दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, May 19, 2020

प्रकृति की गोद में जिन्दगी की खोज




मेरे एक मित्र हैं Akhilesh Kumar Mishra। बेहद संवेदनशील, विद्वान और भले मानस। आध्यात्मिक किस्म के इंसान हैं। पुलिस इंटेलीजेंस में बड़े अफसर थे। इलाहाबाद के पॉश इलाके में उनका घर है। बच्चे बड़े होकर नौकरी करने चले गए। घर काटने को दौड़ता था। सो रिटायरमेंट के बाद उन्होंने बनारस के पास अपने गांव में जीवन जीने का फैसला किया। उन्हें लगा प्रकृति के आंचल में ही वे ईश्वर के सबसे ज्यादा करीब रह सकते हैं। उनकी जीवन संगनी भी तकरीबन उन्हीं के मिजाज की हैं लेकिन वे थोड़ी व्यवहार कुशल भी हैं। एक लम्बा अरसा शहर में गुजारने के बाद गांव की जिन्दगी आसान नहीं थी। सो उन्होंने साफ कह दिया कि वह एक शर्त पर गांव जाएंगी कि वहां वे सारी चीजें मौजूद हों जो उनके शहर के घर पर थीं। खास तौर से किचन क्योंकि स्‍वदिष्ट और दिव्य व्यंजन बनाने की कला में उन्हें महारत हासिल है। सो पंडितजी ने अपने गांव में ही शहरी सुख सुविधाओं से लैस सादा लेकिन भव्य एक फार्म हाउस बनवा दिया। वहां एसी, टीवी, फ्रिज जनरेटर, माड्युलर किचन यानी सब कुछ। फिर शुरू हुआ उनका ग्रामीण जीवन। अब वे पिछले कई सालों से अपने खेतों में धान, गेहूं, तिलहन से लेकर तमाम तरह की शाक सब्जी सब उगाते हैं। उनके बागों में आपको आम, लीची, केले से लेकर अंगूर तक। दूध के लिए उन्होंने गाय भी पाली है। उनके खेत और बागों में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बिलकुल नहीं होता। यानी ये एक तरह आर्गिनिक फार्मिंग का प्रयोग है। उगते सूरज यानी ब्रह्म मर्हूत में चिड़ियों की चहचहाट के साथ पंडितजी का दिन शुरू होता है। ये उनके ध्यान का वक्त होता है। इसके बाद फूलों से भरी मेज पर नाश्ता, खेतीबाड़ी, चैनल पर दिन भर की खबरें, दोपहर के भोजन, शाम की चाय, खेतों के भ्रमण और अपने हाथों से लगाए पौधों को निहारने में सारा दिन कब और कैसे गुजर जाता है पता ही नहीं चलता। रात में दूर झिंगुरों की आवाज में कब वे नींद की आगोश में चले जाते हैं वह ये आज तक खुद ही नहीं समझ पाए। इस बीच वे एक काम और करते हैं जिसका जिक्र करना मैं भूल गया। वे रोज दिन की चाय के बाद अपने खेतों में उगी ताजा सब्जियों, फलों, किसी सुबह खिले खूबसूरत फूल की तस्वीर अपने मित्रों को व्हाट़स एप पर शेयर करते हैं। मैं नहीं समझ पाया कि ऐसा वे अपने मित्रों को जलाने के लिए करते हैं या आधुनिक जीवन की खोखली जिन्दगी जी रहे हम मित्रों से अपनी खुशी बांटने के लिए। जितना मैं उन्हें जानता हूं वे शायद हमें प्रेरित करने के लिए ऐसा करते हैं..कि ये जीवन भी संभव है। जिससे हम अजनबी हैं।
जीवन जाने का ये एक विकल्प है जो 21वीं सदी के इस भाग दौड़ वाले वक्त में उन्होंने अपने लिए चुना। आप कह सकते हैं ये एक काल्पनिक जीवन है। या परियों की कोई अवास्तविक कहानी। इस दुनिया में जहां हर इंसान बैलगाड़ी की तरह अपनी बंधी बंधाई लकीर पर चल कर अपनी जिन्दगी का मकसद खोज रहा हो और उसे अचानक महसूस होता है कि ये जिन्दगी वो जिन्दगी तो नहीं जिसकी उसे तलाश थी। खासतौर से इस कोराना काल ने दुनिया के बड़े-बड़े भौतिकवादियों को जीवन के खालीपन का अहसास करा दिया। सारी सम्पन्नताओं के बावजूद जिन्दगी बिना कुछ किए इतनी शारीरिक और मानसिक थकावट भी दे सकती है इसकी कल्पना किसने की थी? इस आधुनिक सभ्यता में एक छोटी-सी महामारी की घटना ने हमें संज्ञा शून्य कर दिया। अब वक्त आ गया है कि हम इस पर गंभीरता से मंथन करें। 




2 comments:

Sameena Khan said...

मुद्दा तो अच्छा है ही मगर आपकी मंज़रकशी उससे भी लाजवाब।

ओम धीरज said...

बहुत बेहतरीन कार्य व उतनी ही बेहतर पोस्ट।बधाई