दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, October 31, 2023

मीठे अंगूर

 आधुनिक युग की दतंकथाएं




ईसप की कहानियां दुनिया की सबसे पुरानी कहानियां हैं। यह कहानियां हमारी पंचतंत्र की कहानियों से भी बहुत पुरानी हैं। ईसप के बारे में हमे ज्यादा कुछ नहीं मालूम सिवाए इसके कि वह एक ग्रीस गुलाम था और करीब  620 और 564 ईसा पूर्व के बीच प्राचीन ग्रीस में कहीं रहता था। ईसप की दंतकथाएं मूल रूप से मौखिक परंपरा में रही होगी। उन्हें बहुत बाद में लिपिबद्ध किया गया। ईसप की कहानियों का जिक्र सुकरात तक ने किया है तो आप समझ सकते हैं कि ईसप कितना पुराना कहानीकार होगा। मध्य युग आते आते ईसप की कहानियां सारी दुनिया में चर्चित हो गईं। यह वाहिद किताब है जो आपको हर जबान में मिल जाएगी। ईसप ने बहुत छोटी-छोटी नीतिकथाएं लिखीं। एक एक पैराग्राफ की ये कहानियां, जो कुछ न कुछ संदेश जरूर देती हैं। ऐसी ही एक कहानी है लोमड़ी और अंगूर की। यह ऐसी कहानी है जिसके कारण दुनिया भर की लोमड़ियों की पूरी प्रजाति ईसप से नफरत करने लगी थी क्योंकि ईसप ने पूरी दुनिया में लोमड़ियों को लालची करार देकर बदनाम किया था। दुनिया में शायद ही कोई हो जिसने ईसप की यह कहानी नहीं पढ़ी हो। भारत में तो अंगूर खट्टे हैं...का एक मुहावरा ही चल निकला। इस कहानी में एक लोमड़ी थी, जो अंगूर खाने की बहुत शौकीन थी। एक बार वह अंगूरों के बाग से गुजर रही थी। चारों ओर स्वादिष्ट अंगूरों के गुच्छे लटक रहे थे। मगर वे सभी लोमड़ी की पहुंच से बाहर थे। अंगूरों को देखकर लोमड़ी के मुंह में बार-बार पानी भर आता था। वह सोचने लगी-‘वाह ! कितने सुंदर और मीठे अंगूर हैं। काश मैं इन्हें खा सकती।’ यह सोचकर लोमड़ी उछल-उछल कर अंगूरों के गुच्छों तक पहुंचने की कोशिश करने लगी। परंतु वह हर बार नाकाम रह जाती। बस, अंगूर के गुच्छे उसकी उछाल से कुछ ही दूर रह जाते थे। अंत में बेचारी लोमड़ी उछल-उछल कर थक गई और अपने घर की ओर वापस चल दी। जाते-जाते उसने सोचा—‘ये अंगूर खट्टे हैं। इन्हें पाने के लिए अपना समय नष्ट करना ठीक नहीं !’ इस कहानी का कुल जमा संदेश यह था कि जब कोई किसी वस्तु को हासिल नहीं कर पाता तो वह उसे तुच्छ दृष्टि से देखने लगता है। ईसप की कहानी इसी संदेश के साथ खत्म हो जाती है। 

