#लॉकडाउन जिन्दगी
क्वारंटाइन में मैं अकेले उदास कमरे में कैद हूं। बारहवीं मंजिल के इस तन्हा फ्लैट की बॉलकनी से सड़क की तरफ देखता हूं... खाली, वीरान, अंतहीन सड़क। जिस पर कल तक भीड़-भाड़ और आती-जाती हजारों कारों की हार्न की कर्कश आवाजें गूंजती थीं। आज अजब खामोशी है। इन लंबी, सीधी, सुनसान सड़कों के किनारे खड़े अकेले तन्हा उदास पेड़। दूर दूर तक कोई इंसान नहीं। सिर्फ कुछ आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें, नीरवता को भंग करती हैं। चौराहे पर पत्थरों के कुछ महापुरुषों की मूर्तियां हैं, जिनके चेहरों पर भी मुर्दानगी दिखती है। भरी दोपहरी में हर तरफ एक अजीब-सी डरावनी निस्तब्धता है, जो अपने चारों तरफ शोकपूर्ण माहौल तैयार कर रही है। इसे मरघट का सन्नाटा कहूं या जीवन की चिर-प्रतीक्षित शांति। हमेशा जीवन्त रहने वाला ये शहर इतना निष्प्राण मुझे कभी नहीं लगा। वक्त कैसे अनोखे ढंग से बदलता और चौंकाता है। हमें अक्सर भीड़ से भरी इस दुनिया में अकेलेपन का अहसास होता था। पर अब लॉकडाउन के इस अकेलेपन में अचानक गुम हुई उस भीड़ ने हमारी संवेदनाओं को सुन्न कर दिया है। अब चारों तरफ पसरी खामोशी और उसके दबाव ने, अकेलेपन को और गहरा कर दिया है।
कितनी अजीब अहसास है यह। जब आपके चारों तरफ दुनिया मर रही हो, सायरन बजाती सफेद रंग की सरकारी लाश गाड़ियां शवों को ढो रही हों और आप घरों में कैद जिन्दा हों। न केवल जिन्दा हों बल्कि आपको गहरी नींद भी आ रही हो। और आप सपने भी देख रहे हों। कुछ आशा से भरे और कुछ खौफनाक सपने। रातों में लॉकडाउन की कुछ तस्वीरें फिल्म के निगेटिव के टुकड़ों की तरह आंखों के लैंस के सामने से गुजरती हैं। जो दिन भर टीवी स्क्रीन पर चल रही खबरों से भटक कर आपके जेहन के किसी कोने में आकर अटक-सी गई हों। न्यूयार्क में डा. उमा मधुसूदन अपने घर के सामने हरे भरे लॉन की मखमली घास पर खड़ी हैं। और सामने सड़क पर उनके इलाज से ठीक हुए मरीज अपनी-अपनी कार से उनके घर के सामने एक कतार में गुजरते हैं। एक के बाद एक.. दर्जनों कारें। और फिर वे ठीक हुए मरीज कार की खिड़की से अपना हाथ हिला कर अपनी डाक्टर का अभिनंदन करते हैं। इस सम्मान से अभिभूत, लॉन में खड़ी डा. उमा, तेज चलती हवा से फूलों की किसी नाजुक डाली-सी झुक जाती हैं। उनकी आंखें भींगी हुई हैं और गला बेतरह रुंधा हुआ है। फिर सपने करवट बदलते हैं। एक दूसरी तस्वीर आंखों के सामने गुजरती है, हमारे अपने किसी शहर की। एक डाक्टर को भीड़ दौड़ा रही है। उनके हाथों में पत्थर हैं, मजबूत डंडे हैं। सफेद एप्रन में वह महिला डाक्टर लम्बी अंधेरी गलियों में बदहवास भागी जा रही है। हिंसक भीड़ उसके पीछे भागती है। उसे ठोकर लगती है। वह नीचे गिर जाती है। डरी हुई कहती है- 'प्लीज मुझे मत मारो। मैं तो आप लोगों का इलाज करने आई थी। मैं चली जाउंगी। अस्पताल में और मरीज मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। प्लीज, मुझे मत मारो' मैं डर कर उठ जाता हूं। कितना डरावना ख्वाब है ये। ये ख्वाब है या हकीकत। शायद ये कोई ख्वाब है। पर कितना भयावह है ये सपना। ईसा मसीह को सूली पर कीलों से ठोंकने के जैसा डरावना।
