दयाशंकर शुक्ल सागर

Friday, January 24, 2014

हां कामरेड मैं फासिस्ट हूं



और मैंने देखा कल अपनी वॉल पर उन कामरेडों ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अकेला पा कर घेर लिया। एक कामरेड ‌मित्र ने लिखा-‘सुभाष चन्द्र बोस का आकलन समग्रता में किया जाना चाहिये न कि भावुकतापूर्ण इकतरफा तरीके से। हिटलर और तोजो जैसे नरभक्षियों से उनकी मित्रता और संबंधों को भुला देना ऐतिहासिक रूप से घातक हो सकता है।’ गोया कि सुभाषचन्द्र बोस मेरे हीरो हैं फिर भी मैंने अपने कामरेड दोस्त की इस पोस्ट को लाइक किया। लगा एक खिड़की खुली नेताजी को भावुकता से इतर सोचने-समझने की। यही तो मजा है फेसबुक का। खैर मैँ दृष्टा बन गया इस पोस्ट का। और उस दीवार में गिरने वाले कमेंट्स का जायजा लेने लगा।
पहले प्रगतिशील कामरेड ने कमेंट गिरा- फ़ासिस्‍टों के साथ मोर्चा बनाने की सोच के अलावा भी सुभाष की राजनीति के अन्‍य पहलू है जो यह ज़ाहिर करते हैं कि वह आम मेहनतकश आबादी की सामूहिक शक्ति की बजाय चंद नायकों को इतिहास का निर्माता मानते थे। उनका नारा 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्‍हें आज़ादी दूंगा' भी इसी सोच का सूचक है। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने की बजाय युद्ध‍बंदियों को संगठित करके आज़ाद हिन्‍द फौज के ज़रिये आज़ादी हासिल करने का रास्‍ता भी इसी ओर इंगित करता है।
इस दीवार पर एक और कामरेड अवतरित हुईं। उनकी भाषा हिकारत से भरी जैसे कोई कविता हो। उन्होंने नया फतवा जारी किया-‘वह फा‌सिस्ट तो नहीं, हां एक निम्‍न पूँजीवादी उग्र राष्‍ट्रवादी थे।’‘मार्क्‍सवाद तो शायद उन्‍होंने पढ़ा तक नहीं था और समाजवाद की उनकी समझ नितांत सतही थी। सुभाष जनक्रान्ति के पक्षधर नहीं थे। उनका आर्थिक कार्यक्रम भी नेहरू के मुक़ाबले अधिक सतही राजकीय पूँजीवादी था।’ उनके विचारों का अंत इस वाक्य से हुआ...‘अफसोस की बात है कि जो कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी कभी उन्‍हें 'फासिस्‍ट सुभाष' कहते हुए एक छोर का अतिरेकी मूल्‍यांकन कर रहे थे, वे अब दूसरे छोर पर जाकर सुभाष को महान क्रान्तिकारी और समाजवादी तक सिद्ध करने में लगे हैं। यह अधिभूतवादी नज़रिया काफ़ी भ्रम पैदा कर रहा है। और नुकसानदायक भी है।’
इस बहस में कुछ उदारवादी कामरेडो ने हस्तक्षेप की कोशिश की लेकिन उनके विचार कुचल दिए गए। वे चुप हो गए। सोचा था इस बहस में नहीं पड़ूंगा पर नहीं रहा गया।
मैंने अपने कामरेड मित्र से निवेदन किया-‘मुझे लगता है नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज को थोड़ा गहराई से समझने की जरूरत है। देख रहा हूं कई लोग गलत नतीजे पर पहुंचने के लिए बेताब हैं। नेताजी का केवल एक लक्ष्य था भारत की आजादी। गांधी एंड पार्टी से निराश होने के बाद नेताजी के पास कोई और चारा नहीं बचा था। लेकिन वह जानते थे कि फा‌सिस्ट हिटलर को कैसे डील करना है। हिटलर अंत तक नेताजी की राजनीतिक विचाराधारा समझ नहीं पाया। वह उनका ‘पोलिटिकल कॉन्सेप्ट’ जानना चाहता था। सुभाष को ये नागवार गुजरा। उन्होंने एडम वॉन ट्रोफ्फ ज़ु सोल्ज (स्पेशल इण्डिया ऑफिस के चीफ) के जरिए हिटलर को जवाब भिजवाया- “अपने हिज एक्सेलेन्सी से जाकर कहिए कि मैंने अपनी सारी जिन्दगी राजनीति में बितायी है और मुझे किसी की भी सलाह की जरुरत नहीं है।”
मैंने हिकारत की कवियत्री को ‌चिढ़ाया-’क्या क्रान्तिकारी कामरेडों को याद नहीं कि इस युद्ध स्तालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था। सोवियत सैनिकों को एक कदम भी पीछे हटाने का आदेश नहीं था- पीछे हटने वाले सैनिकों को गोली मारने के लिए स्तालिन ने बाकायदे दस्ते तैयार कर दिए थे। इस दस्ते ने कैसे अपने ही उन सैनिकों को गोलियों से भूना था जिन्हें लड़ने के लिए बंदूक भी नहीं
दी गई थी।’
