दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, December 29, 2015

हौसले की इस मासूम उड़ान को पंख दे दो सरकार


टीवी सीरियल और असल की जिंदगी में बड़ा फर्क  होता है। चर्चित टीवी सीरियल ‘उड़ान’ की प्यारी चकोर किसी भी गरीब लड़की के लिए प्रेरणा बन सकती है। लेकिन ऊना की बख्शो चकोर को नहीं जानती, क्योंकि उसके घर में टीवी नहीं है। पढ़ाई के अलावा उसका ज्यादातर वक्त अपनी भैंसों को चारा खिलाने और घर के कामकाज में ही बीत जाता है। वह पहली बार जब स्कूल के ठंडे मैदान में नंगे पांव पांच किलोमीटर दौड़कर जिला स्तरीय प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतती है तो उसे पता ही नहीं चला कि कब उसके कदमों को पंख लग गए। यह सिर्फ हौसले की उड़ान थी, जिसने आज हिमाचल की बिटिया को जिंदगी की क्रूर सच्चाई के बीच हजारों बेटियों को उम्मीद का प्रतीक बना दिया।
हमारे पास कोई कहानी नहीं थी। सिर्फ  नंगे पांव दौड़ती एक उड़नपरी की तस्वीर थी, पीछे उसके कई प्रतिद्वंद्वी बच्चे स्पाइक और ट्रैक सूट में दौड़ रहे थे। बस कहानी बन गई। एक ऐसी परीकथा जो न सिर्फ  देश बल्कि विदेशों से जुड़े हमारे आनलाइन पाठकों के दिलों को छू गई। मदद के लिए हजारों हाथ आगे बढ़े। बख्शो का गांव ईसपुर आज सबकी जुबान पर है। लोग मदद के लिए उसके गांव पहुंच रहे हैं। हमारे ईसपुर संवाद साथी मोहित पाठक ने बताया कि आज ही एक एनजीओ उनके गांव आया और उसने बख्शो को 12वीं तक पढ़ाने का जिम्मा लिया। बख्शो की विधवा मां विमला देवी इतनी भावुक हो गईं कि कुछ कहने के बजाय वह अपनी बिटिया की तरफ देखने लगती है। उम्मीद खो चुकी उनकी आंखों में सिर्फ  आंसू होते हैं। यह कह पाना मुश्किल है कि ये खुशी के आंसू है या उस पीड़ा के जो बरसों से इस अकेली मां के दिल में कहीं गुबार बन कर दफ़न थे।
विमला देवी से बात हुई तो वह कुछ ज्यादा बोल नहीं पाईं। उसके पति पवन कुमार जंगल में लकड़ी काटने का काम करते थे। इसी दौरान पेड़ गिरा और उनकी मौत हो गई। पिछले नौ साल से एक झोपड़ी में मेहनत मजदूरी करके अपनी चार बेटियों और एक बेटे का पेट पाल रही है। सरकारी तंत्र का मजाक देखिए सारे कागज जमा हैं, लेकिन आज तक उसे विधवा पेंशन शुरू नहीं हुई। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए केंद्र व राज्य सरकार की दर्जनों योजनाएं हैं। लेकिन एक भी योजना का लाभ इस गरीब परिवार को नहीं मिल रहा। बस लड़कियों को 700-800 रुपये सालाना वजीफा मिलता है। यह परिवार भुखमरी का शिकार नहीं है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि विमला के पास इच्छाशक्ति के साथ गहरी जिजीविषा है और बख्शो जैसे प्रतिभावान बच्चे हैं जो उसे कभी टूटने नहीं देंगे।
जिंदगी की दौड़ फिर भी इतनी आसान नहीं। बख्शो को शनिवार को धर्मशाला में राज्यस्तरीय दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेना है, लेकिन उसके कोच तरसेम सैनी कहते हैं यह दौड़ बख्शो के लिए आसान नहीं होगी। उसे पत्थरी है। ज्यादा दौड़ने पर उसके पेट में तेज दर्द उठता है। जिला प्रतियोगिता की 5 किलोमीटर की दौड़ में भी यह दर्द उठा था, लेकिन पेट दबाकर उसने जीत की रेखा को पार किया। फिर गिरकर बेहोश हो गई। कई महीने पहले डॉक्टर ने पत्थरी के ऑपरेशन की सलाह दी थी, लेकिन गरीब परिवार इलाज का खर्च उठाने की हालत में नहीं है। सैनी कहते हैं इसी वजह से हम उसे ज्यादा प्रैक्टिस नहीं करा पा रहे। डॉक्टरों ने बख्शो को ज्यादा स्ट्रेस न लेने की सलाह दी है।