अखबार सिर्फ मौत के आंकड़े छापते हैं। मृतक की कोई शिनाख्त नहीं होती। उनका कोई पता नहीं होता। उनकी कोई उम्र नहीं होती। उनकी सिर्फ संख्या होती है। मौत दबे पांव आती है। हर तीसरे दिन उसकी गिनती दोगुनी हो जाती है। अल्बेयर कामू के उपन्यास 'प्लेग' का नायक डा. रियो याद आता है। वो कहता है-"इस बार भी प्लेग से उतने ही लोग मरते और दफनाए जाते हैं जितने कि पुराने जमाने में प्लेग में दफनाए जाते थे। लेकिन अब हम मौतों के आकड़े रखते हैं। आपको मानना पड़ेगा इसी का नाम प्रगति है।" हां, तो मैं अखबारों की बात कर रहा था, जो पहले से बहुत दुबले हो गए हैं। जैसे उनकी आत्मा किसी ने निचोड़ ली हो। उनके चमकदार पन्नों पर अब बड़े-बड़े इश्तेहार नहीं छपते। पत्रकार अपने चेहरों को मास्क से छिपा कर अस्पतालों, नमाजगाहों, कब्रिस्तानों और श्मशान घाटों पर खबरें ढूंढ़ते हैं। फिर विचलित करने वाली अफवाहे और खबरें छापते हैं। वे बताते हैं कि कैसे दूर शहरों में घरों में क्वारेंटाइन बच्चे, अपनी मरती हुई मां के अंतिम दर्शन वीडियो कॉल पर कर रहे हैं। अपना सगा बेटा पिता का अंतिम संस्कार करने को राजी नहीं। इलाके का तहसीलदार एक अजनबी को मुखाग्नि दे रहा है। बेटे ने जलती हुई चिता से पूरी सामाजिक दूरी बना ली है। इंसानी रिश्ते कितने ठंडे, बेज़ान और निर्विकार हो गए हैं। और वे जो सिर पर सजने वाले मुकुट की शक्ल में 29 कांटेदार प्रोटीनों से घिरे इस नामुराद नोवल कोरोना वायरस से ठीक हो गए, उनके लिए मेडिकल स्टॉफ तालियां बजा रहा है। अस्पताल के कोरीडोर में नर्सें उन्हें विदाई दे रही हैं। मरते हुए आदमी को अचानक लगता है कि वह जिन्दा बच गया। वह तय करता है कि अब वह अपनी जिन्दगी को पूरी शिद्त से जीएगा। वह आत्मा की उन सारी ऊंचाइयों को छुएगा जो उसकी पहुंच से अब तक बहुत दूर थीं। लेकिन वह फिर अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौट आता है जो अब उसके लिए पूरी तरह बदल चुकी है। जहां अदृश्य अनोखा रहस्यम वायरस अब भी जिन्दा है और सबको डरा रहा है।
ये कैसा वक्त हैं। ये कैसा दौर है। पूरी दुनिया बेतरह डरी हुई है। मैं भी डरा हुआ हूं। हर चीज से डरता हूं। चेहरे पर हर वक्त चिपके रहने वाले अपने ही मास्क से। घर में आई हरी सब्जियों से, दूध के पैकटों से। बार-बार हाथ धोने वाले साबुन से या सामने टंगे आइने से । मुझे अर्जेंटीना का कवि होर्खे लुई बोर्खेज याद आता है। जो आइनों से डरता है। आइना देखकर उसे एक भयानक अनुभव होता है, जैसे वह कहीं फंस गया है और आइने के उस फ्रेम से कहीं बाहर नहीं निकल सकता। आइना देखकर उसे एक मायावी भ्रम होता है कि जैसे कहीं उसके प्रतिरूप का अस्तित्व है। जैसे हर इंसान का एक अपना अक्स है, जिसकी वजह से हर चीज संदिग्ध, अवास्तविक और सवालिया बन जाती है।