बस फिर क्या था। सुभाष बाबू तो किनारे निकल गए और मैं कामरेडो के गिरोह में फंस गया। कामरेड मित्र ने मुझे लिखा- इतिहास में हमारा आकलन हमारे इरादों से नहीं अपितु हमारे क्रियाकलापों और उनके परिणामों/ संभावित परिणामों से होता है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत छोड़ने के बाद अपने अंतिम क्षणों तक वे फासिस्टों के मित्र और कनिष्ठ सहयोगी बने रहे . और जहां तक 'स्टालिन कैसे हिटलर का बाप बन गया था' वाली टिप्पणी का प्रश्न है आशा ही कर सकता हूँ कि आप उनमें से नहीं हैं जो हर मुद्दे को भटका कर स्टालिन और साम्यवाद पर हमले का मौका तलाश करते हैं . बात सुभाष और उनके फासिस्टों से संबंधों के बारे में चल रही है इसमें स्टालिन कहाँ से आ गया ?
मैंने उन्हें सफाई दी कि- मुझे नहीं लगता सुभाष का कोई भी क्रियाकलाप उन्हें विश्व इतिहास में खलनायक ठहराता है। इसीलिए मुझे स्तालिन के क्रियाकलाप की याद आ गई ताकि कामरेड मित्रों का दिमाग एक तरफा न बहके। वैसे मुझे आपके कई विचार निजी तौर पर पसंद हैं। मैं चाहता था कि आपकी वॉल पर चल रही बहस में संतुलन बना रहे।
कामरेड मित्र ने मेरी असहमति का पूरा आदर देते हुए कहा कि- पर सुभाष को खलनायक तो यहां भी कोई नहीं ठहरा रहा है . खलनायक तो आपने स्टालिन को ठहराया है ' हिटलर का बाप ' कह कर .जबकि स्टालिन का ज़िक्र तो पूरी चर्चा में कहीं था ही नहीं . फैज़ की याद दिला दी आपने - वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।
मैंने भी उतनी ही विनम्रता से कहा- ‘जी, लगता है हम दोनों ने एक दूसरे की दुखती नब्ज पर हाथ रख दिया। खैर स्टालिन की क्रूरता के किस्से सारी दुनिया ने सुने हैँ। वह कम से कम मेरा नायक तो नहीं हो सकता। खैर एक शेर मैं भी अर्ज कर दूं नामालुम किसका है लेकिन मौजू है- हम जो डूबे हैं अब तक तो बड़े ताव में हो, तुम ये क्यों भूल गए तुम भी इसी नाव में हो’।
यह कह कर मैंने कहा कि चलता हूं अब। कामरेड मित्र ने बेहद सभ्य लहजे में धमकाया कि यही बेहतर होगा आपके लिए।
इसी बीच बहस में एक तीसरे कामरेड आ गए। बोले- ‘ ये दया सागर जी शायद ट्रोटस्की वादी हैं ....तभी तो स्टालिन को ''हिटलर का बाप'' बता बैठे ...शायद स्टालिन को ढंग से समझ ही नहीं पाए है ..की किस परिस्थिति में फासिस्टो से लोहा लिया ...और सर्वहारा के राज्य की रक्षा की थी....।’
अब परेशान होने की बारी मेरी थी। अब ट्रोट्स्की कहां से आ गए बीच में। मैं तो बेचारे को जानता तक नहीं। ट्रोट्स्की के बारे में खोजबीन की तो पता चला उन्हें १९२९ में ही सोवियत संघ से निकाल दिया गया था. इसी के साथ कई और तथ्य पता चले। जैसे-१९३३ में हिटलर के सत्ता में आने पर, स्टालिन ने हिटलर को बधाई सन्देश भेजे थे। पता चला कि ‘स्टालिन साहब इस जुगाड़ में लगे रहे कि किसी तरह हिटलर के साथ उसका समझौता हो जाए। आखिर में सितम्बर १९३९ में स्टालिन ने यह कारनामा कर दिखाया. उसने हिटलर के साथ एक युद्ध संधि की जिसके अनुसार पोलैंड से शुरू करके समूचे यूरोप को हिटलर और स्टालिन की फौजों ने मिलकर चबा जाना था. दुनिया भर की स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी इस संधि से हतप्रभ रह गईं।’
कुल जमा मतलब यह कि ट्रोट्स्की ठीक वैसा सोचते थे जैसा कि मैं यहां सोच रहा हूं। सोच क्या रहा हूं स्टालिन के बारे में अब तक जितना कुछ पढ़ा, समझा और यूरोप की फिल्मों में जो देखा उसी से उनके बारे में ये धरणा बनी। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि सुभाष बाबू ने ऐसा क्या अत्याचार किया कि वह कामरेडो के निशाने पर आ गए। आपके पास एक भी तथ्य नहीं। सोच रहा हूं किसी विचारधारा का कैदी होना कितना खतरनाक है। साले, हिन्दुस्तान में जनमे। आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हो। हम जैसे सर्वहारा के टुकडों पर पल रहे हो। और गीत स्टालिन के गा रहे हो। अब आप कहेंगे मैं फासिस्ट हूं। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा देने वाले सुभाषचन्द्र बोस के साथ खड़ा होना अगर फांसीवाद है तो हां मैं फासिस्ट हूं। कोई शक?

No comments: