दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, September 24, 2020

किसानों की कमाई से नेताओं की मौज

 


हिन्दी अखबारों में भी खेती किसानी की कवरेज को बहुत तब्बजो नहीं दिया जाता है. इसलिए कोई रिपोर्टर उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता. खेती की खबरें और कवरेज केवल कृषि निदेशालय तक महदूद रहती है. कोई पन्द्रह साल पहले जब मैं राजनीतिक और सचिवालय की कवरेज से ऊब गया तब मैंने खुद आगे बढ़कर एग्रीकल्‍चर बीट की पेशकश की जो मुझे मिल गई. तो मैं पहली बार मंडी परिषद के दफ्तर गया. ये मेरे दफ्तर के पास ही था. जब पहली बार मंडी परिषद में दाखिल हुआ तो लगा किसी फाइव स्टार होटल में आ गया हूं. शानदार इमारत, चमचमाती इटेलियन टाइल्स की फर्श,  कमरों में वुडन वर्क. पहली नजर में लगा ही नहीं किया इस दफ्तर का खेती किसानी से कोई लेना देना होगा. कोई किसान तो इस दफ्तर में घुसने की हिम्मत नहीं कर सकता था. तब मुझे पता चला कि अरबों रूपए की ये इमारत किसानों के पैसों से ही बनी है. उस जमाने में भी मंडी अफसर के आला अफसर और मंत्रीजी की आलीशान कारों की खरीद और उसका खर्च भी किसानों के पैसे से चलता था. दरअसल सरकार किसानों के बेचे गए अनाज से तब कोई ढाई फीसदी मंडी टैक्स लेती थी. कायदे से इस पैसे का इस्तेमाल सरकार को मंड़ियों को बेहतर बनाने और गांवों में सम्पर्क मार्ग बनाने, इन सड़कों की मरम्मत और इन्हें गड्ढा मुक्त करने में खर्च करना चाहिए था. ताकि किसान आसानी से अपनी उपज लेकर मंडी तक पहुंच सके. लेकिन हर साल करोडो में आने वाले मंडी शुल्क का इस्तेमाल मंत्री और अफसर राजशाही पर खर्च करते थे. राज्य में चाहे किसी की सरकार हो. लेकिन कागजों पर गांव की सड़कें गड्ढामुक्त होती रहीं. न कोई उन्हें देखने वाला न जांच करने वाला. ये कच्चा काम था इसलिए इसका आडिट भी नहीं होता है. मंडी परिषद के कुछ गिने चुने ठेकेदार, नेता और अफसरों से मिलकर पैसे बनाने लगे. इसके इलावा भी हजार तरीके हैं यहां पैसा कमाने के वहां. देखते देखते मंडी परिषद सबसे कमाऊ विभाग बन गया. आज इससे कभी न कभी जुड़ा हर नेता और अफसर करोड़पति बन गया है. न भरोसा हो तो जांच करावा के देख लीजिए. अब जब से नया कानून आया है मंडी से जुड़े अफसर कर्मचारियों के होश उड़े हुए हैं. यूपी के किसानों को न पहले ज्यादा मतलब था मंड़ियों से न अब रहेगा. मंडी रहे या चूल्हे भाड़ में जाए. लेकिन पंजाब और हरियाणा में ऐसा नहीं है. किसानों को साहूकारों और दलालों से बचाने के लिए रोहतक के सर छोटू राम ने आजादी से पहले ही यहां देश में पहली मंडी की स्‍थापना की. समझ लीजिए खुद किसान रहे छोटू राम पंजाब-हरियाण के छोटे गांधी थे. आज भी उनका नाम वहां  के किसान सम्मान से लिया जाता है. तो उनके कारण जो मंडी कानून बना वह पंजाब हरियाणा के किसानों की ताकत बन गया और वहां की अर्थव्यवस्‍था की धुरी भी.मंडी की वजह से कि वहां के किसान शुरू से ही धन सम्‍पन्न हैं. अब उन्हें लग रहा है कि ये मंडियां खत्म हो जाएंगी तो वे एक बार फिर बड़े साहूकारों के चंगुल में फंस जाएंगे. इसीलिए इन बिलों का वहां सबसे ज्यादा विरोध हो रहा है.       

 

तो कहने का मतलब चीजें इतनी आसान भी नहीं जितनी की ‌ऊपर से दिखती हैं. इन विवा‌दित बिलों के प्रभावों को बड़े परिपेक्ष्य में देखने और समझने की जरूरत है. सतही तौर पर अगर आप कोई नतीजा निकालेंगे तो बाद में बहुत पछताएंगे. क्योंकि आप किसान भले न हों एक उपभोक्ता हैं और उससे भी पहले आप इस देश के प्रबुद्ध नागरिक हैं. ये हमेशा याद रखिएगा नेता कोई संत-महात्मा हो या ईश्वर का भेजा गया कोई देवदूत. आखिर में वह नेता ही होता है.


Thursday, September 17, 2020

ज्योतिष विद्या का रहस्य




क्या आप ज्योतिष विद्या पर यकीन करते हैं? बहुत सालों तक मैं नहीं करता था. ये बड़ी बेढंगी बात लगती है कि आपसे लाखों मील दूर बैठे ग्रह नक्षत्र आपके जीवन को संचालित करें? क्या ये संभव है? अब जबकि मैं ज्योतिष विज्ञान का अध्ययन कर रहा हूं कह सकता हूं कि हां ये संभव है. न केवल संभव है बल्कि ये सब बहुत दिलचस्प है. ज्योतिष विद्या एक विज्ञान है. ये विशुद्ध गणित हैं। एक ग्रह है चन्द्रमा उसके उतार चढ़ाव से इतने बड़े समन्दर में लहरे उठती और गिरती हैं तो हम तो सिर्फ इंसान हैं जिसके शरीर में 60 फीसदी पानी है. इन दिनों मैं ज्योतिष विद्या पढ़ रहा हूं. मैंने अपनी कुंडली भी पढ़ी, जिसमें साफ साफ लिखा है- आप दूसरों को ज्ञान बांटेंगे? पढ़कर मुझे हंसी आ गई. आगे पढ़ता गया तो और बातें भी सच निकलती चली गई. अपने शुरूआती अध्ययन में जितना मैं ज्योतिष विज्ञान समझ पाया वह ये कि जिस वक्त हम जन्म लेते हैं ठीक उसी वक्त ब्रह्मांड में मौजूद ग्रह नक्षत्र हमारे जीवन की पूरी कहानी लिख देते हैं. ठीक उसकी वक्त तय हो जाता है कि हम अपने जीवन में क्या काम करने के लिए पैदा हुए हैं? हमारा जीवन कैसा होगा? हम परिवार कैसा होगा? हमारा चरित्र कैसा होगा‍‍? हमारा जीवन कितना होगा? इसी को जन्म कुंडली कहते हैं. ये सब उतना ही सटीक और वैज्ञानिक है जितना 2+2=4. लेकिन दिक्कत ये है कि हूबहू भविष्य बताने वाली इस गणित के मास्टर बहुत कम हैं. आप मुझे बस अपने जन्म का सही समय दिन, घंटे, मिनट और सेकेंड बता दें और ये बता दें कि आपका जन्म दुनिया के किस कोने में हुआ है. मैं या कोई और भी बहुत आसानी से कंप्यूटर से गणना करके बता देगा कि आपके के जन्म के समय ग्रह‌ और नक्षत्र कितने आकांक्ष पर थे और उन्होंने आपके जीवन पर क्या असर डाला जिसकी वजह से आप आज इस स्थिति में हैं. मैं आपके व्यक्तित्व के बारे में जो बातें बताऊंगा वह 90 फीसदी सही होंगी. अगर सही नहीं हैं तो इसका सिर्फ एक मतलब है कि आपके जन्म के समय के बारे में जानकारी कहीं गलत होगी. वर्ना ये गणना 100 फीसदी सही बैठती है. मजे की बात ये है कि इसमें कोई विवाद नहीं है. 