दरअसल कामू की किताब 'प्लेग' में प्लेग की महामारी नाजियों का प्रतीक है। उसके क्वारेंटाइन कैम्प, नाजियों के कंस्ट्रेशन कैम्प हैं। उसके डॉक्टर नाजियों के खिलाफ लड़ते सेनानी हैं। तो क्या ये कोरोना महामारी पूंजीवादी वर्चस्व का प्रतीक है। जहां दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने के लिए किसी गुप्त प्रयोगशाला में कृत्रिम वायरस बनाया जाता है और उसे इंसानों के बीच छोड़ दिया जाता है। इस बीमारी का राज छुपाने के लिए डाक्टर को वायरस का इजेंक्शन देकर मार दिया जाता है। वुहान का सच अपनी डायरी में दर्ज करने वाली लेखिका को धमकाया जाता है। हम सबको मौत का डर दिखा कर क्वारेंटाइन कैम्पों का कैदी बना लिया जाता है। अगर नहीं, तो हर तरफ ये दैहिक थकान, मानसिक उदासी, हताशा और नैराश्य क्यों? क्या हमारी खूबसूरत दुनिया का अंत इसी तरह होना है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं। जिसकी चेतावनी ये प्रकृति और शून्यवादी देते रहते हैं। मुझे फिर कामू याद आता है और हमें यकीन दिलाता है कि - हम शून्यवादियों की बातें न सुने जो कहते हैं दुनिया विनाश की ओर बढ़ रही है और एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा। इस बात पर यकीन न कर बैठें। सभ्यताएं इतनी जल्दी नहीं मरा करतीं और अगर दुनिया खत्म होगी तो भी यह इस अनंत ब्रह्मांड की पहली घटना नहीं होगी। सभ्यताएं बनती और मिटती रही हैं। हम एक बड़े त्रासद दौर से गुजर रहे हैं। त्रासदी और नैराश्य में अंतर है। त्रासदी का सुखद पक्ष यह है कि वह हमें झकझोर कर अपने हालात से उबरने की प्रेरणा देती है जबकि आदमी की निराशा उसे ले डूबती है।
क्वारंटाइन में मैं अकेले उदास कमरे में कैद हूं। बारहवीं मंजिल के इस तन्हा फ्लैट की बॉलकनी से सड़क की तरफ देखता हूं... खाली, वीरान, अंतहीन सड़क। जिस पर कल तक भीड़-भाड़ और आती-जाती हजारों कारों की हार्न की कर्कश आवाजें गूंजती थीं। आज अजब खामोशी है। इन लंबी, सीधी, सुनसान सड़कों के किनारे खड़े अकेले तन्हा उदास पेड़। दूर दूर तक कोई इंसान नहीं। सिर्फ कुछ आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें, नीरवता को भंग करती हैं। चौराहे पर पत्थरों के कुछ महापुरुषों की मूर्तियां हैं, जिनके चेहरों पर भी मुर्दानगी दिखती है। भरी दोपहरी में हर तरफ एक अजीब-सी डरावनी निस्तब्धता है, जो अपने चारों तरफ शोकपूर्ण माहौल तैयार कर रही है। इसे मरघट का सन्नाटा कहूं या जीवन की चिर-प्रतीक्षित शांति। हमेशा जीवन्त रहने वाला ये शहर इतना निष्प्राण मुझे कभी नहीं लगा। वक्त कैसे अनोखे ढंग से बदलता और चौंकाता है। हमें अक्सर भीड़ से भरी इस दुनिया में अकेलेपन का अहसास होता था। पर अब लॉकडाउन के इस अकेलेपन में अचानक गुम हुई उस भीड़ ने हमारी संवेदनाओं को सुन्न कर दिया है। अब चारों तरफ पसरी खामोशी और उसके दबाव ने, अकेलेपन को और गहरा कर दिया है।