यह दर्दनाक कहानी अकेली बख्शो की नहीं। बख्शो जैसी हमारे प्रदेश में हजारों बेटियां हैं जिनकी प्रतिभा गरीबी की गलियों में दम तोड़ रही है। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी प्रतिभाओं को खोजे, उन्हें तराशे और आगे बढ़ाए। बख्शो को आगे बढ़ाने के लिए अमर उजाला ने खेल निदेशक राकेश शर्मा से पहले ही दिन बात की, लेकिन उन्होंने कहा कि वह बक्शो को नहीं जानते। उन्हें पूरी कहानी बताई गई तो उन्होंने कहा वह अभी छुट्टी पर हैं। तीन दिन बाद उनसे फिर बात की गई तो उन्होंने कहा कि हां ये मामला उनके संज्ञान में आया है। बख्शो के लिए जो अच्छा हो सकेगा, वह करेंगे।
तो आप इसके लिए किसी एक अफसर को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। सरकारी सिस्टम ऐसे ही काम करता है। सरकारी तंत्र ठीक से काम करता तो विमला देवी को हर महीने कम से कम 600 रुपये विधवाओं को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिलती। बीपीएल योजना के तहत उसे घर बनाने के लिए पैसा मिलता और इस परिवार को झोपड़ी में बसर नहीं करना पड़ता। गरीब बेटियों के लिए नि:शुल्क इलाज योजना है। बख्शो का ठीक से इलाज होता और पेट में पत्थरी लेकर नहीं दौड़ना पड़ता।
आपके मन में कितनी ही पवित्र भावनाएं हो, लेकिन अगर आप उसे हकीकत में नहीं बदलते तो आपके इरादे नेक नहीं माने जा सकते। मानवीय अधिकारों से वंचित इस परिवार की कहानी सूबे के दूसरे गरीब परिवारों से अलग नहीं। हाल के बरसों में सरकारी तंत्र का इतना अमानवीयकरण हुआ है कि वह तकरीबन संज्ञा शून्य हो गया है। उनको कुछ भी छूता नहीं। यहां तक बच्चों की मासूम आंखें भी उन्हें नहीं पिघलाती।
ऐसी उड़न परियों की हम सिर्फ  कहानियां सामने ला सकते हैं। आशा और निराशा के थपेड़ों के बीच उनकी उदासी दूर नहीं कर सकते। बख्शो की मदद के लिए सैकड़ों हाथ आगे बढ़ गए हैं। लेकिन यकीन जानिए जब तक सरकारी तंत्र संवेदनशील नहीं होगा, हर परीकथा का अंत इतना सुखद नहीं होगा।

Wednesday, October 7, 2015

Wednesday, July 1, 2015

Small Steps Can Change the World

beti hi bachayegi-3


Shimla, barely four kilometres from the annexe, a 52 year old government primary school (read temple of education) was doing without a toilet. Amar Ujala wrote a hard hitting piece targeting government ineptitude and lackadaisical approach towards this sensitive issue. The article worked in favour of the girls. Sometimes simple actions are all it takes to make a difference and change the world.

 
By Daya Shankar Shukla Sagar
December/ 2014 
Prime Minister Narendra Modi has asserted that a toilet is more important than a temple. But in Shimla, barely four kilometres from the annexe, a 52 year old government primary school (read temple of education) was doing without a toilet. Here, 78 girls and 49 boys were being imparted education at the cost of daily dose of humiliation which came with nature's call.
Expectedly, the problem was more serious for girls than boys as it put their safety at stake. While the boys looked for corners along the road sides, girls were forced to go 500 meters away towards the jungle. Anywhere in the world, shame is one of the first things an individual is taught. This everyday humiliation often forced the girls to skip schools especially during their menstrual cycles and some of them in fact dropped out.
We at Amar Ujala brought the matter in public domain on September 20 because the school in Sanjauli spoke for problem faced by thousands of girls across 1500 schools in the state. The issue which is deeply associated with the dignity of girls was very sensitively handled and taken to its conclusion. The next day, state government was forced to acknowledge the problem and chief minister Veer Bhadra Singh promised to get the toilets constructed.