तो पहली बात जन्म कुंडली एक सेटालाइट पिक्चर की एक तरह है. ये आपके जीवन का फोटोग्राफ है. आपके जन्म के समय आसमान के ग्रह नक्षत्रों की जो तस्वीर खिंच गई उसे कोई नहीं बदल सकता. वो तस्वीर आपके जीवन से जुड़ गई जो आपकी मौत तक आपको पीछा नहीं छोड़ने वाली.  दूसरी बात ज्योतिष शास्‍त्र कहता है कि आपके जीवन में सुख दुख, अच्छे और बुरे दिन, यश अपयश ये सब जो आते जाते हैं उसकी वजह वर्तमान के ग्रह नक्षत्रों के मूवमेंट हैं जो आपके जीवन पर तात्कालिक असर डालते हैं. क्योंकि आपका जन्म एक खास ग्रह नक्षत्र के डिजाइन में हुआ है तो मौजूदा ग्रह नक्षत्रों की बदलती लोकेशन उस पर निरन्तर असर डालती रहती है. तो जीवन में कभी खुशी कभी गम के पीछे की थ्योरी की वजह यही है. 

तो अब तक जो बातें मैंने बताईं उससे साफ है कि आपका जीवन आपके नियंत्रण में बिलकुल नहीं है. आपके नियंत्रण में सिर्फ कर्म है. हो सकता है कि आप बहुत योग्य हैं, बहुत काबिल हैं बहुत कर्म करते हैं लेकिन फिर भी आप कामयाब नहीं हैं.तो इसके पीछे वजह आप नहीं है. आपके ग्रह नक्षत्र हैं जो आपके सारे कर्म के बावजूद आपको आगे नहीं बढ़ने देते. जबकि आपसे कहीं मूर्ख इंसान तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते जाता है. माफ कीजिए आप पाएंगे कि उसकी जन्म कुंडली में यही लिखा है. इसी को किस्मत या डेस्टनी कहते हैं. लेकिन इससे आप निराश कतई न हो. अपना कर्म जारी रखें. उससे आप भले आपको मनचाहा नतीजा न हासिल हो लेकिन अगर आपने थक कर किस्मत से हार मान ली और कर्म छोड़ दिया तो यकीन जानिए आपकी हालत बद से बद्तर हो जाएगी. और मजे की बात ये कि ये बात भी आपकी जन्म कुंडली में कहीं जरूर लिखी होगी.  

मेरी अब तक की बनी समझ से ज्योतिषी का काम बस यही खत्म हो जाना चाहिए. वो इसके आगे आपकी कोई मदद नहीं कर सकता. क्योंकि वो किसी भी कीमत पर आपकी किस्मत नहीं बदल सकता. हां वो अपनी जेब भरने के लिए आपसे ग्रह शांति के लिए पूजा-यज्ञ-हवन आदि करने की सलाह दे सकता है. या फिर आपको कोई खास पत्‍थर सा रत्न पहनने की सलाह दे दे. लेकिन मुझे नहीं लगता इससे कोई बहुत असर पड़ता होगा. कुछ लोगों को पत्‍थर पहनने से कोई फायदा मिला भी होगा लेकिन ये सिर्फ संयोग या इत्तेफाक है. इसके पीछे कोई सांइस होगी ऐसा नहीं है. या अगर हो तो उसका आविष्कार अभी तक तो नहीं हुआ है. लेकिन आप ये मानिए कि ज्योतिष एक विज्ञान है लेकिन इसके जानकार चंद ऊंगलियों पर गिने जाने वाले लोग हैं. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 99 फीसदी ज्योतिषी फ्राड हैं. उनका ज्योतिष का ज्ञान बहुत सीमित है. लेकिन उसी से उनका काम खूब अच्छे से चल जाता है. क्योंकि लोगों को अपना भविष्य जानने में रूचि है. जिसका कोई मतलब नहीं. अपना भविष्य जानना निरी बेवकूफी है खास तौर से तब जब आप जानते हैं कि उस भविष्य को दुरुस्त करने के लिए आप या कोई और कुछ नहीं कर सकता. ये बात निराशाजनक जरूर है लेकिन जो है सो है. क्या कीजिएगा आप?  



Wednesday, September 9, 2020

अंधेर नगरी चौपट राजा

 



