दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, October 30, 2014

परोपकार का सच


शिमला के जिस घर में मैं रहता हूं उसके आगे की सीधी चढ़ाई है। करीब एक किलोमीटर की सीधी पहाड़ी की चढ़ाई। सड़क सकरी है लेकिन एकदम खड़ी। सीधे ९० डिग्री की चढ़ाई। सुबह ढहलने जाता हूं तो सांस फूलने लगती है। रास्ते में दम भरने के लिए कम से कम तीन ब्रेक लेने पड़ते हैं और फिर सड़क के अंतिम सिरे पर बनी बैंच पर बैठ कर सुस्ताता हूं। जिस मोहल्ले में मैं रहता हूं उसका नाम ओल्ड बीयर खाना है। पहले यहां डाल्टन नाम के किसी अंग्रेज की बियर फैक्ट्री होती थी। इसलिए यह पूरा इलाका डाल्टन स्टेट के नाम से जाना जाता है। फैक्ट्री तो अब उजड़ गई लेकिन यहां के लोग बियरखाना नहीं भूल पाए। मोहल्ले का नाम यही हो गया।
शिमला में आमतौर पर रिटायर और बुजुर्ग लोगों की भरमार है। मैं देखता हूं कैसे रोज तमाम बुजुर्गवार इस सीधी चढ़ाई पर हॉफते कांपते ऊपर चढ़ते हैं। इन्हें देखकर एक अजीब तरह की पीड़ा होती है। एक सुबह दफ्तर के लिए निकला तो देखा कि एक करीब ७० पार की बुजुर्ग महिला सड़क की आधी चढ़ाई चढ़ चुकी थी। सर्द हवा में भी पसीने से तरबतर। वजनी शरीर। वह बुरी तरह हॉफ रही थीं। चाल में लड़कड़ाहट थी शायद उन्हें गठिया था। मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी। लेकिन उनका हाल देखकर मुझे कार रोकनी पड़ गई। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि मैं आगे नहीं बढ़ पाऊंगा। वह समझ गईं कि मैं उन्हें लिफ्ट देना चाहता हूं। वह आगे आईं और मैंने कार का अगला दरवाजा खोल दिया। वह किसी तरह कार में दाखिल हुईं। उन्होंने बताया कि उनके बच्चे शहर के बाहर हैं और उन्हें चेकअप के लिए अस्पताल जाना था। दफ्तर पहुंचने में देर हो गई लेकिन उन्हें अस्पताल छोड़कर मुझे एक खास तरह के सुख और शांति का अहसास हुआ। ऐसा लगा जैसे एक बोझ-सा दिल पर था जो उतर गया। अगर मैं ऐसा न करता तो दिन भर परेशान और तकलीफ में रहता। सारा दिन एक अपराध बोध दिमाग पर तारी रहता।  यह कतई परोपकार नहीं था।
बहुत साल पहले मैंने एक कहानी पढ़ी या कहीं सुनी थी। एक साधु के दो शिष्य अंतिम परीक्षा के लिए तीन महीने बाद आश्रम लौटै। साधु ने दोनों से पूछा-इन तीन महीनों में तुमने परोपकार का कौन सा सर्वश्रेष्ठ काम  किया। पहले शिष्य ने बताया कि वह रात में नदी के किनारे गुजर रहा था। मैंने डूबते हुए आदमी की चीख सुनी। चाहता तो आगे बढ़ जाता। कोई देखने वाला नहीं था। नदी का पानी भी ठंडा और बर्फीला था। लेकिन मैं उसे बचा कर बाहर निकाल लाया। साधु ने कहा यह तो कोई परोपकार न हुआ। न बचाते तो जीवन भर उस आदमी की चीख तुम्हारा पीछा करती। तुम्हारी आत्मा तुम्हे कोसती। इससे बचने के लिए तुमने यह कृत किया।      
अब दूसरे शिष्य का नम्बर आया। उसने बताया कि वह जंगल से गुजर रहा था। उसने देखा कि उसका जानी दुश्मन ठीक पहाड़ के किनारे लेटा है। एक करवट लेता और हजारों फीट गहरी खाई में गिरता। मैं जानता था कि बचाने पर वह मुझे गालियां ही देता। फिर भी मैंने उसे बचा लिया। लेकिन जैसा कि मैंने कहा वह मुझे गांव में घूम-घूम कर गालियां ही दे रहा है। सबसे कह रहा है मैं मरने गया था लेकिन इस कम्बखत ने मुझे बचा लिया। पर मुझे संतोष है कि मैंने परोपकार किया। कहानी सुनने के बाद साधु ने कहा तुम्हारा प्रयास पहले से बेहतर है लेकिन परोपकार ये भी हीं क्योंकि तुम अहंकार से भरे हो। जिस कृत से अंहकार निर्मित हो वह परोपकार नहीं हो सकता।
तो जैसा कि मैंने पहले कहा था मैंने जो किया वह कतई परोपकार नहीं था। यह एक पीड़ा से मुक्ति थी। अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए ही यह नेक काम हुआ। अब मैं अक्सर बुजुर्ग नागरिकों को बिन मांगे लिफ्ट देता हूं। मैं जानता हूं यह कृत मेरे सद्कर्मों के खाते में नहीं जुड़ने वाला। क्योंकि यह कृत्य एक तरह की पीड़ा और अपराधबोध से मुक्त होने के लिए किया जा रहा है। मैं जानता हूं इसमें कोई छद्म अहंकार भी नहीं है। चाहे अनचाहे संस्कारों की गठरी आपको ढोनी ही पड़ती है।



