दयाशंकर शुक्ल सागर

Saturday, November 23, 2013

एक पत्रकार का प्रायश्चित


तहलका ने इस बार गजब का तहलका मचा दिया। तरूण तेजपाल अपने किए का प्रायश्चित करना चाहते हैं। उन्होंने अपने पहले खत में लिखा उनसे फैसला करने और स्थिति का सही आकलन करने में भूल हुई। ये बहुत अर्थपूर्ण लाइन है। इसका मतलब यह है कि वह समझ नहीं पाए कि नशे में गर्क वह कन्या उनसे क्या चाहती है। वह गफलत के शिकार हो गए। जैसा कि लड़की ने अपने खत में जाहिर किया है उन्हें लगा कि उनकी बेटी की सहेली सिर्फ उन्हें प्रेम करती है। तभी उन्होंने अपनी असभ्य हरकतों को जस्टिफाई करते हुए कहा-"क्या एक से ज्यादा लोगों से प्यार करना सही है?" वह लड़की भी बिहार के किसी गांव की नहीं थी। वह मुम्बई-दिल्ली में काम करने वाली तहलका की एक तेजतर्रार पत्रकार है। उसके ब्लाग में मैंने बहुत बोल्ड और विचारोत्तेजक लेख पढ़े हैं। लेकिन स्थिति का आकलन करने में उससे भी चूक हो हुई। वर्ना एक ही तरह के हादसे का वह दो बार शिकार न होती। 
हैरत की बात है कि बड़े-बड़े खुलासे करने वाले ये खोजी और अनुभवी पत्रकार ‌‌इस नाजुक हालात का सटीक आकलन नहीं कर पाए। जाहिर है नशा बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। मशहूर लेखक व चिंतक लियो टालस्टाय अव्वल दर्जे के शराबी थे। वह अपने जीवन के अंत तक शराब नहीं छोड़ पाए। वह कहते थे इंसान शराब मजे के लिए नहीं पीता। वह इसलिए पीता है ताकि उसे अपनी अंतरात्मा के विरोधपूर्ण स्वर न सुनाई दें।  इसलिए कोई हैरत की बात नहीं कि तहलका के थिंक फेस्ट के शुरूआती भाषण में तेजपाल ने अपने सहकर्मियों को  ज्ञान का सूत्र इस उद्धोष के साथ ‌दिया  कि '...अब, जबकि आप गोवा में हैं, जितना पी सकते हैं, पीजिए, खाइए और... स्लीप विद हूएवर यू थिंक ऑफ...।'
शराब या अन्य नशीले पेय के इस्तेमाल से मनुष्य जितना अधिक चेतना शून्य बनता चला जाता है वह बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से भी उतना ही नीरस, निष्क्रिय और मंद बन जाता है। शराब का सेवन करने वाला हर शख्स यह अनुभव आसानी से कर सकता है। और मैं भी  इसका अपवाद नहीं। बावजूद इसके सारी दुनिया में शराब लोकप्रिय है। और आज से नहीं वैदिक युग से। वाल्मीकि की रामायण में भी मुझे सोम रस सेवन की लोकप्रियता के कई चौंकाने वाले प्रसंग मिले। सोम रस जितना लोकप्रिय लंका में था उतना ही अयोध्या में भी। खैर मैं तर्क देकर शराब सेवन को प्रोत्साहित नहीं कर रहा। मेरा मानना है कि शराब अपने आप में कोई नफरत करने की चीज नहीं। अहम ये है कि शराब पीने वाला कौन है। बंदर के हाथ में आप उस्तरा देकर यह उम्मीद नहीं कर सकते कि उसका या आपका चेहरा सही सलामत बचेगा। दरअसल शराब आपकी प्रवृत्तियों को बाहरी सतह पर लाकर खड़ा कर देता है। हर इंसान के दो चेहरे होते हैं। एक चेहरा सार्वजनिक है और दूसरा निजी। सार्वजनिक चेहरे वाला सामाजिक प्राणी हिपोक्रेट होता है। वह जो नहीं है और होना चाहता है वही चेहरा समाज के सामने पेश करता है। लेकिन शराब ये सारे आवरण हटा कर आपका असली चेहरा सामने ले आती है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को अगर आपको जानना समझना है तो उसे चार पांच पैग लगवा दीजिए। फिर देखिए वह किसी किताब की तरह खुलता चला जाएगा। यह प्रयोग मैं कर चुका हूं और इसके नतीजों से मैं सौ फीसदी आश्वस्त हूं।