बनारस में एक है ठठेरी बाजार. लॉकडाउन से थोड़ा पहले ही मैं वहां गया था. बनारस के संगीतज्ञ मर्मज्ञ और काशी संगीत समाज के संयोजक कृष्णकुमार रस्तोगी के निधन पर. वे भी ठठेरी बाजार में रहते थे. गजब प्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे लेकिन उन पर फिर कभी. तो ये ठठेरी बाजार पतली से एक गली है जहां कभी ठठेरे रहे होंगे. लेकिन आज कल तो इस गली के दोनों तरफ तरह तरह की मिठाई, नमकीन, अचार, पापड़ और न जाने कितनी चटपटी चीजों की दर्जनों दुकानें हैं. इसी गली में बनारस का मशहूर राम भंडार है. बाबा काशी विश्वनाथ के दर्शन के बाद जहां की पूड़ी कचौड़ी खाए बिना बनारस दर्शन अधूरा है. इसी गली में चौखंबा के पास हिंदी के प्रसिद्व साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का घर हुआ करता था, जो आज भी भारतेंदु भवन के नाम से उपेक्षित पड़ा है. उनके पोते पर पोते आज भी वहां रहते हैं. आज इन्हीं भारतेंदु जी की जयंती है. भारतेंदु जी मुझे बचपन से याद रहे हैं अपने प्रसिद्ध नाटक 'अंधेर नगरी' के कारण. उनका अंधेर नगरी चौपट राजा का मशहूर नाटक हर युग में प्रासंगिक है, जिसमें एक विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए राजा को अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है. कहते हैं भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंदू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी. इस नौजवान ने केवल 35 साल में दुनिया छोड़ दी लेकिन उससे पहले उन्होंने इस देश को एक भाषा दी जिसे आधुनिक हिंदी कहते हैं. क्योंकि उससे पहले हिन्दी अलग अलग बोलियों में बोली और लिखी जाती थी. खड़ी बोली जिसे मैं लिख रहा हूं और आप पढ़ रहे हैं वो भारतेंदु जी की ही देन है. तो आप समझ सकते हैं कि हिंदी में ये कितना बड़ा योगदान है उनका. बचपन में बहुत कम उम्र में माता-पिता के गुजर जाने के बावजूद वे बहुत खुश मिजाज थे. पैसेवाले परिवार के खाते पीते आदमी थे. लेकिन उनमें अंग्रेजों के खिलाफ एक गहरा व्यंग्य और गुस्सा भी था. 1857 की क्रान्ति के बाद तब भारत नया नया ब्रिटेन की रानी के कब्जे में आया था. कोई 1877 का किस्सा है. इंग्लैंड का एक बड़ा अफसर एडवर्ड काशी आया था. काशी के कलेक्टर ने उनसे मिलने के लिए 500 रू की फीस रख दी. ये रकम बहुत ज्यादा थी. उस जमाने में बिजली तो थी नहीं मशाल जलाई जाती थी इसके लिए बाकायदा मशालची होते थे. तो भारतेंदु जी ने अपने मशालची को 500 रू देकर एडवर्ड के पास यह सिखा कर भेजा कि जब उनसे मिलना तो अंग्रेजी में बोलना-आई एम मशालची ऑफ मिस्टर भारतेंदु हरिश्चन्द्र. मशालची अफसर एडवर्ड को यही कह कर लौट आया. एडवर्ड का अहंकार टूट गया और वो मशालची को हैरत से बस देखे जा रहे थे. कलेक्टर शर्म से पानी पानी हो गया.                                                                                                                                                                                                                                                                                                               तो ये कहानी उन लोगों के लिए है जो मुझे कहते हैं- काहें #टेंशन लेकर बैठे हैं.. #मिडिया अपना काम कर रही हैं आप अपना करें.. हर समय आपके अनुसार थोड़ी चलेगी दुनिया.

Tuesday, August 11, 2020

राहत इंदौरी: शायरी का हुनरमंद मदारी



दुबई के उस शानदार आडिटोरियम में मुशायरे की सारी तैयारी पूरी हो चुकी थी. लेकिन इस बार ऐन मौके पर राहत इंदौरी नहीं आए. राहत साहब की शायरी पढ़ने के अंदाज पर मैं गजब फिदा था. वो एक अदद ऐसा लुटेरा था जो गजल पढ़ने से पहले ही मुशायरा लूट लेता था. शेर पढ़ने का उनका नाटकीय ढंग समां बांध देता था-‘किसने दस्तक दी ये दिल पे, कौन है? फिर राहत भाई इस लाइन को अपने खास अंदाज में एक-एक लफ्ज पर जोर देकर तीन बार दोहराते थे. फिर मुशायरे में थोड़ा समां बांधेंगे-‘मैं शेर पढ़ कर बताता हूं मुन्नवर भाई आप सुन कर बताइएगा.’ फिर अगली लाइन में हाथ हिलाते हुए आपको चौकाएंगे-‘आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है?’ इस तरह पब्लिक को किसी हुनरमंद मदारी की तरह खुश करके राहत भाई खूब तालियां बटोरते और मुशायरा लूट लेते थे. लेकिन उस बार वह दुबई नहीं आए. मैं बहुत मायूस हुआ था. मेरे दुबई के दोस्त रेहान भाई ने बताया कि उनके जिस्म में शक्कर की गिनती अचानक इतनी बढ़ गई है कि डाक्टर ने घर से निकलने से मना कर दिया. ये अफवाह नहीं पक्की खबर थी, क्योंकि इस मामले में राहत भाई अक्सर ये कह कर सब पर इलजाम लगाते हैं कि ‘अफवाह थी कि मेरी तबियत खराब है/ लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया।’ अरे भाई लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया कि आप खुद बे-परहेजी के शिकार हो गए. पर मैं जानता हूं शायरों की दुकान ऐसे ही चलती है.

आज शाम दफ्तर में ही था कि खबर आई कि राहत भाई नहीं रहे. ये मेरे लिए एक सदमे जैसा था. मैंने मुम्बई में अपने दोस्त आफताब भाई से पूछा- यूं अचानक कैसे? उन्होंने बताया कल रात में बात हुई. तो एकदम ठीक थे. लेकिन अभी खबर आई कि शाम दिल ने धोखा दे दिया. फेफड़े पहले से कमजोर हो चुके थे. ऊपर से चीनी वायरस का हमला. अक्सर मुशायरों में वह शेर की एक लाइन पढ़ते फिर सुनने वालों से बोलते- इसे संभाल लीजिएगा, अगर इसे संभाल लिया तो राहत इंदौरी संभल जाएगा. जब वह कोरोना के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती हुए तो मुझे लगा उन्होंने डाक्टर से भी जरूर कहा होगा- इसे संभाल लीजिएगा डाक्टर साहब अगर इसे संभाल लिया तो राहत इंदौरी संभल जाएगा. 

लखनऊ में उनसे एक दो बार की मुलाकात है. बहुत पहले अखबार के लिए उनका ए​क इंटरव्यू भी लिया था. जो तेवर उनकी शायरी में थे वही तेवर उनकी बातचीत के लहजे में थे. 'सब की पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए. सोचता हूं कोई अखबार निकाला जाए.' मैंने उनके इस शेर के हवाले से पूछा कि अखबारों और सहाफियों (पत्रकारों) के बारे में आपके ख्यालात अच्छे नहीं हैं? तो खूब जोर से हंसे. बोले- 'सच कहूं तो सागर भाई अखबार के बिना मेरी सुबह नहीं होती.' फिर उन्होंने अपना एक और शेर सुनाया-"बनके एक हादसा बाजार में आ जाएगा, जो नहीं होगा वह अखबार में आ जाएगा." मैंने भी मुस्कुरा कर कहा- "ये तो अखबार में जरूर आ जाएगा."  अब तक कोई बड़ा अवार्ड ने मिलने के सवाल पर उन्होंने कहा था-सारी सरकारें कम्बखत एक-सी तसीर होती हैं. अपने खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहतीं. एक बार तो सरकार के खिलाफ कोई शेर लिखने पर उन्हें थाने में बैठा लिया गया था. राहत भाई ने कहा-अरे दारोगा साहब इस शेर में मैंने कहां कहा कि भारत की सरकार चोर मक्कार है. दरोगा हंसे और बोले-जैसे हमें नहीं पता कि कहां कि सरकार चोर मक्कार है. ये किस्सा वे अक्सर मुशयरों में सुनाया करते थे. जितनी अच्छी शायरी वो सियासत पर करते थे उतनी ही अच्छी शायरी वे इश्को-मुहब्बत पर कहते थे. वे कहते कि मेरा शहर अगर जल रहा है और मैं कोई रोमांटिक ग़ज़ल गा रहा हूं तो अपने फ़न, देश, वक़्त सभी से दगा कर रहा हूं. मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाने की नसीहत देने वालों को राहत ने बेहद माकूल जवाब दिया- जो आज साहिबे-मसनद है कल नहीं होंगे/किराएदार है जाती मकान थोड़ी है/सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में/किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है. अब अतिवादियों को ये शेर भी बुरा लग गया. लेकिन उन्हें किसी के बुरा लगाने की परवाह कहां थी. वो तो बस शायरी करते थे जिसमें तल्खी के साथ कोई गंभीर इशारा होता था जो सोचने पर मजबूर कर देता था.. लेकिन इसमें तो शक नहीं कि राहत को हिन्दुस्तान से इश्क था जो उन्होंने लिखा- 'मैं मर जाऊं, तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना'    