लेकिन इसके आगे की कहानी मैंने अभी हाल में कहीं पढ़ी। वक्त बदला, जमाना बदला और सदिया बीत गईं। लोमड़ी से जब भी कोई मिलता तो वह उसके पूर्वजों की यह कहानी सुनाकर उसका मजाक उड़ता। इस बदनामी को खत्म करने के लिए एक दिन लोमड़ी ने सोचा कोशिश की जाए तो कुछ भी मिलना मुशकिल नहीं। सो उस लोमड़ी ने ऊंची छलांग लगाने की प्रैक्टिस शुरू कर दी। लोमड़ी का आत्मविश्वास बढ़ गया तो वह अंगूर के उसी बगीचे में जा पहुंची जहां उसके पूर्वज अंगूर हासिल करने में नाकाम हुए थे। पेड़ पर रसीले अंगूर लटके हुए थे। लोमड़ी ने एक ऊंची छलांग लगाई और अंगूर का गुच्छा उसके मुंह में था। लोमड़ी अपने साथ लोगों की भीड़ भी ले गई थी ताकि गवाह मौजूद रहें। लोमड़ी ने तोड़े हुए अंगूर चखे तो वह चौंक गई क्योंकि अंगूर सचमुच खट्टे थे। सोचने लगी कि उसकू पूर्वज लोमड़ी दादी ने ठीक ही कहा था कि इस पेड़ के अंगूर खट्टे हैं। फिर भी ईसप ने उसे बदनाम कर दिया। लेकिन लोमड़ी ने सोचा अगर मैंने यह बात लोगों से कही तो वह मुझ पर हंसेगे कि इन खट्टे अंगूरों के लिए मैंने इतनी मेहनत की। तो अंगूर खट्टे हैं कि कहावत दुनिया में चलती रहेगी। लोगों ने उससे पूछा कि अंगूर कैसे हैं लोमड़ी बहन? तो अहंकारी और चालाक लोमड़ी ने कहा... सच में अंगूर बहुत मीठे हैं।    

इस कहानी का सिक्वेल यही खत्म। हर कहानी के पीछे एक संदेश होता है अगर आप समझना चाहें तो। अहंकार अपनी तुष्टि का रास्ता कहीं न कहीं से निकाल ही लेता है। जब तक अंगूर तक नहीं पहुंच  पाएं थे जब तक अंगूर खट्टे हैं। और अगर पहुंच जाते हैं, तो खट्टे अंगूर भी मीठे हो जाते हैं। 

Saturday, September 16, 2023

परहित सरिस धर्म नहिं भाई

 



ईसा मसीह के जन्म से कोई 600 साल पहले 'हिंदू' शब्द अस्तित्व में आया। यह नाम फारसी आर्यों ने तब दिया जब ईसा मसीह का भी जन्म नहीं हुआ था। और इस्लाम का दूर दूर तक कोई नामों निशान नहीं था। एक मजहब के तौर पर इस्लाम कोई एक हजार साल बाद आया।  मैंने बहुत खोजा लेकिन वेद, पुराण, उपनिषद यहां तक उसके बाद के जैन व बौद्ध साहित्य में भी "हिंदू धर्म" जैसी चीज नहीं मिली। मेगस्थनीज (302 ...298 ईसा पूर्व) से लेकर चीनी यात्री ह्वेनसांग (630-645 ई.) में हिंदू या सनातम धर्म शब्द का प्रयोग नहीं किया।   दरअसल हिंदुओं के धर्म का कभी कोई नाम रहा ही नहीं। हमने धर्म के लिए केवल 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया। हमारे इस धर्म का अर्थ भी आजकल के प्रचलित अर्थों में मजहब या रिलीजन नहीं था। धर्म का केवल इतना मतलब था इस जीवन में जो कुछ भी लोकपरोपकारी और श्रेष्ठ है वही मानव धर्म है। इसकी सरलतम व्याख्या तुलसी ने "परहित सरिस धर्म नहिं भाई" चौपाई में की है। ईश्वर हमारे धर्म के लिए बिलकुल निजी चीज है। दुनियावी जरूरतों के लिए वैदिक लोग देवताओं की स्तुति अराधना से काम चला लेते। भौतिक चीजों को हासिल करने के लिए यज्ञ आदि भी करते थे। लेकिन जैसा कि ऋग्वेद या उपनिषदों में देखा गया कि ईश्चवर के प्रति उनका हमेशा से एक रहस्यवादी व दार्शनिक भाव रहा।  सच तो यह है कि हिंदुओं ने धर्म को एक जीवन शैली माना न कि मजहब या रिलीजन। यही वजह है कि भारत के विचारकों ने शुरू से अपने धर्म को कोई नाम देना उचित नहीं समझा। क्योंकि भारत में रहने वाले सभी मत के लोग ​हिदू शब्द की छतरी के नीचे थे इसलिए उनका धर्म इसाईयत या इस्लाम के बरक्स  "हिंदू धर्म" कहा जाने लगा। बस इतनी सा बात है। 

