दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, November 14, 2014

शिमला को नफरत करते थे नेहरू


नेहरू की पहचान एक संवेदनशील राजनेता की रही है। उनका खुद का जीवन ऐशो आराम में बीता लेकिन गरीबों के प्रति उनमें बेपनाह हमदर्दी थी। खास तौर से बच्चों के लिए उनके मन में बहुत प्यार था। मुझे यह जानकर सुखद हैरानी हुई कि पीठ पर लादने वाले स्कूली बैग की शुरूआत की पहल नेहरू के प्रयासों से हुई। उस जमाने में बच्चे भारी बस्ते बगल में या आगे की तरफ लाद कर स्कूल जाते थे। जिससे उनकी कमर वक्त से पहले झुक जाती थी। वह चाहते थे बच्चे किताबों का बोझ लाद कर झुके हुए न चलें बल्कि सीधे सीना तान कर चलें। तो पिट्ठु बैग स्कूलों में लाजमी कर दिए गए। यह बच्चों को उनकी तरफ से दिया गया सबसे बड़ा तोहफा था। इसलिए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाने का चलन बेहद समझदारी भरा कहा जा सकता है।
पहाडों के प्रति नेहरू में गजब का आकर्षण था। वह उन ब्रिटिश हुक्मरानों जैसे थे जिनका मन गर्मियों में पहाडों की तरफ भागता था। वह हिमाचल के कई पहाडी इलाकों में घूमते। अपने विदेशी दोस्तों को यहां के पहाड़ घुमाते। हिमाचल में मनाली उनकी पसंददीदा जगह थी। लेकिन कहते हैं शिमला उन्हें पसंद नहीं था। इसकी सबसे बड़ी वजह वह कुली थे जो रिक्‍शे पर सवारियां बैठाकर उन्हें अपने हाथों से खींचते थे। १९४५ में माल रोड पर खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ टहलते हुए उन्होंने देखा कि कैसे वही कुली ब्रिटिश राज में भी अपने रिक्‍शों पर तिरंगा लगा कर घूमते थे। पटेल की इन रिक्‍शों माल रोड घूमने की तस्वीरें हैं। लेकिन नेहरू खुद कभी इन रिक्‍शों पर नहीं बैठे। इस प्रथा को नेहरू मानवीय प्रतिष्ठा के लिए बेहद अपमानजनक मानते थे। शिमला को नापसंद करने का सिर्फ यही अकेला कारण नहीं था। उन्हें लगता कि यह शहर अंग्रेजों की नकल पर एक कस्बे की तरह बसा है। अपनी किताब लास्ट डेज आफ द ब्रिटिश राज में लियोनार्ड मोसले ने शिमला के प्रति नेहरू की वितृष्‍णा का जिक्र किया है। वायसराय ने तय किया था कि भारत पाकिस्तान के बीच बंटवारे की अंतिम बातचीत शिमला में होगी। वे १९४७ की गर्मियों के दिन थे। वायसराय लेडी माउंटबेटन को लेकर कुछ दिन पहले शिमला आ गए थे।  वह अपने साथ कोई ३५० नौकर चाकर लाए थे। शिमला की ठंडी और ताजा हवा उनमें एक खास तरह की ऊर्जा भर देती थी। ८ मई को पंडित नेहरू भी अपने खास सलाहकार कृष्‍ण मेनन के साथ वायसराय के मेहमान बन गए।
उन दिनों का जिक्र करते हुए लियोनार्ड ने लिखा-शिमला की शाम की तरह राजनीतिक संभावनाएं भी सुहानी लग रही थीं। पहाड़ की गोद में छिपे पगडंडी के रास्ते पर कैम्पबेल-जॉनसन के घर जाते हुए नेहरू ने वायसराय और उनकी पत्नी का साथ दिया। नेहरू का दिल खुला हुआ था। नेहरू ने साथ चलने वालों को बताया कि पहाडों पर चढ़ाई के वक्त किस तरह सांस और शक्ति में तालमेल बैठकर उसके अपव्यय को रोका जाता है। बच्चों के साथ वह कूदते रहे, बंदरों की तरह उछल कूद कर हंसते रहे। वायसराय भवन लौटते वक्त शिमला को देखकर उनके चेहरे पर सिर्फ एक वितृष्‍णा आई। 
बेशक ये आजादी के पहले का शिमला था।  अंग्रेजों के जाने के साथ कई बुरी प्रथाएं उनके साथ चली गईं। कई अच्छी चीजें रह गईं जो अब तक बरकरार हैं। शिमला एक खूबसूरत शहर था और है। इसकी हवा में वैसी ही ठंडक और ताजगी अब तक आप महसूस कर सकते हैं। यही वजह है कि यह आज भी हिन्दुस्तानियों का सबसे पसंदीदा हिल स्टेशन है। नेहरू की इस १२५वीं जयंती पर उन्हें याद करके हम अहद ले सकते हैं कि हम शिमला के गौरव को बरकरार रखें और यहां ऐसी कोई परम्परा शुरू न होने दें जिसे लेकर किसी के मन में वितृष्‍णा जन्म ले।


Wednesday, November 12, 2014

आचार्य कृपलानी, महात्मा और मोदी


कल सुबह मोबाइल पर मुझे मोदी का एक ट्विट मिला जिसमें उन्होंने आचार्य कृपलानी के जन्मदिन पर बधाई दी गई थी। मुझे लगा मोदी अपने एजेंडे पर बखूबी काम रह रहे हैं। उन पुराने भूले बिसरे दिग्गज नेताओं को अपने खेमे में बड़े शातिर ढंग से जोड़ रहे हैं जिन्हें खुद कांग्रेस बेदखल कर चुकी है। महात्मा पर काम करते वक्त मेरा आचार्य कृपलानी से पहला परिचय हुआ था। इस आदमी ने मुझे बेतरह हैरान किया। मुझे मालूम चला कि गांधीजी ने तो कई बच्चे पैदा करने के बाद ब्रह्मचर्य लिया और फिर भी जीवन के अंतिम क्षणों तक ब्रह्मचर्य से जूझते रहे। लेकिन आचार्य ने अपने शादी शुदा जीवन के पहले दिन से न सिर्फ ब्रह्मचर्य धारण किया बल्कि उसे मरते दम तक निभाया। कृपलानी और उनकी पत्नी सुचेता के वैवाहिक संबंधों पर तमाम तरह के तंज कसे गए। लेकिन निष्काम प्रेम नाम की कोई चीज हो सकती है यह कृपलानी और सुचेता ने साबित किया। उस जमाने में कांग्रेस में उनका बहुत सम्मान था। यहां तक गांधी भी उनसे घबराते थे। मैंने अपनी किताब महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग में गांधी और आचार्य कृपलानी के संबंधों पर काफी लिखा।
अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग में महात्मा जब चारों तरफ से ‌घिर गए तो उन्होंने एक पत्र आचार्य को लिखा था। तब आचार्य कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। यह महात्मा का नितान्त व्यक्तिगत पत्र था जो शोध के दौरान मेरे हाथ लगा। इसमें महात्मा ने स्वीकार करते हुए लिखा-मेरी पोती मनु गांधी, जिसे हम सगा संबंध मानते हैं, मेरे साथ सोती है बिलकुल मेरी सगी की तरह। लेकिन ऐसा दैहिक सुख देने के लिए नहीं बल्कि जो चीज शायद मेरा अंतिम यज्ञ हो सकती है, उसके अंग के रूप में। फिर महात्मा ने इस बारे में विस्तार से लिखा कि कैसे उनके तमाम करीबी मित्र उनके इस प्रयोग को शंका की निगाह से देख रहे हैं।
इसके जवाब में आचार्य ने महात्मा को जो खत लिखा वह वकाई एक दस्तावेज है। जवाब लम्बा है लेकिन उनकी अंतिम पंक्ति में उन्होंने लिखा-...मेरा विश्वास है कि जब तक आपमें मुझे पागलपन और विकृति के लक्षण नहीं दिखाई देते तब तक आपके विषय में मेरा भ्रम कभी दूर नहीं होगा। लेकिन ऐसे लक्षण मुझे आप में दिखाई नहीं देते।
आप सोचिए गांधी को ऐसे दो टूक लिखने वाला व्यक्ति किस मिट्टी का बना होगा। इसलिए ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन दिन याद रखकर ट्विट पर पूरे देश को बधाई संदेश भेजने वाला इंसान कितनी दूर की सूझ और समझ रखता होगा। ऐसे ही कोई चाय बेचने वाला शख्स दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री नहीं बन जाता? क्या ख्याल है?


Thursday, October 30, 2014

परोपकार का सच


शिमला के जिस घर में मैं रहता हूं उसके आगे की सीधी चढ़ाई है। करीब एक किलोमीटर की सीधी पहाड़ी की चढ़ाई। सड़क सकरी है लेकिन एकदम खड़ी। सीधे ९० डिग्री की चढ़ाई। सुबह ढहलने जाता हूं तो सांस फूलने लगती है। रास्ते में दम भरने के लिए कम से कम तीन ब्रेक लेने पड़ते हैं और फिर सड़क के अंतिम सिरे पर बनी बैंच पर बैठ कर सुस्ताता हूं। जिस मोहल्ले में मैं रहता हूं उसका नाम ओल्ड बीयर खाना है। पहले यहां डाल्टन नाम के किसी अंग्रेज की बियर फैक्ट्री होती थी। इसलिए यह पूरा इलाका डाल्टन स्टेट के नाम से जाना जाता है। फैक्ट्री तो अब उजड़ गई लेकिन यहां के लोग बियरखाना नहीं भूल पाए। मोहल्ले का नाम यही हो गया।
शिमला में आमतौर पर रिटायर और बुजुर्ग लोगों की भरमार है। मैं देखता हूं कैसे रोज तमाम बुजुर्गवार इस सीधी चढ़ाई पर हॉफते कांपते ऊपर चढ़ते हैं। इन्हें देखकर एक अजीब तरह की पीड़ा होती है। एक सुबह दफ्तर के लिए निकला तो देखा कि एक करीब ७० पार की बुजुर्ग महिला सड़क की आधी चढ़ाई चढ़ चुकी थी। सर्द हवा में भी पसीने से तरबतर। वजनी शरीर। वह बुरी तरह हॉफ रही थीं। चाल में लड़कड़ाहट थी शायद उन्हें गठिया था। मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी। लेकिन उनका हाल देखकर मुझे कार रोकनी पड़ गई। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि मैं आगे नहीं बढ़ पाऊंगा। वह समझ गईं कि मैं उन्हें लिफ्ट देना चाहता हूं। वह आगे आईं और मैंने कार का अगला दरवाजा खोल दिया। वह किसी तरह कार में दाखिल हुईं। उन्होंने बताया कि उनके बच्चे शहर के बाहर हैं और उन्हें चेकअप के लिए अस्पताल जाना था। दफ्तर पहुंचने में देर हो गई लेकिन उन्हें अस्पताल छोड़कर मुझे एक खास तरह के सुख और शांति का अहसास हुआ। ऐसा लगा जैसे एक बोझ-सा दिल पर था जो उतर गया। अगर मैं ऐसा न करता तो दिन भर परेशान और तकलीफ में रहता। सारा दिन एक अपराध बोध दिमाग पर तारी रहता।  यह कतई परोपकार नहीं था।
बहुत साल पहले मैंने एक कहानी पढ़ी या कहीं सुनी थी। एक साधु के दो शिष्य अंतिम परीक्षा के लिए तीन महीने बाद आश्रम लौटै। साधु ने दोनों से पूछा-इन तीन महीनों में तुमने परोपकार का कौन सा सर्वश्रेष्ठ काम  किया। पहले शिष्य ने बताया कि वह रात में नदी के किनारे गुजर रहा था। मैंने डूबते हुए आदमी की चीख सुनी। चाहता तो आगे बढ़ जाता। कोई देखने वाला नहीं था। नदी का पानी भी ठंडा और बर्फीला था। लेकिन मैं उसे बचा कर बाहर निकाल लाया। साधु ने कहा यह तो कोई परोपकार न हुआ। न बचाते तो जीवन भर उस आदमी की चीख तुम्हारा पीछा करती। तुम्हारी आत्मा तुम्हे कोसती। इससे बचने के लिए तुमने यह कृत किया।      
अब दूसरे शिष्य का नम्बर आया। उसने बताया कि वह जंगल से गुजर रहा था। उसने देखा कि उसका जानी दुश्मन ठीक पहाड़ के किनारे लेटा है। एक करवट लेता और हजारों फीट गहरी खाई में गिरता। मैं जानता था कि बचाने पर वह मुझे गालियां ही देता। फिर भी मैंने उसे बचा लिया। लेकिन जैसा कि मैंने कहा वह मुझे गांव में घूम-घूम कर गालियां ही दे रहा है। सबसे कह रहा है मैं मरने गया था लेकिन इस कम्बखत ने मुझे बचा लिया। पर मुझे संतोष है कि मैंने परोपकार किया। कहानी सुनने के बाद साधु ने कहा तुम्हारा प्रयास पहले से बेहतर है लेकिन परोपकार ये भी हीं क्योंकि तुम अहंकार से भरे हो। जिस कृत से अंहकार निर्मित हो वह परोपकार नहीं हो सकता।
तो जैसा कि मैंने पहले कहा था मैंने जो किया वह कतई परोपकार नहीं था। यह एक पीड़ा से मुक्ति थी। अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए ही यह नेक काम हुआ। अब मैं अक्सर बुजुर्ग नागरिकों को बिन मांगे लिफ्ट देता हूं। मैं जानता हूं यह कृत मेरे सद्कर्मों के खाते में नहीं जुड़ने वाला। क्योंकि यह कृत्य एक तरह की पीड़ा और अपराधबोध से मुक्त होने के लिए किया जा रहा है। मैं जानता हूं इसमें कोई छद्म अहंकार भी नहीं है। चाहे अनचाहे संस्कारों की गठरी आपको ढोनी ही पड़ती है।



 