 

Thursday, October 16, 2014

तुम अब तक कहां थे कामरेड


मुझे उन दोस्तों से कतई हमदर्दी है जिन्हें साहित्य में जरा भी दिलचस्पी नहीं। वह नहीं जानते कि जीवन में वह क्या खो रहे हैं। लेखक तो खैर लिखने के लिए अभिशप्त है। वह ता-उम्र शब्दों और कल्पना की उड़ानों से मुक्त नहीं हो पाता। नहीं लिखता फिर भी झटपटाता रहता है। वह पिंजरे में बंद किसी पक्षी की तरह फड़फड़ाता है। कोई पन्द्रह साल पहले एक कथा संग्रह 'कामरेड का कोट' मेरे हाथ लगा था। यह कथा संग्रह सृंजय नाम के किसी लेखक का था। यह कहानी पहली दफा हंस के शायद फ़रवरी, १९८९ अंक में छपी थी। तब इस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। लेकिन कहानी एकदम से चर्चा में आ गई। यह कहानी आज़ाद भारत में वामपंथ की पोल खोलती है। रूस परस्त कामरेड अपनी सारी बौद्धिकता के बावजूद कैसे जमीनी सच्चाइयों ‌कितनी दूरी बना लेते हैं। कामरेड का कोट हिन्दुस्तानी कम्युनिज्म के खोखलेपन को नंगा करती है। यह कहानी पढ़ कर आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि हिन्दुस्तान में कम्युनिज्म का प्रयोग क्यों फेल हो गया?
मुझे याद है एक रूसी लाल कोट को प्रतीक बना कर सृंजय ने कैसे भारत के वामपंथियों को हिला कर रख दिया था। उन दिनों साहि‌त्यिक सम्मेलनों में मैं राजेन्द्र यादव व नामवर जैसे आलोचकों से 'कामरेड का कोट' की तारीफ में कसीदे पढ़ते सुना करता था। लेकिन जितना में अपने कम्युनिस्ट मित्रों को जानता हूं वह इस कहानी के लिए सृंजय को आज तक माफ नहीं कर पाए। हिन्दी साहित्य पर काबिज कम्युनिस्ट लेखकों के गिरोह ने सृंजय जैसे शानदार लेखक को साहित्य से ही बेदखल कर दिया।
मेरी नजर में सृंजय वाकई एक क्रान्तिकारी लेखक हैं। ये उन गिने चुने लेखकों में हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहता हूं लेकिन मेरी बदकिस्मती ये हैं कि अब वह लिखते नहीं। 'कामरेड का कोट' में जब कथा का नायक कमलाकांत उपाध्याय गुस्से में पार्टी के एक बड़े नेता रक्तध्वज से उनका रूसी लाल कोट छीनता है उनके चेहरे के भाव देखने वाले होते हैं। यह वही कामरेड रक्तध्वज थे जो कहते थे "क्रांति के लिए जरूरी है, पहले खुद को डी-क्लास करना।" क्या कामरेड रक्तध्वज खुद 'डी-क्लास' हो पाए थे। सृंजय अपनी इस कालजयी कहानी के क्लाइमेक्स में लिखते हैं-"कमलाकांत ने अट्टहास किया, "ठंड से बचने का एक हथियार है कोट,... आपने कहा था न कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा."
जैसा मैंने पहले कहा मैं सृंजय की कहानियों से बेतरह प्रभावित हूं। मैं इस लेखक उनकी कहानियों के लिए बधाई देना चाहता था। एक इच्छा थी कि उनसे बात करूं। मुझे पता चला कि वह आसनसोल में कहीं रहते हैं। पिछले १५ सालों में कई बार मैंने उनका फोन नम्बर तलाशने की कााशिश की लेकिन निराशा हाथ लगी। जरूर मेरी कोशिश में कहीं कोई कमी रही होगी। क्योंकि मेरा साफ मानना है कि जो आप सचमुच हासिल करना चाहते हैं वह देर सबेर कर ही लेते हैं। अगर नहीं कर पाते तो इसका अर्थ है आपके प्रयास में कहीं कोई कमी है। अभी तीन दिन पहले मैंने अपने पुराने लेखक मित्र व बेहतरीन साहित्यक पत्रिका तत्‍भव के संपादक अखिलेश जी से यूं ही सृंजय जी के बारे में पूछ लिया। उन्होंने बताया कि वह आसनसोल में हैं और शायद वहां बीएसएनएल में काम कर रहे हैं। उन्होंने तत्काल वह नम्बर मुझे एसएमएस कर दिया। और फिर मैंने उन्हें उसी रात फोन किया। पहली बार में फोन नहीं उठा। लेकिन दस मिनट बाद उन्होंने रिंग बैक किया। और इसके बाद आप समझ सकते हैं कि एक गुमनाम पाठक की अपने उस प्रिय लेखक के साथ क्या बातें हुई होंगी जो उन्हें १५ साल से खोज रहा था। लेखक और पाठक के बीच एक दीवार थी जो अब ढह गई। आज मैं सार्वजनिक रूप से सृंजय जी को उनकी कालजयी रचना कामरेड का कोट के लिए एक बार फिर बधाई देता हूं।