इधर हाल में "हिंदू" शब्द को विदेशी मानने वालों ने "हिंदू धर्म" को "सनातन धर्म" का नामकरण कर दिया। जबकि "सनातन" शब्द एक विश्लेषण है संज्ञा नहीं। सबसे पहले महात्मा बुद्ध ने "धम्म" के साथ "सनातन" पद का प्रयोग किया। कहा- 'एस धम्मो सनंतनो' (बौद्ध ग्रंथ धम्मपद देखें सूत्र 5) लेकिन यह दूसरे अर्थो में प्रयुक्त हुआ पद है। पूरे सूत्र का अर्थ है- "वैर से वैर खत्म नहीं होता, अवैर से वैर खत्म होता है। यही संसार का सनातन नियम है।" (धम्मवदमं, अनुवाद- भदंत आंनद कौसल्लायन पेज 2) 

हालांकि स्वामी रामभद्राचार्य जैसे कुछ विद्वान दावा करते हैं कि सामवेद की कौथुमी संहिता में जहाँ सिन्धव: है, वहाँ हिन्दव: भी आया है। यह शोध का विषय है क्योंकि इस संहि‍ता में मुख्‍यत: अग्‍नि सोम की आराधना से सम्‍बन्‍धि‍त ऋचायें, इंद्र का उद्बोधन मंत्र, दशरात्र, संवत्‍सर, एकाह यज्ञ संबधी मंत्र हैं। वीर सावरकर को भी अपनी किताब हिंदुत्व की खोज में वैदिक प्रमाण नहीं मिले। उनकी पुस्तक 'हिंदुत्व' में भी सप्त सिंधु का जिक्र है। सावरकर "सिंधु" को संस्कृत व "हिंदू" को प्राकृत शब्द मानते थे। वह यह तक मानने लगे थे कि हो सकता है प्राकृत के "हिंदू" को ही बाद में संस्कृत भाषा में "सिंधु" में रूपानतरित कर दिया हो। (सावरकर समग्र खंड 9 पेज 37) इसकी विवेचना करते हुए मेरे गुरू प्रभाषा जोशी ने अपनी किताब "हिंदू होने का धर्म" में लिखा-"ऐसा करने में वीर सावरकर ने संस्कृत के व्याकरण और पणिनि की कोई चिंता नहीं की। संस्कृत का 'स' प्राकृत में तो 'ह' हो सकता है लेकिन प्राकृत का 'ह' का संस्कृत में 'स' होने का कोई उदहारण नहीं मिलता।" (हिंदू होने का धर्म भूमिका पेज 24) हिंदू धर्म बेशक सनातन है। लेकिन उसे 'सनातन धर्म' का नाम नहीं दिया जा सकता। कितना ही अच्छा हो कि हम अपने धर्म को धर्म ही रहने दें कोई नाम न दें जैसा कि हमारे पूर्वजों ने किया। और छुद्र चीजों से ऊपर उठ कर हम भी स्वामी विवेकानंद की तरह गर्व से कहें कि "हम हिंदू हैं।" 

Tuesday, January 31, 2023

कन्यादान-3 पहाड़ी गांव का यादगार विवाह उत्सव





 