But acknowledgement is no guarantee to real action in a government system. On October 15, three weeks after the first report, we revisited the place only to find that nothing has changed on ground zero. The status check compelled parents of the children studying in these schools to join the movement. On October 19, many of them said that they would withdraw their wards from the schools if the toilets were not made. The pressure resulted in release of Rs 1.5 lakh for the purpose on October 20.
IMPACT : The sanction however did not led to beginning of the construction over the next one month. So on Novemeber 19, observed as world toilet day, we wrote a hard hitting piece targeting government ineptitude and lackadaisical approach towards this sensitive issue. The article worked in favour of the girls and on December 1st, construction of the toilet started and it will be ready for use when the girls return to school after vacations in March 2015. The best part is that this is just the beginning as the government has plans to construct toilets in
all schools. 





इन बच्चियों के स्कूल को 52 साल से आखिर कौन नहीं दे रहा एक टायलेट

बेटी ही बचाएगी-2


दुनिया में कोई भी इंस्टीट्यूट ऐसा नहीं हो सकता जो सरकारी अफसरों को संवेदनशीलता की ट्रेनिंग दे सके। संवेदनशीलता एक ऐसा गुण है जो दूसरों के दर्द से खुद आपको घायल करता है। जाहिर है ये जोखिम उठाना सबके बस की बात नहीं। अक्सर ऐसा होता है कि ‌किसी जिम्मेदार पद पर पहुंचने के बाद हम भूल जाते हैं कि हम क्या थे? यही वजह है कि अधिकांश अफसरान रिटायरमेंट के बाद वहीं पहुंच जाते हैं जहां से वह चले थे। वे गुमनामी और अंधकार के कुंए में कहीं गुम हो जाते हैं। 
 
यह तल्‍खी वाकई तकलीफदेह है। लेकिन इसके पीछे की कहानी इससे भी ज्यादा दिल दुखाने वाली है। ऐसे दौर में जबकि पूरे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। यह बात हैरान करने वाली है कि हिमाचल की राजधानी शिमला में सचिवालय से महज 4 किलोमीटर दूर संजौली में 52 साल पुराने एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में एक अदद टायलेट तक नहीं है। इस स्कूल में 6 से 13 साल के 127 छात्र - छात्राएं पढ़ रहे हैं। इनमें 78 बच्चियां और 49 लड़के शामिल हैं। क्लास खत्म होने के बाद इस स्कूल के लड़के तो सड़क के किनारे खड़े होकर नेचुरल काल से निजात पा जाते हैं लेकिन बेचारी असुरक्षित लड़कियों को पहाड़ी के नीचे जंगल की तरफ जाना पड़ता है। बेशक इन लाड़लियों के लिए यह बेहद शर्मिंदगी का अहसास था। अमर उजाला के लिए यह सवाल नारी सम्मान से जुड़ गया। हमने इस समस्या को एक अति संवेदनशील मुददे के रूप में उठाया। ताकि और भी जिन स्कूलों में टालेट नहीं है वहां के बारे में भी अफसर कुछ करें। अमर उजाला ने सरकारी सिस्टम की बेशर्मी पर तीखे सवाल उठाए। २० सितम्बर से २० नवम्बर पूरे दो महीने हो गए और अब तक यह सिस्टम स्कूल के मासूम बच्चों को दो कमरे का टायलेट नहीं दे पाया। वह भी तब जबकि खुद मुख्यमंत्री ने अगले ही दिन इस मामले की संवेदनशीलता को समझते हुए यहीं नहीं बल्कि प्रदेश के सभी स्कूलों में टायलेट जैसी जरूरी चीज मुहैया कराने का साफ निर्देश दे चुके थे।


