दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, August 30, 2013

नन्ही सैबेरियन बर्ड की जम्हाई



अकसर जब मन उदास होता है तो मैं अल्बम पलटने लगता हूं. पुरानी यादों के पीछे भागना एक तरह का नोस्टाल्जिया है. अपनी छोटी बेटी अन्विता के जन्म की तस्वीरे देखते हुए मैं चार साल पीछे चला गया. जम्हाई लेती अपनी नवजात... बिटिया की तस्वीर पर आकर निगाहें ठहर गईं. ये मेरी नन्ही चिड़िया के जीवन की पहली जम्हाई थी जो कैमरे में हमेशा के लिए कैद हो गई. कहते हैं नौ महीने हर बच्चा अपनी माँ के गर्भ में सिर्फ सोता है. दुनिया के हर इंसान के लिए माँ का गर्भ सर्वोत्तम आरामगाह है.फिर इस तरह सोने का अवसर सारी जिंदगी कभी दोबारा नहीं मिलता। वह अभी अभी लम्बी नींद से जगी थी. दुनिया की सबसे खूबसूरत नींद से. उसने आँखे खोल कर दुनिया को पहली दफा देखा। फिर हम सबको देखा। पर उसे अपनी नींद सबसे प्यारी लगी. वह अभी और सोना चाहती थी शायद इसीलिए उसे जम्हाई आ गई थी. मेरे प्रोफेशनल कैमरे ने इस पल को कैद कर लिया। मैंने देखा उस पल मेरी माँ की आँखों में ख़ुशी के आंसू चमक रहे थे. मैंने पूछा तो नहीं पर महसूस किया की माँ मेरे जनम के नोस्टाल्जिया में चली गई होंगी। 
ख़ैर इस सुखद घटना को चार साल बीत गये. अब माँ नहीं रही. माँ के न रहने की मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी.बाकी बच्चों की तरह मैं भी सोचता था की मेरी माँ अमर है. वह कभी नहीं मरेगी। जबकि जानता था उनको भी सबकी तरह कभी न कभी जाना ही होगा। पर ऐसे विचार मैं हमेशा हिकारत से झटक देता था. माँ चली गईं. लेकिन बेटी आ गयी. कभी कभी लगता है जिंदगी फिल इन द ब्लेंकस की तरह कुछ है. ईश्वर रिक्त स्थानो की पूर्ति के खेल में माहिर है. एक जाता है दूसरा आ जाता है. जुदाई के ज़ख़्म हद तक भर जाते हैं. दुनिया ऐसे ही चलती है.
बिटिया कब चार साल की हो गई पता ही नहीं चला. उसकी शरारतों का मरहम सारे ज़ख्मो को भरता चला गया.जब माँ की याद आती है तो हर वक्त अपनी बेटी को किसी सैबेरियन बर्ड की तरह अपने सामने खड़ा पाता हूं. जैसे दूर देस से माँ मुझसे मिलने चली आई है. इलाहाबाद के संगम आने के लिए जैसे वह मचलती है तो लगता है जैसे वह सचमुच नन्ही सैबेरियन बर्ड है. उसके लिए संगम का किनारा न्यूजीलैंड के हॉट वाटर या सिडनी के बोंडा बीच से कम नही. गर्मी के दिनों में यहाँ गुनगुना पानी बच्चो के घुटनों तक आता है. और बच्चो का छपाक छई का खेल शुरू हो जाता है. उस दिन भी मेरी नन्ही सैबेरियन बर्ड गंगाजी में खूब नहाई। इतना कि थक गई. वापसी की नाव पर बैठी तो फोटो सेशन शुरू हो गया. कैमरे को देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गई.उसने तरह तरह के न जाने कितने पोज़ दिए और इसी दौर में कभी शरारती कैमरे ने नन्ही सैबेरियन बर्ड की यादगार जम्हाई को एक बार फिर कैद कर लिया। यादों की इस पृष्टभूमि में एक सैबेरियन बर्ड की जम्हाई लेती दो तस्वीरें अबआपके सामने हैं.अब बताइए मेरी उदासी का कोई मतलब है. नहीं ना ?