कन्यादान-3


थोड़ी
ही देर में हम चौलोक में थे। यहां से देशराज का गांव ऊपर पहाड़ पर साफ दिखता है। गांव तक सड़क नहीं बनी इसलिए हमें अपनी कार यही खड़ी करके आगे पैदल बढ़ना होगा। धाम में आए कुछ मेहमानों की कारें मोटर साइकिलें वहां पहले से पार्क थीं। इसके आगे पहाड़ पर पैदल करीब दो किलोमीटर सीधी चढ़ाई थी। पहाड़ चढ़ना हमेशा कठिन होता है और उतरना हमेशा आसान। चढ़ना इसलिए कठिन होता है क्योंकि हर अगला कदम बढ़ाते वक्त आप पिछले कई कदमों, अपनी फूली हुई सांसों का वजन और थकान लिए आगे बढ़ते हैं। इस चढ़ाई ने पिछली दफा मुझे थका दिया था। लेकिन मैं जानता हूं इस बार ऐसा नहीं होगा। छोटे कदम और रफ्तार धीमी। केवल नीचे जमीन को देखिए जहां अगला कदम रखना है। ऊपर मत देखिए कि अभी कितना और चढ़ना है। हर तीस कदम के बाद रुक कर थोड़ा सुस्ता लीजिए फिर आगे बढ़िए। और मंजिल बैंड बाजे के साथ आपका इंतजार करती मिलेगी। कम से कम हमारे साथ तो ऐसा ही हुआ। सुमंति के ससुराल वालों ने हमारे स्वागत के लिए बैँडबाजे का इंतजाम किया था। बेशक ये मंडियानी शादी की परम्परा होगी वर्ना लड़की वालों की भला कौन इतनी आवभगत करता है। बैंडवाले हमें देसराज के घर के दरवाजे तक ले गए। देसराज के नब्बे वर्ष के पिता ने हार पहना