अपने सामाजिक सरोकार के लिए प्रतिबद्ध अमर उजाला पहले दिन से ही खबर को पूरी शिद्दत से फालो कर रहा है। खबर लिखने के अलावा हमने इस मामले से जुड़े ऊपर से लेकर नीचे तक सारे अफसरों से निजी तौर पर आग्रह किया कि वह इस काम को जल्द से जल्द पूरा कराएं। लेकिन सरकारी सिस्टम अपनी तरह से काम करता है। एक दिन तो हार कर हमारे संवादददाता ने शिक्षा महकमे से जुड़े एक अफसर से पूछ ही लिया कि अगर उस स्कूल में आपकी बच्ची पढ़ती तो भी क्या आपका यही रवैया होता? इस तल्‍ख सवाल पर अफसर बेतरह नाराज हो गए। स्कूल में शौचालय बनाने के लिए अगले ही दिन डेढ़ लाख रुपए जारी हो गए। लेकिन धनराशि जारी होने के बावजूद अब तक टायलेट बन कर तैयार नहीं हुए।
स्कूल ने इतनी मेहरबानी जरूर की कि उसने सुरक्षा के लिहाज से बच्चियों के साथ एक शिक्षिका को जंगल में भेजना शुरू कर दिया। १९ नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस है। यह बेहतर मौका है कि हम इस सवाल पर गंभीरता से चिंतन करें। हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं के लिए ये बेशक एक प्रेरणादायक कहानी हो सकती है। बड़ी बड़ी योजनाओं पर दिमाग खपाने के बजाए वह रोजमर्रा के जिन्दगी से प्रेरणा लेकर बड़े काम कर सकते हैं। शुरूआत बहुत छोटी-छोटी चीजों से होती है। मोदी ने जब लाल किले से स्‍वच्छ शौचालय की बात उठाई तो वह खुद जानते थे कि लोग कहेंगे ये कैसा प्रधानमंत्री है? लेकिन आज यह छोटी सी शुरूआत एक बड़ा आंदोलन बन गई है। हम भी नई शुरूआत कर सकते हैं। संजौली के इस छोटे से स्कूल से। 
 और एक नई शुरूआत हुई- देखें कैसे


छु‌ट्ट‌ियों के बाद स्कूल खुला और टायलेट बन कर तैयार था-


खबरें ऐसे बदलती हैं दुनिया

बेटी ही बचाएगी-1



मोदी मन की बात करते हुए शौचायल को मंदिर से ज्यादा जरूरी मानते हैं। पूरे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। ऐसे में यह बात हैरान करने वाली है कि हिमाचल की राजधानी शिमला में सचिवालय से महज 4 किलोमीटर दूर संजौली में 52 साल पुराने एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में एक अदद टायलेट तक नहीं है। इस स्कूल में 6 से 13 साल के 127 छात्र - छात्राएं पढ़ रहे हैं। इनमें 78 बच्चियां और 49 लड़के शामिल हैं। क्लास खत्म होने के बाद इस स्कूल के लड़के तो सड़क के किनारे खड़े होकर नेचुरल काल से निजाद पा जाते हैं लेकिन बेचारी असुरक्षित लड़कियों को पहाड़ी के नीचे जंगल की तरफ जाना पड़ता है। इन लाड़लियों के लिए यह बेहद शर्मिंदगी का अहसास था। अमर उजाला के लिए यह सवाल नारी सम्मान से जुड़ गया। अमर उजाला ने इस समस्या को एक अति संवेदनशील मुददे के रूप में उठाया और अंजाम तक पहुंचने का फैसला किया।
 
अमर उजाला ने सबसे पहले शनिवार 20 सितंबर 2014 को सड़क किनारे खुले आसमान के नीचे शर्मिदा हो रहे स्कूली बच्चे शीर्षक से खबर प्रकाशित की। दूसरे दिन 21 सितंबर को मुख्य मंत्री वीरभद्र सिंह ने खबर के प्रकाशित होने के बाद विभाग से सभी स्कूलों में टायलेट की सुविधाओं को लेकर रिपोर्ट तलब की और जांच के लिए उड़नदस्ते गठित करने के भी आदेश दिए। खबर का अमर उजाला मुद्दा के तहत लगातार फॉलोअप किया गया। बुधवार 15 अक्तूबर को एक बार फिर से लेकिन सरकारी सिस्टम को जरा भी शर्मिंदगी नहीं शीर्षक से खबर की गई।
इस खबर में हमने बताया कि लड़कियों को सुरक्षित जंगल ले जाने के लिए स्कूल ने एक शिक्षिका की व्यवस्‍था कर दी है। लेकिन सरकारी सिस्टम इस मामूली काम के लिए अभी तक संवेदनहीन बना हुआ है। 





 19 अक्तूबर को फिर से टायलेट न बना तो स्कूल छुड़ा देंगे अभिभावक शीर्षक से खबर की गई। मामले की गंभीरता को देखते हुए लगातार फोलोअप करने का असर यह हुआ कि विभाग ने स्कूल में 2 नए शौचालय निर्माण और 2 पुराने शौचालयों के मरम्मत के लिए डेढ़ लाख रुपये जारी कर दिए। 52 साल से जिस स्कूल में शौचालय की सुविधा नहीं थी, आज उस स्कूल में बच्चियों के लिए शौचालय निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई है।


 