Thursday, August 29, 2013

ईद, नन्हे हामिद का चिमटा और मैं


जब ईद आती है? तो पता नहीं चाँद अँधेरे बादलों में कंही दूर क्यों छिप जाता है ? वह देखने में इतने नखरे क्यों दिखाता है? लेकिन बादल कितने भी घने क्यों न हो वह एक बार दिखता जरुर है। मौलानाओ की शातिर निगाहों से वह एक बार भले बच जाए लेकिन ईद का इंतजार कर रहे मासूम बच्चों की नजरों से वह छुप नहीं पाता। और उस नन्हे शर्मीले चाँद को देखने के बाद बच्चे ऐसे मचलते हैं जेसे खुश...ियों की सौगात उनके आँगन में उतर आई हो।
बच्चे अपने अब्बू का कुरता खींचते हुए ईदगाह जाने के लिए वैसे ही मचलते हैं जैसे चार पाँच साल का नन्हा हामिद मचला होगा। वालिदैन का साया भले हामिद के सर पर न था लेकिन दादी अमीना के प्यार का आँचल उसे हमेशा घेरे रहता था।
यकीन मानिए जेब में तीन पैसे रखकर उस दिन मेले का जितना लुत्फ़ हामिद ने उठाया महमूद, नूरे, सम्मी, जैसे उसके किसी दोस्त ने नहीं उठाया होगा। फिर दादी के लिए चिमटा खरीद कर तो उस नन्हे सिकंदर ने जैसे सारी दुनियां फतह कर ली। ईदगाह के मेले में खिलौने और गोल-गोल घूमने वाली चर्खियों में खो जाने के बावजूद उसके अवचेतन में कहीं दादी की वह झुर्रीदार उन्गिलिया भी थी जो तवे से रोटियां उतारते वक्त जल जाती थीं। तब हामिद थोड़ी देर के लिए खुद अब्बू बन गया था। हामिद ने सोचा होगा उसके अब्बूजान न जाने कब थैलियाँ लेकर लौटें? अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से बड़ी-बड़ी चींजें लाये और उन चीजो में दादी का चिमटा न हो तब उसके मासूम मन में सोचा होगा की दादी यह तौफ़ा देखकर कितना खुश हो जाएँगी। लेकिन ये क्या? अमीना ने तो छाती पीट ली। दोपहर हुई, न कुछ खाया न पिया लाया क्या ये लोहे का चिमटा? मासूम हामिद तो जैसे मुजरिम बन गया। रुआंसा होकर बोला तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं। इसलिए तीन पैसे में खरीद लिया। मुंशी प्रेमचंद ने 'ईदगाह' के अंत में लिखा- 'और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद ने इस चिमटे से भी विचित्र। हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी दामन फैला कर हामिद को दुआएं देती जाती थी। हामिद उसका रहस्य क्या समझता।
