दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, March 13, 2015

गांधी अंग्रेजों के एजेंट थे, कोई शक ?


और जैसा कि उम्मीद थी। सब काटजू के पीछे पड़ गए। काटजू साहब के मैं निजी तौर पर जानता हूं। इलाहाबाद में उनसे दो बार की मुलाकात है। बहुत मस्त इंसान हैं। कोई भरोसा नहीं कब क्या बोल दें। जजों की मर्यादा उनमें कभी नहीं  दिखी। कई बार सोचता था वह अपने चैम्बर में कैसे बर्ताव करते होंगे। वैसे मैं उनके पिता का ज्यादा बड़ा मुरीद हूं। बहुत बड़े ‌विद्धान थे। 20सवी सदी के शुरू में इलाहाबाद के अक्षय वट पर उन्होंने बहुत शोधपूर्ण काम किया है। खैर यहां बात महात्मा की है। मैं कह सकता हूं गांधी पर मेरा सामान्य लोगों से ज्यादा अध्ययन है। गांधी पर अध्ययन करते वक्त इस सिलसिले में कई चौंकाने वाले तथ्य मेरे सामने आए। अपनी पुस्तक ब्रह्मचर्य के प्रयोग के कुछ अंश शेयर कर रहा हूं। इन्हें पढ़कर शायद आप काटजू की बात समझ सकें।    
अहमदाबाद मजदूरों की लड़ाई के बाद गांधीजी खेड़ा के किसानों के आंदोलन में कूद पड़े। किसान लगान माफी का संघर्ष कर रहे थे। इस आंदोलन की बागडोर गांधीजी ने संभाल ली। लेकिन इस समय दुनिया के आसमान पर विश्वयुद्ध के बादल मंडरा रहे थे। पहला विश्वयुद्ध उसी समय शुरू हो गया जब गांधीजी इंग्लैंड होते हुए हिंदुस्तान लौट रहे थे। इंग्लैंड लड़ाई में फंसा था। भारत के आंदोलनकारी अपनी शर्तों के साथ विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ देने के लिए तैयार थे। लेकिन गांधीजी इस विचार के सख्त खिलाफ थे। उन्हें लगता कि राजभक्ति दिखाने का यह बेहतर अवसर है। राजा संकट में है इसलिए प्रजा मदद करे। भले राजा ने अपनी इस प्रजा को गुलामी की जंजीरों में जकड़ रखा हो। गांधीजी को थोड़ा जानने वालों को उस समय और हैरत हुई जब अहिंसा के व्रत से बंधे इस आदमी को उन्होंने सेना में भर्ती होने की अपील करते सुना। अंग्रेजों को पांच लाख भारतीय रंगरुट चाहिए थे। वाइसराय ने युद्ध - सम्मेलन बुलाया। यह दिल्ली में 27 से 29 अप्रैल, 1918 तक हुआ था।
    वायसराय ने सभी भारतीय नेताओं को दिल्ली बुलाया था। इनमें बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे महत्त्वपूर्ण नेता शामिल नहीं थे। वायसराय जानते थे कि मि.जिन्ना को बुलाने का कोई मतलब नहीं क्योंकि वह बात की शुरुआत शर्त से करेंगे। भारतीय नेताओं में गांधीजी भी बुलाए गए थे। वायसराय ने जैसे ही रंगरूटों की भर्ती की बात की तैसे ही गांधीजी ने कहा कि मुझे अपनी जिम्मेदारी का पूरा ख्याल है। और तब अहिंसा के पुजारी ने युद्ध लड़ने के लिए रंगरुटों की भर्ती के लिए देश का दौरा शुरू कर दिया। रंगरूटों की भर्ती के लिए नाडियाद में 22 जून, 1918 को दिए उनके इस भाषण का अंश देखिए -  ‘हथियार चलाना बहुत जल्दी सीखना हो तो सेना में भर्ती होना हमारा कर्त्तव्य है’। मर्द और नामर्द में मित्रता नहीं हो सकती। हम नामर्द माने जाते हैं। अगर हम नामर्दों में नहीं जाना चाहते, तो हमें हथियार चलाना सीखना जरूरी है। यह निश्चय है कि हमें साम्राज्य में हिस्सेदार बनना है। तब हमें चाहे कितना ही दुख उठाना पड़े, प्राण भी देने पड़ें, फिर भी हमें साम्राज्य का बचाव करना चाहिए। अगर साम्राज्य का नाश हो जाता है तो उसके साथ हमारी महती आशाएं भी नष्ट हो जाती हैं।’12