Monday, April 13, 2015

गांधी के ब्रह्मचर्य पर अमर्ष के छींटे राजकिशोर

Sunday, August 10, 2008


गांधी ब्रह्मचर्य विवाद


एक तो ब्रह्मचर्य खुद ही बहसतलब चीज है और दूसरे, जब गांधीजी ही खुद को ठीक से समझ नहीं पाए, तब दूसरे क्या खा कर उन्हें समझेंगे। जब इसमें एक तीसरा तत्व गांधी-द्वेष का जुड़ जाता है, तो स्थिति जटिलतर हो जाती है। मैंने दयाशंकर शुक्ल सागर द्वारा बहुत मेहनत से तैयार की हुई पुस्तक 'महात्मा गांधी : सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोग' बड़ी उम्मीद से पढ़ना शुरू किया था। खुशी यह थी कि जिस विषय पर आजकल हर दूसरे साल अंग्रेजी में एक नई किताब जाती है, उस विषय पर चलो किसी हिन्दी लेखक ने कलम चलाने का बीड़ा तो उठाया। किताब का आकार भी साधारण नहीं हैं -- 432 पन्ने। सो यह अनुमान आधारहीन नहीं था कि यह गाली-गलौज की एक और किताब नहीं, बल्कि गांधी के घटिया आलोचकों को जवाब देने वाली शोध कृति होगी। लेकिन किताब को पूरा पढ़ लेने के बाद मैं स्वीकार करता हूं कि लिफाफा देख कर खत का मजमूं भांप लेने की कला मुझमें नहीं है।
सबसे पहले तो किताब के नाम को ले कर ही घिचपिच है। जिल्द खोल कर आगे बढ़ते ही पता चलता है कि किताब का नाम है : महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग। आगे हर बाएं पन्ने पर भी यही नाम अंकित है। पर मेरे पास एक ऐसी प्रति भी है, जिसके कवर पर भी किताब का नाम यही लिखा है - महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग। ऐसा लगता है कि इस सीधे-सादे, परंतु सटीक नाम से लेखक या प्रकाशक को पूरा संतोष नहीं हुआ। इस टाइटिल से गांधी पर ज्यादा आंच नहीं आती थी। सो पुस्तक छप चुकने के बाद यह विचार टपका कि नाम को थोड़ा रसीला बनाया जाए। इस समय बाजार में जो प्रतियां होंगी, उनके कवर पर लिखा हुआ मिलेगा -- महात्मा गांधी : सेक्स और ब्रह्मचर्य के प्रयोग। लेकिन सिर्फ कवर पर ही, क्योंकि इस बदलाव को भीतर तक ले जाने का कष्ट (कॉस्ट) नहीं उठाया गया है। मेरे पास यह दूसरी प्रति भी है। अभी तक किसी ने यह दावा नहीं किया है कि गांधीजी ने सेक्स के प्रयोग भी किए थे। कामुक वे बचपन से ही थे, यह वे खुद बता कर गए हैं। हो सकता है, यौन सुख को बढ़ाने के लिए उन्होंने सेक्स के भी कुछ प्रयोग किए हों। पर उन्होंने कहीं इस विषय को छुआ है, उनके किसी आलोचक ने। दयाशंकर शुक्ल सागर भी इस पहलू पर प्रकाश नहीं डाल पाए हैं। जिन प्रयोगों की मीमांसा की गई है, उन सभी का संबंध किसी और चीज से है -- संयम कहिए, ब्रह्मचर्य कहिए, स्त्री के साहचर्य की इच्छा कहिए या इसे अपनी कसौटी बनाने की कामना कहिए। हो सकता है, इसके माध्यम से गांधीजी कुछ और ही चीज खोज रहे थे, जिसकी ओर संकेत करना उन्होंने उचित नहीं समझा। जिसे वे खुद ही प्रयोग कहते थे, उसका निष्कर्ष वे क्या बतलातेे? गांधीजी ने अपने जीवन को 'सत्य के प्रयोग' कहा है। क्या यह तजवीज गलत होगी कि इस गुह्य क्षेत्र में भी वे सत्य ही के किसी पहलू से मुठभेड़ कर रहे थे?