सिविल लाईन्स के सुभाष चौराहे के कोने वाली इमारत में सरस्वती प्रेस का छोटा बोर्ड देखकर जैसे मुंशी प्रेमचंद याद आ जाते हैं, वैसे ही जब भी ईद आती है, तो न जाने क्यों ये कहानी याद आ जाती है। पांचवीं या छठी जमात में जब पहली दफा स्कूली किताब में यह कहानी पढ़ी थी. तब साहित्य की एकदम समझ नहीं थी। यह रहस्य आज तक नहीं समझ पाया की क्यों हर ईद में बच्चो को सजा धज देखता हूँ तो हामिद और उसका चिमटा याद आ जाता है एक विचित्र बात यह हुई की चिमटा स्मृतियों से ऐसा चिपटा की एक दिन तो मै खुद हामिद बन गया। तब मै कोई बारह तेरह बरस का रहा होऊंगा। माँ को मैंने कई बार रसोई गैस की तेज लपटों पर रोटियों को फुलाते देखा था। बहुत बारीकी से देखता क़ि गैस के चूल्हे की लपटों के बीच किसी हुनरमंद बावर्ची की तरह माँ जलती आग से रोटियां बाहर निकल लेती। इस खेल में उनकी उँगलियाँ कभी नहीं जलती, या कभी जलती भी होंगी तो मौन पीड़ा या खामोशी से उसे सह लेती होंगी। उनकी रसोई में चिमटा नहीं था। मैंने कभी उन्हें पिता जी से चिमटे की फ़र्माइस करते भी नहीं सुना। फिर भी न जाने क्यों एक दिन मै स्कूल से लौटते वक्त अपने जेब खर्च से स्टील; का चिमटा ले आया वह मेरे हाथ में चिमटा देखकर चौंकी जैसे अमीना चौकी होंगी फिर मैंने माँ को बताया की मैं रोज उन्हें रोटियों के साथ आग से खेलती हुए देखता हूँ। मैंने उन्हें जिद से भरी सख्त हिदायत दी की वह अब चिमटे से ही रोटियां सेंकें। मैंने देखा की मेरी माँ की पलकों के दोनों किनारे भींग गए थे। आग से खेलने वाली उनकी वह उंगलिया मेरे धूल से भरे बालों को देर तक सहलाती रहीं। मुझे पक्का यकीन है की मन ने कभी ईदगाह कहानी नहीं पढी होगी। मैंने देखा मन कुछ दिनों तक चिमटे का इस्तेमाल किया। फिर किनारे रख दिया। शायद मां अपने और अपने हाथ से बनी रोटियों के बीच उस चिमटे को नहीं आने देना चाहती थी।
मां जब तक जिन्दा रही उसी तरह आग की लपटों पर रोटियां सेकती रहीं। लेकिन उनकी उंगलिया कभी नहीं जलतीं। यह रहस्य भी मै आज तक नहीं समझ पाया। मुझे लगता है कि मां के दुःख और उसकी कोमलता से जुड़े कई रहस्य कभी नहीं समझे जा सकते। मां से जुडी हर घनीभूत पीड़ा एक परिकथा बन कर अवचेतन स्मृतियों में कंही जम जाती है। फिर हम उन स्मृतियों के सहारे पूरे साहस के साथ जिन्दगी के तमाम अँधेरे झेलते चले जाते है। प्रेमचंद का नन्हा हामिद तो कब का बूढ़ा हो चला होगा। अमीना तो न जाने कब कि गुजर चुकी होगी लेकिन मै जनता हूँ कि हामिद को तवे से उतरती दादी कि उन रोटियों का स्वाद याद होगा पर अफ़सोस वह बूढ़ा हामिद मेरी तरह अपनी दादी के उन आंसुओं का रहस्य अब तक नहीं समझ पाया होगा। पर नहीं मैं गलत सोच रहा हूँ हामिद कभी बूढ़ा नहीं हो सकता। हामिद जैसे लायक बच्चे कभी बूढे नहीं होते। क्यों गलत कहा मैने ?