तरूण तेजपाल से जिन्दगी में मेरी सिर्फ एक मुलाकात है। मैं उनसे कोई चार साल पहले दिल्ली में केसी कुलिश अवार्ड फंक्‍शन में मिला था। उन्होंने मुझे अवार्ड के लिए गले मिलकर बधाई दी थी। उनकी टीम के भी  किसी सदस्य को ये अवार्ड मिला था। पहली मुलाकात में मैं किसी के बारे में अपनी राय कायम नहीं करता। तहलका की कई खोजपरक खबरों से मैं प्रभावित था हालांकि मैं जानता था कि तहलका के पीछे कई राजनीतिज्ञों  का पैसा और दिमाग लगा है। वह खबरें वैसी खालिस खबरें नहीं जैसी हम यूपी बिहार के पत्रकार ब्रेक करते हैं। हमारे पास न इतने संसाधन है न आजादी।
खैर लड़की के बयान पर यकीन करें तो तेजपाल ने जो हरकत की वह वाकई बेहद शर्मनाक है और कानून की धाराओं में जो भी सजा दर्ज है वह उन्हें मिलनी चाहिए। इस पर किसी डिबेट या बहस की जरूरत नहीं है। यह बहस भी बेकार है कि यह हरकत एक संपादक ने की या राजनेता या संत ने। क्योंकि संपादक भी हाड़ मांस का एक इंसान है। संत परम्परा वाले इस देश में आसाराम जैसे संत भी हुए हैं। वे कोई स्वयंभू संत नहीं  हैं। हजारों लाखों लोग आसाराम अनुयायी हैं।ऐसे में अगर मेरे विद्वान मित्र जस्टिस काटजू देश की 90 फीसदी  जनता को मूर्ख मानते हैं तो वह गलत नहीं हैं। सोचिए इस देश अधिसंख्य जनता मूर्ख न होती तो क्या फूलनदेवी, धनंज्जय सिंह, मुख्तार अंसारी और भी न जाने कितने ऐसे लोग संसद तक पहुंच पाते। मूर्ख जनता के देश में ही चाभी से चलने वाले पुतले जैसे प्रधानमंत्री होते हैं।
मैं शायद अपने मूल विषय से भटक गया। मैं बात कर रहा था तेजपाल के प्रायश्चित की। प्रायश्चित के भी लोगों के अलग अलग ढंग हैं। महात्मा गांधी को अगर गंदे सपने भी आ जाते थे तो भी प्रायश्चित करते थे। वह सुबह तीन बजे उठ कर बिस्तर पर कूदने लगते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो.निर्मल कुमार बोस ने अपनी किताब माई डेज विद गांधी में इसका विस्तृत और रोचक वर्णन किया है। नोआखली के एक वीरान आश्रम के दृश्य का उन्होंने दिलचस्प वर्णन किया। देखिए-" सवेरे 3 बजकर 20 मिनट पर मैंने गांधीजी को सुशीला नैयर से जोर से बातचीत करते हुए सुना। उनकी आवाज में परेशानी झलक रही थी। एकाएक हमें आकुल क्रंदन सुनाई पड़ा। यह गांधीजी का आवाज थी। और तब हमने दो थप्पड़ मारे जाने की आवाज सुनी। ....और बाद में जोरों की रुलाई सुनाई दी।" निर्मल दौड़ते हुए उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे। भीतर देखा बापू आंख बंद किए बैठे थे। उनकी पीठ दीवार से लगी थी और आंखों में आंसू की बूंदे साफ झलक रही थीं। करीब खड़ी सुशीला भी सुबक रही थी। निर्मला की हिम्मत नहीं हुई ‌कि कुछ पूछें। वे दरवाजे से ही लौट आए। सुशीला भी उनकी बेटी की उमर की थी। इस प्रसंग को मैंने वाणी प्रकाशन से छपी अपनी किताब  "महात्मा गांधी ब्रहम्चर्य के प्रयोग" में विस्तार से लिखा है। इतिहास इसी लिए मुझे रोचक लगता है क्योंकि वह वर्तमान की बड़ी से बड़ी घटना से चौंकने का मौका नहीं देता। क्योंकि वर्तमान में ऐसा कुछ नया नहीं हो रहा जो पहले न हो चुका हो। 
वक्त और व्यक्तित्व के हिसाब से प्रायश्चित के तौर तरीके भी बदलते जाते हैं। मैं नहीं जानता कि तेजपाल के प्रायश्चित का क्या प्लान है। हो सकता है कि गोवा या दमन ‌द्वीव के किसी समन्दर के किनारे नवम्बर दिसम्बर की हसीन धूप में एकान्तवास के दौरान वह बीयर की चुस्कियां लेकर सोचें कि उनसे कहां कैसे चूक हो गई। बुद्धिजीवी टाइप के लोग अपने अपराध की सजा खुद तय करते हैं। आप मचाते रहिए हल्ला। गोवा में भाजपा की सरकार उन्हें प्रायश्‍चित के लिए जेल की शांत कोठरी मुहैया कराना चाहती है। हिसाब बराबर करने के ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते हैं। कलम की नोक तलवार से भी ज्यादा धारदार होती है। यह बात तरूण तेजपाल अब बखूबी समझ रहे होंगे।
    