अब कुछ शीर्षकों और उपशीर्षकों पर ध्यान दें : मोहन और मीरा, ऐतिहासिक उपवास और ठहरा हुआ गर्भ, गांधी और गंदे सपने, महात्मा और मनु, अतृप्त वासनाएं और संघर्ष, मगर सब चुप रहे, दस्तावेजों में छुपे रहस्य, गोरी वेश्याओं की बस्ती में, चंपारन और नीली आंखों वाली मिस एस्थर, तलवार की धार पर प्यार, एक छोटी-सी प्रेम कहानी का अंत, नींद में दो बार स्खलन, लड़कियों के कंधे पर हाथ, साबरमती आश्रम पर पाप की छाया, पारिजात के फूल, तू देवी नहीं, तुझे मासिक धर्म होता है, आश्रम में वासना, आश्रम में गुप्त रोग, वासनामयी स्पर्श, आखिर भाग गई नीला, फिर वीर्य स्खलन, कलकत्ते की काली रातें, गांधीजी की कुटिया और 'रावण का महल', ब्रह्मचर्य नहीं, संभोग सुख चाहिए * इसके बाद लेखक की 'अपनी बात' के ये वाक्य पढ़ें : 'मुझे लगता है कि अब वक्त गया है जब हम किसी नए नजरिए से अपने महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखें। और ऐसा करते वक्त हम किसी शल्य चिकित्सक की तरह तटस्थ हों। तब मन में उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा भक्ति हो, घृणा या तिरस्कार का कोई भाव। एक तरह की अनासक्ति हो। यह जोखिम भरा काम है। पर ये खतरे उठाने होंगे।' मुक्तिबोध की इस पंक्ति ने कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, बहुतों का नुकसान किया है। मुझे बहुत खुशी होगी, अगर हमारे लेखक-पत्रकार इस तरह के खतरे उठाने का साहस दिखाएं। किसी के भी प्रति विद्वेष आग है। इस आग से खेलने में अपना ही कोई सुंदर हिस्सा जल कर भस्म हो जाता है।
आग से छेड़छाड़ के उदाहरण पूरी किताब में फैले हुए हैं। 'भूमिका' में लेखक गांधीजी की 'यौन कुंठाओं' का कैलेडर तैयार करते हुए हमें बताते हैं, 'पानी के जहाज से दक्षिण अफ्रीका जा रहे 28 साल के मोहनदास यात्रा की थकान मिटाने के लिए हब्शी औरतों की बस्ती में एक वेश्या की कोठरी में घुस जाते हैं लेकिन फिर वहां से 'बिना कुछ किए' शर्मसार हो कर बाहर निकलते हैं।' (पृष्ठ 16) जंजीबार की इस घटना के बारे में स्वयं गांधीजी ने ही लिखा है। इसका कोई और साक्ष्य नहीं है। गांधीजी का वृत्तांत यह है : 'मुझ पर कप्तान के प्रेम का पार था। इस प्रेम ने मेरे लिए उलटा रूप धारण किया। उसने मुझे अपने साथ सैर के लिए न्यौता। एक अंग्रेज मित्र को भी न्यौता था। हम तीनों कप्तान की नाव पर सवार हुए। मैं इस सैर का मर्म बिलकुल नहीं समझ पाया था। कप्तान को क्या पता कि मैं ऐसे मामलों में निपट अजान हूं। हम लोग हब्शी औरतों की बस्ती में पहुंचे। एक दलाल हमें वहां ले गया। हममें से हरएक एक-एक कोठरी में घुस गया। पर मैं तो शरम का मारा वहां गुमसुम ही बैठा रहा। बेचारी उस स्त्री के मन में क्या विचार उठ रहे होंगे, सो तो वही जाने। कप्तान ने आवाज दी। मैं जैसा अंदर घुसा था, वैसा ही बाहर निकला। कप्तान मेरे भोलेपन को समझ गया। पहले तो मैं बहुत ही शर्मिंदा हुआ। पर मैं यह काम किसी भी दशा में पसंद नहीं कर सकता था, इसलिए मेरी शर्मिंदगी तुरंत दूर हो गई, और मैंने इसके लिए ईश्वर का उपकार माना कि उस बहन को देख कर मेरे मन में तनिक भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। मुझे अपनी इस दुर्बलता पर घृणा हुई कि मैं कोठरी में घुसने से इनकार करने का साहस दिखा सका।' (सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, मो. क. गांधी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, 90) झूठ और सच का फर्क इतना ज्यादा है कि अलग से टिप्पणी क्या की जाए।