एक पण्डित का रोज़ा


 इलाहबाद मेडिकल कालेज के मेरे एक दोस्त प्रोफ़ेसर तारिक ने आज मुझे रोज़ा अफ़्तार के लिए बुलाया है. मैंने उनसे कल साफ़ कह दिया कि मेरी नज़र में बिना रोज़ा रखे अफ्तारी गुनाह है। सो आज मैं रोज़े से हूं. कल रात 3 बजे उठ कर खूब सारा पानी पी लिया था। मुझे बताया गया था की सहरी यानी सुबह करीब 4 बजे के बाद, शाम रोजा खोलने तक निराजल व्रत रखना होता है. ये सचमुच मुश्किल काम है. मैंने सुना है बाजवक्...त शैतान इस पवित्र काम में मुश्किलें डालता है. ये सही है. जैसे सहरी के वक्त मैं अपनी बीपी की दवा खाना भूल गया.दोपहर 12 बजे इसका अहसास हुआ. मैं समझ गया ये शैतान की शरारत है . जी में आया की दवा खा लूं. सूखे गले को भी थोड़ी राहत मिलेगी। फिर लगा रोज़ा तो टूट जायेगा। गला और खुश्क हो गया है .दोस्तो से सुनता आया हूं कि रोज़े में गले को राहत देने के लिए आप थूक भी वापस नहीं निगल सकते। बड़ी दिक्कत है. अभी ऑफिस ब्वाय चाय लेकर आया. सिर में दर्द है. जी में आया की चाय तो हो ही सकती है. पर इस ख्याल को तुरंत काबू कर मैंने शैतान पर लानत भेजी।
अभी अंडमान निकोबार में रह रहे मेरे एक दोस्त नासिर का वाट्स अप पर मैसेज आया है . मैसज फ्रेंड्स डे की बधाई का है . ये नया दोस्त कुछ दिन पहले मकाऊ में बना था . मैने उसे तुरंत जवाब दिया-आज मैने रोज़ा रखा है. उसका वापसी में जवाब आया - माशा अल्लाह बधाई हो . सच में ये सन्देश देख कर दिल ख़ुशी से झूम गया. 
अब सोच रहा हूं घर जाकर थोड़ा आराम कर लूं. चेम्बर से बाहर निकला तो देखा एचटी वालों की मेज़ पर पित्ज़े के कई डिब्बे रखे हैं . आफर भी मिला की- सर पित्ज़ा खाइए। मुझे लगा कि ये मासूम सी दिखने वाली लड़की जरुर शैतान की खाला होगी . फिर अपने इस ख्याल पर हंसी आ गई. और सच पूछिए तो उस वक्त यह कहते वक्त बड़ी शान महसूस हुई कि नहीं आज नहीं आज मेरा रोज़ा है.  
जिंदगी में पहली दफ़ा रोज़ा रखा है. वैसे भी मेरे लिए रोज़ा कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं . मैं सिर्फ महसूस करना चाहता हूं कि ज़फर,तारिक,नासिर परवेज़ जैसे मेरे सैकड़ो मुस्लिम दोस्त कैसे रोज़ा रखते और खोलते हैं. वे कैसे इतना कठिन व्रत रख कर भी मुस्कुराते रहते हैं. लेकिन क्या सेहत का जोखिम उठा कर मुझे ऐसे प्रयोग करने चहिये. इस्लाम में इसके लिए जरुर कोई रास्ता होगा। क्या मैं कोई किताब पलटूं। या किसी मौलाना को फोन घुमाऊ।या अपने साथी नसीरूदीन से पूछूं। पर उससे क्या पूछूं। वह तो खुद कम्बखत कम्युनिस्ट है. ज़फर से पूछूं पर वो तो गज़ब का मुसलमान है. मोदी के आलावा वो किसी की चिंता नहीं करता। आज कल उसके दो ही शौक हैं जिम और जाम. पर इस तरह के ख्याल दिमाग में बार -बार क्यों आ रहे हैं. सोच रहा हूं कि कहीं शैतान ने अपना काम करना तो शुरू नहीं कर दिया है .वह ऐसे काफिरों की याद दिला कर मुझे बहका रहा है. मैंने इबलिस की दिलचस्प कहानी पढ़ी है. वह एक फ़रिश्ता था जो बाद में शैतान बन गया. खुदा ने जब आदम को बनाया तो सभी फरिश्तो से कहा कि वे आदम का सजदा करें। पर इबलिस ने इनकार कर दिया। कहा-मैं आग से बना हूँ मिट्टी से बने आदम का सजदा क्यों करूं। खुदा के सिवा किसी का सजदा नहीं करूँगा। खुदा ने नाराज़ होकर उसे जन्नत से बहार निकल दिया। तब से शैतान खुदा से नाराज़ हो गया. उसने तय किया की जिस आदम पर खुदा को इतना नाज़ है उसे मैं खुदा के खिलाफ कर दूंगा। उसकी औलाद को उसका हुकूम मानने से रोकूंगा। मुझे लगता है की वह शैतान आज तक हम इंसानों को तमाम बहानो से बहकाने की कोशिश करता है ताकि हम खुदाई फ़र्ज़ से पीछे हट जाएं। पर मैं जानता हूं इबलिस मुझे नहीं बहका सकता। वह कम्बखत मजबूत इरादों से बहुत डरता है.   
तो दोस्तों अब गज़ब की भूख लगी है और हलख सूख रहा है. सिर घूम रहा है. मगरिब की अज़ान होने में अभी काफी वक्त है. अब अफ्तारी का सच में शिद्दत से इंतज़ार है.