Tuesday, October 7, 2014

अच्छे दिन


यूरोप में 100 लोगों का एक इलीट क्लब हुआ करता था। इसमें केवल यूरोप के महान लोग सदस्य बन सकते थे। महान यानी नोबल पुरस्कार विजेता, मशहूर पेंटर, मशहूर लेखक, वैज्ञानिक आदि। इस क्लब की सदस्यता मिलना  वाकई सम्मान की बात थी। क्योंकि इस क्लब में 100 से ज्यादा सदस्य किसी कीमत पर नहीं हो सकते थे। सिर्फ किसी के मरने पर जगह खाली होती थी और उसकी जगह भरने के लिए आमंत्रण भेजा जाता था। एक सदस्य की मौत के बाद नोबल जीतने वाले जार्ज बनार्ड शॉ के पास भी आमंत्रण गया। क्लब ने आमंत्रण पत्र में लिखा कि  अगर आप हमारे क्लब के सदस्य बनते हैं तो यह क्लब गौरवान्वित होगा। मैंने सुना है शॉ ने इस आमंत्रण को ठुकरा दिया। कहा-जो क्लब मेरे आने से गौरवान्वित होता हो उसमें मेरा क्या काम। ऐसा क्लब मेरे लिए तुच्छ है। मैं ऐसे क्लब में शामिल होना चाहूंगा जो मुझे लेने से इंकार करता हो।
अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार न्यूयार्क टाइम्स में भारत के मंगलयान अभियान का मजाक उड़ाने  वाले कार्टून को देखकर मुझे शॉ से जुड़ी ये घटना याद आ गई। सिंगापुर के कार्टूनिस्ट ने दिखाया है कि इलीट स्पेस क्लब के लोग अखबार में भारत की इस कामयाबी की खबर पढ़ रहे हैं और बाहर भारत का एक गंवई प्रतिनिधि गाय लेकर खड़ा है और दरवाजा खटखटा रहा है। बेशक इरादा भारत का मजाक उड़ाने का है। जिसके लिए अखबार के भले संपादक ने भारतवासियों से माफी भी  मांग ली। लेकिन सच तो यही है कि मंगल पर करोडों डालर फूंक कर पहुंचने वाले देश हमारी इस कामयाबी को हजम नहीं कर पा रहे। मोदी गलत नहीं है कि दुनिया में आज भी हमारे देश की छवि सपरों और तमाशबीनों के देश की है।  लेकिन मेरी तकलीफ इस बात की है कि हमारे देश में ही कई कथित बुद्धिजीवी, महान और इलीट क्लब के लोग हमारी कामयाबियों का मजाक उड़ाते नहीं थकते। फेसबुक पर दीवारें रंगी हुई हैं। विवेकहीनता का भी एक तार्किक आधार होता है। इसलिए मित्रों से निवेदन है कि वह अपनी भावनाओं और भाषा पर नियंत्रण रखें। इंतजार करें और उम्मीद रखें अच्छे दिन जरूर आएंगे। मोदी नहीं ला पाए तो कोई और लाएगा। पर अच्छे दिन जरूर आएंगे।