रवींद्रनाथ ठाकुर की भांजी सरला देवी, जिसका विवाह पंजाब के एक जमींदार रामभज दत्त चौधरी से हुआ था, से गांधीजी के अनुराग का किस्सा बहुत मशहूर है। रसाल इशारे फेंकते हुए लिखते हैं कि 1919 में दोनों की पहली मुलाकात हुई थी और जलियांवाला बाग हत्याकांड उन्हें एक बार फिर करीब ले आया था। 'छात्रों को ब्रह्मचर्य की सलाह देने वाले गांधीजी पंजाब के इस दौरे के बाद सरला के और करीब गए थे।' (86) 'एस्थर (वही नीली आंखों वाली डेनिश लड़की, जो गांधीजी के प्रति आकृष्ट थी - रा.) उन्हें पत्र-पर-पत्र लिख रही थी, लेकिन सरला के आतिथ्य का सुख उठा रहे गांधीजी के पास अब जवाब देने का वक्त नहीं था। दिल्ली से लौट कर उन्होंने एस्थर को लिखा - 'फिलहाल तुम मुझसे नियमित उत्तर की आशा रखना। मुझे जीवन के मूल्यवान अनुभव हो रहे हैं।"(86) सरला देवी के संदर्भ में कुछ और वर्णन मुख्तसर में -- 1. इधर सरला देवी फिर गांधीजी की साधना में लग गई। (89) 2. सरला देवी अपने प्रिय अतिथि का हर खयाल रखती। वह बापू की सेवा का कोई मौका नहीं खोना चाहती थी। मेहमान के रूप में गांधीजी भी बहुत बारीकी से सरला देवी के चेहरे और मनोभावों का अध्ययन करते। (89-90) 3. लेकिन इस वियोगिनी ने (सरला देवी ने जब गांधीजी को लाहौर आने का निमंत्रण दिया था, उस समय उनके पति वहां नहीं थे। इसलिए गांधीजी ने सरला देवी के लिए सगी बहन के साथ-साथ वियोगिनी शब्द का भी प्रयोग किया था - रा.) गांधीजी का ऐसा सत्कार किया कि वह उसके प्रेम के कैदी हो कर रह गए। वियोगिनी को एक योगी मिल गया था। वियोगिनी इस योगी की तपस्या भंग करने में लगी थी। (94) 4. महात्मा ने अपने भाषण में सरला की तुलना अपनी पत्नी कस्तूरबा से यूं ही नहीं की थी। महात्मा के अनुसार 'वह अब बूढ़ी हो चली थीं।' (100) (बा के बूढ़ी हो चलने का प्रसंग यह है कि उन्हीं दिनों गांधीजी ने अपने दक्षिण अफ्रीका वासी जर्मन दोस्त हरमन कैलेनबैक को पत्र लिखा था, जिसमें वे कहते हैं -- 'अभी मैं देवदास और एक दूसरे विश्वस्त साथी (सरला देवी) के साथ यात्रा कर रहा हूं। उसे देखोगे तो उस पर मुग्ध हो जाओगे। बात यह है कि उस महिला से मेरा बहुत घनिष्ठ संपर्क हो गया है। वह अकसर यात्रा में मेरे साथ रहती है। उसके साथ मेरे संबंधों को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। मैं उसे अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहता हूं। एक मित्र ने हमारे संबंधों को बौद्धिक विवाह कहा है। मैं चाहता हूं तुम उससे मिलो। मैं अपने लाहौर और पंजाब के निवास-काल में कई महीने उसी के घर ठहरा था। श्रीमती गांधी आश्रम में हैं। वे वृद्ध तो काफी हो गई हैं, लेकिन बहादुर पहले की तरह हैं। तुमने उनके गुण-दोष-सहित उन्हें जिस रूप में देखा था, अब भी वे वैसी ही हैं।' (101) -रा.)
जिसे लेखक ने 'आध्यात्मिक रोमांस' कहा है और जिसके बीतने को 'एक छोटी-सी प्रेम कहानी का अंत', वह गांधीजी के लिए एक तूफानी घटना थी। इसे ले कर उस समय के वरिष्ठ कांग्रस नेता काफी परेशान थे। कइयों ने गांधीजी को समझाया भी कि वे यह संबंध तोड़ दें। संबंध टूटा, पर इसलिए कि गांधीजी को सरला देवी से जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हो पाई। गांधीजी की मुश्किल यह थी कि वे जिससे भी प्यार करते थे, उसे अपने विश्वासों के अनुसार ढालने लगते थे। बहरहाल, दो व्यक्तियों के बीच, खासकर स्त्री-पुरुष के बीच, जो चल रहा है, उसे कोई और समझ नहीं सकता। इसलिए आरोप लगाने की मानसिकता दोषपूर्ण है। लेकिन सागर ने मजा लेने की कोशिश की है। यही मानसिकता मीराबेन के प्रसंग में, विवस्त्र लड़कियों के साथ विवस्त्र सोने में, स्नानागार में सुशीला नैयर के साहचर्य आदि प्रसंगों में व्यक्त हुई है। इसमें सुविधा प्रदान करने के लिए गांधीजी भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। वे