देखो कितना डरा सहमा है सबसे बड़ा दरोगा

 
मेरी अमेरिका डायरी 1


न्यू जर्सी के अत्याधुनिक एयरपोर्ट पर उतरा हूं। माहौल खुशनुमा है। बीती रात यहाँ हल्की बूंदाबांदी हुई है। सफेद नीले आसमान पर बादल के टुकडे़ एयरपोर्ट पर खड़े विमानों के ऊपर चक्कर लगा रहे हैं। आगे बाल्टीमोर का जहाज पकड़ने के लिए हम इमीग्रेशन विंडो की तरफ बढ़ रहे हैं। तभी अचानक। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी के लोग हमें घेर लेते हैं। पासपोर्ट और वीजा की जाँच के बाद शुरू होता है सवालों का दौर। इलेक्ट्रानिक आइटम में क्या-क्या है? लैपटाप, कैमरा? पिछले छह महीने में आपने उसे किसी दोस्त या किसी अजनबी को तो नहीं दिया? यात्रा से पहले लैपटाप बनने के लिए किसी वर्कशाप तो नहीं भेजा था? क्या किसी व्यक्ति ने आपको कोई सामान दिया है? सवाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं।मेरे साथ सरदार हरविंदर सिंह भी इन सवालों से ऊब चुके हैं। करीब छह फुट की वह अश्वेत महिला कस्टम अफसर हमारी परेशानी समझ चुकी है। वह एक हाथ से अपनी कमर में टंगी काले मूठवाली भारीभरकम रिवाल्वर संभालती है और मुस्कुराते हुए बेहद शालीनता से कहती है-‘सॉरी फार अनकनवीनियंस, यू मे गो अहेड’ (असुविधा के लिए खेद है आप आगे बढ़ सकते हैं।) आगे बढ़ते वक्त सरदार जी ने बताया कि अब तो नई दिल्ली एयरपोर्ट पर अमेरिकी जहाज कांडीनेटल एयरवेज के सारे कर्मचारी सुरक्षा अधिकारी की तरह बर्ताव करने लगे हैं। जिन्हें जहाज पर चढ़ते यात्रियों की लाइन सीधी रखने का काम मिला है वह भी पूछते हैं कि यूएस क्यों जा रहे हैं? क्या काम है? कब लौटेंगे? हद तो तब हो गई जब दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कांटीनेंटल के विशालकाय जहाज पर चढ़ने से पहले यात्रियों के जूते उतरवा लिए गए। सरदारजी ने बताया कि ऐसी तलाश केवल यूएस जाने वाले जहाजों पर ली जाती है।
लेकिन अभी अगली मुसीबत इंतजार कर रही थी। बाल्टीमोर के लिए चेक इन करते वक्त नए सुरक्षा चक्र से गुजरना था। लैपटाप, कैमरा, मोबाइल जैसे सारे इलेक्ट्रानिक सामान निकाल कर टोकरी में स्कैन के लिए डाल दिए। पर जैसे ही मैटल डिटेक्टर से गुजरे बीप-बीप की आवाज शुरू हो गई। सुरक्षाकर्मी एलर्ट हो गए। थोड़ी घबराहट हुई। सामने खड़े सुरक्षा कर्मी ने बेल्ट की तरफ इशारा किया। बैल्ट उतार दी। फिर डिटेक्टर से गुजरे तो वही बीप-बीप की आवाज। सबकी निगाहें ऐसे घूर रही थी जैसे मेरी पतलून की जेब रिवाल्वर छिपी हो। इससे पहले मैं कुछ समझूं सुरक्षा कर्मी ने तलाशी शुरू कर दी। पीछे की जेब से पर्स निकाला। शायद उसमे रखे सिक्के मैटल डिटेक्टर को पसंद नहीं रहे थे। सुरक्षाकर्मी ने पर्स निकाल कर जाँच की टोकरी में डाल दिया। मैटल डिटेक्टर को इस बार मुझ पर दया गई। बिना बीप की आवाज के मैं सुरक्षा द्वार पार कर गया। मैंने राहत की सांस ली।पर मेरे आगे सरदारजी अभी तक फंसे थे। एक महिला सुरक्षाकर्मी उनकी उंगलियों के निशान ले रही थी। सरदारजी ने बताया कि शायद उस गोरी मेम को यकीन था मेरी पगड़ी में विस्फोटक छिपा है। लेकिन पगड़ी की जाँच को लेकर सिखों के विरोध के चलते उन्होंने पड़ताल का नया लेकिन शालीन तरीका इजाद किया। महिला सुरक्षा कर्मी ने सबसे पहले सरदारजी के हाथ किसी केमिकल से साफ कराए। फिर उनसे कहा गया वह खुद अपनी पगड़ी को चारों तरफ से छूएं। इसके बाद सुरक्षाकर्मी ने सरदारजी के दोनों हाथों का एक कागज पर इप्रेशन लिया। इस कागज को एक मशीन में डाल दिया। स्क्रीन पर लिखकर आया-‘नो एक्सप्लोसिव डिटेक्टेड।यानी कोई विस्फोटक नहीं मिला। सरदारजी की सांस में सांस आई। वह धीरे से बुदबुदाए-वाहे गुरूजी का खालसा वाहे गुरूजी की जय। सरदारजी बेतरह डरे हुए थे। मैं सोच रहा था केवल सरदारजी ही नहीं सारी दुनिया का दरोगा अमेरिका भी डरा हुआ है।