और गले लगाकर स्वागत किया। घर की महिलाओं ने पत्नी और बेटी को टीका लगाया। घर के प्रांगण में उत्सव चल रहा था। डीजे के पहाड़ी गीतों पर युवा लड़के लड़कियां नाटी डाल रह थे। नाटी मूलतः किन्नौर-रामपुर यानी अपर शिमला का नृत्य है लेकिन पूरा हिमाचल इसकी धुनों पर नाचता है। बूढ़े जवान सब एक खास अंदाज में हाथों और ऊंगलियो को नचाते हुए नीचे से ऊपर की तरफ हिलते हैं। ये नृत्य धीमी गति से शुरू होता है फिर इसकी रफ्तार तेज होती जाती है। ये नृत्य समूह में होता है। स्वच्छंदता और स्वभाविकता इस नृत्य की विशेषता है। इसलिए कोई भी इस नृत्य में शामिल हो सका है।   हम नीचे कमरे की तरफ चले गए जहां चाय नाश्ते का इंतजाम था। मैंने आग्रह पूर्वक कहा कि हमारे तरफ कन्यादान के बाद लड़की के घर पानी तक नहीं पिया जाता। देसराज के सबसे बड़े भाई मोती राम ने कहा कि ये संभव नहीं है। बिना धाम खाए हम आपको जाने नहीं देंगे। उन्होंने बताया कि उनकी तरफ ऐसी कोई परंपरा नहीं है लेकिन शिमला वाले इस परंपरा को निभाते हैं। हम पास के गांव के एक पंड़ितजी को बुलाते हैं। वह एक छोटी सी पूजा करेंगे उसके बाद आप हमारे यहां खानापीना कर सकते हैं। दस मिनट में पास के गांव के पंड़ितजी गए। मुझे मालूम चला इन्हीं पंड़ित जी ने चार दिन पहले यहां इसके लिए पूजा की थी कि शादी के दिन मौसम खराब हो। सच में तीन दिन के बारिश के बाद अगले दो दिन मौसम बहुत साफ रहा।  उन्होंने घर के कुलदेवी स्थान पर पूजा कराई।  जिसमें कुलदेवी से बेटी के घर में खानपान की इजाजत ली गई। इजाजत मिलने के बाद अगला चरण यह था कि लड़की के माता पिता घर के सभी सदस्यों को धाम में बना खाना प्रतीकात्मक तौर पर खिलाएं। सब कतार में बैठ गए। हमने उन्हें पत्तल पर थोड़े से चावल और एक सब्जी परोसी। फिर उनका हाथ धुला कर उन्हें पानी पिलाया। उनके लिए लाए गए उपहार बांटे। मजे की बात यह सारा खटकर्म खुद यहां खाने के लिए क्वालीफाई होने का था। घर के नीचे एक सीढ़ीदार खेत में पीतल या शायद फूल के बड़ी-बड़ी हांडियों में धाम के लिए खाना पक रहा था। यह हंडियां आसपास के गांवों से मंगाई गई थी। पहाड़ी व्यंज्जनों की सुगंध मझे वहां खींच ले गई। मैंने रसोई का मुआयना किया। एक हांडी में राजमा, दूसरी में मटर पनीर, तीसरी में खट्टी मीठी  कद्दू की दाल, चौथे हांडी में कढ़ी। एक कढ़ाई में मीठा बना रखा था। चाशनी में डूबी रंग बिरंगी बूंदियां जिसमें गरी के टुकड़े और सूखे पड़े मेवे थे। उबले हुए चावल अलग बने रखे थे। पहाड़ की चढ़ाई ने भूख पहले से बढ़ा रखी थी। और इन लजीज व्यंज्जनों की खुशबू ने तो कन्यादान के बाद बेटी के घर खाना खाने के संकल्प को हिला दिया था। हालांकि  पंडित जी पूजा कराके हमें सभी दोषों से मुक्त करा चुके थे।   नीचे रसाई के साथ सीढ़ीदार खेत में नीचे कतार में बैठे कई गांव के मेहमान धाम का लुत्फ उठा रहे थे। ऊपर डीजे की धुन पर नाटी जारी थी। वैवाहिक उत्सव तीसरे दिन भी जारी था। देसराज ने बताया ये आज भी देर रात तक जारी रहेगा। शहरों में मैंने कितनी शादियां देखीं। कितना बनावटीपन और दिखावा होता है उनमें इसका अहसास आज हुआ। ये छोटा सा गरीब पहाड़ी किसान परिवार है। लेकिन इनका जीवन उत्सवधर्मिता से भरापुरा है। किसी तरह की आकांक्षा, अहंकार और ही कोई पाखंड। सादगी और सहजता जैसे इन पहाडों ने इन्हें विरासत में दी है। चमक दमक से भरे बड़े शहरों की भीड़ में हम अपना ही चेहरा ढूंढते फिरते हैं। उदास शक्लों और फीकी मुस्कानों के साथ हमने जीना सीख लिया है। रुटीन जिन्दगी से अब हम बोर नहीं होते बल्कि उसे अपनी किस्मत का हिस्सा बना बैठे हैं। प्रकृति, पहाड़, जंगल, समंदर और झरने की आवाजें जरा सा भी अभिभूत नहीं करतीं। ये सब इस बात से तय होता है कि आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं। हर जिंदगी का एक अधिकतम समय होता है। नरिया राम जैसे 90 के पड़ाव तक पहुंचना सबके लिए आसान नहीं। जीवन की उस अधिकतम सीमा के आगे आप एक सांस भी फालतू नहीं ले सकते। तो आपकों अपने की जीवन की प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। खूब पैसा कमाना, खाना पीना और ऐश की जिन्दगी जीना। एक बेहतर विकल्प हो सकता है। लेकिन क्या ये सब आपको आत्मिक शांति दे रहा है? असल सवाल ये है? आप कहेंगे ये आत्मिक शांति क्या बला है? मैं कहूंगा किसी मायूस चेहरे पर मुस्कान लाइए। मांगिए मत सिर्फ बांटिए। 90 साल के नरिया राम से प्रेरणा लीजिए‌जिन्होंने मुझे सख्ती से कहा था कि हमें सिर्फ दो जोड़े में लाडी चाहिए। आर उन्होंने हमें अपना बेटा दे दिया। इसलिए मांगिए मत सिर्फ बांटिए। जो कुछ भी आपके पास है जो आपने अपने लिए सहेज कर रखा है। धन, सम्पत्ति, ज्ञान, खुशी, हंसी, मुस्कान और ढेर सारा सुख। सब अपने अंत से पहले बांट दीजिए। क्योंकि आप बखूबी जानते हैं अंत में आपको खाली हाथ ही जाना है।

