दयाशंकर शुक्ल सागर

Wednesday, January 29, 2014

रावण जैसे मरना नहीं चाहते थे महात्मा

महात्‍मा गांधी का अंतिम दिन-2



बिरला हाउस में गोडसे की सेमी आटोमैटिक पिस्तौल की तीन गोलिया बापू के सीने में धंसी थी। मनु समझ नहीं सकी कि अचानक क्या हुआ। मनु ने नीचे देखा। उसे महात्मा के ‘सफेद वस्त्र पर सुर्ख रंग का
धब्बा फैलता नजर आया।’ बापू के हाथ जो सभा को नमस्कार करने के लिए उठे थे, धीरे - धीरे नीचे आ गये। उनका शिथिल शरीर धीरे से धरा पर लुढ़क गया। मनु की गोद में महात्मा हमेशा के लिए सो गए। उस वक्त शाम के 5 बजकर ठीक 17 मिनट हुए थे। गोली के धमाके से प्रार्थना सभा में भगदड़ मच गई। एक महात्मा का ऐसा दर्दनाक अंत। कोई पत्‍थर दिल इंसान भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था।
लेकिन पुणे का रहने वाला 38 साल का नौजवान नाथूराम गोडसे पत्‍थर ‌दिल रहा होगा।वह आरएसएस का सक्रिय सदस्य था जिसे बाद में जाहिरी तौर पर आरएसएस ने अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार कर दिया था। हालांकि नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अंत तक कहा कि उसके पूरे परिवार ने आरएसएस की सदस्यता ले रखी है। नाथूराम की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं थी। उसका असली नाम रामचन्द्र था। रामचन्द्र के जन्म से पहले उसके तीन भाई और एक बहन थी। नाथूराम के पिता पोस्ट आफिस में काम करते थे।उनका नाम विनायक वामनराव गोडसे था। रामचन्द्र के तीनों भाई पांच साल की उम्र से पहले ही चल बसे। पिता विनायक और मां लक्ष्मी को लगता कि अगला बेटा भी नहीं बचेगा। रामचन्द्र का जन्म हुआ तो गोडसे दंपति ने उसे लड़की की तरह पाला। वे उसे लड़कियों के कपड़े पहनाते। विनायक ने उसके लिए एक नथ भी बनवा कर पहना दी थी। उसे सब प्यार से नाथू-नाथू कह कर बुलाने लगे। रामचन्द्र का एक भाई और हुआ। तब जाकर रामचन्द्र को लड़की के रूप में छुटकारा मिला। लेकिन नाथू नाम से नहीं। उसका नाम रामचन्द्र की जगह नाथूराम हो गया। और संयोग देखिए महात्मा की मौत इस रामचन्द्र के हाथों ही लिखी थी।    

मनु को महात्मा के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिए थे। मनु के अलावा यह शब्द वहां खड़ी हजारों की भीड़ में किसी और ने नहीं सुने। इसलिए महात्मा के अंतिम शब्द ‘हे राम’ ही मान लिए गए। महात्मा की हत्या के बाद पूरे देश में भावुकता का जो माहौल बना था उसमें इस शब्द पर बहस की कोई गुंजाइश भी नहीं थी। महात्मा की समाधि से लेकर संपूर्ण गांधी वाङ्मय तक में ‘हे राम’ का प्रयोग किया गया।
बाद में खुद महात्मा के निजी सचिव प्यारेलाल ने ‘अत्यंत सावधानी और परिश्रमपूर्वक जांच’ करने के बाद नतीजा निकाला कि गांधीजी के मुंह से मूर्च्छित होते समय जो शब्द निकले थे वह ‘हे राम’ नहीं थे।  उन्होंने नए सिरे से खोज शुरू की। कई लोगों से बातचीत की।  और इस नतीजे पर पहुंचे कि बापू के  ‘अंतिम शब्द राम राम थे।’ ‘वह कोई आह्वान नहीं था परंतु सामान्य नाम स्मरण था।’ उन्होंने लिखा - ‘राम राम’ के बजाय ‘हे राम’ कर देना जनता की ऐसी ही भूलों का एक और उदाहरण है जो अंबर के टुकड़ों में घुन की तरह लगकर इतिहास में चिरकाल के लिए अंकित हो जाती हैं।’

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि प्यारेलाल को बापू के कथित अंतिम शब्दों पर संदेह क्यों उठा? वह खुद बापू के प्रिय थे और अंतिम दिनों तक उनके साथ थे। उन्होंने अपनी किताब पूर्णहुति में इसका जिक्र नहीं किया कि उन्होंने बापू के अंतिम शब्दों पर इतनी मेहनत क्यों की? क्या ये इतना जरूरी प्रश्न था?
मैंने गोडसे का कथन भी खोजा। उसका पूरा ध्यान गांधी पर रहा होगा। महात्मा को गोली मारने वाले हत्यारे नाथूराम गोडसे का दावा था कि महात्मा के मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द ‘आह’ था। ‘हे रा...’ या ‘हे राम’ या ‘राम राम’ नहीं। हत्यारे के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता लेकिन मनु के दिमाग में ‘हे रा...’ शब्द यूं ही नहीं आ गया था। महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा लेंगे, ये बात उसके अवचेतन में कहीं मौजूद थी।
इस सिलसिले में मैंने महात्मा की पोती मनु की डायरी दोबारा पढ़ी। दिलचस्प संयोग है कि उस दिन भी 30 जनवरी थी। 30 जनवरी 1947। बापू तब मनु के साथ नोआखली के आमकी गांव में थे। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर उठे विवादों के दौरान महात्मा ने मनु से कहा - ‘यदि मैं रोग से मरूं, तो यह मान लेना कि मैं इस पृथ्वी पर दंभी और रावण जैसा राक्षस था। परंतु यदि राम नाम रटते हुए जाऊं तो ही मुझे सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा महात्मा मानना।’ और इत्तेफाक देखिए उसके ठीक एक साल बाद उसी दिन यानी 30 जनवरी, 1948 को महात्मा का देहावसान हुआ। मनु की डायरी ‘एकला चलो रे’ के नाम से पहली बार 1957 में बाजार में आई। यानी बापू की हत्या के नौ साल बाद। वह मनु ही थी जो इस बात का सबसे बेहतर प्रमाण दे सकती थी कि मोहनदास कर्मचंद गांधी वाकई एक ‘सच्चे ब्रह्मचारी और सच्चे महात्मा’ थे। क्योंकि प्रयोग के दौरान उसने नोआखली के जंगलों कई रातें महात्मा के साथ निर्वस्‍त्र सो कर बिताई थीं। और यह प्रमाण उसने 30 जनवरी, 1948 की शाम यह कह कर दे दिए कि महात्मा राम का नाम रटते हुए विदा हुए। निसंदेह उसके अवचेतन में कहीं रहा होगा कि महात्मा गांधी राम का नाम लेते हुए इस दुनिया से विदा होना चाहते थे। हालांकि ये प्रमाण भी महात्मा के ब्रह्मचर्य के प्रयोग की तरह अधूरे थे। मनु ने सिर्फ हे रा.... सुना था। अगर मनु की माने तो महात्मा राम का नाम पूरा नहीं ले पाए थे। मैँ आज भी सोचता हूं कि महात्मा के गले में यह शब्द क्यों
अटक गया? जीवन भर दूसरों को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले महामानव की मौत हिंसा से हुई। महात्मा के जीवन का विरोधाभास उनके अंतिम क्षणों तक उनके सामने खड़ा था।


'महात्मा गांधीः किताब ब्रह्मचर्य के प्रयोग' पुस्तक से

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