खैर जब दिमाग पर पर्दा पड़ा हो तो किसी को समझाना मुश्किल है. शायर बहुत से हैं और होंगे लेकिन अब राहत जैसा शायर फिर कभी नहीं होगा. खैर आज देर रात इंदौर के खजरान कब्रिस्तान में उनको दफ्न कर दिया गया. जहां वह एक बार फिर कह सकते हैं- "दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो है, ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया." अब ये जमींदार हिन्दुस्तान की जमीन में खाक हो गया. निकाल सको तो निकाल दो उन्हें इस मिट्टी से.  

Monday, July 6, 2020

ईश्वर के बगीचे के आम


वह सावन के रिम‌झिम महीने की एक खुशनुमा दोपहर थी। आसमान पर गहरे काले बादल छाए थे। मां और पापा दोनों घर की क्यारी में पिछले दो घंटे से व्यस्त थे। मुझे धुंधला-सा याद है कि पापा उस किचन गार्डन की मिट्टी में दबी तमाम पुरानी ईंटों को बाहर निकाल रहे थे। ये काफी परिश्रम भरा काम था क्योंकि ईंटें काफी नीचे तक दबी थीं। मैं यूनिवर्सिटी के लिए निकल रहा था। उस छोटे-से करीब दस बाई चार फीट के किचन गार्डन में आम का एक पौधा लगाने का 'यज्ञ' चल रहा था। पूछने पर पता चला कि ये आम्रपाली की कोई कलम थी, जो हमारे मामा बस्ती की किसी नर्सरी से खरीद कर लाए थे। मुझे याद है मैंने बड़ी बेपरवाही से पूछा था कि-'अब ये आम्रपाली क्या बला है?' तो पापा ने बताया कि यह दशहरी और नीलम के क्रॉस से बनी संकर प्रजाति है। इसकी जड़ें गहरी जाती हैं लेकिन पेड़ बहुत ऊंचा नहीं जाता। पांच छह साल में ये मीठे फल देने लगता है। फिर मिट्टी में दबी एक ईंट दिखाते हुए बोले-'नीचे जडों के फैलने के लिए जगह बना रहा हूं.' मैंने हैरानी से मुस्कुराते हुए सिर्फ 'अच्छा' कहा था। पापा ने वो पौधा मां के हाथों से लगवाया। ये कहते हुए कि- 'तुम्हारी मां के हाथ के लगे पौधे जी जाते हैं.' मैं यूनिवर्सिटी पढ़ने निकल गया। अगले दिन देखा तो पापा किसी फेवरीकेटर को बुलवा कर सड़क से सटे उस किचन गार्डन में लोहे की जाली लगवा रहे थे। फिर मैंने उस पौधे पर कभी ध्यान नहीं दिया। हां शाम को यूनिवर्सिटी से लौटते वक्त रोजाना सिर्फ इतना जरूर देखता कि मां रबर के पाइप से उस क्यारी में पानी दे रही होतीं। वह हमेशा स्कूटर बाहर खड़ा रखने को कहतीं ताकि कीचड़ से सने टायर लेकर मैं अंदर का बरामदा गंदा न कर दूं।


दिन, महीने और साल बीतते गए। वह आम का पेड़ मेरी स्‍मृतियों से कभी अलग नहीं हो पाया। घर में जब भी अनुष्ठान होता, घर के ही आम के पेड़ की सूखी लकड़ियां और पल्लव पूजा-हवन के काम आते। इतने बरसों में घर में कई मांगलिक कार्यक्रम हुए। आम के उस पेड़ की हरी पत्तियों से ही घर में तोरण द्वार बनाए जाते। कलश में पंच पल्लव डाल कर उसके ऊपर घी का दीया जलाया जाता। लखनऊ जैसे ठेठ शहर की कालोनी के घर में आम का 'अपना' पेड़ होना मां और पापा को कितनी खुशी का अहसास देता होगा इसका अंदाजा मैं अब इस उम्र में आकर लगा सकता हूं। अब हमारे घर आने वाले हर बसंत का स्वागत आम का यही पेड़ करता। फरवरी-मार्च के महीने में वह आम्रपाली का पेड़ बौर से लकदक हो जाता। और कभी बारिश होती तो बसंती हवा के साथ मिलकर उस अमौरी की खुशबू सांसों में जादू-सा नशा भर देती। सुबह जब पहली मंजिल की बालकनी से नीचे किचन गार्डन की तरफ देखता तो ओस की बूंदों के साथ आम के बौर चमेली के सफेद फूलों की तरह जमीन और सड़क पर बिखरे पड़े रहते। उस पेड़ पर चिड़ियों के झुंड के झुंड चहचहाते रहते। आम तौर पर कम हाइट तक बढ़ने वाले इस पेड़ का कद, हमारे दो मंजिला घर से भी ऊंचा निकल गया। जब आम का सीजन आता तो लगता कि किसी ने पेड़ पर हरे बल्ब की झालर टांग दी हो। इसके बाद एक लम्बा सिलसिला शुरू होता आम की रखवाली का। क्योंकि पेड़ घर के बाहर सड़क के किनारे था सो आम्रपाली के ललचाने वाले सुंदर आम राहगीरों के कदम रोकने लगे थे। भरी दोपहरी मां पेड़ पर पत्‍थर फेंकने वालों लड़कों को डपटतीं। कभी प्यार से बुलाकर टूटे हुए आम उन्हें बांट देतीं।


और फिर एक दिन मां नहीं रहीं। जब वह घर से अंतिम यात्रा के लिए निकल रही थीं तो मैंने महसूस किया कि उस दिन हम सबको को बिलखता देख वह पेड़ भी रोया था। दुख, पीड़ा और संताप के उन तेरह दिनों में मैं उस पेड़ को कई बार एकटक देखा करता था और तब आंखों में आंसुओं के गुबार में मुझे आम्रपाली का पौधा रोपती मां की वह पुरानी धुंधली तस्वीर दिखाई देती थी। मैं तब उन पुरानी स्मृतियों को एक झटके से अपनी यादों के धुंधलके से निकाल देना चाहता था क्योंकि वह मुझे तकलीफ पहुंचा रही होती थीं। जीवन में ऐसे क्षण कई बार आते हैं जब  जिन्दगी और मौत के बीच, सुख और दुख के बीच, आशा और निराशा के बीच, ठहरे हुए किसी एक लम्‍हे में इंसान अपनी सारी स्मृतियों को किसी गहरे समन्दर में दफन कर देना चाहता है। मुझे अच्छी तरह से याद है उस साल इस आम्रपाली पर एक भी बौर नहीं आया. और तब मैंने महसूस किया था कि पेड़ पौधे भी अपनी तरह से शोक मनाते हैं जब शिद्दत से जुड़ा कोई हिस्सा उनसे टूट जाता है। फिर चाहे वह पेड़ से अलग हुई कोई डाली या टहनी हो या कोई पत्ता क्यों न हो।