 










कन्यादान 1 विदा हो गई प्यारी बिटिया

 सुमंति का ब्याह आज सकुशल सम्पन्न हो गया। मेरे मित्र और स्वजन नहीं आ पाए लेकिन अग्नि और विवाह मंडप को चारों ओर से घेरे विशालकाय पर्वत इस ब्रह्म विवाह के साक्षी बने। सुन्नी के इस नवग्रह मंदिर के तमाम देव भी इस बात के गवाह बने कि बेटी को विदा करने के लिए कैसा पहाड़ जैसा कलेजा चाहिए होता है। हिंदू शास्त्र कितनी आसानी से कन्यादान की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि कन्यादान का पुण्य अक्षय और अपरिमेय है। कन्या के शरीर में जितने रोम हैं कन्यादाता पिता उतने सहस्त्र वर्ष रुद्रलोक में निवास करता है। लेकिन शास्त्र कन्यादान के इन आध्यात्मिक और नैतिक फायदे गिनाते वक्त पिता-पुत्री क भावनात्मक संबंधों को तकरीबन भूल जाते हैं। जिस बेटी को हम कितने नाजों से पालते हैं, बड़ा करते हैं, उसे किसी निपट अनजान व्यक्ति के हाथों में सौंप देते हैं। लेकिन ईश्वर ने भी बेटियों को जाने किस मिट्टी का बनाया है इतनी जल्दी नई जगह में रच बस जाती हैं जैसे शर्बत में पानी। इस सादगी भरे उत्साव में मेरे लिए सबसे नई चीज पहाड़ के लोगों की विवाह पद्धति रही। कितने सादे और बेफिक्र बाराती थे। लड़की वालों की तरफ से मैं और मेरा छोटा सा परिवार था। कुछ पुराने परिचितों ने यहां शादी का इंतजाम करने में मदद की थी। दुल्हे देशराज के बुजुर्ग पिता और भाई मोतीराम की सरलता देख मन भर आया। लड़केवालों जैसा कोई भाव नहीं जैसा कि आम तौर पर उत्तर भारत की बारातों में देखने मिलता है। पहाड़ पार करके बारात सुबह करीब छह बजे निकली थी। उनका पूरा गांव विवाह सामारोह में शिरकत करने आया। दो दिन के खराब मौसम के बाद आज अच्छी धूप खिली थी। सब मस्त मगन बैंड की धुन पर नाटी डाल रहे है। नाटी यहां का पारंपरिक नृत्य है जिसमें महिला पुरुष सब हिस्सा लेते हैं। यहां प्रतिभोज को धाम कहते हैं। धाम में तमाम तरह के पहाड़ी व्यंज्जन बनते हैं। हम सबने इन स्वादिष्ट व्यंज्जनों को लुत्फ उठाया।

शाम को विदाई का वक्त आया जो हमारे पूरे परिवार के ‌लिए एक मुश्किल घड़ी थी। कुछ रिश्ते खून के नहीं होते लेकिन उससे कहीं गहरे होते हैं। सुमंति से रिश्ता भी ऐसा था। वह सुबह से ही बहुत खुश थी। खुशी उसके चेहरे पर अलग से चमक रही थी। उसकी हर तस्वीर में उसके आत्मविश्वास की चमक की एक लकीर देखी जा सकती है। लेकिन विदाई केवक्त वो उदास हो गई। इतने सालों में मैंने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा। कभी भी नहीं। मेरी छोटी बेटी जब उससे गले लग कर रोने लगी तो उसकी आंखें भर आईं। पर वो रोई नहीं। आंसू की कुछ बूंदे उसकी पलकों से ढलकते हुए उसके गालों पर आकर ठहर गईं- फिर धूप की हजारवीं किरण के साथ वो किसी मोती की सी चमक उठी। सदा खुश रहना सुमंति।
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