    सेना में भर्ती करने के लिए गांधीजी ने हिंदुस्तानियों की मर्दानगी को ललकारा था। लोगों को फौज में भर्ती कराने में वह बहुत कामयाब नहीं हो पा रहे थे। लेकिन अंग्रेज अफसरों को गांधीजी का इस तरह घूम - घूम कर सेना में भर्ती की अपील करना रुचिकर लग रहा था। उन्हें लग रहा था कि यह आदमी कांग्रेस के जिद्दी नेताओं से अलग है और उनके काम आ सकता है। वह गांधीजी जैसे अप्रत्याशित व्यक्ति को अभी समझ नहीं पाए थे। यही हाल कांग्रेस का भी था। गांधीजी का यह दृष्टिकोण कांग्रेस नेताओं की समझ से बाहर था। वे नहीं समझ पा रहे थे गांधीजी चाहते क्या हैं। एस्थर भी बापू के युद्ध में शामिल होने के अद्भुत फलसफे से हतप्रभ थी। उसने बापू को लिखा - ‘मैं समझ नहीं सकी कि सत्याग्रही के नाते आपकी भावनाओं के साथ यह कहां तक मेल खाता है; या अगर दूसरे ढंग से कहूं, तो जो व्यक्ति दृढ़तापूर्वक सत्याग्रह में विश्वास करता है और जिसने सदैव और सब जगह सत्याग्रह के पालन में अपना जीवन लगा दिया है, वह दूसरों से युद्ध में शामिल होकर लड़ने के लिए किस प्रकार कह सकता है?’13
    खेड़ा आंदोलन और फौज में रंगरुटों की भर्ती के लिए गांधीजी ने दिन - रात एक कर दिए थे। इसी बीच उन्हें पेचिश हो गई। पेचिश होना गांधीजी के लिए शर्मनाक था। उन्हें भरोसा था कि और कोई रोग हो न हो लेकिन उन्हें कभी पेचिश जैसा रोग नहीं हो सकता। वह शायद 12 अगस्त, 1918 का दिन था। पेट में इतना तेज दर्द होता कि गांधीजी जैसा आंतरिक रूप से सशक्त आदमी हिल जाता। उनका मन करता कि वह चीखें। चीखने या कराहने से दर्द कम होता मालूम पड़ता है क्योंकि तब ध्यान बंट जाता है। वह कई बार बेहोश हुए। डॉक्टर ने उन्हें इंजेक्शन लगवाने की सलाह दी। लेकिन गांधीजी तब अंग्रेजी ढंग के इलाज के सख्त खिलाफ थे।
बहुत बाद में गांधीजी ने स्वीकार किया कि ‘यह उनका घोर अज्ञान था।’ उन्होंने उपवास रखा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। उन्हें बुखार भी हो गया। शरीर दुर्बल हो गया था। गांधीजी इस तरह बीमार कभी नहीं पड़े थे। उन्हें साबरमती आश्रम लाया गया। गांधीजी को तब पहली बार लगा कि वह बचेंगे नहीं। अंत समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने बड़े बेटे हरिलाल को लिखा -  ‘मुझे लगता है कि मैं अब जा रहा हूं। बस थोड़े दिन का मेहमान हूं। शरीर क्षीण होता जा रहा है। खुराक कुछ ले नहीं सकता। आत्मा शांत है, लगता है जाने में मुश्किल नहीं होगी। मुझे लगता है कि जो भी विरासत मैं तुम्हारे लिए और भाइयों के लिए छोड़ जा रहा हूं वह उचित है। यदि मैं पैसा छोड़ जाता तो उससे क्या लाभ होता? परंतु चरित्र की जो विरासत मैं छोड़कर जा रहा हूं वह अमूल्य है, ऐसा मैं मानता हूं। मेरी इच्छा है तुम उसे कायम रखो। धर्म की राह पर चलना।’ एक दिन उन्हें लगा कि वह
मृत्यु शैया पर पड़े हैं। सभी आश्रमवासी गांधीजी के पास इकट्ठे हो गए। गीता पाठ शुरू हो गया। गांधीजी ने अपने अंतिम संदेश कहे -  ‘भारत के नाम मेरा अंतिम संदेश यही है कि अहिंसा से ही उसे मुक्ति मिलेगी। और अहिंसा के ही द्वार पर वह विश्व की मुक्ति में अपना योगदान करेगा।’