कितनी अजीब अहसास है यह। जब आपके चारों तरफ दुनिया मर रही हो, सायरन बजाती सफेद रंग की सरकारी लाश गाड़ियां शवों को ढो रही हों और आप घरों में कैद जिन्दा हों। न केवल जिन्दा हों बल्कि आपको गहरी नींद भी आ रही हो। और आप सपने भी देख रहे हों। कुछ आशा से भरे और कुछ खौफनाक सपने। रातों में लॉकडाउन की कुछ तस्वीरें फिल्म के निगेटिव के टुकड़ों की तरह आंखों के लैंस के सामने से गुजरती हैं। जो दिन भर टीवी स्क्रीन पर चल रही खबरों से भटक कर आपके जेहन के किसी कोने में आकर अटक-सी गई हों। न्यूयार्क में डा. उमा मधुसूदन अपने घर के सामने हरे भरे लॉन की मखमली घास पर खड़ी हैं। और सामने सड़क पर उनके इलाज से ठीक हुए मरीज अपनी-अपनी कार से उनके घर के सामने एक कतार में गुजरते हैं। एक के बाद एक.. दर्जनों कारें। और फिर वे ठीक हुए मरीज कार की खिड़की से अपना हाथ हिला कर अपनी डाक्टर का अभिनंदन करते हैं। इस सम्मान से अभिभूत, लॉन में खड़ी डा. उमा, तेज चलती हवा से फूलों की किसी नाजुक डाली-सी झुक जाती हैं। उनकी आंखें भींगी हुई हैं और गला बेतरह रुंधा हुआ है। फिर सपने करवट बदलते हैं। एक दूसरी तस्वीर आंखों के सामने गुजरती है, हमारे अपने किसी शहर की। एक डाक्टर को भीड़ दौड़ा रही है। उनके हाथों में पत्थर हैं, मजबूत डंडे हैं। सफेद एप्रन में वह महिला डाक्टर लम्बी अंधेरी गलियों में बदहवास भागी जा रही है। हिंसक भीड़ उसके पीछे भागती है। उसे ठोकर लगती है। वह नीचे गिर जाती है। डरी हुई कहती है- 'प्लीज मुझे मत मारो। मैं तो आप लोगों का इलाज करने आई थी। मैं चली जाउंगी। अस्पताल में और मरीज मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। प्लीज, मुझे मत मारो' मैं डर कर उठ जाता हूं। कितना डरावना ख्वाब है ये। ये ख्वाब है या हकीकत। शायद ये कोई ख्वाब है। पर कितना भयावह है ये सपना। ईसा मसीह को सूली पर कीलों से ठोंकने के जैसा डरावना।
अखबार सिर्फ मौत के आंकड़े छापते हैं। मृतक की कोई शिनाख्त नहीं होती। उनका कोई पता नहीं होता। उनकी कोई उम्र नहीं होती। उनकी सिर्फ संख्या होती है। मौत दबे पांव आती है। हर तीसरे दिन उसकी गिनती दोगुनी हो जाती है। अल्बेयर कामू के उपन्यास 'प्लेग' का नायक डा. रियो याद आता है। वो कहता है-"इस बार भी प्लेग से उतने ही लोग मरते और दफनाए जाते हैं जितने कि पुराने जमाने में प्लेग में दफनाए जाते थे। लेकिन अब हम मौतों के आकड़े रखते हैं। आपको मानना पड़ेगा इसी का नाम प्रगति है।" हां, तो मैं अखबारों की बात कर रहा था, जो पहले से बहुत दुबले हो गए हैं। जैसे उनकी आत्मा किसी ने निचोड़ ली हो। उनके चमकदार पन्नों पर अब बड़े-बड़े इश्तेहार नहीं छपते। पत्रकार अपने चेहरों को मास्क से छिपा कर अस्पतालों, नमाजगाहों, कब्रिस्तानों और श्मशान घाटों पर खबरें ढूंढ़ते हैं। फिर विचलित करने वाली अफवाहे और खबरें छापते हैं। वे बताते हैं कि कैसे दूर शहरों में घरों में क्वारेंटाइन बच्चे, अपनी मरती हुई मां के अंतिम दर्शन वीडियो कॉल पर कर रहे हैं। अपना सगा बेटा पिता का अंतिम संस्कार करने को राजी नहीं। इलाके का तहसीलदार एक अजनबी को मुखाग्नि दे रहा है। बेटे ने जलती हुई चिता से पूरी सामाजिक दूरी बना ली है। इंसानी रिश्ते कितने ठंडे, बेज़ान और निर्विकार हो गए हैं। और वे जो सिर पर सजने वाले मुकुट की शक्ल में 29 कांटेदार प्रोटीनों से घिरे इस