मां के चले जाने के बाद वह घर जैसे छूट ही गया। कभी कभी मुझे लगता है कि मां खूंटे से बंधी किसी गाय की तरह होती है जिसके आस पास एक दुनिया बस जाती है। उसके चले जाने के बाद ममता का वह आंचल जो ‌कभी नीला आसमान बनकर आपके ऊपर लहराता रहता है, हट जाता है और आप खुद को सूरज की तपती धूप के नीचे खड़े असहाय महसूस पाते हैं। हम सब वह घर छोड़ कर बाहर जिन्दगी की जद्दोजहद में मशगूल हो गए। अब उस घर में कोई नहीं रहता। मैं अपनी दुनिया में हूं, भाई और बहन अपने-अपने जहान में। और हम तीनों की दुनिया के बीच कहीं हमारे पापा हैं। जो एक अदृश्य और अंतरंग कड़ी बन कर हम तीनों से कहीं गहरे जुड़े हुए हैं। लेकिन हमारा वह घर वहीं है, आम का वो पेड़ वहीं हैं, उस पेड़ के पत्तों के झुरमुट में झांकता नीला आकाश वहीं है और मां से जुड़ी वह तमाम यादें वहीं उस घर के हर दरवाजे, हर खि़ड़की, और हर रोशनदान से आती सूरज की रोशनी की तरह मौजूद हैं अपने पूरे अस्तित्व के साथ। हर साल जब भी गर्मियां आती हैं उस आम्रपाली पर हजारों आम लद जाते हैं। ज्यादातर आम तो पकने से पहले ही सड़क से गुजरने वाले लड़के तोड़ ले जाते हैं। लेकिन हमारे पडोसी और पुराने मित्र विनय पांडे और उनकी सुसंस्‍कारी पत्नी रितु भरी दुपहरी हो या शाम, उन आमों की भरसक रखवाली करते हैं। हर साल चार पांच पेटी आम दूसरे शहरों में बसे हम भाई बहनों के घर पहुंच जाते हैं। हालांकि इन आमों को पहुंचाने का खर्च इनकी कीमत से कहीं ज्यादा बैठ जाता है। लेकिन हमारे अंतस की अतल गहराइयों से जुड़े ये आम इतने स्वादिष्ट और दिव्य हैं कि ये हम तक पहुंचते-पहुंचते ये बेशकीमती हो जाते हैं। पतली गुठली के ये रसीले खुशबुदार आम इतने स्वादिष्ट हैं जिनका मुकाबला दुनिया में आम की किसी अन्य वैरायटी से नहीं किया जा सकता। ये मैं इसलिए नहीं कह रहा कि इन आमों से हमारा कोई भावनात्मक रिश्ता है। आप खुद नेट पर सर्च कर सकते हैं। दुनिया भर के बाजार में आम्रपाली की सबसे ज्यादा मांग है क्योंकि इस किस्म के आमों में कैरोटीन की मात्रा सबसे अधिक रहती है। हर साल हम सब बहुत बेसब्री और बेताबी से अपने घर के आमों का इंतजार करते हैं। कभी-कभी तो सोचता हूं कि सावन की उस खुशनुमा दोपहरी में मेरी मां के आंचल तले पौधे के रूप में एक और शिशु ने करवट ली थी। जो अब बड़ा होकर अपने परिवार के बाकी सदस्यों को हर साल ये मीठे तोहफे भेजता है।


लखनऊ दशहरी और तमाम तरह के नवाबी आमों का गढ़ है लेकिन मेरे भांजे को इस पेड़ सिवा कोई और आम अच्छा ही नहीं लगता। उसे इन आमों में 'नानी की खुशबू ' महसूस होती है क्योंकि उसकी नानी उसके लिए पके आम हमेशा सबसे अलग छुपा कर रखतीं थीं। दिल्ली में अपने दादू के साथ रह रही मेरी प्यारी भतीजी सारे सीजन सिर्फ 'अपने घर' के आम का इंतजार करती है। परसों उसे आम मिले तो भावुक हो गई। बोली- 'बड़े पापा इस आम के पेड़ को कभी कटने मत दीजिएगा.' और इन आमों के शिमला पहुंचते ही मेरी शरारती बेटी को ताराहाल कान्वेंट की अपनी क्लास की दोस्तों को जलाने का मौका मिल जाता है। शिमला की हर लड़की के पास अपने गांव के सेब बागान के किस्से हैं। उसके जवाब में वह दादी के इस पेड़ और इसके मीठे आमों का बखान करते नहीं थकती। वह इतराते हुए कहती है-"तुम्हे क्या पता मेरी ग्रैंड मां हर साल हमें 'ईडन आफ गार्डन' से ये मीठे आम भेजती हैं।" अब तो मुझे भी लगने लगा है कि ये दिव्य आम हमारे किचन गार्डन के नहीं वाकई ईडन आफ गार्डन यानी ईश्वर के बागीचे से ही आते होंगे।


तो आप देखिए आम के एक अदद पेड़ के बहाने कैसे बच्चे अपनी प्यारी दादी-नानी को आज भी याद करते हैं। इस संस्मरण का यही संदेश है। कैसे एक छोटा सा पौधा व्यक्ति को पर्यावरण से एकाकार करता है। आप भी अपने मां-पिता के हाथों मीठे आम का एक पेड़ लगवाइए। कहीं भी। उस पर थोड़ा-सा ध्यान दीजिए उसकी रक्षा कीजिए। यकीन जानिए वे खुद बड़े हो जाएंगे। वो पेड़ उनके न रहने पर भी बरसों बरस उन्हें स्‍मृतियों में जिंदा रखेगा। देह मर जाती है लेकिन उस देह की कृति और कीर्ति कभी नहीं मरती। वह इंसान हो या कोई पेड़। आप कभी महसूस कीजिएगा कोई भी पौधा लगाते वक्त आपकी हथेलियों की गर्माहट उस पौधे की जडों के साथ हमेशा के लिए जमीन में बची रह जाती है, जैसे ढलता हुआ सूरज अपनी तमाम तपिश खोने के बावजूद दूसरों के लिए अपनी थोड़ी-सी गर्माहट अपने अंदर हमेशा बचाए रखता है।

