दयाशंकर शुक्ल सागर

Saturday, September 16, 2023

परहित सरिस धर्म नहिं भाई

 



ईसा मसीह के जन्म से कोई 600 साल पहले 'हिंदू' शब्द अस्तित्व में आया। यह नाम फारसी आर्यों ने तब दिया जब ईसा मसीह का भी जन्म नहीं हुआ था। और इस्लाम का दूर दूर तक कोई नामों निशान नहीं था। एक मजहब के तौर पर इस्लाम कोई एक हजार साल बाद आया।  मैंने बहुत खोजा लेकिन वेद, पुराण, उपनिषद यहां तक उसके बाद के जैन व बौद्ध साहित्य में भी "हिंदू धर्म" जैसी चीज नहीं मिली। मेगस्थनीज (302 ...298 ईसा पूर्व) से लेकर चीनी यात्री ह्वेनसांग (630-645 ई.) में हिंदू या सनातम धर्म शब्द का प्रयोग नहीं किया।   दरअसल हिंदुओं के धर्म का कभी कोई नाम रहा ही नहीं। हमने धर्म के लिए केवल 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया। हमारे इस धर्म का अर्थ भी आजकल के प्रचलित अर्थों में मजहब या रिलीजन नहीं था। धर्म का केवल इतना मतलब था इस जीवन में जो कुछ भी लोकपरोपकारी और श्रेष्ठ है वही मानव धर्म है। इसकी सरलतम व्याख्या तुलसी ने "परहित सरिस धर्म नहिं भाई" चौपाई में की है। ईश्वर हमारे धर्म के लिए बिलकुल निजी चीज है। दुनियावी जरूरतों के लिए वैदिक लोग देवताओं की स्तुति अराधना से काम चला लेते। भौतिक चीजों को हासिल करने के लिए यज्ञ आदि भी करते थे। लेकिन जैसा कि ऋग्वेद या उपनिषदों में देखा गया कि ईश्चवर के प्रति उनका हमेशा से एक रहस्यवादी व दार्शनिक भाव रहा।  सच तो यह है कि हिंदुओं ने धर्म को एक जीवन शैली माना न कि मजहब या रिलीजन। यही वजह है कि भारत के विचारकों ने शुरू से अपने धर्म को कोई नाम देना उचित नहीं समझा। क्योंकि भारत में रहने वाले सभी मत के लोग ​हिदू शब्द की छतरी के नीचे थे इसलिए उनका धर्म इसाईयत या इस्लाम के बरक्स  "हिंदू धर्म" कहा जाने लगा। बस इतनी सा बात है। 

इधर हाल में "हिंदू" शब्द को विदेशी मानने वालों ने "हिंदू धर्म" को "सनातन धर्म" का नामकरण कर दिया। जबकि "सनातन" शब्द एक विश्लेषण है संज्ञा नहीं। सबसे पहले महात्मा बुद्ध ने "धम्म" के साथ "सनातन" पद का प्रयोग किया। कहा- 'एस धम्मो सनंतनो' (बौद्ध ग्रंथ धम्मपद देखें सूत्र 5) लेकिन यह दूसरे अर्थो में प्रयुक्त हुआ पद है। पूरे सूत्र का अर्थ है- "वैर से वैर खत्म नहीं होता, अवैर से वैर खत्म होता है। यही संसार का सनातन नियम है।" (धम्मवदमं, अनुवाद- भदंत आंनद कौसल्लायन पेज 2) 

हालांकि स्वामी रामभद्राचार्य जैसे कुछ विद्वान दावा करते हैं कि सामवेद की कौथुमी संहिता में जहाँ सिन्धव: है, वहाँ हिन्दव: भी आया है। यह शोध का विषय है क्योंकि इस संहि‍ता में मुख्‍यत: अग्‍नि सोम की आराधना से सम्‍बन्‍धि‍त ऋचायें, इंद्र का उद्बोधन मंत्र, दशरात्र, संवत्‍सर, एकाह यज्ञ संबधी मंत्र हैं। वीर सावरकर को भी अपनी किताब हिंदुत्व की खोज में वैदिक प्रमाण नहीं मिले। उनकी पुस्तक 'हिंदुत्व' में भी सप्त सिंधु का जिक्र है। सावरकर "सिंधु" को संस्कृत व "हिंदू" को प्राकृत शब्द मानते थे। वह यह तक मानने लगे थे कि हो सकता है प्राकृत के "हिंदू" को ही बाद में संस्कृत भाषा में "सिंधु" में रूपानतरित कर दिया हो। (सावरकर समग्र खंड 9 पेज 37) इसकी विवेचना करते हुए मेरे गुरू प्रभाषा जोशी ने अपनी किताब "हिंदू होने का धर्म" में लिखा-"ऐसा करने में वीर सावरकर ने संस्कृत के व्याकरण और पणिनि की कोई चिंता नहीं की। संस्कृत का 'स' प्राकृत में तो 'ह' हो सकता है लेकिन प्राकृत का 'ह' का संस्कृत में 'स' होने का कोई उदहारण नहीं मिलता।" (हिंदू होने का धर्म भूमिका पेज 24) हिंदू धर्म बेशक सनातन है। लेकिन उसे 'सनातन धर्म' का नाम नहीं दिया जा सकता। कितना ही अच्छा हो कि हम अपने धर्म को धर्म ही रहने दें कोई नाम न दें जैसा कि हमारे पूर्वजों ने किया। और छुद्र चीजों से ऊपर उठ कर हम भी स्वामी विवेकानंद की तरह गर्व से कहें कि "हम हिंदू हैं।"