Thursday, October 16, 2014

तुम अब तक कहां थे कामरेड


मुझे उन दोस्तों से कतई हमदर्दी है जिन्हें साहित्य में जरा भी दिलचस्पी नहीं। वह नहीं जानते कि जीवन में वह क्या खो रहे हैं। लेखक तो खैर लिखने के लिए अभिशप्त है। वह ता-उम्र शब्दों और कल्पना की उड़ानों से मुक्त नहीं हो पाता। नहीं लिखता फिर भी झटपटाता रहता है। वह पिंजरे में बंद किसी पक्षी की तरह फड़फड़ाता है। कोई पन्द्रह साल पहले एक कथा संग्रह 'कामरेड का कोट' मेरे हाथ लगा था। यह कथा संग्रह सृंजय नाम के किसी लेखक का था। यह कहानी पहली दफा हंस के शायद फ़रवरी, १९८९ अंक में छपी थी। तब इस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। लेकिन कहानी एकदम से चर्चा में आ गई। यह कहानी आज़ाद भारत में वामपंथ की पोल खोलती है। रूस परस्त कामरेड अपनी सारी बौद्धिकता के बावजूद कैसे जमीनी सच्चाइयों ‌कितनी दूरी बना लेते हैं। कामरेड का कोट हिन्दुस्तानी कम्युनिज्म के खोखलेपन को नंगा करती है। यह कहानी पढ़ कर आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि हिन्दुस्तान में कम्युनिज्म का प्रयोग क्यों फेल हो गया?
मुझे याद है एक रूसी लाल कोट को प्रतीक बना कर सृंजय ने कैसे भारत के वामपंथियों को हिला कर रख दिया था। उन दिनों साहि‌त्यिक सम्मेलनों में मैं राजेन्द्र यादव व नामवर जैसे आलोचकों से 'कामरेड का कोट' की तारीफ में कसीदे पढ़ते सुना करता था। लेकिन जितना में अपने कम्युनिस्ट मित्रों को जानता हूं वह इस कहानी के लिए सृंजय को आज तक माफ नहीं कर पाए। हिन्दी साहित्य पर काबिज कम्युनिस्ट लेखकों के गिरोह ने सृंजय जैसे शानदार लेखक को साहित्य से ही बेदखल कर दिया।
मेरी नजर में सृंजय वाकई एक क्रान्तिकारी लेखक हैं। ये उन गिने चुने लेखकों में हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहता हूं लेकिन मेरी बदकिस्मती ये हैं कि अब वह लिखते नहीं। 'कामरेड का कोट' में जब कथा का नायक कमलाकांत उपाध्याय गुस्से में पार्टी के एक बड़े नेता रक्तध्वज से उनका रूसी लाल कोट छीनता है उनके चेहरे के भाव देखने वाले होते हैं। यह वही कामरेड रक्तध्वज थे जो कहते थे "क्रांति के लिए जरूरी है, पहले खुद को डी-क्लास करना।" क्या कामरेड रक्तध्वज खुद 'डी-क्लास' हो पाए थे। सृंजय अपनी इस कालजयी कहानी के क्लाइमेक्स में लिखते हैं-"कमलाकांत ने अट्टहास किया, "ठंड से बचने का एक हथियार है कोट,... आपने कहा था न कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा."
जैसा मैंने पहले कहा मैं सृंजय की कहानियों से बेतरह प्रभावित हूं। मैं इस लेखक उनकी कहानियों के लिए बधाई देना चाहता था। एक इच्छा थी कि उनसे बात करूं। मुझे पता चला कि वह आसनसोल में कहीं रहते हैं। पिछले १५ सालों में कई बार मैंने उनका फोन नम्बर तलाशने की कााशिश की लेकिन निराशा हाथ लगी। जरूर मेरी कोशिश में कहीं कोई कमी रही होगी। क्योंकि मेरा साफ मानना है कि जो आप सचमुच हासिल करना चाहते हैं वह देर सबेर कर ही लेते हैं। अगर नहीं कर पाते तो इसका अर्थ है आपके प्रयास में कहीं कोई कमी है। अभी तीन दिन पहले मैंने अपने पुराने लेखक मित्र व बेहतरीन साहित्यक पत्रिका तत्‍भव के संपादक अखिलेश जी से यूं ही सृंजय जी के बारे में पूछ लिया। उन्होंने बताया कि वह आसनसोल में हैं और शायद वहां बीएसएनएल में काम कर रहे हैं। उन्होंने तत्काल वह नम्बर मुझे एसएमएस कर दिया। और फिर मैंने उन्हें उसी रात फोन किया। पहली बार में फोन नहीं उठा। लेकिन दस मिनट बाद उन्होंने रिंग बैक किया। और इसके बाद आप समझ सकते हैं कि एक गुमनाम पाठक की अपने उस प्रिय लेखक के साथ क्या बातें हुई होंगी जो उन्हें १५ साल से खोज रहा था। लेखक और पाठक के बीच एक दीवार थी जो अब ढह गई। आज मैं सार्वजनिक रूप से सृंजय जी को उनकी कालजयी रचना कामरेड का कोट के लिए एक बार फिर बधाई देता हूं।




Tuesday, October 7, 2014

अच्छे दिन


यूरोप में 100 लोगों का एक इलीट क्लब हुआ करता था। इसमें केवल यूरोप के महान लोग सदस्य बन सकते थे। महान यानी नोबल पुरस्कार विजेता, मशहूर पेंटर, मशहूर लेखक, वैज्ञानिक आदि। इस क्लब की सदस्यता मिलना  वाकई सम्मान की बात थी। क्योंकि इस क्लब में 100 से ज्यादा सदस्य किसी कीमत पर नहीं हो सकते थे। सिर्फ किसी के मरने पर जगह खाली होती थी और उसकी जगह भरने के लिए आमंत्रण भेजा जाता था। एक सदस्य की मौत के बाद नोबल जीतने वाले जार्ज बनार्ड शॉ के पास भी आमंत्रण गया। क्लब ने आमंत्रण पत्र में लिखा कि  अगर आप हमारे क्लब के सदस्य बनते हैं तो यह क्लब गौरवान्वित होगा। मैंने सुना है शॉ ने इस आमंत्रण को ठुकरा दिया। कहा-जो क्लब मेरे आने से गौरवान्वित होता हो उसमें मेरा क्या काम। ऐसा क्लब मेरे लिए तुच्छ है। मैं ऐसे क्लब में शामिल होना चाहूंगा जो मुझे लेने से इंकार करता हो।
अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार न्यूयार्क टाइम्स में भारत के मंगलयान अभियान का मजाक उड़ाने  वाले कार्टून को देखकर मुझे शॉ से जुड़ी ये घटना याद आ गई। सिंगापुर के कार्टूनिस्ट ने दिखाया है कि इलीट स्पेस क्लब के लोग अखबार में भारत की इस कामयाबी की खबर पढ़ रहे हैं और बाहर भारत का एक गंवई प्रतिनिधि गाय लेकर खड़ा है और दरवाजा खटखटा रहा है। बेशक इरादा भारत का मजाक उड़ाने का है। जिसके लिए अखबार के भले संपादक ने भारतवासियों से माफी भी  मांग ली। लेकिन सच तो यही है कि मंगल पर करोडों डालर फूंक कर पहुंचने वाले देश हमारी इस कामयाबी को हजम नहीं कर पा रहे। मोदी गलत नहीं है कि दुनिया में आज भी हमारे देश की छवि सपरों और तमाशबीनों के देश की है।  लेकिन मेरी तकलीफ इस बात की है कि हमारे देश में ही कई कथित बुद्धिजीवी, महान और इलीट क्लब के लोग हमारी कामयाबियों का मजाक उड़ाते नहीं थकते। फेसबुक पर दीवारें रंगी हुई हैं। विवेकहीनता का भी एक तार्किक आधार होता है। इसलिए मित्रों से निवेदन है कि वह अपनी भावनाओं और भाषा पर नियंत्रण रखें। इंतजार करें और उम्मीद रखें अच्छे दिन जरूर आएंगे। मोदी नहीं ला पाए तो कोई और लाएगा। पर अच्छे दिन जरूर आएंगे।

Thursday, September 18, 2014

आदम की कहानी



  उफ.... इतना काम कि सिर में दर्द शुरू हो गया। अब देर रात फुर्सत मिली है। सोचता हूं हम इंसानों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है जिन्दगी जीने के लिए। आदम और हव्वा की दिलचस्प और प्यारी कहानी कभी कुरान में पढ़ी थी। आज याद आ गई। ये दुनिया, फरिश्तों और हूरों को बनाने के बाद खुदा ने मिट्टी को गूंथ कर अपनी शक्ल का एक पुतला तैयार किया। वह आदम था। फिर आदम की ही बायीं पसली से औरत को बनाया जिसे हव्वा नाम दिया गया। दोनों मजे से जन्नत में रहते थे। न कोई फिक्र न चिन्ता। लेकिन एक दिन शैतान के बहकावे में आकर इन दोनों ने खुदा की आज्ञा का उल्लंघन कर गेहूं खा लिया। (बाइबल में सेब खाने का जिक्र है)। इस गुनाह के लिए खुदा ने उन्हें जमीन पर ला पटका। और शाप दिया कि तुम्हारी औलादें मेहनत करके खाएंगी। अब उसका असर देख रहा हूं। सोचता हूं आदम मियां शैतान के बहकावे में क्यों आ गए होंगे? आप बता सकते हैं?

कल एक मित्र ने पूछा सबको खुदा ने बनाया तो शैतान को किसने बनाया? खुदा ने तो आदम के पहले सिर्फ फरिश्ते ही बनाए थे। एक फरिश्ता इब्लीस नाम का था। कुरआन की कहानी कहती है आदम को बनाने के बाद खुदा ने अपने सभी फरिश्तों से कहा कि मैंने एक नई चीज ईजाद की है। ये आदम है, सभी फरिश्तों इसका सजदा करो। सभी फरिश्तों ने ऐसा किया लेकिन इब्लीस ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उसने खुदा से कहा-मैं रोशनी से बना हूं। मैं खुदा के अलावा किसी के आगे सजदा नहीं करुंगा। खुदा ने नाराज होकर इब्लीस को जन्नत से निकाल दिया और जहन्नुम यानी नर्क में भेज दिया। उसी दिन से इब्लीस शैतान बन गया। उसने खुदा से कहा जिस आदम पर तुम्हें इतना नाज है मैं उसकी औलादों को खुदा का आदेश मानने से रोकूंगा। और तब उसने आदम की बीवी हव्वा का अपना पहला निशाना बनाया। और शैतान आज भी छुपकर आदम की औलादों यानी इंसानों को बहका कर ईश्वरीय आदेशों के खिलाफ ले जाने के जतन कर रहा है।
जब तक इंसान है तब तक शैतान भी रहेगा। और हम सबको बहकाएगा। तो बेहतर है कि हम सतर्क रहें। खुदा खैर करे?
दोस्तों ने दिलचस्प सवाल पूछा है कि खुदा ने इब्लीस से ‌मिट्टी के बने आदम का सजदा करने को क्यों कहा? जबकि कुरआन में खुदा के अलावा किसी को सजदा करने की मनाही है।
खुदा ने आदम को शाप जरूर दिया लेकिन उन्हें दुनिया का पहला पैगम्बर बना कर इस धरती पर भेजा। इस्लाम में उन्हें हजरत आदम के नाम से जाना जाता है। बल्कि मैंने देखा कुरआन की शुरूआत ही इसी कहानी से होती है। खुदा ने फारिश्तों से कहा-मैं जमीन पर एक खलीफा बनाने वाला हूं। फरिश्तों ने इस पर एतराज किया। कहा-तुम धरती पर ऐसे लोगों को भेजोगे जो फसाद करें खून बहाएं। खुदा ने फरिश्तों से कहा- मैं वह जानता हूं जो तुम नहीं जानते।  (मैं खुद अब तक नहीं समझ पाया कि खुदा ने ऐसा क्यों कहा था? वह क्या जानते थे? फरिश्तों की आशंका सही थी। यही सब हो रहा है। अगर किसी मित्र के पास इसक प्रसंग की व्याख्या या टीका हो तो कृपया शेयर करें।)
कुरआन में एक और दिलचस्प कथा है। आदम की शुरूआती संतानों से खुदा खुद पहली बार मुखातिब हुए थे। उन्होंने इंसानों से  पूछा-क्या मैं तुम्हारा पालनहार नहीं हूं? यह खुदा का इंसानों को पहला सम्बोधन था। खुदा के बंदों ने जवाब दिया-हां हो, बेशक हमारे पालनहार हो। खुदा ने यह भी साफ किया उन्होंने ऐसा इसलिए पूछा कहीं तुम कयामत के दिन यह न कहने लगो कि हमें तो इस बात की खबर ही नहीं थी।
तो ईश्वर सबका पालनहार है। उसका कोई भी आदेश न मानना एक गुनाह है। इब्लीस के खुदा के आदेश की नाफरमानी की। आसान शब्दों में समझे तो ये पिता का आदेश न मानने जैसा है। इब्लीस को इसकी सजा मिली और सजा आदम-हव्वा को भी मिली जिसने खुदा के आदेश की नाफरमानी कर प्रतिबंधित गेहूं खा लिया था। आदम और हव्वा से नाराज खुदा ने एक शाप और दिया था। कहा था-तुम दोनों धरती पर साथ रहोगे पर एक दूसरे के दुश्मन होगे। आदम ने तौबा की और रहमदिल खुदा ने उसे माफ कर दिया। पर कहा कयामत की मियाद तक तो तुम्हें वहां रहना होगा। 
दरअसल सभी धर्मग्रंथों में इस तरह की कथाएं प्रतीकात्मक होती है। इनमें छोटे किन्तु गहरे संदेश छुपे होते हैं। इन संदेशों को पकड़ना और उन्हें जीवन में उतारना हम इंसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। धर्मग्रंथों को तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। धर्मग्रंथ और इंसान के बीच आने वाले पंडितों, मौलवियों और पादरियों को एक बार हटा कर देखें। कोई धर्मग्रंथ आपको कभी गुमराह नहीं कर सकता। दुनिया के सारे धर्मग्रंथ हमारे सीधे और सरल पूर्वाजों की कल्पना है। चाहे वह अरब के लोग हों जिन्होंने खुदा के शब्दों की किताब बना कर उस पर अपना ईमान ले आए या हिन्दुस्तान में वैदिक युग के लोग जो इन्द्र से पानी बरसाने के लिए उपासना करते थे। और अपनी गायों के थनों में ईश्वर से दूध मांगते थे।
मैं नासमझ धर्म को ऐसे ही समझने की कोशिश करता हूं।
 


Tuesday, August 26, 2014

अलविदा एटनबरो



जब पहली दफा रिचर्ड एटनबरो की गांधी फिल्म देखी तब मैं करीब 12-13 साल का रहा हूंगा। और सच कहूं तो तब पहली दफा मैं चलते फिरते सिनेमा की ताकत से रूबरू हुआ। फिल्म में महात्मा का किरदार निभाने वाले शख्स बेन किंग्स्ले को देखकर मुझे पक्का यकीन हो गया कि गांधी सचमुच में ऐसे ही रहे होंगे। उनकी तेज चाल, बोलने का लहजा, तीखी निगाहें। मन में कहीं बस गया कि हां चर्चिल का वह अधनंगा फकीर जरूर ऐसा ही रहा होगा। बहुत साल बाद मैंने बेन किंग्स्ले को हालीवुड की बेमिसाल फिल्म 'शिंडलर्स लिस्ट' में एक यहूदी एकाउंटेंट और कारखाने के मैनेजर की भू‌मिका में देखा। तब वह नाजियों के जुल्म के शिकार के रूप में एकदम दूसरा आदमी था। तब मैंने पहली बार जाना की अभियन क्या चीज है। मुझे तब अमिताभ बच्चन से बड़ा हीरो मिल गया था।
लखनऊ के नावेल्टी सिनेमाघर से एटनबरो की गांधी देखने के बाद मैं वह शख्स नहीं था जो साढ़े तीन घंटे पहले था। दिलो दिमाग पर न जाने कितने तूफान चल रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि दोपहर बाद घर आ कर मैं आंखें बंद करके लेट गया था। फिल्म का एक एक सीन आंखों के सामने एक बार फिर से चलने लगा था। दक्षिण अफ्रीका के उस गुमनाम स्टेशन पर गांधी को फर्स्ट क्लास से धक्‍का देकर बाहर फेंकना। पखाना साफ करने को लेकर कस्तूरबा धक्के देकर घर से बाहर निकालना, डरते-डरते ब्रिटिश हूकूमत के खिलाफ आपने जीवन की पहली स्पीच देना और अन्त में हे राम।

