दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, November 14, 2014

शिमला को नफरत करते थे नेहरू


नेहरू की पहचान एक संवेदनशील राजनेता की रही है। उनका खुद का जीवन ऐशो आराम में बीता लेकिन गरीबों के प्रति उनमें बेपनाह हमदर्दी थी। खास तौर से बच्चों के लिए उनके मन में बहुत प्यार था। मुझे यह जानकर सुखद हैरानी हुई कि पीठ पर लादने वाले स्कूली बैग की शुरूआत की पहल नेहरू के प्रयासों से हुई। उस जमाने में बच्चे भारी बस्ते बगल में या आगे की तरफ लाद कर स्कूल जाते थे। जिससे उनकी कमर वक्त से पहले झुक जाती थी। वह चाहते थे बच्चे किताबों का बोझ लाद कर झुके हुए न चलें बल्कि सीधे सीना तान कर चलें। तो पिट्ठु बैग स्कूलों में लाजमी कर दिए गए। यह बच्चों को उनकी तरफ से दिया गया सबसे बड़ा तोहफा था। इसलिए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाने का चलन बेहद समझदारी भरा कहा जा सकता है।
पहाडों के प्रति नेहरू में गजब का आकर्षण था। वह उन ब्रिटिश हुक्मरानों जैसे थे जिनका मन गर्मियों में पहाडों की तरफ भागता था। वह हिमाचल के कई पहाडी इलाकों में घूमते। अपने विदेशी दोस्तों को यहां के पहाड़ घुमाते। हिमाचल में मनाली उनकी पसंददीदा जगह थी। लेकिन कहते हैं शिमला उन्हें पसंद नहीं था। इसकी सबसे बड़ी वजह वह कुली थे जो रिक्‍शे पर सवारियां बैठाकर उन्हें अपने हाथों से खींचते थे। १९४५ में माल रोड पर खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ टहलते हुए उन्होंने देखा कि कैसे वही कुली ब्रिटिश राज में भी अपने रिक्‍शों पर तिरंगा लगा कर घूमते थे। पटेल की इन रिक्‍शों माल रोड घूमने की तस्वीरें हैं। लेकिन नेहरू खुद कभी इन रिक्‍शों पर नहीं बैठे। इस प्रथा को नेहरू मानवीय प्रतिष्ठा के लिए बेहद अपमानजनक मानते थे। शिमला को नापसंद करने का सिर्फ यही अकेला कारण नहीं था। उन्हें लगता कि यह शहर अंग्रेजों की नकल पर एक कस्बे की तरह बसा है। अपनी किताब लास्ट डेज आफ द ब्रिटिश राज में लियोनार्ड मोसले ने शिमला के प्रति नेहरू की वितृष्‍णा का जिक्र किया है। वायसराय ने तय किया था कि भारत पाकिस्तान के बीच बंटवारे की अंतिम बातचीत शिमला में होगी। वे १९४७ की गर्मियों के दिन थे। वायसराय लेडी माउंटबेटन को लेकर कुछ दिन पहले शिमला आ गए थे।  वह अपने साथ कोई ३५० नौकर चाकर लाए थे। शिमला की ठंडी और ताजा हवा उनमें एक खास तरह की ऊर्जा भर देती थी। ८ मई को पंडित नेहरू भी अपने खास सलाहकार कृष्‍ण मेनन के साथ वायसराय के मेहमान बन गए।
उन दिनों का जिक्र करते हुए लियोनार्ड ने लिखा-शिमला की शाम की तरह राजनीतिक संभावनाएं भी सुहानी लग रही थीं। पहाड़ की गोद में छिपे पगडंडी के रास्ते पर कैम्पबेल-जॉनसन के घर जाते हुए नेहरू ने वायसराय और उनकी पत्नी का साथ दिया। नेहरू का दिल खुला हुआ था। नेहरू ने साथ चलने वालों को बताया कि पहाडों पर चढ़ाई के वक्त किस तरह सांस और शक्ति में तालमेल बैठकर उसके अपव्यय को रोका जाता है। बच्चों के साथ वह कूदते रहे, बंदरों की तरह उछल कूद कर हंसते रहे। वायसराय भवन लौटते वक्त शिमला को देखकर उनके चेहरे पर सिर्फ एक वितृष्‍णा आई। 
बेशक ये आजादी के पहले का शिमला था।  अंग्रेजों के जाने के साथ कई बुरी प्रथाएं उनके साथ चली गईं। कई अच्छी चीजें रह गईं जो अब तक बरकरार हैं। शिमला एक खूबसूरत शहर था और है। इसकी हवा में वैसी ही ठंडक और ताजगी अब तक आप महसूस कर सकते हैं। यही वजह है कि यह आज भी हिन्दुस्तानियों का सबसे पसंदीदा हिल स्टेशन है। नेहरू की इस १२५वीं जयंती पर उन्हें याद करके हम अहद ले सकते हैं कि हम शिमला के गौरव को बरकरार रखें और यहां ऐसी कोई परम्परा शुरू न होने दें जिसे लेकर किसी के मन में वितृष्‍णा जन्म ले।


Wednesday, November 12, 2014

आचार्य कृपलानी, महात्मा और मोदी


कल सुबह मोबाइल पर मुझे मोदी का एक ट्विट मिला जिसमें उन्होंने आचार्य कृपलानी के जन्मदिन पर बधाई दी गई थी। मुझे लगा मोदी अपने एजेंडे पर बखूबी काम रह रहे हैं। उन पुराने भूले बिसरे दिग्गज नेताओं को अपने खेमे में बड़े शातिर ढंग से जोड़ रहे हैं जिन्हें खुद कांग्रेस बेदखल कर चुकी है। महात्मा पर काम करते वक्त मेरा आचार्य कृपलानी से पहला परिचय हुआ था। इस आदमी ने मुझे बेतरह हैरान किया। मुझे मालूम चला कि गांधीजी ने तो कई बच्चे पैदा करने के बाद ब्रह्मचर्य लिया और फिर भी जीवन के अंतिम क्षणों तक ब्रह्मचर्य से जूझते रहे। लेकिन आचार्य ने अपने शादी शुदा जीवन के पहले दिन से न सिर्फ ब्रह्मचर्य धारण किया बल्कि उसे मरते दम तक निभाया। कृपलानी और उनकी पत्नी सुचेता के वैवाहिक संबंधों पर तमाम तरह के तंज कसे गए। लेकिन निष्काम प्रेम नाम की कोई चीज हो सकती है यह कृपलानी और सुचेता ने साबित किया। उस जमाने में कांग्रेस में उनका बहुत सम्मान था। यहां तक गांधी भी उनसे घबराते थे। मैंने अपनी किताब महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग में गांधी और आचार्य कृपलानी के संबंधों पर काफी लिखा।
अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग में महात्मा जब चारों तरफ से ‌घिर गए तो उन्होंने एक पत्र आचार्य को लिखा था। तब आचार्य कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। यह महात्मा का नितान्त व्यक्तिगत पत्र था जो शोध के दौरान मेरे हाथ लगा। इसमें महात्मा ने स्वीकार करते हुए लिखा-मेरी पोती मनु गांधी, जिसे हम सगा संबंध मानते हैं, मेरे साथ सोती है बिलकुल मेरी सगी की तरह। लेकिन ऐसा दैहिक सुख देने के लिए नहीं बल्कि जो चीज शायद मेरा अंतिम यज्ञ हो सकती है, उसके अंग के रूप में। फिर महात्मा ने इस बारे में विस्तार से लिखा कि कैसे उनके तमाम करीबी मित्र उनके इस प्रयोग को शंका की निगाह से देख रहे हैं।
इसके जवाब में आचार्य ने महात्मा को जो खत लिखा वह वकाई एक दस्तावेज है। जवाब लम्बा है लेकिन उनकी अंतिम पंक्ति में उन्होंने लिखा-...मेरा विश्वास है कि जब तक आपमें मुझे पागलपन और विकृति के लक्षण नहीं दिखाई देते तब तक आपके विषय में मेरा भ्रम कभी दूर नहीं होगा। लेकिन ऐसे लक्षण मुझे आप में दिखाई नहीं देते।
आप सोचिए गांधी को ऐसे दो टूक लिखने वाला व्यक्ति किस मिट्टी का बना होगा। इसलिए ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन दिन याद रखकर ट्विट पर पूरे देश को बधाई संदेश भेजने वाला इंसान कितनी दूर की सूझ और समझ रखता होगा। ऐसे ही कोई चाय बेचने वाला शख्स दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री नहीं बन जाता? क्या ख्याल है?