End

Tuesday, May 19, 2020

एक इंसान जो तितलियों के लिए घर बनाता है



जैव विविधता के प्रयोग -2


ऐसा आदमी सच में आपको अजीब लगेगा जो दीमक और चूहों के लिए घर बनाता हो। या तितलियों को अपने फार्म हाउस में रहने का निमंत्रण देता हो और मधु मक्खियों को अपने खेतों में बुलाता हो ताकि उनके परागण से खेतों में उसकी फसलें लहलहा उठें। आप खामोशी से कितने बड़े काम कर गुजरते हैं। न प्रचार की लालसा न प्रसिद्ध की अभिलाषा। बस एक निष्काम कर्मयोगी की तरह प्रकृति से अंतरसंबंध बनाने की साधना। Akhilesh Kumar Mishra जी का फार्म हाउस उनके जिस पैतृक खेतों के बीच बना उसे गांव वाले भुतहा कहते थे। पंडितजी के पिता खुद दारोगा थे और उनका बेटा भी जब पुलिस में चला गया तो गांव वालों ने सोचा कि अब ये परिवार गांव लौटने वाला नहीं। शहरों में नौकरी करने वालों के साथ प्रायः ऐसी ही धारणा जुड़ी हुई है। जमीन से उजड़े लोग कहां वापस लौटते हैं। शहर उनको निगल लेता है या उन्हें अपना गुलाम बना लेता है। मजदूर सिर्फ वे नहीं जो ईंट सिमेंट उठाते हैं। सफेद कमीज पहने भी बहुत से मजदूर हैं जो भले मरसडीज से चलते हैं लेकिन दफ्तरों में मालिकों की गुलामी करते हैं। भले गांव में उनके बाप दादाओं की सैकडों एकड़ जमीन परती यानी बेकार पड़ी है। पंडित जी अपने बाप दादाओं की इस जमीन को 'ईश्वर का उपहार' मानते हैं। जब वे यहां आए तो उन्होंने देखा कि उनके बागों के पेडों के तनों पर दीमक लग गए हैं। उनकी जडों में खेतों में चूहों ने बिल बना लिए थे। ठीक वैसे ही जैसे मेरे लखनऊ के घर पर लगे आम्रपाली पेड़ पर दीमक लग गए थे। और किसी की सलाह पर मैंने पेड़ के तने पर कीटनाशक छिड़क कर कितनी आसानी से उन दीमकों से निजात पा ली थी। लेकिन मिश्रजी ने ऐसा नहीं किया। दरअसल दीमक अपने भोजन के लिए सूखी चीजों पर आक्रमण करते हैं और लकड़ी खोखली होने लगती है। लेकिन उन्होंने दीमकों और चूहों के खाने के लिए अलग ब्लाक बना दिए। थोड़ी सी सूखी घास और मिट्टी का ढेर। फिर मदर टरमाइट वहां आ गई। इनकी कालोनी अरबों खरबों की आबादी वाली होती है। और देखते देखते असंख्य दीमकों का परिवार वहां बस गया। ऐसे ही फंफूद हैं। वे भी एक तरह से कीट है जो प्रायः 80 फीसदी फसलों को नष्ट कर देते हैं। अक्सर किसान इन फफूंद को कीटनाशकों से इन्हें खत्म कर देते हैं। लेकिन पंडितजी ऐसा नहीं करते। वे इन्हें भी बचाते हैं। इसी को हम जैव विविधता या बायो डायवरसिर्टी कहते हैं। यानी प्रकृति को नष्ट किए बिना उसके साथ रहना। और इसके पीछे एक रहस्यमय विज्ञान है। खेतों में इन दीमकों, फफूंदियों का रहना बेहद जरूरी है। दरअसल हमारे खेतों में दो तरह के कीटाणु होते हैं। मित्र कीट और शत्रु कीट।  मित्र कीट मिट्टी के कल्चर को क्रिएट करते हैं। वे शत्रु कीट से लड़ते हैं। उन्हें विकसित नहीं होने देते। जब हम खेतों में कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं तो वे मित्र कीटों को भी मार डालते हैं।     
 उनके बाग में फूल तो खिल गए। लेकिन उस बियाबान इलाके में तितलियां कहां से आएं? तो उन्होंने अपनी बगियां में ऐसे फूल लगाए जिनसे तितलियां प्यार करती हैं। कहते हैं तितलियों का दिमाग़ बहुत तेज़ होता है। देखने, सूंघने, स्वाद चखने व उड़ने के अलावा जगह को पहचानने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है। दिन के समय जब यह एक फूल से दूसरे फूल पर उड़ती है और मधुपान करती है तब इसके रंग-बिरंगे पंख बाहर दिखाई पड़ते हैं। पंडितजी ठीक इसी वक्त उनकी तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लेते हैं। वयस्क होने पर ये तितलियां आमतौर पर ये उस पौधे या पेड़ के तने पर वापस आती हैं, जहां इन्होंने अपना शुरूआती वक्त बिताया होता है। इसी तरह 'हनी लविंग फ्लावर' का लालच देकर वे मधु मक्खियों को अपने यहां ले आए। फूल तो लगा लिए अब इन मधु मक्खियां  रोका कैसे जाए? उन्होंने इसका भी अध्ययन किया। दरअसल मधु मक्खियां बहुत लम्बी लम्बी यात्राएं करती हैं। इससे उनके शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है। इसके लिए उन्होंने फार्म हाउस में एक छोटा सा तालाब बनाया।
तालाब के ऊपर उड़ कर मधु मक्खियां पानी के वाष्प से ठंडक पाती हैं और उनका तापमान सामान्य हो जाता है। ऐसी जगह रहना कौन नहीं चाहेगा जहां उनके लिए हर सुविधा मौजूद हो। सुबह ध्यान के वक्त ये तितलियां और मधु मक्खियां उनके इर्द गिर्द होती हैं। पंडितजी कहते हैं कुछ मेरी आंतरिक प्रज्ञा और कुछ इनकी आंतरिक प्रज्ञा मिलकर हम दोनों को शहर के कोलाहल से दूर इस शांत वातावरण में एक साथ रहने पर मजबूर करती है। अब हम दोनों एक दूसरे को नहीं छोड़ सकते। और वे अपनी श्रीमतीजी की तरफ देखकर मुस्कुरा कर कहते हैं-'और इनको इलाहाबाद जाना है तो जाएं।'