मैं एटनबरो के बारे में सोचने लगा। कितनी मेहनत की होगी इस फिरंगी आदमी ने। फिर किसी ने मुझे बताया कि यह फिल्म वह पिछले बीस साल से प्लान कर रहे थे। उन्होंने नेहरू तक से इस बारे में बात की थी। वह इंदिरा से भी मिले थे। पर इंदिरा ये फिल्म नहीं देख पाईं। इंदिरा गांधी की मौत उसी साल हुई थी। उनकी मौत भी गांधी की तरह हुई थी। एटनबरो को गांधी बनाने की प्रेरणा लुई फिशर की किताब से मिली थी। सोचता हूं उन्हें गांधी की इस जीवनी में नाटकीयता के वह सारे तत्व आसानी से मिल गए थे जो किसी भी फिल्म के लिए जरूरी होते हैं। फिर उन्होंने किरदार की तलाश की। उन्होंने नसीरूद्दीन को भी गांधी के किरदार के लंदन बुलाया था। वहीं  बेन किंग्स्ले से पहली मुलाकात के बाद ही वह समझ गए कि यह रोल उनके हाथ से गया। फिल्म में नेहरू हों या जिन्ना या फिर कस्तूरबा के रोल में रोहिणी। यह एटनबरो का कमाल था कि उन्होंने मरे हुए लोग एक बार फिर पर्दे पर जिन्दा कर दिया था। कई बार मुझे लग एटनबरो एक बेहतरीन पेंटर हैं जिन्होंने सिनेमा के बिम्बों का इस्तेमाल कर जीवन्त दृश्यों का एक ऐसा एलबम तैयार किया जो एक महान कलाकृति के रूप में दुनिया के सामने आई।

इस फिल्म को देखने के बाद गांधी मेरी जिन्दगी का एक हिस्सा हो गए। मुझे लगा इस आदमी पर जितना भी काम किया जाए वह कम है। तब मैंने गांधी को पढ़ना शुरू किया। और मुझे लगा इस आदमी को एक क्या 100 एटनबरो भी नहीं समझ सकते। हालांकि एटनबरो ने इस फिल्म के शुरू में ही स्वीकार किया है कि ‌किसी भी आदमी की जीवन की कहानी एक ही बार में पूरी तरह नहीं कही जा सकती। एटनबरो सच थे। और तब मैंने महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर काम शुरू किया। मैंने पाया कि महात्मा एक साथ दो जिन्दगियां जी रहे थे। एक जीवन सार्वजनिक था दूसरा आध्यात्मिक। इन दोनों जीवन में एक चीज समान थी और वह थी जिद। और अपनी जिद मनवाने के लिए वह कभी भी अपने प्राण संकट में डाल सकते थे। इसलिए कोई हैरत की बात नहीं कि फिरंगी उन्हें एक खतरनाक इंसान मानते थे। लेकिन व्यक्ति चाहे कितना महान हो मानवीय पैमाने पर वह अपने जीवन के विरोधाभासों, कमजोरियों और गलतियों से मुक्त नहीं हो सकता। 
एटनबरो नहीं रहे। मैं उनसे कभी नहीं मिला। लेकिन उनके जाने की खबर से कहीं भीतर बहुत दुखी और उदास हूं। आप मुझे दिलासा देने के लिए कह सकते हैं कि शरीर नश्वर है एटनबरो जो पीछे छोड़ गए वह शाश्वत। आप सही हो सकते हैं लेकिन मेरे पास अपनी पीड़ा से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।

Sunday, August 24, 2014

शुक्रिया दोस्तों


मुझे याद नहीं आता कि आखिरी जन्मदिन मैंने कब मनाया था। मैं हमेशा से इसी ‌सिद्धान्त को मानता आया हूं कि कोई भी जन्मदिन, जन्म की कम और मौत की याद ज्यादा दिलाता है। हम पीछे की तरफ देखते हैं, आगे की तरफ नहीं देखते। हर जन्मदिन का मतलब सिर्फ यह है कि आदमी एक साल और मर गया, जिंदगी का एक साल और कम हुआ। आप कहेंगे ये सोच नकारात्मक है। पर सच तो यही है। ऐसे में मुझे मनोवैज्ञानिक जुंग की बात याद आती है जो कहता था आदमी मौत से इतना घबरा गया है कि उसने मृत्यु को अपने चेतन मन से बाहर कर दिया है। वह भूल कर भी मौत की बात नहीं करता। मौत का ख्याल भी कभी मन में नहीं लाता। इसी डर से शायद हम मृत्यु को बाहर रखते हैं और जन्म को भीतर रखते हैं।
इसलिए कोई हैरत की बात नही कि मनुष्य ने जन्मदिन को उत्सव में बदलने की कला विकसित कर ली। एक ऐसा उत्सव जिसकी पूरी परिकल्पना झूठ पर खड़ी है। फिर भी रात बारह बजे से फेसबुक के इनबाक्स पर जन्मदिन की बधाइयां जिस रफ्तार से गिरनी शुरू हुईं मन का एक कोना कहीं भीग गया। इतने दोस्त और शुभचिन्तक कब बन गए पता ही नहीं चला। यह बेशक एक मीठा अहसास है। इसी मिठास के साथ मैं उन आपने तमाम जाने अनजाने मित्रों को साधुवाद देता हूं जिन्होंने मुझे मेरे जन्मदिन पर शुभकामनाओं के फूल भेंट किए।

पूत के पांव



करीब पन्द्रह साल हो गए। लखनऊ में वह रिपोर्टिंग के शुरूआती दिन थे। तब वह किंग जार्ज मेडिकल कालेज हुआ करता था। हम गांधी वार्ड को नर्क का द्वार कहते थे। वार्ड के मुख्य द्वार से निकलने से पहले आपको अक्सर थोड़ा ठहरना पड़ता था क्योंकि वहां से हर दस मिनट में किसी मरीज की लाश बाहर निकलती दिखती थी। मुझे गांधी वार्ड पर एक लाइव रिपोर्ट तैयार करनी थी। हमारे फोटोग्राफर संदीप रस्तोगी ने भी तब पत्रकारिता की शुरूआत ही की थी। हम दोनों अंदर पहुंचे। रेजिडेंट डाक्टर मरीजों को देख रहे थे। और तभी हमसे बात करते-करते एक रेजिटेंट ने मरीज के बेड पर अपना एक पांव रख दिया। संदीप से तब मेरी सिर्फ आंखों आंखों में बात हुई थी। सीधे फोटो हो नहीं सकती थी। सो वह आगे बढ़ गया और दूसरी तरफ पड़े मरीजों की फोटो खींचने लगा। और वही से घूम कर पीछे से उसने यह तस्वीर ‌क्लिक की।
डॉक्टरी पढाई का पहला कदम मरीज के बिस्तर पर- जगरण में इस हैडिंग से खबर छपी तो अगले दिन हंगामा मच गया। किंग जार्ज के  रेजिडेंट डाक्टरों ने तो जागरण पर हल्ला बोलने की तैयारी कर ली थी। इत्तेफाक से हमारे तेजतर्रार संपादक विनोद शुक्ल को किंग जार्ज मेडिकल कालेज जाना था। उनकी कार पर कहीं जागरण का स्टीकर लगा था। डाक्टरों ने गाड़ी में तोड़फोड़ शुरू कर दी। किसी तरह वह बच कर वापस आए। हमे लगा कि अब गए काम से। विनोद जी के गुस्से से हम सब वाकिफ थे। संदीप तो बेतरह डर गया था। मुझे अपने कमरे में बुलाया। बोले-तुम लोग सुधरोगे नहीं। फिर खूब जोर से हंसे। बोले- मुझे ऐसे ही लड़के चाहिए। अपने जैसे दो तीन लड़के और ले आओ।
संदीप ने १९९९ की ये फोटो आज फेसबुक पर शेयर की तो पुरानी कई यादें ताजा हो गई। संदीप इस फोटो के लिए १५ साल बाद एक बार फिर बधाई।

कोल्हू के बैल



राजेन्द्र यादवजी के जाने के बाद साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ना छूट ही गया था। लखनऊ की डाक से अभी 'मंतव्य' का पहला अंक मिला। सबसे पहले किताबनुमा पत्रिका को बीच से खोल कर मैं छपे हुए शब्दों की स्याही की खुशबू अपने भीतर तक ले गया। नई किताब हाथ में आने के बाद मैं अक्सर ऐसा करता हूं। हर नई किताब या पत्रिका का अपनी अलग खुशबू होती है। कवर पेज पर लगी बेहतरीन और विचारोत्तेजक तस्वीर को काफी देर तक देखता रहा। रस्सी पर चल रहा नट अपने कंधे पर एक गधा ढो रहा है। गधे के आंख पर पट्टी बंधी हैं और नट के पांव में घुंघरू। सोचने लगा नट ने गंधे की आंख पर पट्टी क्यों बांधी होगी?
यह तस्वीर देख कर मुझे कोल्हू के बैल की एक दिलचस्प कहानी याद आ गई। एक व्यापारी ने अपनी दुकान के पीछे कोल्‍हू लगा रखा था। कोल्हू का बैल बिना किसी के हांके चल रहा था। बैल की आंखों पर पट्टी बंधी थी। एक मुसाफिर यह  मजेदार नजारा देखकर रुक गया। उसने व्यापारी से पूछा-बड़ा सीधा है तुम्हारा ये बैल। तुम इधर दुकान पर बैठे हो और वह बिना किसी के हांके चल रहा है। व्यापारी ने कहा इसीलिए तो उसकी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। बैल को पता ही नहीं चलता कि उसे कोई देख भी रहा है। मुसाफिर ने कहा वो तो ठीक है लेकिन अगर बैल चलते-चलते रूक कर सुस्ताने लगा तो तुम्हें कैसे पता चलेगा? व्यापारी ने कहा-उसका भी इंतजाम मैंने कर रखा है। ध्यान से देखो मैंने बैल के गले में घुंघरू बांध रखे हैं। वह जैसे ही रुकता है मुझे पता चल जाता है और मैं उसे हांक देता हूं।  मुसाफिर भी हार मानने वाला नहीं था। उसने कहा अगर बैल खड़ा रहकर गर्दन हिलाता रहे तब क्या करोगे? व्यापारी ने कहा-महोदय आप अपना रास्ता देखिए। इस तरह के आइडिया देकर मेरे सीधे-सादे बैल को चालाकी मत सिखाइए।
व्यापारी के ये बैल मुझे हमेशा से सरकारी नौकरों का स्मरण कराते रहे हैं। खैर पन्ने पलट रहा हूं। हरे प्रकाश उपाध्यायजी ने बड़ी खूबसूरती से इस पत्रिका को सजाया है। सामग्री के चयन में भी काफी मेहनत की है। देख रहा हूं हरे प्रकाश ने साहित्य में मफियावाद कड़ी चुनौती दी है। संपादन व चयन चुस्त है। कंटेंट भी सराहनीय है। फिलहाल तो इस खूबसूरत पत्रिका के लिए उपाध्याजी और उनकी टीम को मेरी ढेर सारी बधाई।

Friday, August 1, 2014

शुक्रिया श्रीमती एलन


शिमला की उस सकरी सड़क पर मैं उस महिला को झाड़ू लगाते हुए देख रहा था। ‌शिमला की सड़कों पर न कूडा होता है और न धूल मिट्टी। ज्यादा से ज्यादा देवदार की पत्तियां सड़क पर बिखरी होती हैं। फिर शिमला नगर निगम शहर की खूबसूरती बनाए रखने के लिए साफ सफाई पर ज्यादा ध्यान देती है। शिमला निगर निगम के कुछ कायदे बड़े दिलचस्प हैं। मसलन अगर आप अपने पालतू कुत्ते के गले में पट्टा नहीं बांधते तो आपको भारी भरकम जुर्माना देना पड़ सकता है। अगर आपने अपने घर में २४ घंटे से ज्यादा कूड़ा रखा तो आपको जुर्माना देना होगा। खैर मैं उस सफाई कर्मी की बात कर रहा था जो अल सुबह लंबे हत्‍थ झाड़े से सड़क साफ कर रही थी। वह अपने काम को बेहद पेशेवर ढंग से अंजाम दे रही थी। ऐसे प्रोफेशनल और कर्मठ सफाईकर्मी मैंने जिनेवा की सड़कों पर देखे थे। कैसे वहां महिला सफाईकर्मी कार से उतरती है। चेंज रूम में जाकर अपनी वर्दी पहनती है और अपने काम में जुट जाती है। पूरी गरिमा और सम्मान के साथ। हमारे साथ सबसे बड़ी ‌दिक्कत यही है कि हम जीवन की इस गरिमा को नकार कर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को ज्यादा तरजीह देते हैं।
खैर मैं नहीं जानता की लंबे हत्‍थ झाडू का आविष्कार किसने किया। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूं भारत के पहले अमेरिकी राजदूत एल्सवर्थ बंकर की पत्नी हैरिएट एलन का जिन्होंने भारत में सफाईकर्मियों को छोटे झाडू से निजात दिलाई। एलन बेहद संवेदनशील महिला थीं। दिल्ली आईं तो उन्होंने देखा कि यहां महिलाएं छोटे झाडू से बैठ कर सड़क साफ करती हैं। उन्हें जीवन भर छोटी सी झाडू से झुक कर काम करना पड़ता है। इससे उनकी कमर झुक वक्त से बहुत पहले झुक जाती है। एक इतवार जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें प्रधानमंत्री आवास चाय पर बुलाया। वह बुजुर्ग महिला अपनी बड़ी सी कैडिलक कार से आईं। अपनी कार की ‌डिग्गी में वह लम्बा झाड़ू लेकर आईं थीं। उन्होंने पीएम निवास के सामने सड़क पर लम्बे हत्‍थे की झाडू से सफाई करवायी। नेहरू इस डैमो से बहुत प्रभावित हुए। वह भी संवेदनशील राजनेता थे। उन्होंने तुरंत दिल्ली नगर निगम व नगर पालिका में लंबे हत्‍थे वाले झाडू के इस्तेमाल करने का इंतजाम करवा दिया। बाद में यह व्यवस्‍था पूरे भारत में लागू हो गई। 
हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं के लिए ये बेशक एक प्रेरणादायक कहानी हो सकती है। बड़ी बड़ी योजनाओं पर दिमाग खपाने के बजाए वह रोजमर्रा के जिन्दगी से प्रेरणा लेकर बड़े काम कर सकते हैं।