  

Tuesday, November 19, 2013

नरक ले जाने वाली लिफ्ट में राजेंद्र यादव


कल रात मेरी किताबों की रैक में अचानक राजेंद्र यादव की किताब "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' दिख गई। अचानक दिमाग में एक बेतुका ख्याल कौंधा  इस वक्त राजेन्द्र यादव कहाँ होंगे? क्या इसी लिफ्ट में होंगे ? या अपने गंतव्य स्थल तक पहुंच गए होंगे ?
मैं गहरी सोच में पड़ गया।  मौत के बाद इंसान कहां जाता है। ये कोई नहीं जानता। साइंस भी इस सवाल पर खामोश है। हम मौत से शायद डरते ही इसलिए हैं क्योंकि हम इस रहस्य से अनजान हैं कि मौत के बाद इंसान कहां जाता है ?  जन्नत और ज़हन्नुम जैसी जगहें  मज़हबी मुनाफाखोरों ने अपने मतलब के लिए इज़ाद की हैं। मजहबी किताबों में वो स्वर्ग की हसीन तस्वीर दिखा कर भरमाते हैं और नरक का खौफ़नाक मंजर दिखा कर डराते  हैं। करीब  दो साल पहले  मेरी मां इस दुनिया से विदा हुई।  तेरह दिन के उन तकलीफदेय शोक के दिनों मैं पूरी गरूण पुराण पढ़ गया। सिर्फ ये जानने के लिए कि मां इस समय कहां होगी ? कैसी होंगी ? शायद इस किताब से कोई सुराग मिले। गरूण पुराण में कोई उन्नीस हज़ार श्लोक हैं। बाद के आधे हिस्से में सारे श्लोक मौत के बाद के जीवन से जुड़े हैं। इस किताब में न जाने कितने तरह के नरक का ब्यौरा है। हर अपराध के लिए अलग दंड है और हर दंड के लिए अलग नरक। दो नरकों के बीच में भी एक नरक है। मैंने थक कर किताब बंद कर दी। अच्छे लोग मर कर कहां जाते हैं इस बारे मैं ये किताब कुछ नहीं बताती। अगर में गरूण पुराण को ठीक समझा हूँ तो आज की  दुनिया का एक आदमी भी स्वर्ग के सफ़र पर जाने के लिए इलेजिबिल नहीं है। महात्मा गांधी से लेकर अन्ना तक कोई नहीं।  मैं तो कत्तई नहीं। दिलचस्प है कि इस किताब में सारे वर्जित गुनाह करने के बावजूद नरक से बचने के तमाम उपाय दिए गए हैं। लेकिन हर उपाय की  अनिवार्य शर्त ये है कि आप पंडितओं  और पुरोहितों  की  जेबें  गर्म करें।  मूर्ख से मूर्ख इंसान भी गरुण पुराण पढ़ कर समझ जाएगा कि  ये किताब इस देश की गरीब, अनपढ़ और अनघड़ जनता को ठगने का षड्यंत्र है। और ये साजिश ज़ाहिरा तौर पर ब्राह्मणों ने रची  है क्योंकि अपने फायदे के लिए पुराण वुराण लिखना उन्हीं का काम था।  