नामुराद नोवल कोरोना वायरस से ठीक हो गए, उनके लिए मेडिकल स्टॉफ तालियां बजा रहा है। अस्पताल के कोरीडोर में नर्सें उन्हें विदाई दे रही हैं। मरते हुए आदमी को अचानक लगता है कि वह जिन्दा बच गया। वह तय करता है कि अब वह अपनी जिन्दगी को पूरी शिद्त से जीएगा। वह आत्मा की उन सारी ऊंचाइयों को छुएगा जो उसकी पहुंच से अब तक बहुत दूर थीं। लेकिन वह फिर अपनी उसी पुरानी दुनिया में लौट आता है जो अब उसके लिए पूरी तरह बदल चुकी है। जहां अदृश्य अनोखा रहस्यम वायरस अब भी जिन्दा है और सबको डरा रहा है।
ये कैसा वक्त हैं। ये कैसा दौर है। पूरी दुनिया बेतरह डरी हुई है। मैं भी डरा हुआ हूं। हर चीज से डरता हूं। चेहरे पर हर वक्त चिपके रहने वाले अपने ही मास्क से। घर में आई हरी सब्जियों से, दूध के पैकटों से। बार-बार हाथ धोने वाले साबुन से या सामने टंगे आइने से । मुझे अर्जेंटीना का कवि होर्खे लुई बोर्खेज याद आता है। जो आइनों से डरता है। आइना देखकर उसे एक भयानक अनुभव होता है, जैसे वह कहीं फंस गया है और आइने के उस फ्रेम से कहीं बाहर नहीं निकल सकता। आइना देखकर उसे एक मायावी भ्रम होता है कि जैसे कहीं उसके प्रतिरूप का अस्तित्व है। जैसे हर इंसान का एक अपना अक्स है, जिसकी वजह से हर चीज संदिग्ध, अवास्तविक और सवालिया बन जाती है।
दरअसल कामू की किताब 'प्लेग' में प्लेग की महामारी नाजियों का प्रतीक है। उसके क्वारेंटाइन कैम्प, नाजियों के कंस्ट्रेशन कैम्प हैं। उसके डॉक्टर नाजियों के खिलाफ लड़ते सेनानी हैं। तो क्या ये कोरोना महामारी पूंजीवादी वर्चस्व का प्रतीक है। जहां दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने के लिए किसी गुप्त प्रयोगशाला में कृत्रिम वायरस बनाया जाता है और उसे इंसानों के बीच छोड़ दिया जाता है। इस बीमारी का राज छुपाने के लिए डाक्टर को वायरस का इजेंक्शन देकर मार दिया जाता है। वुहान का सच अपनी डायरी में दर्ज करने वाली लेखिका को धमकाया जाता है। हम सबको मौत का डर दिखा कर क्वारेंटाइन कैम्पों का कैदी बना लिया जाता है। अगर नहीं, तो हर तरफ ये दैहिक थकान, मानसिक उदासी, हताशा और नैराश्य क्यों? क्या हमारी खूबसूरत दुनिया का अंत इसी तरह होना है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं। जिसकी चेतावनी ये प्रकृति और शून्यवादी देते रहते हैं। मुझे फिर कामू याद आता है और हमें यकीन दिलाता है कि - हम शून्यवादियों की बातें न सुने जो कहते हैं दुनिया विनाश की ओर बढ़ रही है और एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा। इस बात पर यकीन न कर बैठें। सभ्यताएं इतनी जल्दी नहीं मरा करतीं और अगर दुनिया खत्म होगी तो भी यह इस अनंत ब्रह्मांड की पहली घटना नहीं होगी। सभ्यताएं बनती और मिटती रही हैं। हम एक बड़े त्रासद दौर से गुजर रहे हैं। त्रासदी और नैराश्य में अंतर है। त्रासदी का सुखद पक्ष यह है कि वह हमें झकझोर कर अपने हालात से उबरने की प्रेरणा देती है जबकि आदमी की निराशा उसे ले डूबती है।
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