Thursday, July 24, 2014

नौकरशाहों के जूते के नीचे लोकतंत्र


हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति अरूण दिवाकर नाथ वाजपेयी अपने हरदोई के हैं। उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की डिग्री ली। लम्बा डील डौल, लम्बी श्वेत-श्याम दाढ़ी, तेज से भरी आकर्षक आंखें। पहली दफा उन्हें देखा तो यह कहे बिन नहीं रह पाया कि आपके व्यक्तित्व में जबलपुर झलक रहा है। वह मेरा इशारा समझ कर खूब जोर से हंसे। बोलो-जबलपुर में रहकर आप ओशो से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। खैर ब्यूरोक्रेसी एंड डेवलपमेंट विषय पर आयोजित सेमिनार में मुझे बुलाया गया था। मुख्य अतिथि नागालैंड के पूर्व गवर्नर डा. अश्विनी कुमार थे जो हिमाचल विवि के ही प्रोडक्ट हैं। आमतौर पर मैं आकदमिक किस्म के सेमिनारों में जाने से बचता हूं। लेकिन कुलपति साहब का विशेष आग्रह था। कार्ड में नाम भी छप गया था। सो जाना पड़ा। वक्ताओं में कई आईएएस, आईपीएस मौजूद थे। मैंने अपने व्याख्यान के शुरू में ही कह दिया था कि वाइसचांसलर साहब ने मुझे बुलाकर बहुत जोखिम भरा काम किया है। क्योंकि नौकरशाहों के बारे में मेरा अनुभव व मेरी राय कतई अच्छी नहीं। मनरेगा हो स्कूलों में सिलाई मशीन योजना। नौकरशाहों ने कैसे इन अच्छी योजनाओं को लूटखसोट का केन्द्र बना दिया।
शुरूआत मैंने रोम से की। लोकतंत्र का जन्‍म एथेंस में हुआ था। लोकतंत्र एक ग्रीक धारण है। लेकिन इतिहास कहता कि जिस आदमी लोकतांत्रिक मूल्‍यों के विचार को जन्‍म दिया था उसी को एथेंस के लोगों ने जहर देकर मार डाला। लेकिन अगर आप रोम के इतिहास को बारीकी से पढ़ें तो पाएंगे सुकरात को एथेंस के लोगों ने नहीं, एथेंस की ब्‍यूरोक्रेसी और सत्ता ने मारा था।
उसी रोम में एक मशहूर दार्शनिक हुआ है काटो। उसे काटो द यंगर भी कहते थे। उसका जन्म ईसा मसीह के जन्म से कोई ९५ साल पहले हुआ था।  देखिए सदियों पहले ब्यूरोक्रेसी के बारे में उसकी क्या राय थी। उसने कहा था, ‘एक नौकरशाह सबसे घृणित व्यक्ति होता है। हालांकि गिद्धों की तरह उसकी भी जरूरत होती है, पर शायद ही कोई गिद्धों को पसंद करे। गिद्धों और नौकरशाहों में अजीब तरह की समानता है। मैं अभी तक किसी ऐसे नौकरशाह से नहीं मिला हूं, जो क्षुद्र, आलसी, क़रीब-क़रीब पूरा नासमझ, मक्कार या बेवकूफ़, जालिम या चोर न हो। वह ख़ुद को मिले थोड़े-से अधिकार में ही आत्ममुग्ध रहता है, जैसे कोई बच्चा गली के कुत्ते को बांधकर ख़ुश हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर कौन भरोसा कर सकता है?’
मैंने पैनल में साथ बैठे नौकरशाहों से माफी मांगते हुए साफ कहा कि अकादमिक बहस के लिए सौम्य भाषा मेरे पास नहीं। मेरे शब्दकोष में ऐसे ही तीखे शब्द हैं जैसे रोमन दार्शनिक काटो के पास थे। मुझे अच्छा लगता है जब अपने अखबार में टाइम्स आफ इंडिया आईएएस के लिए बाबू शब्द का प्रयोग करता है।
 आप देखिए सदियों पहले ब्यूरोक्रेसी के बारे में जो राय दार्शनिकों की थी उसमें आज भी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। वह रोम हो या भारत। दरअसल सिविल सर्विसेज को ब्रिटिश हुकमत भारत ले कर आई। उनका मकसद आईएएस के जरिए भारतीय गुलामों पर राज करना था। और वह इसमें कामयाब भी हुए।  आजादी के बाद हमारे आईएएस इस मानसिकता से उबर नहीं पाए। वह खूद को उसी एलीट क्लास में रखते हैं और जमीन और उसकी जरूरतों से दूर चले जाते हैं। और सरकार ने उन्हें एक खास तरह की इम्युनिटी दे रखी है जिसका वह रिटायर होने तक फायदा उठाते हैं। मजे की बात है कि खुद ब्रिटेन में आज नौकरशाही केवल महारानी के दरबार तक महदूद है।  वहां पब्लिक से टेक्नोक्रेट और विशेषज्ञ डील करते हैं। करीब करीब सभी ‌‌विकसित देशों में यही चलन है। लेकिन आपनी जोड़तोड़ की राजनीति में मशगूल हमारे नेताओं के पास जनता के लिए वक्त नहीं। उन्होंने हुकूमत के सारे अधिकार नौकरशाहों को दे रखे हैं। और जब सत्ता संभालते मोदी ने ब्यूरोक्रेट्स के पंख खोलने की बात की तो मैं समझ गया इन नौकरशाहों के भरोसे भारत में अगले पांच सालों में अच्छे दिन नहीं आने वाले।

Wednesday, July 23, 2014

तुम निर्भया हो तो क्या हुआ



तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
रहती हो
दरिंदों के शहर में
यहां 170 फीट गहरे हैंडपम्प से
पानी की जगह निकलता है लाल खून
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
21 करोड़ की आबादी में
किसी अस्पताल
किसी स्कूल की चहारदीवारी में
किसी भूखे भेड़िए की तरह
दरिंदे तुम्हारे जिस्म को नोचेंगे
चीखती रहोगी तुम
रात के सन्नाटे में
तुम्हें कोई बचाने नहीं आएगा
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
तुम डरोगी जब तक तुम्हारी आत्मा
तहस नहस न हो जाए
वो तुम्हारी नंगी लाश पर चादर डालने से पहले
तस्वीरें खींचेंगे फिर
फेसबुक पर शेयर करेंगे
तुम्हें झूठे नाम देंगे
तुम्हें दूसरी निर्भया कहेंगे
चौराहे पर तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर रखकर
सूखी मोमबत्तियां जलाएंगे
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
भेडियों के इस शहर में
तुम्हें डरना होगा
डर कर रहना होगा
तुम अकेली हो
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
वो कल तुम्हें भूल जाएंगे
और अपने गुस्से को समेट कर
रख लेंगे
किसी तीसरी निर्भया के लिए !


 

Wednesday, July 16, 2014

चर्चिल के गाल पर बेटियों का तमाचा


शिमला का ऐतिहासिक पीटरहाफ कभी ब्रिटिश वायसरायों और गर्वनर जनरलों का शानदार घर हुआ करता था। वे यहां गर्मियां बिताते थे। आजादी के बाद यह महल पंजाब हाईकोर्ट में तब्दील हो गया। कहते हैं महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे पर मुकदमा यहीं चला था। हिमाचल जब अलग राज्य बना तो इस भवन को राजभवन बना दिया गया। लेकिन यह भवन इतना बड़ा था कि बाद के देसी गर्वनरों ने इसमें रहने से ही इंकार कर दिया। कुछ लोग कहते हैं कि एक गर्वनर को तो यहां रात में वायसराय का भूत सताने लगा था। इसी दहशत में यहां बड़ी भारी आग लग गई थी। और तब इस महल को ठीक ठाक करके हिमाचल के पर्यटन विभाग ने महंगे होटल में तब्दील कर दिया। जिस घर में कभी भारत के गर्वनर जनरल रहते हों उस घर में रात बिताने का अपना अलग और रोमांचक अनुभव है। होटल में दाखिल होते ही आपको इसकी भव्यता का अंदाजा आसानी से हो जाएगा जो बेशक दुनिया के बड़े से बड़े सात सितारा होटल में संभव नहीं है।
खैर इस आलीशान महल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। मेरी दिलचस्पी सिर्फ उन बच्चों में थी जिन्होंने रात दिन मेहनत कर मेरिट में अपनी जगह बनाई। मुझे शिमला आकर पता चला कि देश में प्रतिभाओं को सम्मानित करने की परम्परा सबसे पहले 2002 में जिस अखबार ने शुरू की, वह अमर उजाला था। बाद में इसी आइडिया को दूसरे अखबारों ने यूपी व अन्य राज्यों में अपनाया। खैर यह भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात नहीं। अहम बात यह है कि मीडिया समूह इन आयोजनों के जरिए सामाजिक सरोकारों से सीधे जुड़ रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है। बिनोवा भावे ने प्रतिभा की बड़ी सटीक व्याख्या की है। प्रतिभा का मायने है बुद्धि में नयी नयी कोपलों का फूटते रहना। नई कल्पना, नया उत्साह, नई खोज और नई स्फूर्ति। ये सब प्रतिभा के लक्षण हैं। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के हाथों मैडल पा कर हिमाचल के सुदूर गांवों से आए बच्चों के चेहरों पर मैंने आज प्रतिभा की यही चमक, यही उत्साह और स्फूर्ति देखी। एक गरीब बच्ची ने तो मुख्यमंत्री  को बीच रास्ते में रोक लिया। अपने असहाय पिता की ओर इशारा करते हुए बोली-देखिए मेरे पापा चल फिर नहीं सकते। उनके पास मुझे आगे पढ़ाने के लिए पैसे नहीं है। मुख्यमंत्री ने अपने सक्रेट्री से कहा कि इस बच्ची और उसके पिता को सचिवालय ले आओ। मुख्यमंत्री के काफिले में ही ये बिटिया सचिवालय गई। मुख्यमंत्री ने फौरी राहत के लिए उसे दस हजार रुपए दिए और उसकी आगे की पढ़ाई की निजी तौर पर जिम्मेदारी ले ली।  यह सब मेरी आंखों के सामने हुआ। मैं गांव की उस बहादुर लड़की का हौसला देखकर दंग था। आज देश की हर लड़की को इसी तरह के हौसले की जरूरत है। बेटियां पढ़ेंगी तभी आगे बढ़ेंगी। और अपना हक हासिल करेंगी।

लौटते वक्त में पीटरहाफ की शानदार इमारत को देख रहा था। बेशक इन बच्चों को सम्मानित करने के लिए हमने एकदम सटीक जगह का चुनाव किया था। आत्माओं में मुझे यकीन नहीं लेकिन वायसराय की अगर रुहें यहां होगी तो यह देखकर बेशक चकित होंगी कि उनके छोड़े भारत में दूध बेचने वाले, राजगीर, मजदूर और गरीब किसानों की बेटियां कामयाबी के किस शानदार सफर पर आगे बढ़ रही हैं। मुझे चर्चिल भी याद आया जो कहा करता था-भारत के लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि वे देश और आजादी को संभाल सकें। बेटियों की ये कामयाबी चर्चिल के मुंह पर एक करारा तमाचा है।


  

Friday, July 4, 2014

गालिब की डायरी


शिमला के हसीन मौसम में अपने प्यारे शायर मिर्जा गालिब की डायरी दस्तम्बू पढ़ रहा हूं। देख रहा हूं मिर्जा 1857 के बागियों से किस कदर नफरत करने लग गए थे। उन कम्बख्तों ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया था। दरअसल उन्होंने इंसाफपंसद और सितारों जैसी चमक रखने वाली मल्लिका विक्टोरिया के सम्मान में कसीदा लिखा था। जो दिल्ली से मुम्बई होता हुआ लंदन पहुंचा था। उन्हें उम्मीद थी कि मल्लिका उन्हें सोने के गहनों के अलावा मेहरखान की उपाधि से नवाजेंगी। साथ ही जिन्दगी भर घर बैठे तनख्वाह देंगी जिसे अंग्रेजी में पेंशन कहते हैं। लेकिन बुरा हो इन बागियों का। एहसान फरामोश और गद्दार सिपाहियों ने इंकलाब लाकर सब चौपट कर दिया।
पता नहीं क्यों ये सब पढ़कर गालिब के लिए गुस्सा नहीं आया। हर शायर या कवि से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इंकलाब का झंडा बुलंद करे। उसकी अपनी जिन्दगी है। अपना फैसला है।
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
मिर्जा गालिब का यह शेर बचपन से सुनता आ रहा था। इतना तो अंदाजा था कि गालिब शराब के बेइंतिहा शैकीन रहे होंगे। बाद में यह भी समझ में आ गया कि वह हमारे जफर भाई और तमाम तरक्कीपसंद मुस्लिम दोस्तों की तरह अधूरे मुस्लिम संस्कारों और धार्मिक बंधनों से आजाद थे। अपनी दिलचस्प डायरी दस्तम्बू में उन्होंने लिखा कि रात के वक्त वह सिवाए विलायती शराब के और कुछ नहीं पीते थे। जिस दिन नहीं मिलती थी उन्हें नींद नहीं आती थी। 1857 के उस दौर में दिल्ली में अंग्रेजी शराब बला की महंगी हो गई थी और हमारे गालिब साहिब फक्कड़ थे। ऐसे में उन्हें महेश दास नाम का एक दोस्त मिल गया। देखिए गालिब साहेब उनके लिए क्या लिखते हैं- 'अगर ईश्वर से प्रेम करने वाला और दूसरों पर लुटाने वाला समन्दर जैसे दिल वाला महेश दास देशी शराब जो रंग में विलायती शराब की तरह और खुशबू में उससे ज्यादा बेहतर शराब मेरे लिए नहीं भेजते तो न जाने मेरा क्या होता। मैं जिन्दा न रहता और इसी प्यास में अल्लाह को प्यारा हो जाता। ...ज्ञानी महेश दास ने मुझे वह अमृत मुहैया करा दिया है जिसे सिकन्दर ने अपने लिए खोजा था।'
गदर के वक्त मुसलमानों को वैसे भी शक की नजर से देखा जाता था। एक अंग्रेज अफसर ने गालिब को बुलवा लिया। टूटी फूटी हिन्दी में पूछा- तुम मुसलमान है? गालिब हंस कर बोले-आधा। अंग्रेज अफसर हैरत में पड़ गया। बोला-ये क्या बात है। मिर्जा बोले-शराब पीता हूं सुअर नहीं खाता। अफसर ने हंस कर उन्हें छोड़ दिया।
यह सब पढ़कर मुझे एक और किस्सा याद आ गया जो फिराक गोरखपुरी साहेब सुनाया करते थे। यह किस्सा मैंने इलाहाबाद में फिराक के दोस्त अकील रिजवी साहेब से सुना था। गालिब से एक मौलाना ने कहा-शराब पीना गुनाह है। गालिब का सेंस आफ ह्यूमर गजब था। वह बोले-पीएं तो क्या होता है? मौलाना ने कहा-सबसे बड़ी बात यह कि उसकी दुआ कबूल नहीं होती। मिर्जा बोले आप जानते हैं शराब कौन पीता है? अव्वल तो वह कि जिसके सामने ओल्ट टाम (ब्रिटिश राज में मशहूर शराब) की बोतल बा-सामान सामने हा‌जिर हो। दूसरे जिन्दगी बे-फिक्र हो और तीसरी सेहत अच्छी हो। अब आप फरमाइए जिसके पास ये तीनों चीजें हों उसे और क्या चाहिए जिसके लिए वह दुआ करे?