महिलाओं को लिखे अपने पत्रों को अकसर प्रेम पत्र बताते थे, सरला देवी को उन्होंने अपनी आध्यात्मिक पत्नी घोषित कर दिया था, मेडेलिन स्लेद का नामकरण मीरा किया था, उन्हें कई बार लगभग रोज पत्र लिखते थे और महिलाओं को अकसर लिखते थे कि आज सोते समय तुम्हारी बहुत याद आएगी। इस रस को वे कभी छोड़ नहीं पाए। महात्मा ने खुद स्वीकार किया है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद चार औरतों ने उन्हें स्त्री के रूप में विचलित किया। इनमें से तीन की पहचान उनके जीवनीकार पौत्र ने कर ली है, पर चौथी को नहीं जाना जा सका है ( गुड बोटमैन) उन्हें चौथेपन में भी स्वप्नदोष होता रहा। लेकिन क्या ये असाधारण घटनाएं हैं ? महात्मा बार-बार कहते थे कि अपनी परिभाषा के अनुसार मैं पूरा ब्रह्मचारी नहीं हो पाया हूं। पर क्या यह संभव भी था? सेक्स, ब्रह्मचर्य और महात्मा के संबंधों में पेच ही पेच हैं। इन्हें समझने के लिए जासूसी और मसखरापन नहीं, प्रेम तथा सहानुभूति चाहिए। क्या पता तब भी किस हद तक समझ में आए। लेकिन जो चीज समझ में आए, उसे हमेशा गंदा ही क्यों मान लिया जाए? खेद है कि पांच साल लगाने और काफी शोध करने पर भी दयाशंकर शुक्ल सागर अपने चरित नायक के साथ न्याय नहीं कर पाए। फिर भी इस पुस्तक में ऐसी अनंत जानकारियां हैं जिनसे पाठक अपना स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सकता है। पुस्तक की भाषा-शैली तो किसी भी पत्रकार के लिए काबिले-रश्क है।
इसमें कण भर भी संदेह नहीं कि महात्मा गांधी को स्त्रियां बहुत आकर्षित करती थीं। रसाल ने महात्मा का यह वाक्य उद्धृत किया है -- 'मैं स्वयं तो भिखारी हूं; अपनी भिक्षा में मैं विशेष रूप से बहनों की खोज में रहता हूं।' महात्मा को यह भिक्षा भरपूर मिली। इस दृष्टि से कोई भी उनसे ईर्ष्या कर सकता है। लेकिन इस खोज का रहस्य क्या था? शायद वे स्त्री तत्व को बहुत महत्व देते थे और उसके पीछे दीवाना थे। उन्होंने कई जगह लिखा है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियां बेहतर मनुष्य हैं, जो शायद वह हैं। इस गणित पर भी विचार करना चाहिए कि महात्मा लाखों पुरुषों के संपर्क में आए थे, जबकि स्त्रियों की संख्या सैकड़ों या हजारों में ही होगी। घनिष्ठता के स्तर पर दस पुरुष और एक स्त्री या शायद इससे भी कम का अनुपात बैठता है। फिर स्त्री-पुरुष समानता की मांग करने वाले इतनी हायतौबा क्यों मचाते हैं? पुरुष का पुरुष से मिलना स्वाभाविक है और स्त्री से मिलना कामुकता है? यह त्रेता युग का दर्शन होगा, आधुनिक समय का नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य की बहुत उपेक्षा की गई है। यह मिथक को फैलाने में गांधीजी ने भी कम सहयोग नहीं किया कि उनके और पत्नी कस्तूर के बीच असीम प्रेम लगाव था। असलियत बहुत खूंखार है। समीक्षित पुस्तक के लेखक द्वारा उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के अनुसार, 1914 में कस्तूरबा के बारे में गांधीजी की राय यह थी --'वह ऐसी जहर उगलने वाली महिला है जैसी मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखी। वह कभी नहीं भूलती, मुझे कभी माफ नहीं करती।' 'वे कहते, कस्तूरबा में 'अत्यंत सूक्ष्म रूप में राक्षस और देवता की भावनाएं निवास करती हैं।' बदले में कस्तूरबा गांधीजी को 'फुंफकारते हुए सांप जैसा' बतातीं।' (ये तीनों उद्धरण समीक्षित पुस्तक से) 

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