प्रकृति की गोद में जिन्दगी की खोज




मेरे एक मित्र हैं Akhilesh Kumar Mishra। बेहद संवेदनशील, विद्वान और भले मानस। आध्यात्मिक किस्म के इंसान हैं। पुलिस इंटेलीजेंस में बड़े अफसर थे। इलाहाबाद के पॉश इलाके में उनका घर है। बच्चे बड़े होकर नौकरी करने चले गए। घर काटने को दौड़ता था। सो रिटायरमेंट के बाद उन्होंने बनारस के पास अपने गांव में जीवन जीने का फैसला किया। उन्हें लगा प्रकृति के आंचल में ही वे ईश्वर के सबसे ज्यादा करीब रह सकते हैं। उनकी जीवन संगनी भी तकरीबन उन्हीं के मिजाज की हैं लेकिन वे थोड़ी व्यवहार कुशल भी हैं। एक लम्बा अरसा शहर में गुजारने के बाद गांव की जिन्दगी आसान नहीं थी। सो उन्होंने साफ कह दिया कि वह एक शर्त पर गांव जाएंगी कि वहां वे सारी चीजें मौजूद हों जो उनके शहर के घर पर थीं। खास तौर से किचन क्योंकि स्‍वदिष्ट और दिव्य व्यंजन बनाने की कला में उन्हें महारत हासिल है। सो पंडितजी ने अपने गांव में ही शहरी सुख सुविधाओं से लैस सादा लेकिन भव्य एक फार्म हाउस बनवा दिया। वहां एसी, टीवी, फ्रिज जनरेटर, माड्युलर किचन यानी सब कुछ। फिर शुरू हुआ उनका ग्रामीण जीवन। अब वे पिछले कई सालों से अपने खेतों में धान, गेहूं, तिलहन से लेकर तमाम तरह की शाक सब्जी सब उगाते हैं। उनके बागों में आपको आम, लीची, केले से लेकर अंगूर तक। दूध के लिए उन्होंने गाय भी पाली है। उनके खेत और बागों में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बिलकुल नहीं होता। यानी ये एक तरह आर्गिनिक फार्मिंग का प्रयोग है। उगते सूरज यानी ब्रह्म मर्हूत में चिड़ियों की चहचहाट के साथ पंडितजी का दिन शुरू होता है। ये उनके ध्यान का वक्त होता है। इसके बाद फूलों से भरी मेज पर नाश्ता, खेतीबाड़ी, चैनल पर दिन भर की खबरें, दोपहर के भोजन, शाम की चाय, खेतों के भ्रमण और अपने हाथों से लगाए पौधों को निहारने में सारा दिन कब और कैसे गुजर जाता है पता ही नहीं चलता। रात में दूर झिंगुरों की आवाज में कब वे नींद की आगोश में चले जाते हैं वह ये आज तक खुद ही नहीं समझ पाए। इस बीच वे एक काम और करते हैं जिसका जिक्र करना मैं भूल गया। वे रोज दिन की चाय के बाद अपने खेतों में उगी ताजा सब्जियों, फलों, किसी सुबह खिले खूबसूरत फूल की तस्वीर अपने मित्रों को व्हाट़स एप पर शेयर करते हैं। मैं नहीं समझ पाया कि ऐसा वे अपने मित्रों को जलाने के लिए करते हैं या आधुनिक जीवन की खोखली जिन्दगी जी रहे हम मित्रों से अपनी खुशी बांटने के लिए। जितना मैं उन्हें जानता हूं वे शायद हमें प्रेरित करने के लिए ऐसा करते हैं..कि ये जीवन भी संभव है। जिससे हम अजनबी हैं।
जीवन जाने का ये एक विकल्प है जो 21वीं सदी के इस भाग दौड़ वाले वक्त में उन्होंने अपने लिए चुना। आप कह सकते हैं ये एक काल्पनिक जीवन है। या परियों की कोई अवास्तविक कहानी। इस दुनिया में जहां हर इंसान बैलगाड़ी की तरह अपनी बंधी बंधाई लकीर पर चल कर अपनी जिन्दगी का मकसद खोज रहा हो और उसे अचानक महसूस होता है कि ये जिन्दगी वो जिन्दगी तो नहीं जिसकी उसे तलाश थी। खासतौर से इस कोराना काल ने दुनिया के बड़े-बड़े भौतिकवादियों को जीवन के खालीपन का अहसास करा दिया। सारी सम्पन्नताओं के बावजूद जिन्दगी बिना कुछ किए इतनी शारीरिक और मानसिक थकावट भी दे सकती है इसकी कल्पना किसने की थी? इस आधुनिक सभ्यता में एक छोटी-सी महामारी की घटना ने हमें संज्ञा शून्य कर दिया। अब वक्त आ गया है कि हम इस पर गंभीरता से मंथन करें। 