Monday, March 3, 2014

लुगानो यानी स्वर्ग का एक शहर

मेरी यूरोप डायरी-7

लुगानो स्टेशन पर उतरा तो लगा किसी हिल स्टेशन की दोपहर है। हवाओं में खास तरह की ठंडक है। सांस लीजिए तो बर्फ अंदर तक अटक जाती है। वह बर्फ नहीं सिर्फ उसका अहसास है। यूरो रेल का प्लेटफार्म किसी एयरपोर्ट के लाउंच जैसा साफ सुथरा है। बनावट में ये स्टेशन हिन्दुस्तान के किसी सामान्य रेलवे स्टेशन से अलग नहीं है। लेकिन भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं। दूर दूर तक बमुश्किल दो चार लोग नजर आ रहे हैँ। चारों तरफ एक अजीब तरह का सन्नाटा पसरा है। कहीं कोई आवाज नहीं शोर नहीं आवाज नहीं। ट्रेन आगे सरक कर धीरे-धीरे आंखों से ओझल हो गई। सामने पहाड़ दिखने लगे।
मैं पलटा तो पीछे अनादि खड़ा था। जैसा कि मैंने बताया था वह यूनिवर्सिटी ऑफ लुगानों से पीजी कर रहा है। शायद कंप्यूटर सांइस में। यहां हास्टल में रहता है नहीं शायद ‌किराए के मकान में। अनादि ने बताया कि यहां मकान महंगे नहीं है। दो तीन स्टूडेंट मिल कर एक फ्लैट ले लेते हैँ। काम चल जाता है। मैं अनादि को वह सामान देता हूं जो उसकी मां ने उसके लिए बहुत प्‍यार से भेजा था।। मालपुआ, गुझिया, मठरी यही सब कुछ होगा उस डिब्बे में।  
हम सीढ़ियों से चढ़कर उसके रूम तक पहुंचते हैं। उसे रूम कहना गलत होगा। यह एक हवादार घर है। खुला खुला सा। सामने शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं। और खिड़कियों के उस पार प्राकृतिक सौंदर्य। पर्वत, झरने, नदी, पेड़, हरियाली सब कुछ। उनके इधर इस पार खूबसूरत पुरानी इमारतें, चौड़ी सड़कें, पार्क और सलीके से बसे लोग। अनादि बताता है कि यहां का जीवन कितना शांत और ठहरा हुआ है। लेकिन जिन्दगी ऐसी नहीं है। जिन्दगी झरने से बहती हुई है। अगर आपकी जेब में स्विज फ्रेंस हैं तो सारे ऐश्‍वर्य आपके लिए हैँ। दिलचस्प है कि यूरोप में होने के बावजूद स्वीटजरलैंड में यूरो डालर नहीं चलता। क्योंकि तकनीकी तौर पर स्वीटजरलैंड यूरोपीयन यूनियन का हिस्सा नहीं। पूरे स्वीटजरलैँड में स्विज फ्रेंस नाम की करेंसी चलती है। अनादि अपने आधुनिक किचन में जाकर जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार करता है क्योंकि हमें अभी बाहर घूमने के लिए निकलना है।
 लुगानो स्वीट्जरलैंड का एक मशहूर पर्यटन स्‍थल है। चारों तरफ से पहाडों से घिरा एक खुशनुमा शहर। करीब आधा दर्जन से ज्यादा म्यूजियम और पुरानी ऐतिहासिक इमारतें इस खामोश शहर की पहचान हैं। कैंटोनल डी आर्ट म्यूजियम में बाइबिलिक आर्ट की गजब चित्रकारी हैँ। ओक की लकड़ी पर ये ऑयल पेंटिंग शायद मि‌मलिंग हैंस की है। सूली पर चढ़ाने से पहले ईसा मसीह को जनता के दर्शन के लिए लाया जा रहा है। अद्भुत....पहली सदी के राजनीतिक महौल की एक जीवंत तस्वीर। शायद पन्द्रहवीं सदी की। ऐसी कई और दुर्लभ तस्वीरें हैँ यहां। एक मूर्ति यहां 16वीं सदी के ईसाई संत ऑथानासियुस की है। उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा है। उन्हें जब शहर की एक मशहूर वेश्या से मिलवाया गया तो वह जोर जोर से रोने लगे। पूछा गया कि क्यों रो रहे हैं आप? संत बोले-मुझे दो बातों को लेकर गहरा दुख हुआ। एक तो यह कि इस वेश्या का कोई भविष्य नहीं। और दूसरी बात यह कि मैं ईश्वर को हासिल करने के लिए इतनी कोशिशें नहीं करता जितनी ये और बदचलन मर्दों को खुश करने के लिए करती है। 

लेक लुगानों का खास आकर्षण है। इस झील का विस्तार कई किलोमीटर तक है। लुगानों के पश्चिम में एक टूरिस्ट स्पॉट है गेनड्रिया। बस का ड्राइवर हमें उस पहाड़ी हाईवे पर उतार देता है। हाईवे पर एक तरफ चट्टाने हैं, दूसरी तरफ नीचे बहुत गहराई में लम्बी झील। नीचे नीली झील के किनारे खूब सारे झोपड़नुमा घर बनें हैं। वीकएंड में यहां लोग छुट्टी मनाने आते है। हम झील के किनारे घूम रहे हैं। तस्वीरें खींच रहे हैं। ऊपर हाईवे पर आए तो वापसी की कोई बस नहीं दिख रही। हम पैदल आगे बढ़ते गए। एक टनल के नीचे अकेला पुलिस वाला दोनों तरफ से आने वाली कारों की चेकिंग कर रहा था। यह स्विट्जरलैंड और इटली का बार्डर है। पुलिस वाला बताता है कि इटली में शराब, सिगरेट और मांस सस्ता है। इटली से आने वाला हर वाहन चालक रुककर पुलिसवाले को बताता है कि उसके पास यह सब नहीं है। कार के अंदर सरसरी निगाह डालकर वह उसे जाने देता है। जिस वाहन पर उन्हें शक होता है उन्‍हें किनारे रोक कर वे ठीक से तलाशी लेते हैं। पूरी शालीनता से।  लौटते वक्त हमें कोई बस नहीं मिलती। हम पैदल लुगानों की तरफ बढ़ जाते हैं। इशारा करने पर एक दम्पत्ति अपनी कार रोक देते हैं। पूछते हैं यू आर इंडियन्स? हम हां में सिर हिला देते हैं। हिन्दू ऑर मुस्लिम। हम दोनों एक दूसरे का चेहरा देखने लगते हैं। अनादि धीमें से हिन्दू बोलता है। और कार का दरवाजा हमारे खुल जाता है और हम आधे घंटे के सफर के बाद लुगानों सिटी पहुंच जाते हैं। अनादि बताता है कि आतंकवाद खासकर 9/11 की घटना के बाद यहां के लोग डरे हुए हैं। यहां कोई पाकिस्तानी या किसी भी मुसलमानों को लिफ्ट नहीं देता। सोच कर अफसोस होता है। चंद अहमक लोग कैसे पूरी कौम को बदनाम कर देते हैं।
जारी

वायलन बजाने वाले भिखारी और काल्विन कालेज

मेरी यूरोप डायरी-5

कल ही तय हो गया था कि आज शहर घूमना है। इलसा तीन दिन से शहर दिखाने के लिए पीछे पड़ी थी। मैं ही लगातार टाल रहा था। सुबह आकर होटल के रिसेप्‍शन पर डेरा डाल दिया। रिेसेप्‍शन से फोन आया कि नीचे इलसा मेरा इंतजार कर रही है। मैँ बस नहा के निकला ही था। घड़ी देखी ठीक दस बज रहे थे। मैं जानता हूं इलसा वक्त की पक्की है। मुझे कई बार लगा कि स्वीट्जरलैंड की सारी घड़ियों में वक्‍त इलसा ही सेट करती है। न एक मिनट इधर न उधर। समय के पाबंद लोगों से मुझे बहुत घबराहट होती है। लगता है कि किसी फौजी कैम्प में हूं। मैं उससे कहता कि तुम जरूर हिटलर के खानदान की होगी। हालांकि वह मूलतः जर्मन है लेकिन हिटलर का नाम सुन कर भड़क जाती। उसे हैरत होती है कि हम हिन्दुस्तानी कितनी सहजता से हिटलर का नाम ले लेते हैं।
मैँ तैयार होकर नीचे आता हूं तो देखता हूं वह गुस्से में बैठी है। सोचता हूं दुनिया की सारी लड़कियां एक जैसा गुस्सा क्यों दिखाती हैं। सफाई देने के बजाए मैं ब्रेकफास्ट के लिए होटेल के रेस्‍त्रां की तरह बढ़ जाता हूं। वह पीछे से अंग्रेजी में कहती है-तुम नहीं सुधरोगे। इलसा  की बेतकल्‍लुफी मुझे पसंद है। कन्वेशन से पहले ही वह भारत में फोन से मेरे सम्पर्क में थी। प्रायोजक संस्‍था ने उसे हमारी देखभाल के लिए नियुक्त किया था। हमउम्र थी इसीलिए औपचारिकताएं बहुत जल्द विदा हो गई थीं। मुझे शहर घुमाना उसके शेड्यूल लिस्ट में नहीं था। लेकिन एक चीज जो हमारे शेड्यूल में पहले दिन ही शामिल हो गई थी वह थी- दोस्ती।
ब्रेकफास्ट के दौरान मैंने उसे दोस्ताना लिहाज में हिदायत दी कि वह मुझसे किसी टुरिस्ट गाइड की तरह बर्ताव न करे। वैसे भी यहां मेरे शरीर की घड़ी का वक्‍त कलाई में बंधी घड़ी से मैच नहीं कर रहा। भोर में चार बजे तो नींद आती है। आधी रात खिड़की से देखता हूं कि सड़क पर क्या तमाशा हो रहा है। मैंने उसे उस रात सड़क पर चल रहा प्रेमी-प्रेमिका के झगड़े का किस्सा सुनाया। वह खूब हंसी। उसे भरोसा नहीं हुआ। उसने कहा-यू आर लायिंग। मैंने कहा-नहीं सच वह लड़की उसे बार-बार छू रही थी और लड़का बार-बार बोल रहा था-डोंट टच मी। वह खूब हंसी और इस हंसी में उसका गुस्सा जाने कहां गिर गया।   

हम टहलते हुए कार्नवीन मेट्रो स्टेशन पहुंचते हैँ। सिर्फ दो सड़कें पार करनी पड़ीं। इसके सामने हमें ट्राम पकड़नी है। इस इंटरचेंज स्टेशन पर हर सुबह वायलन वादकों का झुंड दिखता है। आज भी दिख रहा है। सब के सब लम्बे पुराने ओवर कोट में हैं और हाथ में वायलन है। मैँ इलसा से पूछता हूं ये ढेर सारे वायलन वादक कौन हैं? वह इशारे से कहती है अभी पता चल जाएगा। हम शहर की तरफ जाने वाली ट्राम में बैठ जाते हैं। अंदर से ट्रामें हमारी दिल्ली की मेट्रो जैसी हैं। लेकिन भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं है। कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों के बाहर पूरा शहर साफ दिखता है। मैं खिड़की से बाहर देखने लगता हूं। ड्राम में वायलन की एक धुन सुनाई पड़ती है। मुझे पता नहीं चला ये वायलन बजाने वाले कब ट्राम में आ गए। वायलन की धुन सुखद लगती है। लेकिन मैं देखता हूं बाकी यात्री अपने में गुम हैं। थोड़ी देर बाद वह वायलन बजाना बंद करके अपने ओवरकोट की जेब से एक गिलास निकलता है। यात्री उसमें सिक्के डालने लगते हैं। मैं इलसा को बताता हूं-ऐसा मैंने अपने देश में पूर्वांचल और नार्थ ईस्ट की ट्रेनों में खूब देखा है। कभी कोई बांसुरी बजा कर पैसा मांगता है कभी इकतारा बजा कर। वह वायलन वादक मेरे पास आता है। मैं भी अपनी जेब से एक सिक्का निकाल कर उसके गिलास में डाल देता हूं। उस वक्त ध्यान नहीं रहता कि वह सिक्का कितने का था। बाद में याद आया वह स्विज फ्रेंस था। एक यूएस डालर के बराबर। यानी करीब पचास रुपए। ईनाम थोड़ा महंगा हो गया। बाद में सोचता हूं।
किसी भी दूसरे यूरोपीय शहर की तरह जिनेवा शहर को भी हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं। एक नया और दूसरा पुराना। जाहिरी तौर पर पुराना शहर ज्यादा खूबसूरत है। इमारतों में प्राचीन रोमन वास्तु ‌शिल्प दिखता है जो मैंने और भी कई यूरोपीय देशों में देखा है। ये खामोश इमारतें आपको खास तरह से आकर्षित करती हैं। इलसा ने जब मुझे काल्विन कालेज की इमारत दिखाई तो मैं चौंका। एक तन्हा सी खामोश इमारत। मैंने सानिया को बताया कि एक काल्विन कालेज हमारे लखनऊ में भी है। इस बार चौंकने की बारी इलसा की थी। क्योंकि जान काल्विन जिनेवा की रूह हैं। इस शहर को बसाने में और यहां के लोगों में रूहानियत भरने में जॉन काल्विन का बड़ा नाम हैं। वह जिनेवा के आध्यात्मिक गुरु थे जैसे हमारे यहां कभी गौतम बुद्ध या महावीर रहे हों। ऐसे जॉन काल्विन का लखनऊ से भी कोई रिश्ता हो सकता है क्या? मैं मजा ले रहा था। क्योंकि मैं जानता था कि लखनऊ में गोमती नदी के ठीक किनारे 'कॉल्विन ताल्लुकेदार कॉलेज' की नींव 11 मार्च 1891 को अवध और आगरा प्रान्त के मुख्य आयुक्त सर आक्लैन्ड काल्विन ने रखी थी। तब इस कालेज में केवल रजवाडों और ताल्लुक़ दार के बच्चे ही दाखिला ले सकते थे। इसमें दाखिला लेने की अकेली और आखिरी शर्त थी कि वह राजघराने या किसी ताल्लुकदार का बेटा हो या उनका गोद लिया हुआ हो। यह संस्था विशुद्ध रूप से पैसे वाले बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा दिलाने के लिये स्थापित की गयी थी। लेकिन इलसा अंत तक इस बात पर डटी रही कि ब्रिटिश कमिश्नर आक्लैंड का खानदान कहीं न कहीं से हमारे जॉन काल्विन से जुड़ा होगा। इस बात को न मानने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी।
सारा दिन हम शहर में भटकते रहे। इस खूबसूरत शहर के मैं अपनी आंखों में बसा लेना चाहता हूं। बेहद साफ सुथरी सड़कें, खूबसूरत चौराहे, चमचमाती दुकानें और एक से एक खूबसूरत इमारतें। इलसा  मुझे हर इमारत के बारे में बता रही थी। वह बताती है कि जिनेवा का पूरा पुराना शहर हैरिटेज साइट के रूप में घोषित है। यहां ज्यादातर इमारतें 1830 से 1945 के बीच की बनी हैँ। एक इमारत देख कर मैं चौंका था। वह ‌रशियन आर्थोडक्स चर्च है। उसे ये लोग रुस द जिनेवा कहते हैँ। इस इमारत के गुम्बद स्वर्ण के हैँ। इन गुम्बदों के ऊपर क्रास के निशान बने हैं। पता नहीं क्यों ये गुम्बद मुझे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के गुम्बदों की याद दिला रहे हैँ।
शाम ढलने लगी है। हम थक चुके हैं। सड़क के किनारे बने एक ओपन रेस्‍त्रां में बैठ गए। काफी और कुछ स्नैक्स का आर्डर दिया। मैंने इलसा से पूछा उसके नाम का मतलब क्या है? उसका जवाब था- गॉड आफ माई ओथ। ज्यादातर जर्मन लड़कियों के नाम का यही अर्थ है। वह मुस्कुराने लगी। मैंने कहा- कुछ समझ में नहीं आया-गॉड आफ माई ओथ? क्या मतलब हुआ इसका? उसने मुस्कुराते हुए कहा- By my oath, you can trust me. यानी मेरी कसम तुम मेरा यकीन कर सकते हो। मैं लाजवाब हो जाता हूं।

स्विट्जरलैंड के गांव में एक शाम

मेरी यूरोप डायरी-6

दूर तक फैली आल्पस की पर्वत शृंखला। नीचे लाल खपडैल के बने घर। छतों पर, पेड़ों की बारीक टहनियों पर, रसोई की चिमनियों पर, बिजली के तारों पर हर तरफ बर्फ की हल्की चादर। झरने, झीलें और खुला आसमान। ट्रेन की विशालकाय खिड़कियों से दिख रहे ये अद्भुत नजारे आंखों को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि हां, ये हकीकत है और आप जन्नत की सैर पर हैं।
जिनेवा में मेरा काम खत्म हो चुका है। मेरे पास चार दिन और बचे हैं। हम लोगों को दैनिक खर्च के लिए 75 यूएस डालर मिलते हैं। पूरे ट्रिप के पैसे एडवांस में मिल गए हैं। मैं हिसाब लगाता हूं मेरी जेब में करीब 700 यूएस डालर हैं। यह बहुत काफी हैं। इस पैसे से मैं यूरोप के कुछ और देश घूम सकता हूं। मैं जानता हूं संजैन वीजा मेरे पास है। इस वीजा पर मुझे कोई रोकेगा नहीं।
मेरे सामने स्वीट्जरलैँड का टूरिस्ट मैप है। इसकी एक सीमा जर्मनी से मिलती है दूसरी फ्रांस से और तीसरी इटली से। इलसा बताती है कि समय के इस बजट में आप सिर्फ एक तरफ निकल सकते हैँ। मैंने इटली जाना तय किया। क्योंकि वह लुगानों के रास्ते में हैं। वहां मेरा रिश्ते का भाई अनादि यूनिवर्सिटी ऑफ लुगानों से पीजी कर रहा है। सबसे पहले मुझे वहीं जाना है। लेकिन घूमते हुए।
 जिनेवा से लुगानों पहुंचने के लिए मुझे स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न, ज्यूरिख पार करते हुए इटली की सीमा तक पहुंचना था। करीब 800 किलोमीटर का सफर। स्विट्जरलैंड घूमने का इससे अच्छा बहाना क्या हो सकता था। एक एयरबैग में दो-तीन दिन के कपड़े भर कर यूरो ट्रेन में सवार हो गया। यूरो रेल अन्तराष्ट्रीय ट्रेन है। ये यूरोप के तमाम देशों को एक दूसरे से जोड़ती है। इसकी रफ्तार कई दफा हवाई जहाज को मात करती है। ट्रेन के अंदर का दृश्य किसी रेस्टोरेंट जैसा है। साफ सुथरा और भीड़ भाड़ से दूर। आपकी चेयर के आगे एक छोटी मेज भी होगी जिस पर आप लैपटाप रखकर अपना काम कर सकते हैँ।
ट्रेन की खिड़की से देखता हूं स्विट्जरलैंड के गांव अब शहर से जुड़े फार्म हाउस में तब्दील हो गए हैं। दीवारें पत्थर की और छतें खपड़ैल की जैसे हमारे देश में होती हैं। हर घर के बाहर कार और गाएं बंधी है। पहचान के लिए गायों पर रंग लगाए गए है। शायद अपने गोरुओं पर पहचान के लिए रंग लगाने की परंपरा करीब-करीब सभी संस्कृतियों में रही है। मेरा पहला ठिकाना मुंड है। इलसा ने मुझे बताया था कि स्‍वीट्जरलैँड की हसीन वादियों में खोना है तो मुंड जरूर रूकना। ये लगभग ग्रामीण इलाका है। समुद्र तल करीब 1200 मीटर ऊपर बसे इस इलाके को यूनेसको ने इसे वल्ड नेचुरल हैरिटेज साइट घोषित किया है।

पहली बार मुंड नाम सुन कर मैँ चौंका था। क्योंकि पुरानी भूली बिसरी स्मृतियों में यह शब्द कुछ जाना पहचाना था। याद आया लखनऊ के हमारे स्कूल में मधुमिता मुंड नाम की एक खूबसूरत लड़की पढ़ती थी। उसके पिता शायद फौज में थे। उसके बाल अजीब तरह से घुंघराले थे। वह शायद मुंड जनजाति से थी। ये जनजाति शायद छोटा नागपुर के पास की है। ये लोग झारखण्ड, उडीसा से लेकर पश्चिम बंगाल तक फैले हैँ। महान क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा शायद इसी जनजाति से हों। पता नहीं । लेकिन मैंने कभी उससे पूछा नहीं। खैर मुंड स्विट्जरलैँड की एक पुरानी मुंसीपैलटी थी। अब एक छोटा सा कस्बा कह लीजिए। ऊंची पर्वतश्रृंखलाओं के बीच बसा एक मोहक कस्बा। जंगली लकड़ियों के बने पुराने घर। लकड़ियों के रंग वक्त के साथ काले पड़ गए हैं। उनकी ढलानदार छतें उन छतों पर शाख से टूटे पत्ते। मुझे बताया गया कि सर्दी के दिनों में ये ढलानदार छतें सफेद बर्फ की चादर से से ढक जाती हैं। पेडों पर भी बर्फ होती है टहनियों और पत्तियों पर भी। पर इन दिनों बर्फ नहीं है। मौसम साफ और चमकदार है। धूप में गर्माहट है। वर्ना साल के नौ महीने यहां बर्फ रहती है। दूर पहाडी पर बड़ी नोकदार सींगों वाली भेड़े दिख रही हैं। सफेद और काली भेंड़े। उनके शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल हैं जो बर्फ से उनकी हिफाजत करते हैं। प्रकृति ने उन्हें यहां जीने लायक बना दिया है।

 मैं आसापास घूम रहा हूं। अकेले। यहां के लोग अंग्रेजी नहीं जानते। सिर्फ जर्मन बोलते हैँ। इसलिए किसी से बातचीत भी संभव नहीं। जिन्दगी में पहली बार ऐसा हुआ कि आप किसी से बात करना चाहते हो पर नहीं कर सकते। अंग्रेजी के सिर्फ कुछ शब्द मदद कर रहे थे। एक सस्ता सा होटल मिल गया। पूरी तरह लकड़ी से बना एक साफ सुथरा होटल।  टूरिस्ट नहीं हैं इसलिए भीड़ भाड़ भी नहीं है। शाम ढल चुकी है। अब क्या करुं? सोचता हूं। होटल के बार में जाकर बैठूं। हां ये विचार दिलचस्प है। बार में हल्की पीली रोशनी है। चारों तरफ बिखरी कुर्सियों पर लोग बैठे हैं। स्‍त्री-पुरुष सब हैँ। बीच में बॉन फायर का इंतजाम है। शायद इसीलिए इस बड़े कमरे में गर्माहट है। मैँ एक मेज के किनारे अपना ग्लास लेकर बैठ जाता हूं। धीमा स्वीज संगीत पूरे वातावरण में तारी है। बाइस साल पुरानी बैलविनी सिंगल माल्ट के साथ अब ये संगीत धीरे धीरे मेरी चेतना पर हावी हो रहा है। जीवन के बारे में सोच रहा हूं और किस्मत के बारे में। कितनी अप्रत्याशित है जिन्दगी। आज यहां स्वीट्जलैंड की अनजान सी जगह मुंड में हूं। फिर स्कूल के दिन याद आते हैं। मधुमिता याद आती है। उसके दोस्त याद आते हैं। अपने दोस्त याद आते हैं। वे दिन कितने मस्त थे। स्कूल कैम्पस में इमली का पेड़ था। हम इमली अपने लिए नहीं तोड़ते थे। वो सारी शरारतें याद आती हैं। होटों पर मुस्कुराहट आ जाती है।     
मैं अपने कमरे में लौट आता हूं। दूर लकड़ी के बने तमाम घरों में रोशनी है। कितनी शांति है चारों तरफ। चांदनी रात में पूरा कस्बा जगमग है। दूर अंधेरे में पहाडों का रंग और स्याह होता जा रहा है। मैं थक गया हूं। अब सोना चाहता हूं।      

Tuesday, February 4, 2014

जिनेवा के रेस्टोरेंट में बम्बई की बिरयानी

मेरी यूरोप डायरी-4

सुबह सो कर उठा तो मौसम साफ था। चमकदार धूप। रात आसपास बर्फबारी हुई इसलिए हवा में गहरी ठंडक है। लेकिन इस ठंडक में वह गलन और तीखापन नहीं जैसा हिन्दुस्तान की सर्दियों में दिखता है। मार्च में एक इनर, कमीज और कोट पहन लीजिए काम चल जाएगा। दस्तानों की जरूरत नहीं पड़ती। 
कल रात भी हवा में ऐसी ही ठंडक थी। सोचा आज होटल में नहीं बाहर डिनर लिया जाए। यूरोपीय खाना भी अजब है। ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर में तकरीबन एक सी चीजें होती हैं। ब्रेड, बटर और उबले हुए बिना मसाले के तमाम तरह के गोश्त के व्यंजन। हिन्दुस्तानी रेस्‍त्रां खोजते-खोजते हम पैदल बहुत दूर निकल आए थे। पूछने पर मालूम चला था कि यहां एक सबसे अच्छा हिन्दुस्तानी रेस्टोरेंट है-रेस्टोरेंट बम्बई। और थोड़ी पूछताछ के बाद अब हम इस रेस्टोरेंट के सामने खड़े थे। हमने राहत की सांस ली। टहलते-टहलते भूख भी बढ़ गई थी। इससे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि चार दिन बाद हमारी मेज पर जाने पहचाने व्यंजन होंगे। हिन्दुस्तानी सजावट के साथ रेस्टोरंट साफ सुथरा था। मैं रेस्टोरेंट के मैनेजर से बात करने लग तो चौंका। पता चला इस रेस्टोरंट का मालिक पाकिस्तानी है। रेस्टोरंट का नाम बम्बई इसलिए रखा क्योंकि यहां शुरू से हिन्दुस्तानी ज्यादा आते हैँ। पाकिस्तानी मालिक के पूर्वज भी बम्बई से पाकिस्तान जा कर बस गए थे। फिर पाकिस्तान छोड़कर जिनेवा आ गए। मैंने मैनेजर को बताया कि आपको पता है बम्बई अब हिन्दुस्तान से विदा हो गया। अब वहां मुम्बई है। मैँने कहा कि शुक्र है यहां राज ठाकरे का राज नहीं वर्ना रेस्टोरेंट के शीशी वीशे सब टूट गए होते। मैंनेजर हंसने लगा। उसने हैड शैफ को बुलकर हिदायत दी कि वह हमारा खास ख्याल रखे। रेस्टोरेंट में हर तरह के हिन्दुस्तानी व्यंजन मुहैया थे। मैं शाकाहारी नहीं हूं इसलिए विकल्प की कोई कमी नहीं थी।

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी) में आज मुझे अपनी रिपार्ट पेश करनी है। भारत की सीमा से लगे पाकिस्तान, भूटान, बंगलादेश और नेपाल की तरफ से होने वाली विदेशी सिगरटों की तस्करी पर। दफ्तर से छुट्टी लेकर करीब एक महीने भारत की सरहदों पर भटका था। तस्वीरों के साथ अच्छी रिपोर्ट तैयार हो गई थी। मेरा काम सिर्फ ये रिपोर्ट तैयार कर एक अन्तराष्ट्रीय संगठन- एफसीआई को देना था। ये एक तरह की स्कालरशिप थी। लेकिन बाद में उन्होंने तय किया कि जिस रिपोर्टर ने रिपोर्ट तैयार की वही इसे यूएन में पेश करे। आनन-फानन में यात्रा की तारीख तय हो गई। ये मेरी पहली विदेश यात्रा थी। बचपन से सुनता आया था कश्मीर भारत का स्वीट्जरलैंड है। कश्मीर जाने का बहुत मन था। पर कभीाछ  जा नहीं पाया। लेकिन उस दिन मेरे मेल के इनबाक्स में टिकट आया तो सीधे स्वीट्जरलैंड का। सच पूछिए तो उस वक्त मुझे ईश्वर के सेंस आफ ह्यूमर पर भी बहुत हंसी आई। पासपोर्ट तो मैंने एक साल पहले तभी बनवा लिया था जब मुझे भूटान जाना था। हालांकि मैं जानता था कि भूटान जाने के लिए आपका काम राशन कार्ड से भी चल जाएगा। वहां कोई भी हिन्दुस्तानी अपना कोई भी पहचान पत्र दिखा कर अराइवल वीजा बनवा सकता है। वहां पासपोर्ट की जरूरत नहीं। स्वीज वीसा लेने मुझे दिल्ली आना पड़ा था। स्वीज अम्बेसी बड़ी शालीनता से वीजा जारी कर दिया। वीजा हाथ में आया तो पता चला ये संजैन वीजा है यानी इस वीजे पर मैं पूरा यूरोप घूम सकता हूं। ये एक रोमांचक अहसास था।
खैर डब्लूएचओ की ये कान्फ्रेंस सीआईसीजी यानी सेंटर इंटरनेशल द कान्फ्रेंस जिनेवा में होनी थी। सेहत को लेकर चिन्तित करीब 250 देशों के प्रतिनिधि यहां इकट्ठा थे। थोड़ी घबराहट थी। पर सिगरेट के अवैध कारोबार पर मेरा पीपीटी तैयार था। सोचने लगा स्वामी विवेकानंद की तरह यहां मैं अपनी बात भाइयों-और बहनों के मशहूर सम्बोधन के साथ शुरू करुँ। पर जल्द ही इस ख्याल पर हंसी आ गई। यहां कोई आध्यात्मिक प्रवचन नही देना था। मुझे मालूम था कि रिपोर्ट पेश करने के बाद हमले शुरू हो जाएंगे। और यही हुआ पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रतिनिधियों ने सवाल उठा दिए। उनका कहना था कि भारत ने उन्हें बदनाम करने के लिए ये रिपोर्ट तैयार कराई है। वह तस्करी की वीडियो रिकार्डिंग पर भी यकीन करने को तैयार नहीं थे। मैँ निराश नहीं था क्योंकि मुझे पहले बता दिया गया था कि ये जरूर होगा। अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में हर देश अपने आपको पाक साफ बताने की कोशिश करता है। यही वजह है कि अक्सर इन अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों किसी एक बात पर सहमति नहीं बन पाती।

फिर चाहे वह पर्यावरण से जुड़ा कोई मुद्दा हो या स्‍वस्‍थ्य से जुड़ा। दिन भर बहस चली और कोई नतीजा नहीं निकला। निकलना भी नहीं था। बाद में मैंने अपने पाकिस्तानी मित्र से पूछा-क्या यार तुम्हे पता नहीं है कि नेपाल की तरफ से पूरा बार्डर खुला है। तुम लोग सारी खुराफातें करते हो। और अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में आकर सूफी संत बन जाते हो। वह हंसने लगा। बोला-यार नौकरी भी तो हिफजत करनी है। तुम ठहरे सहाफी जो चाहे सो लिख दो। हम सरकारी मुलाजिम हैं। हमें पहली ट्रेनिंग यही दी जाती है कि अन्तराष्ट्रीय मंच पर हर उस रिपोर्ट की मुखालफत करो जो आपके मुल्क को बदनाम करती हो चाहे वो कितनी सही क्यों न हो। अपने मंत्रालय के अफसर से पूछिए वह भी यही बताएंगे। अब मुझे इस नामुराद मसले ज्यादा डिबेट नहीं करनी थी। मेरा काम खत्म हो चुका था। मेरे सामने दुनिया की सबसे खूबसूरत धरती थी और नीला खुला आसमान था। मेरे सामने असल चुनौती ये थी कि मैं कम से कम वक्त में सात समन्दर पार के इस जहान को अपने भीतर समेट लूं। मेरा जेहन आगे की योजनाएं बनाने में मसरुफ हो गया।    