 "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' में राजेंद्र जी ने दुनिया की  बेहतरीन कहानिओं का अनुवाद किया है। "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' इस किताब की अंतिम कहानी है जिसके लेखक हैं पार लागर क्विस्ट। यह कहानी एक बेवफ़ा बीवी की है जो अपने शौहर से लड़ कर अपने प्रेमी मि.स्मिथ के साथ अच्छा वक्त बिताने एक होटल में जाती है। दोनों एक साथ लिफ्ट से नीचे कमरे में जाने के लिए उतारते हैं। लिफ्ट में ही उनका  रोमांस शुरू हो जाता है।  तभी  अचानक उन्हें महसूस होता है कि लिफ्ट तो रुक ही नहीं रही।  वह नीचे  और नीचे की  तरफ दौड़ी चली जा रही है। दरअसल  लिफ्ट ख़राब हो गई थी और वह सीधे नरक की ओर जा रही थी। दोनों सचमुच नरक पहुंच जाते हैं।  वहाँ शैतान उन्हें रोमांस के लिए एक नारकीय कमरा मुहैया करता है। इससे पेशतर वे रोमांस शुरू करें कोई दरवाज़ा खटखटाता है। वह वेटर होता है जो नीम अँधेरे कमरे में रखे गिलास में शराब डालता है। उसकी कनपटी पर गोली का एक ताज़ा निशान है।  लैंप कि रौशनी में वह औरत वेटर का चेहरा देख कर चीख उठती है।  हे ईश्वर आर्वेड तुम ? वह कोई और नहीं बल्कि उसका शौहर था !
खैर इस कहानी का मेरी इस पोस्ट से कोई लेना देना नहीं।  मेरी दिलचस्पी राजेंद्र यादव  में है।  उम्र के लम्बे फासले के बावजूद वो मेरे दोस्त थे।  उम्र का लिहाज़ न करके मैं उनसे कोई भी अटपटा सवाल पूछ सकता था। लेकिन उनके प्रति एक अनोखे तरह के सम्मान का भाव हमेशा रहता। अगर मैं उनसे संवाद कायम कर पता तो जरुर पूछता की आप कहाँ हैं? इस नामुराद दुनिया के उस पार का जहान कैसा है ? क्या वहाँ आपको सिगार मिल जाती है। लिखने के लिए कागज़ कलम देते हैं वो लोग ! क्या वहाँ शराब का इंतज़ाम है। क्या वहाँ भी कमीने ब्राह्मण दलितों और पिछड़ों को सताते हैं ? क्या वहाँ भी रेप होते हैं। वहाँ किसी तरह का स्त्री विमर्श होता है ? क्या आपको कहीं परमानंद श्रीवास्तव या ओम प्रकाश वाल्मीकि दिखे जो आप के पीछे -पीछे ही गए हैं?  हो सकता है वो अभी नरक की लिफ्ट में  हों। पर मुंशी प्रेमचंद तो वहाँ जरुर होंगे। उनको गए तो एक ज़माना हो गया। उन्होंने तो छूटते बनारसी अंदाज़ की भोजपुरी में आपसे पूछा होगा-" का हो राजेन्दर हमार हंस के तू कउआ बना देहलअ"  इस पर राजेन्द्र जी हंस कर कहते होंगे -घबराइए नहीं मुंशी जी आपकी खबर लेने वाले दलित चिंतक पीछे आ रहे हैं।
ये मज़ाक नहीं एक पीड़ा है जो मेरे अंदर घनीभूत हो रही है। हंस शायद आगे भी छपे पर अब उसमें कांटे की बात नहीं होगी।  कहानियां होंगी पर उसमें राजेंद्र यादव की  छाया नहीं होगी। एक बात तो तय है कि राजेंद्र यादव जहाँ भी होंगे मस्त होंगे। उन्हें दुनिया कि हर खूबसूरत चीज़ से मुहब्ब्त थी।  मौत भी उनके लिए यक़ीनन खूबसूरत रही होगी।

Saturday, November 16, 2013

मोदी के देस में भंसाली की रासलीला



बस अभी अभी रात एक बजे नोएडा के वेव सिनेमा से रामलीला देखकर वापस लौटा हूँ और मूड इतना ख़राब है सोचता हूँ कि फ़िल्म पर अभी कुछ लिख कर अपना गुस्सा शान्त कर लूं. लेकिन इसे अपने ब्लॉग पर कल ही पोस्ट करूंगा जिसमें से कुछ गुस्सा सुबह तक जरुर एडिट हो जाएगा।
सच कहूं तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया की फाइव स्टार रेटिंग और रामलीला के नाम पर हो रहे विवाद को देखकर गोलिओं की  रासलीला देखने का मन इतनी जल्दी बना लिया। और थोड़ी और ईमानदारी से कहूं तो टीवी के प्रोमो में रात दिन चल रहीं दीपिका की दिलकश आदाएं भी काफी हद तक  इस जल्दबाज़ी के लिए जिम्मेदार थीं। दीपिका पादुकोण को मैं सम्भावनाशील अभिनेत्री मानता हूं। उसमें गज़ब की  शोखी,शरारत और तीखापन है। कई दफा वो आँखों से डायलॉग करती नज़र आती है। ये जवानी है दीवानी और चेन्नई एक्सप्रेस जैसी हाल की  फिल्मों  में अलग किस्म का किरदार निभाया। वह किसी भी कैरेक्टर में वैसे ही डूब है जैसे समंदर में मछली। फिर उस गहराई से वह किसी जलपरी की  तरह बाहर  निकल कर सबको चौंका देती है। वह सचमुच बेहतरीन अदाकारा है इस फ़िल्म में ये साबित भी हो गया क्योंकि भंसाली के इशारे पर उसने छिछोरेपन के अभिनय में रणवीर का जो भरपूर साथ दिया वह यादगार रहेगा । अंग्रेजी के फ़िल्म क्रिटिक इसे दोनों के बीच कामयाब कमेस्ट्री का नाम दे रहे हैं।  रणवीर सिंह तो छिछोरेपन के अभिनय का सुपरस्टार है। मुझे याद है कि उसकी पहली फ़िल्म बैंड,बाजा बारात के एक गाने में उसकी हीरोइन ने उसे चल हट छिछोरे कहा था।  पर वह छिछोरापन फ़िल्म की कहानी का हिस्सा  था. भंसाली ने इसे अपनी फ़िल्म में छिछोरे पन का ये तत्व डाल कर फ़िल्म को हल्का और कमज़ोर बना  दिया है। मुझे याद नहीं आता कि भंसाली की  किसी फ़िल्म में एक भी गोली  चली हो लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने अपना ये कोटा भी पूरा कर दिया है। फ़िल्म में  गोलिओं की ऐसी रासलीला रची गई है कि  गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की श्रंखला पीछे छूट गई है। 
 भंसाली ने फ़िल्म में पहले ही बता दिया था की ये फ़िल्म रोमिओ जूलियट के नाटक पर आधारित है. रोमिओ जूलियट शेक्सपीयर का एक दुखान्त नाटक है जिसमें दो पुराने इज्जतदार घरानों की आपसी आन की लड़ाई दिखाई गई है. आख़िर में दोनों एक दूसरे की  रज़ामंदी से बेहद नाटकीय तरीके से मर जाते हैं।  शेक्सपीयर की रोमिओ जूलियट की  कथावस्तु तो इटली से ली गई है लेकिन भंसाली ने अपनी देसी रोमिओ जूलियट के लिए मोदी के गुजरात को चुना। मोदी का नाम मैंने यहाँ ज़बरदस्ती इसलिए लिया क्योंकि उनके बिना आजकल कोई कहानी बनती और बिकती नहीं। मोदी ने अपना राजनीतिक करियर भले चाय बेच कर शुरू किया हो पर आजकल वह अपमार्केट का हिस्सा हैं। मोदी के नाम पर आप कुछ भी बेच सकते हैं. मैं देख रहा हूँ मोदी के नाम पर रिपोर्टर खूब बाई लाइन बटोर रहे हैं और नरेश अग्रवाल जैसे नेता टीवी फुटेज पा रहे हैं। । भारत रत्न लता जी से लेकर गुजरात के ब्रांड एम्बेस्डर बच्चन जी तक सबकी दूकान मोदी जी के नाम पर चल रही है. रोमिओ जूलियट में मोटांग्यू- कैप्युलेट दुश्मन घराने गुजरात के रजोड़ी और सनाड़ी से कही मेल नहीं खाते और वहां बिकने वाले हथियार गांधी के गुजरात की बेमेल तस्वीर दिखाते हैं।