Sunday, May 3, 2020

एक ठहरी सी उदास जिन्दगी

#लॉकडाउन जिन्दगी


क्वारंटाइन में मैं अकेले उदास कमरे में कैद हूं। बारहवीं मंजिल के इस तन्हा फ्लैट की बॉलकनी से सड़क की तरफ देखता हूं... खाली, वीरान, अंतहीन सड़क। जिस पर कल तक भीड़-भाड़ और आती-जाती हजारों कारों की हार्न की कर्कश आवाजें गूंजती थीं। आज अजब खामोशी है। इन लंबी, सीधी, सुनसान सड़कों के किनारे खड़े अकेले तन्हा उदास पेड़। दूर दूर तक कोई इंसान नहीं। सिर्फ कुछ आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें, नीरवता को भंग करती हैं। चौराहे पर पत्‍थरों के कुछ महापुरुषों की मूर्तियां हैं, जिनके चेहरों पर भी मुर्दानगी दिखती है। भरी दोपहरी में हर तरफ एक अजीब-सी डरावनी निस्तब्धता है, जो अपने चारों तरफ शोकपूर्ण माहौल तैयार कर रही है। इसे मरघट का सन्नाटा कहूं या जीवन की चिर-प्रतीक्षित शांति। हमेशा जीवन्त रहने वाला ये शहर इतना निष्प्राण मुझे कभी नहीं लगा। वक्त कैसे अनोखे ढंग से बदलता और चौंकाता है। हमें अक्सर भीड़ से भरी इस दुनिया में अकेलेपन का अहसास होता था। पर अब लॉकडाउन के इस अकेलेपन में अचानक गुम हुई उस भीड़ ने हमारी संवेदनाओं को सुन्न कर दिया है। अब चारों तरफ पसरी खामोशी और उसके दबाव ने, अकेलेपन को और गहरा कर दिया है।
कितनी अजीब अहसास है यह। जब आपके चारों तरफ दुनिया मर रही हो, सायरन बजाती सफेद रंग की सरकारी लाश गाड़ियां शवों को ढो रही हों और आप घरों में कैद जिन्दा हों। न केवल जिन्दा हों बल्कि आपको गहरी नींद भी आ रही हो। और आप सपने भी देख रहे हों। कुछ आशा से भरे और कुछ खौफनाक सपने। रातों में लॉकडाउन की कुछ तस्वीरें फिल्म के निगेटिव के टुकड़ों की तरह आंखों के लैंस के सामने से गुजरती हैं। जो दिन भर टीवी स्क्रीन पर चल रही खबरों से भटक कर आपके जेहन के किसी कोने में आकर अटक-सी गई हों। न्यूयार्क में डा. उमा मधुसूदन अपने घर के सामने हरे भरे लॉन की मखमली घास पर खड़ी हैं। और सामने सड़क पर उनके इलाज से ठीक हुए मरीज अपनी-अपनी कार से उनके घर के सामने एक कतार में गुजरते हैं। एक के बाद एक.. दर्जनों कारें। और फिर वे ठीक हुए मरीज कार की खिड़की से अपना हाथ हिला कर अपनी डाक्टर का अभिनंदन करते हैं। इस सम्मान से अभिभूत, लॉन में खड़ी डा. उमा, तेज चलती हवा से फूलों की किसी नाजुक डाली-सी झुक जाती हैं। उनकी आंखें भींगी हुई हैं और गला बेतरह रुंधा हुआ है। फिर सपने करवट बदलते हैं। एक दूसरी तस्वीर आंखों के सामने गुजरती है, हमारे अपने किसी शहर की। एक डाक्टर को भीड़ दौड़ा रही है। उनके हाथों में पत्‍थर हैं, मजबूत डंडे हैं। सफेद एप्रन में वह महिला डाक्टर लम्बी अंधेरी गलियों में बदहवास भागी जा रही है। हिंसक भीड़ उसके पीछे भागती है। उसे ठोकर लगती है। वह नीचे गिर जाती है। डरी हुई कहती है- 'प्लीज मुझे मत मारो। मैं तो आप लोगों का इलाज करने आई थी। मैं चली जाउंगी। अस्पताल में और मरीज मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। प्लीज, मुझे मत मारो' मैं डर कर उठ जाता हूं। कितना डरावना ख्वाब है ये। ये ख्वाब है या हकीकत। शायद ये कोई ख्वाब है। पर कितना भयावह है ये सपना। ईसा मसीह को सूली पर कीलों से ठोंकने के जैसा डरावना।   
अखबार सिर्फ मौत के आंकड़े छापते हैं। मृतक की कोई शिनाख्त नहीं होती। उनका कोई पता नहीं होता। उनकी कोई उम्र नहीं होती। उनकी सिर्फ संख्या होती है। मौत दबे पांव आती है। हर तीसरे दिन उसकी गिनती दोगुनी हो जाती है। अल्बेयर कामू के उपन्यास 'प्लेग' का नायक डा. रियो याद आता है। वो कहता है-"इस बार भी प्लेग से उतने ही लोग मरते और दफनाए जाते हैं जितने कि पुराने जमाने में प्लेग में दफनाए जाते थे। लेकिन अब हम मौतों के आकड़े रखते हैं। आपको मानना पड़ेगा इसी का नाम प्रगति है।" हां, तो मैं अखबारों की बात कर रहा था, जो पहले से बहुत दुबले हो गए हैं। जैसे उनकी आत्मा किसी ने निचोड़ ली हो। उनके चमकदार पन्नों पर अब बड़े-बड़े इश्तेहार नहीं छपते। पत्रकार अपने चेहरों को मास्क से छिपा कर अस्पतालों, नमाजगाहों, कब्रिस्तानों और श्मशान घाटों पर खबरें ढूंढ़ते हैं। फिर विचलित करने वाली अफवाहे और खबरें छापते हैं। वे बताते हैं कि कैसे दूर शहरों में घरों में क्वारेंटाइन बच्चे, अपनी मरती हुई मां के अंतिम दर्शन वीडियो कॉल पर कर रहे हैं। अपना सगा बेटा पिता का अंतिम संस्कार करने को राजी नहीं। इलाके का तहसीलदार एक अजनबी को मुखाग्नि दे रहा है। बेटे ने जलती हुई चिता से पूरी सामाजिक दूरी बना ली है। इंसानी रिश्ते कितने ठंडे, बेज़ान और निर्विकार हो गए हैं। और वे जो सिर पर सजने वाले मुकुट की शक्ल में 29 कांटेदार प्रोटीनों से घिरे इस नामुराद नोवल कोरोना वायरस से ठीक हो गए, उनके लिए मेडिकल स्टॉफ तालियां बजा रहा है। अस्पताल के कोरीडोर में नर्सें उन्हें विदाई दे रही हैं। मरते हुए आदमी को अचानक लगता है कि वह जिन्दा बच गया। वह तय करता है कि अब वह अपनी जिन्दगी को पूरी शिद्त से जीएगा। वह आत्मा की उन सारी ऊंचाइयों को छुएगा जो उसकी पहुंच से अब तक बहुत दूर थीं। लेकिन वह फिर अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौट आता है जो अब उसके लिए पूरी तरह बदल चुकी है। जहां अदृश्य अनोखा रहस्यम वायरस अब भी जिन्दा है और सबको डरा रहा है।   
ये कैसा वक्त हैं। ये कैसा दौर है। पूरी दुनिया बेतरह डरी हुई है। मैं भी डरा हुआ हूं। हर चीज से डरता हूं। चेहरे पर हर वक्त चिपके रहने वाले अपने ही मास्क से। घर में आई हरी सब्जियों से, दूध के पैकटों से। बार-बार हाथ धोने वाले साबुन से या सामने टंगे आइने से । मुझे अर्जेंटीना का कवि होर्खे लुई बोर्खेज याद आता है। जो आइनों से डरता है। आइना देखकर उसे एक भयानक अनुभव होता है, जैसे वह कहीं फंस गया है और आइने के उस फ्रेम से कहीं बाहर नहीं निकल सकता। आइना देखकर उसे एक मायावी भ्रम होता है कि जैसे कहीं उसके प्रतिरूप का अस्तित्व है। जैसे हर इंसान का एक अपना अक्स है, जिसकी वजह से हर चीज संदिग्‍ध, अवास्तविक और सवालिया बन जाती है।
दरअसल कामू की किताब 'प्लेग' में प्लेग की महामारी नाजियों का प्रतीक है। उसके क्वारेंटाइन कैम्प, नाजियों के कंस्ट्रेशन कैम्प हैं। उसके डॉक्टर नाजियों के खिलाफ लड़ते सेनानी हैं। तो क्या ये कोरोना महामारी पूंजीवादी वर्चस्व का प्रतीक है। जहां दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने के लिए किसी गुप्त प्रयोगशाला में कृत्रिम वायरस बनाया जाता है और उसे इंसानों के बीच छोड़ दिया जाता है। इस बीमारी का राज छुपाने के लिए डाक्टर को वायरस का इजेंक्‍शन देकर मार दिया जाता है। वुहान का सच अपनी डायरी में दर्ज करने वाली लेखिका को धमकाया जाता है। हम सबको मौत का डर दिखा कर क्वारेंटाइन कैम्पों का कैदी बना लिया जाता है। अगर नहीं, तो हर तरफ ये दैहिक थकान, मानसिक उदासी, हताशा और नैराश्य क्यों? क्या हमारी खूबसूरत दुनिया का अंत इसी तरह होना है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं।  जिसकी चेतावनी ये प्रकृति और शून्यवादी देते रहते हैं। मुझे फिर कामू याद आता है और हमें यकीन दिलाता है कि - हम शून्यवादियों की बातें न सुने जो कहते हैं दुनिया विनाश की ओर बढ़ रही है और एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा। इस बात पर यकीन न कर बैठें। सभ्यताएं इतनी जल्दी नहीं मरा करतीं और अगर दुनिया खत्म होगी तो भी यह इस अनंत ब्रह्मांड की पहली घटना नहीं होगी। सभ्यताएं बनती और मिटती रही हैं। हम एक बड़े त्रासद दौर से गुजर रहे हैं। त्रासदी और नैराश्य में अंतर है। त्रासदी का सुखद पक्ष यह है कि वह हमें झकझोर कर अपने हालात से उबरने की प्रेरणा देती है जबकि आदमी की निराशा उसे ले डूबती है।