जारी


Wednesday, January 29, 2014

रावण जैसे मरना नहीं चाहते थे महात्मा

महात्‍मा गांधी का अंतिम दिन-2



बिरला हाउस में गोडसे की सेमी आटोमैटिक पिस्तौल की तीन गोलिया बापू के सीने में धंसी थी। मनु समझ नहीं सकी कि अचानक क्या हुआ। मनु ने नीचे देखा। उसे महात्मा के ‘सफेद वस्त्र पर सुर्ख रंग का
धब्बा फैलता नजर आया।’ बापू के हाथ जो सभा को नमस्कार करने के लिए उठे थे, धीरे - धीरे नीचे आ गये। उनका शिथिल शरीर धीरे से धरा पर लुढ़क गया। मनु की गोद में महात्मा हमेशा के लिए सो गए। उस वक्त शाम के 5 बजकर ठीक 17 मिनट हुए थे। गोली के धमाके से प्रार्थना सभा में भगदड़ मच गई। एक महात्मा का ऐसा दर्दनाक अंत। कोई पत्‍थर दिल इंसान भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था।
लेकिन पुणे का रहने वाला 38 साल का नौजवान नाथूराम गोडसे पत्‍थर ‌दिल रहा होगा।वह आरएसएस का सक्रिय सदस्य था जिसे बाद में जाहिरी तौर पर आरएसएस ने अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया था। हालांकि नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अंत तक कहा कि उसके पूरे परिवार ने आरएसएस की सदस्यता ले रखी है। नाथूराम की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं थी। उसका असली नाम रामचन्द्र था। रामचन्द्र के जन्म से पहले उसके तीन भाई और एक बहन थी। नाथूराम के पिता पोस्ट आफिस में काम करते थे।उनका नाम विनायक वामनराव गोडसे था। रामचन्द्र के तीनों भाई पांच साल की उम्र से पहले ही चल बसे। पिता विनायक और मां लक्ष्मी को लगता कि अगला बेटा भी नहीं बचेगा। रामचन्द्र का जन्म हुआ तो गोडसे दंपति ने उसे लड़की की तरह पाला। वे उसे लड़कियों के कपड़े पहनाते। विनायक ने उसके लिए एक नथ भी बनवा कर पहना दी थी। उसे सब प्यार से नाथू-नाथू कह कर बुलाने लगे। रामचन्द्र का एक भाई और हुआ। तब जाकर रामचन्द्र को लड़की के रूप में छुटकारा मिला। लेकिन नाथू नाम से नहीं। उसका नाम रामचन्द्र की जगह नाथूराम हो गया। और संयोग देखिए महात्मा की मौत इस रामचन्द्र के हाथों ही लिखी थी।    

मनु को महात्मा के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिए थे। मनु के अलावा यह शब्द वहां खड़ी हजारों की भीड़ में किसी और ने नहीं सुने। इसलिए महात्मा के अंतिम शब्द ‘हे राम’ ही मान लिए गए। महात्मा की हत्या के बाद पूरे देश में भावुकता का जो माहौल बना था उसमें इस शब्द पर बहस की कोई गुंजाइश भी नहीं थी। महात्मा की समाधि से लेकर संपूर्ण गांधी वाङ्मय तक में ‘हे राम’ का प्रयोग किया गया।
बाद में खुद महात्मा के निजी सचिव प्यारेलाल ने ‘अत्यंत सावधानी और परिश्रमपूर्वक जांच’ करने के बाद नतीजा निकाला कि गांधीजी के मुंह से मूर्च्छित होते समय जो शब्द निकले थे वह ‘हे राम’ नहीं थे।  उन्होंने नए सिरे से खोज शुरू की। कई लोगों से बातचीत की।  और इस नतीजे पर पहुंचे कि बापू के  ‘अंतिम शब्द राम राम थे।’ ‘वह कोई आह्वान नहीं था परंतु सामान्य नाम स्मरण था।’ उन्होंने लिखा - ‘राम राम’ के बजाय ‘हे राम’ कर देना जनता की ऐसी ही भूलों का एक और उदाहरण है जो अंबर के टुकड़ों में घुन की तरह लगकर इतिहास में चिरकाल के लिए अंकित हो जाती हैं।’

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि प्यारेलाल को बापू के कथित अंतिम शब्दों पर संदेह क्यों उठा? वह खुद बापू के प्रिय थे और अंतिम दिनों तक उनके साथ थे। उन्होंने अपनी किताब पूर्णहुति में इसका जिक्र नहीं किया कि उन्होंने बापू के अंतिम शब्दों पर इतनी मेहनत क्यों की? क्या ये इतना जरूरी प्रश्न था?
मैंने गोडसे का कथन भी खोजा। उसका पूरा ध्यान गांधी पर रहा होगा। महात्मा को गोली मारने वाले हत्यारे नाथूराम गोडसे का दावा था कि महात्मा के मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द ‘आह’ था। ‘हे रा...’ या ‘हे राम’ या ‘राम राम’ नहीं। हत्यारे के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता लेकिन मनु के दिमाग में ‘हे रा...’ शब्द यूं ही नहीं आ गया था। महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा लेंगे, ये बात उसके अवचेतन में कहीं मौजूद थी।
इस सिलसिले में मैंने महात्मा की पोती मनु की डायरी दोबारा पढ़ी। दिलचस्प संयोग है कि उस दिन भी 30 जनवरी थी। 30 जनवरी 1947। बापू तब मनु के साथ नोआखली के आमकी गांव में थे। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर उठे विवादों के दौरान महात्मा ने मनु से कहा - ‘यदि मैं रोग से मरूं, तो यह मान लेना कि मैं इस पृथ्वी पर दंभी और रावण जैसा राक्षस था। परंतु यदि राम नाम रटते हुए जाऊं तो ही मुझे सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा महात्मा मानना।’ और इत्तेफाक देखिए उसके ठीक एक साल बाद उसी दिन यानी 30 जनवरी, 1948 को महात्मा का देहावसान हुआ। मनु की डायरी ‘एकला चलो रे’ के नाम से पहली बार 1957 में बाजार में आई। यानी बापू की हत्या के नौ साल बाद। वह मनु ही थी जो इस बात का सबसे बेहतर प्रमाण दे सकती थी कि मोहनदास कर्मचंद गांधी वाकई एक ‘सच्चे ब्रह्मचारी और सच्चे महात्मा’ थे। क्योंकि प्रयोग के दौरान उसने नोआखली के जंगलों कई रातें महात्मा के साथ निर्वस्‍त्र सो कर बिताई थीं। और यह प्रमाण उसने 30 जनवरी, 1948 की शाम यह कह कर दे दिए कि महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा हुए। निसंदेह उसके अवचेतन में कहीं रहा होगा कि महात्मा गांधी राम का नाम लेते हुए इस दुनिया से विदा होना चाहते थे। हालांकि ये प्रमाण भी महात्मा के ब्रह्मचर्य के प्रयोग की तरह अधूरे थे। मनु ने सिर्फ हे रा.... सुना था। अगर मनु की माने तो महात्मा राम का नाम पूरा नहीं ले पाए थे। मैँ आज भी सोचता हूं कि महात्मा के गले में यह शब्द क्यों
अटक गया? जीवन भर दूसरों को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले महामानव की मौत हिंसा से हुई। महात्मा के जीवन का विरोधाभास उनके अंतिम क्षणों तक उनके सामने खड़ा था।


'महात्मा गांधीः किताब ब्रह्मचर्य के प्रयोग' पुस्तक से

खुद को मुर्दा कहने लगे थे महात्‍मा गांधी

महात्‍मा गांधी का अंतिम दिन-1
 30 जनवरी 1948 को महात्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। गांधीजी पर अध्ययन के दौरान उनके जीवन के कई अनझुए पहलुओं से दो चार हुआ। इस दौरान यह बात भी सामने आई कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द 'हे राम' नहीं थे।  इस प्रसंग को मैंने अपनी किताब 'महात्मा गांधीः किताब ब्रह्मचर्य के प्रयोग' में कलमबंद किया है। किताब आने पर इसे लेकर काफी विवाद भी उठा जिसकी खबरें गुगल पर मौजूद हैं। महात्मा के अंतिम दिनों के बारे में यदि आपके पास कुछ तथ्य हों तो साझा कीजिए। पढ़िए हत्या के दिन का घटनाक्रम-
 
अपनी मौत से एक महीना पहले तक महात्मा अकेले और अलग-थलग पड़ गए थे। इस दौर में उनके निजी सचिव प्यारेलाल ने उन्हें सबसे ज्यादा दुखी पाया। महात्मा ने किसी को पत्र लिखा कि ‘आलीशान भवन में मैं प्रेमी मित्रों के बीच घिरा हूं परंतु मेरे भीतर शांति नहीं है।’ महात्मा के पुराने मित्रों ने उनसे किनारा कर लिया था। उनकी जी हुजूरी में लगे रहने वाले सभी कांग्रेस नेता राजसत्ता की मद में डूब चुके थे। वे उनकी सुनते नहीं थे। महात्मा को डर था कि वह किसी भी दिन उनसे आकर कहेंगे - ‘इस बूढ़े की बात हमने बहुत रखी, अब वह हमें अपना काम क्यों नहीं करने देता।’ उनके रास्ते पर चलने वाले सीमांत गांधी और विनोबा जैसे कुछ संत रह गए थे। महात्मा देख रहे थे कि ‘कांग्रेस के भवन की एक के बाद दूसरी ईंट ढीली होकर गिर रही है। कांग्रेस निस्तेज हो गई है।’ देश सेवा के नाम पर तमाशा चल रहा है। दिल्ली की फैशनपरस्त अमीर औरतें बन - संवर कर निराश्रितों के कैंप में स्वयंसेवा करतीं। महात्मा उन्हें उलाहना देते - ‘निराश्रित कैसे आप का विश्वास और आदर कर सकते हैं। जबकि आप रेशमी साड़ियां पहने इंद्र की परियां बनकर उनके बीच आती हैं।’ वह कहते कि ये आजादी नहीं है। भारत स्वाधीन नहीं हुआ। राजधानी मुर्दों की नगरी दिखाई देती है। हर आदमी दूसरे के खून का प्यासा है। हिंदुस्तानी अपने हिंदुस्तानी भाई से डरता है। इसे आप स्वाधीनता कहेंगे? अपने अंतिम वक्त में महात्मा चिड़चिड़े हो चले थे। बात - बात पर कहते - ‘देखते नहीं मैं अपनी चिता पर बैठा हूं।’ कभी कहते - ‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि एक मुर्दा तुमसे यह कह रहा है।’
30 जनवरी, 1948 को जीवन के अंतिम क्षणों में मनु और आभा महात्मा के साथ थीं। प्रार्थना सभा जाते वक्त महात्मा का हाथ दो नवयुवतियों के कंधे पर था। महात्मा इन लड़कियों से बात कर रहे थे। यह अंतिम बातचीत कुछ इस तरह थी।
आभा ने कहा : ‘बापू आपकी घड़ी को जरूर यह लगता होगा कि आप उसकी परवाह नहीं करते। आप उसकी तरफ देखते ही नहीं।’
मैं क्यों देखूं, जब दोनों मुझे ठीक समय बता देती हो?
दोनों लड़कियों में से एक ने पूछा : ‘लेकिन आप तो समय बताने वाली लड़कियों की तरफ देखते ही नहीं।’ बापू फिर हंसे। प्रार्थना स्थल की सीढ़ियों तक पहुंचते हुए उन्होंने अंतिम बात कही : प्रार्थना में दस मिनट देर से पहुंचा हूं इसमें तुम्हारी गलती है। नर्सों का यह धर्म है कि यदि साक्षात् ईश्वर भी बैठा हो तो भी उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। यदि किसी मरीज को दवा देने का समय हो और उसमें हिचकिचाहट हो तो मरीज तो मर जाएगा। यहां भी यही बात है। प्रार्थना में एक मिनट भी देर से आने से मुझे तकलीफ होती है।
और तभी नाथू राम गोडसे ने उन पर गोलियां बरसा दीं। जैसा कि बाद में मनु गांधी ने अपने बयान में कहा - ‘प्रार्थना सभा के बीच रस्सियों से घिरे रास्ते से जाते वक्त महात्मा ने जनता के नमस्कारों का जवाब देने के लिए लड़कियों के कंधों से हाथ उठा लिए। एकाएक भीड़ में से कोई भीड़ को चीरता हुआ उनकी ओर आया। मनु गांधी ने सोचा कि वह आदमी गांधीजी के पांव छूने के लिए आगे बढ़ रहा है। इसलिए उसने उसे वैसा करने के लिए झिड़का क्योंकि प्रार्थना को पहले ही देर हो चुकी थी। मनु ने उस आदमी का हाथ पकड़कर उसे रोकने की कोशिश की लेकिन उसने जोर से मनु को धक्का दिया जिससे उसके हाथ की ‘भजनावली’, माला और गांधीजी का पीकदान नीचे गिर गया। ज्यों ही वह बिखरी चीजों को उठाने के लिए झुकी, वह आदमी गांधीजी के बिलकुल सामने खड़ा हो गया और पिस्तौल से जल्दी - जल्दी तीन गोलियां दाग दीं। ‘गांधीजी के मुंह से जो अंतिम शब्द निकले, वे थे ‘हे रा...।’
जारी