 ख़ैर मैं रामलीला और रोमिओ जूलियट की बात कर रहा था. भारत में इस कथावस्तु पर कोई दो हज़ार फ़िल्में बन चुकी होंगी। भंसाली ने भी एक बचकाना प्रयोग किया है. शेक्सपीयर का  रोमिओ भी दिलफेक तबियत का नायक है उसके प्रेम की  शुरुआत भी वासना और रूप की  जलन के साथ दैहिक होती है लेकिन अंत में जाकर दिल में अटक जाती है। ऐसा ही राम यानी रोमिओ रणवीर और लीला यानी जूलियट दीपिका के साथ भी होता हैं। भंसाली की  ये प्रेम कहानी बिना किसी भूमिका के सीधी देह से शुरू होकर रास लीला को विस्तार देती चली जाती है। शेक्सपीयर से प्रेरणा लेकर लिखी गई ऐसी कहानी पर भला कौन यकीन करेगा जिसमे पहली ही मुलाक़ात में नायिका अपने ही घर में  अपने होठों से रंग लगा कर शत्रु परिवार के प्रेमी से होली खेलती हो। फ़िल्म में कहीं कहीं कुछ रोमांचक दृश्य एकदम से बांध लेते हैं लेकिन जल्द ही वे किसी छिछोरी पतंग की  डोर की  तरह हत्थे से कट जाते हैं। बाज दफा ऐसा  लगता है फ़िल्म के कुछ हिस्से भंसाली ने डायरेक्ट किये हैं और कुछ ज्यादा हिस्से डेविड धवन ने। और अगर आप घर परिवार वाले शरीफ इंसान हैं तो रामलीला दिखाने  के चक्कर में बच्चों को थियेटर लेकर मत चले जाइएगा क्योंकि अगर गोली न चली होती तो भंसाली ने कामसूत्र की एक कला तो लगभग दिखा ही दी थी।
हम दिल दे चुके सनम, ब्लैक और देवदास जैसी फ़िल्में देखने के बाद  मैं संजय लीला भंसाली काबिल डायरेक्टर  मानने लगा था. लेकिन इस फ़िल्म ने निराश किया। कच्छ के रेगिस्तान में रंग बिरंगे संगीतमय दृश्य डाल कर पब्लिक को बहुत ज्यादा देर तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। भंसाली सेट को भव्य बनाने और वस्त्र सज्जा की कला में माहिर हैं।  फिल्मों में लोक तत्व फ़िल्म में भंसाली ने एक गाने में प्रियंका चोपड़ा को आइटम गर्ल की तरह इस्तेमाल किया। इस गाने में रोमिओ राम के हाथ में बियर दिखती है और वह प्रियंका चोपड़ा का मुजरा देख रहे होते हैँ।  अब ये सब देख कर अगर धर्म भीरु लोग नाराज़ हो रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं.जिन्होंने वाल्मीकि रामयण पढ़ी है वो तो सब्र कर लेंगे लेकिन तुलसी के राम भक्तों का नाराज होना स्वाभाविक है. भंसाली पर इन लोगों की भावनाओं की गैर इरादतन हत्या का सीधा मामला बनता है। लेकिन हमारे देश में अभिव्यक्ति की रासलीला का अधिकार कोई कैसे छीन सकता है। जज साहब ने रामलीला के टाइटिल पर प्रतिबन्ध लगा दिया फिर भंसाली के राम फ़िल्म में जो चाहे सो करते रहें।  ये तुमने कैसी लीला रची है भंसाली प्रभु  !