलमानों का दो तरह के
इस्लाम में सम्पर्क हुआ। एक
वह कट्टर कठमुल्ले जो मंगोलों
के हमले से भाग कर भारत आए थे।
वे मानते थे कि मुसलमान को
शरीयत की लकीर का फकीर होना
चाहिए। वे चाहते थे कि भारत
से गैर मुसलमानों का नामो
निशान मिट जाए। लेकिन सुलतानों
के लिए ये संभव नहीं था। क्योंकि
तमाम सख्ती के बावजूद हिन्दू
जनता मुसलमान होने को राजी
नहीं थी। तो उन्हें बदलना
पड़ा। क्या आपको यकीन होगा
कि 1320 में
खुसरो खां ने दिल्ली की तख्त
पर बैठते ही पहली बार गोहत्या
पर रोक लगा दी और कहीं कोई विरोध
हीं हुआ। लेकिन नए मुसलमानों
को धर्म परिवर्तन की सजा भुगतनी
पड़ी। हिन्दू समाज ने उनसे
दूरी बना ली। ऐसी दूरी उन्होंने
हुणों, कुषाणों
के साथ नहीं बनाई थी।
ये नए
मुसलमान सामान्य तौर पर दस्तकार
और कारीगर थे। इन्होंने अपनी
अलग बिरादरी बना ली। वे आपस
की बिरादरी में ही रोटी बेटी
का रिश्ता रखने लगे। लेकिन
कई पुरानी हिन्दु मान्यताओं
और रीति रिवाजों को वह छोड़
नहीं पाए। इस
कारण अरब और तुर्क उन्हें नीची
निगाह से देखते। हां अरब
और तुर्क अफसरों के आगे नम्बर
बढाने के लिए वह कट्टर जरूर
हो गए।
इन नए
मुसलमानों के लिए दूसरी तरह
का इस्लाम शेख,
पीर और सूफी संत
लेकर आए थे। इनकी बातें उन्हें
ज्यादा समझ आती क्योंकि उनके
दर्शन में उन्हें हिन्दू
आध्यात्म की झलक मिलती थी।
पीरों में उन्हें हिन्दू संत
नजर आते। वे दरगाहों पर जाने
लगे, चादरें
चढ़ाने लगे,
इस्लाम में संगीत
की मनाही के बावजूद कव्वालियां
गाने लगे। ये सब अरब में कभी
नहीं हुआ। लेकिन भारत में हुआ।
मुस्लिम समाज यहां के बहुसंख्यक
समुदाय में पूरी तरह घुल मिल
नहीं पाया। लेकिन आपसी भाई
चारे और दोस्ती का रिश्ता
उनमें बना रहा। वे एक दसरे की
दावतों में आने जाने लगे। भले
वे उनके खानपान में हिस्सा न
लेते लेकिन एक दूसरे को शुभकामनाएं
और दुआएं देने में पीछे नहीं
रहते।
जारी
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