Monday, January 27, 2014

लेक दा जिनेवा के किनारे एक शाम

मेरी यूरोप डायरी-3




रात में पहाड़ों पर बर्फ पड़ी थी और नीचे भी। पहाड़ जिनेवा शहर से बस थोड़ी दूरी पर हैं। उसकी बर्फ से ढकी सफेद चादरें साफ दिखती है। हवा में ठंडक बढ़ गई है। बर्फ के कुछ फाहे अभी तक पेड़ों की टहनियों पर अटके हैं। उन घोसलों पर भी बर्फ जमी है जो स्विट्जरलैंड के लोगों ने अपने पक्षियों के रहने के लिए शाखों पर बनाए हैं। चिड़ियों के ये कृत्रिम घरोंदे बहुत सुंदर हैं।  आज कान्फ्रेंस नहीं थी। सुबह होटल के कमरे से तैयार होकर निकला तो पूरे शहर में हैरतनाक ढंग से सन्नाटा पसरा था। इस सन्नाटे की वजह पूछने पर पता चला संडे़ को पूरा स्विट्जरलैंड बंद रहता है। रेस्त्रां को छोड़कर कोई दुकान नहीं खुलती।
दिन में घूमने के लिए हम ‘लेक दा जिनेवा’ की तरफ आ गए हैं। पूरा जिनेवा शहर इस नीली खूबसूरत झील के किनारे बसा है। शहर में आकर ये विश्व प्रसिद्ध झील बड़ी नजाकत से नदी में तबदील हो जाती है। इस नदी के दोनों तरफ 17वीं व 18वीं सदी की खूबसूरत और विशालकाय इमारतें। हर इमारत यूरोपियी वास्तुशिल्प का एक अद्वितीय नमूना है।
 पाकिस्तान दोस्त डॉ. असलम फुआद साथ हैं। कराची में डब्लूएचओ के लिए काम करते हैं। एक और दोस्त प्रणय भी साथ में हैं जो अक्सर जिनेवा आते रहते हैं। करीब 50 किलोमीटर लम्बी इस झील का कहीं छोर नहीं दिखता। किनारे पक्की सड़क बनी है। झील के समानंतर एक अंतहीन पार्क। झील के किनारे बसे इस पार्क में सबकुछ है। पुरानी खूबसूरत इमारतें, म्यूजियम, मूर्तियां, स्क्लपचर सब कुछ। झील के किनारे एक स्विस महिला की पत्थर की मूर्ति है। जो
 घुटने के बल बैठकर पीछे जिनेवा शहर की ऊंची इमारतों की तरफ देख रही है। उस निर्वस्त्र मूर्ति में जरा भी अश्लीलता नहीं दिखती। कोलम्बिया की दो लड़कियां मूर्ति के साथ अपनी तस्वीरें खिंचवाना चाहती हैं। वह कैमरा आगे बढ़ाते हुए फोटो खींचने का आग्रह करती हैं। उनके कैमरे से उनकी फोटो खीचता हूं। उनमें से एक कहती है- आर यू इंडियन? मेरे ‘हां’ कहने का इंतजार किए बिना वह कहती
 हैं-‘नमस्ते’। फिर खिलखिला कर हंसने लगती हैं। गैलेडिया बताती है कि वह हिन्दी फिल्मों की शौकीन है। शाहरुख खान उसे बहुत पसंद है। कोलम्बिया में हिन्दुस्तानी संगीत बहुत पसंद है। खासकर गानों की धुनें। हम आगे बढ़ते हैं। एक स्विज दम्पति अपने नन्हें बच्चों के साथ झील के किनारे बैठे हैं। दूध से सफेद तीन बच्चे। रंग बिरंगे गर्म कपड़ों में तीनों बच्चों की उम्र एक-सी है। शायद दो साल के रहे होंगे।
 दम्पति की इजाजत लेकर हम इन बच्चों की तस्वीरें लेने लगते हैं। उन्हें बताता हूं कि मैं भारत से हूं और डा. असलम पाकिस्तान से। अपने बच्चों के साथ खेलती वह युवती हैरत भरे स्वर में पूछती है-‘यू बोथ ऑर टुगैदर।’ यानी आप दोनों एक साथ। हम बताते हैं कि यही सच है। दूरियां दो मुल्कों में है दिलों में नहीं। उन्हें यह सुनकर अच्छा लगता है। पर उन्हें अभी तक यकीन नहीं कि असलमपाकिस्तानी है।शाम ढलने लगी है। सेहत के लिए फिक्रमंद कई लड़कियां उस शांत पार्क में दौड़ रही हे। एक दूसरे में गुम प्रेमी जोड़े बैंचों पर बैठे हैं। ठंड में वह थोड़ा और सिमट गए हैं। हमें शहर लौटना है। वापसी ‌के लिए सिटी बस पकड़नी है। एक खम्बे पर लगी हरे रंग तख्ती पर बस स्टाप लिखा है। उसी पर एक टाइम टेबिल भी लगा है। इस स्टाप पर अगली बस का वक्त शाम 6.24 मिनट है। मैं घड़ी देखता हूं
 जिस पर मैंने स्विस टाइम सेट किया है। घड़ी ठीक 6.24 बता रही है और तभी सिटी बस स्टाप पर आकर रुक जाती है। हम दंग हैं। एकदम सही टाइमिंग। क्या महज इत्तेफाक है। एक स्‍थानीय मित्र बताते हैं कि नहीं...शहर की हर रेड लाइट पर सेंसर लगे हैँ। इसलिए रेड लाइट बस का साथ देती है। ठीक वक्त पर बस अपने नियत स्टाप पर आकर ब्रेक लगाती है। हम बस में बैठ गए हैँ। दूर से देखता हूं दुकानों की शो विंडों रोशनी से जगमगाने लगे हैं। महंगी स्वीज घड़ियां शो केस में सजी है। एक शो रूम में ऐश्वर्य राय बच्चन का एक आदमकद पोस्टर किसी स्विस घड़ी का प्रचार करता दिख रहा है। दुकानों के दरवाजे तक शीशे के हैं। अंदर की तेज चमकदार रोशनी से लगता है कि हर दुकान खुली है। पर ऐसा नहीं है। दुकानों के अंदर यह रोशनियां हमेशा जलती रहती हैं। चाहे दुकान खुली हो बंद। यानी विंडों शापिंग के लिए चौबीस घंटें का आमंत्रण। अब हम सड़क पर तेजी से झील को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। दूर घुटने के बल बैठी महिला की मूर्ति हमें अब तक देख रही है। उदास निगाहों से। कह रही है अलविदा जिनेवा लेक फिर मिलेंगे कभी इस झील के किनारे।
 जारी

Friday, January 24, 2014

हां कामरेड मैं फासिस्ट हूं



और मैंने देखा कल अपनी वॉल पर उन कामरेडों ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अकेला पा कर घेर लिया। एक कामरेड ‌मित्र ने लिखा-‘सुभाष चन्द्र बोस का आकलन समग्रता में किया जाना चाहिये न कि भावुकतापूर्ण इकतरफा तरीके से। हिटलर और तोजो जैसे नरभक्षियों से उनकी मित्रता और संबंधों को भुला देना ऐतिहासिक रूप से घातक हो सकता है।’ गोया कि सुभाषचन्द्र बोस मेरे हीरो हैं फिर भी मैंने अपने कामरेड दोस्त की इस पोस्ट को लाइक किया। लगा एक खिड़की खुली नेताजी को भावुकता से इतर सोचने-समझने की। यही तो मजा है फेसबुक का। खैर मैँ दृष्टा बन गया इस पोस्ट का। और उस दीवार में गिरने वाले कमेंट्स का जायजा लेने लगा।
पहले प्रगतिशील कामरेड ने कमेंट गिरा- फ़ासिस्‍टों के साथ मोर्चा बनाने की सोच के अलावा भी सुभाष की राजनीति के अन्‍य पहलू है जो यह ज़ाहिर करते हैं कि वह आम मेहनतकश आबादी की सामूहिक शक्ति की बजाय चंद नायकों को इतिहास का निर्माता मानते थे। उनका नारा 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्‍हें आज़ादी दूंगा' भी इसी सोच का सूचक है। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने की बजाय युद्ध‍बंदियों को संगठित करके आज़ाद हिन्‍द फौज के ज़रिये आज़ादी हासिल करने का रास्‍ता भी इसी ओर इंगित करता है।
इस दीवार पर एक और कामरेड अवतरित हुईं। उनकी भाषा हिकारत से भरी जैसे कोई कविता हो। उन्होंने नया फतवा जारी किया-‘वह फा‌सिस्ट तो नहीं, हां एक निम्‍न पूँजीवादी उग्र राष्‍ट्रवादी थे।’‘मार्क्‍सवाद तो शायद उन्‍होंने पढ़ा तक नहीं था और समाजवाद की उनकी समझ नितांत सतही थी। सुभाष जनक्रान्ति के पक्षधर नहीं थे। उनका आर्थिक कार्यक्रम भी नेहरू के मुक़ाबले अधिक सतही राजकीय पूँजीवादी था।’ उनके विचारों का अंत इस वाक्य से हुआ...‘अफसोस की बात है कि जो कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी कभी उन्‍हें 'फासिस्‍ट सुभाष' कहते हुए एक छोर का अतिरेकी मूल्‍यांकन कर रहे थे, वे अब दूसरे छोर पर जाकर सुभाष को महान क्रान्तिकारी और समाजवादी तक सिद्ध करने में लगे हैं। यह अधिभूतवादी नज़रिया काफ़ी भ्रम पैदा कर रहा है। और नुकसानदायक भी है।’
इस बहस में कुछ उदारवादी कामरेडो ने हस्तक्षेप की कोशिश की लेकिन उनके विचार कुचल दिए गए। वे चुप हो गए। सोचा था इस बहस में नहीं पड़ूंगा पर नहीं रहा गया।
मैंने अपने कामरेड मित्र से निवेदन किया-‘मुझे लगता है नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज को थोड़ा गहराई से समझने की जरूरत है। देख रहा हूं कई लोग गलत नतीजे पर पहुंचने के लिए बेताब हैं। नेताजी का केवल एक लक्ष्य था भारत की आजादी। गांधी एंड पार्टी से निराश होने के बाद नेताजी के पास कोई और चारा नहीं बचा था। लेकिन वह जानते थे कि फा‌सिस्ट हिटलर को कैसे डील करना है। हिटलर अंत तक नेताजी की राजनीतिक विचाराधारा समझ नहीं पाया। वह उनका ‘पोलिटिकल कॉन्सेप्ट’ जानना चाहता था। सुभाष को ये नागवार गुजरा। उन्होंने एडम वॉन ट्रोफ्फ ज़ु सोल्ज (स्पेशल इण्डिया ऑफिस के चीफ) के जरिए हिटलर को जवाब भिजवाया- “अपने हिज एक्सेलेन्सी से जाकर कहिए कि मैंने अपनी सारी जिन्दगी राजनीति में बितायी है और मुझे किसी की भी सलाह की जरुरत नहीं है।”
मैंने हिकारत की कवियत्री को ‌चिढ़ाया-’क्या क्रान्तिकारी कामरेडों को याद नहीं कि इस युद्ध स्तालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था। सोवियत सैनिकों को एक कदम भी पीछे हटाने का आदेश नहीं था- पीछे हटने वाले सैनिकों को गोली मारने के लिए स्तालिन ने बाकायदे दस्ते तैयार कर दिए थे। इस दस्ते ने कैसे अपने ही उन सैनिकों को गोलियों से भूना था जिन्हें लड़ने के लिए बंदूक भी नहीं
दी गई थी।’
बस फिर क्या था। सुभाष बाबू तो किनारे निकल गए और मैं कामरेडो के गिरोह में फंस गया। कामरेड मित्र ने मुझे लिखा- इतिहास में हमारा आकलन हमारे इरादों से नहीं अपितु हमारे क्रियाकलापों और उनके परिणामों/ संभावित परिणामों से होता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत छोड़ने के बाद अपने अंतिम क्षणों तक वे फासिस्टों के मित्र और कनिष्ठ सहयोगी बने रहे . और जहां तक 'स्टालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था' वाली टिप्पणी का प्रश्न है आशा ही कर सकता हूँ कि आप उनमें से नहीं हैं जो हर मुद्दे को भटका कर स्टालिन और साम्यवाद पर हमले का मौका तलाश करते हैं . बात सुभाष और उनके फासिस्टों से संबंधों के बारे में चल रही है इसमें स्टालिन कहाँ से आ गया ?
मैंने उन्हें सफाई दी कि- मुझे नहीं लगता सुभाष का कोई भी क्रियाकलाप उन्हें विश्व इतिहास में खलनायक ठहराता है। इसीलिए मुझे स्तालिन के क्रियाकलाप की याद आ गई ताकि कामरेड मित्रों का दिमाग एक तरफा न बहके। वैसे मुझे आपके कई विचार निजी तौर पर पसंद हैं। मैं चाहता था कि आपकी वॉल पर चल रही बहस में संतुलन बना रहे।
कामरेड मित्र ने मेरी असहमति का पूरा आदर देते हुए कहा कि- पर सुभाष को खलनायक तो यहां भी कोई नहीं ठहरा रहा है . खलनायक तो आपने स्टालिन को ठहराया है ' हिटलर का बाप ' कह कर .जबकि स्टालिन का ज़िक्र तो पूरी चर्चा में कहीं था ही नहीं . फैज़ की याद दिला दी आपने - वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।
मैंने भी उतनी ही विनम्रता से कहा- ‘जी, लगता है हम दोनों ने एक दूसरे की दुखती नब्ज पर हाथ रख दिया। खैर स्टालिन की क्रूरता के किस्से सारी दुनिया ने सुने हैँ। वह कम से कम मेरा नायक तो नहीं हो सकता। खैर एक शेर मैं भी अर्ज कर दूं नामालुम किसका है लेकिन मौजू है- हम जो डूबे हैं अब तक तो बड़े ताव में हो, तुम ये क्यों भूल गए तुम भी इसी नाव में हो’।
यह कह कर मैंने कहा कि चलता हूं अब। कामरेड मित्र ने बेहद सभ्य लहजे में धमकाया कि यही बेहतर होगा आपके लिए।
इसी बीच बहस में एक तीसरे कामरेड आ गए। बोले- ‘ ये दया सागर जी शायद ट्रोटस्की वादी हैं ....तभी तो स्टालिन को ''हिटलर का बाप'' बता बैठे ...शायद स्टालिन को ढंग से समझ ही नहीं पाए है ..की किस परिस्थिति में फासिस्टो से लोहा लिया ...और सर्वहारा के राज्य की रक्षा की थी....।’
अब परेशान होने की बारी मेरी थी। अब ट्रोट्स्की कहां से आ गए बीच में। मैं तो बेचारे को जानता तक नहीं। ट्रोट्स्की के बारे में खोजबीन की तो पता चला उन्हें १९२९ में ही सोवियत संघ से निकाल दिया गया था. इसी के साथ कई और तथ्य पता चले। जैसे-१९३३ में हिटलर के सत्ता में आने पर, स्टालिन ने हिटलर को बधाई सन्देश भेजे थे। पता चला कि ‘स्टालिन साहब इस जुगाड़ में लगे रहे कि किसी तरह हिटलर के साथ उसका समझौता हो जाए। आखिर में सितम्बर १९३९ में स्टालिन ने यह कारनामा कर दिखाया. उसने हिटलर के साथ एक युद्ध संधि की जिसके अनुसार पोलैंड से शुरू करके समूचे यूरोप को हिटलर और स्टालिन की फौजों ने मिलकर चबा जाना था. दुनिया भर की स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी इस संधि से हतप्रभ रह गईं।’
कुल जमा मतलब यह कि ट्रोट्स्की ठीक वैसा सोचते थे जैसा कि मैं यहां सोच रहा हूं। सोच क्या रहा हूं स्टालिन के बारे में अब तक जितना कुछ पढ़ा, समझा और यूरोप की फिल्मों में जो देखा उसी से उनके बारे में ये धरणा बनी। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि सुभाष बाबू ने ऐसा क्या अत्याचार किया कि वह कामरेडो के निशाने पर आ गए। आपके पास एक भी तथ्य नहीं। सोच रहा हूं किसी विचारधारा का कैदी होना कितना खतरनाक है। साले, हिन्दुस्तान में जनमे। आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हो। हम जैसे सर्वहारा के टुकडों पर पल रहे हो। और गीत स्टालिन के गा रहे हो। अब आप कहेंगे मैं फासिस्ट हूं। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा देने वाले सुभाषचन्द्र बोस के साथ खड़ा होना अगर फांसीवाद है तो हां मैं फासिस्ट हूं। कोई शक?