दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, July 16, 2019

ये मोह मोह के धागे

ये मोह के धागे वाकई अनूठे रिश्तों में जाकर उलझ गए। दूध के रिश्ते के आगे खून के रिश्ते फीके पड़ गए। जिसे नौ महीने अपने गर्भ में पाला। जो उन्हीं के खून का अंश है। उसके लिए एक भी आंसू नहीं। उसे देखने की कोई तड़प नहीं। उससे मिलने की कोई बेताबी नहीं। मातम है तो उससे बिछड़ने का, जिसे पांच महीने सीने से लगा कर रखा। आप इन अभिभावकों के चेहरे देखिए। पोर पोर में बसी हुई इस अबूझ पीड़ा को कोई भला क्या नाम दे सकता है। शायद ईश्वर ने इंसान को ऐसा ही बनाया है।
उस दिन कोर्ट में दोनों मांएं बिलख रही थीं। बेटी की मां अंजना ने कोर्ट में एक बार कहने की कोशिश भी की कि मुझे अब तक विश्वास नहीं हो रहा कि डीएनए रिपोर्ट सही है। इस पर कोर्ट को बताना पड़ा कि डीएनए की एक नहीं तीन-तीन रिपोर्ट सामने हैं। सब एक ही बात कह रही हैं। इस मामले को आप लोग खुद निपटा लें तो बेहतर है। हम कोई आदेश जारी नहीं करना चाहते। मामले के निपटारे के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। बेटे के माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उन्हें तुरंत मिल जाए। ये पांच महीने उनके लिए पांच जनम की तरह लग रहे हैं। लेकिन बिटिया के मां बाप बेटे को अपने पास कुछ दिन और रखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अन्नप्राशन के धार्मिक अनुष्ठान तक रुक जाने का आग्रह किया। बेटे की मां शीतल और पिता अनिल को लगा, जब पांच महीने इंतजार कर लिया तो पांच दिन और सही। वे इस परिवार से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते थे। क्योंकि उस मुंहबोली बेटी अमानत से उन्हें दोबारा भी मिलना था। इसलिए मान गए। अब सब कुछ ठीक रहा तो 26 अक्तूबर को दोनों बच्चों की अदला बदली हो जाएगी।
यह सब एक फिल्मी पटकथा की तरह है। एक बुरे दु:स्वप्न की तरह। दोनों दंपति कमला नेहरू अस्पताल की लापरवाही का शिकार हुए। अंजना का एक प्यारा सा बेटा पहले से है। इसलिए इस दंपति पर शक नहीं किया जा सकता कि इस पूरे प्रकरण में इनकी कोई गलती हो सकती है। जैसा कि अंजना और उनके पति ने कहा कि उन्होंने अस्पताल वालों की बात पर यकीन किया। जो उन्होंने कहा, वह मान लिया। अब कोई अपना बच्चा कैसे किसी को दे दे। दूसरी तरफ शीतल और अनिल का दर्द भी जायज था। उनकी साढे़ तीन साल की एक प्यारी बेटी अराध्या पहले से है। उन्हें पहले बताया - बेटा हुआ है, फिर गोद में बेटी थमा दी। पहली डीएनए रिपोर्ट में ही साफ हो गया था कि वह बेटी उनकी नहीं। हर डीएनए रिपोर्ट उनके पक्ष में थी। तो अपना बेटा पाने के लिए उनकी लड़ाई जायज थी।
लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं है। मानव स्वभाव अजीब है। वह हर क्षण सुख में जीना चाहता है। वही ठहर जाना चाहता है। वह दुख को भी सुख में बदलना चाहता है। चाहे सच उसके विपरीत हो। मासूम और प्यारी अमानत जैसी बेटी पाकर कौन उसके मोह में न पड़ जाए। अनिल बताते हैं, उसे घर में सब काकू कहते हैं। वह सबको पहचानने लगी है। उसे बोलो- हैलो काकू तो वह पलट कर देखती है और हंसने लगती है। कहीं बाहर रहता हूं तो फोन पर मेरी आवाज सुनना चाहती है। साढ़े तीन साल की छोटी अराध्या को भी उससे प्यार हो गया है। कहती है - मुझे अराध्या मत कहो। काकू की दीदी कहो। वह अपने पिता से कहती है - पापा यार, मत दो इसे। न्यू काकू को भी ले आओ। बेटे की मां ने अदालत से दरख्वास्त की कि उसे पांच दिन की छुट्टी दी जाए ताकि वह ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी अमानत के साथ बिता सके।
उधर, जितेंद्र-अंजना का हाल इससे भी ज्यादा बुरा है। पूरा परिवार एक अजीब तरह के मातम में डूबा है। सारे रिश्तेदार घर पर जमा हैं। अंजना का रो-रो कर बुरा हाल है। वह चौबीस घंटे दूसरे के बेटे को सीने से चिपटाए रखती है। उसे एक पल के लिए भी अलग नहीं होने देती। सारी रात जगकर बेटे को निहारती रहती है। जितेंद्र को घर जाने से डर लगता है। वह दिन भर खलीनी के जंगल में अपने दोस्तों के साथ बैठा रोता रहता है। जितेंद्र कहते हैं - किसी के साथ इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। हमें बेटे की ऐसी कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन अब इसके साथ मन जुड़ गया है सबका। इसे अपने से दूर करने की हम कल्पना करके ही सिहर जाते हैं।
तो आप देखिए ये माया मोह के धागे कितने मजबूत होते हैं। कई बार खून के रिश्ते भी इसके आगे बेमानी हो जाते हैं। सब गहरी पीड़ा और सदमे में हैं। जिंदगी भी कभी-कभी कैसे मजाक करती है।
लेकिन यहां डरावना सवाल बेटे बेटी के बीच फर्क का है। अनिल-शीतल का परिवार क्या तब भी ऐसी ही लड़ाई लड़ता अगर उनकी बेटी बदली होती? जितेंद्र-अंजना का परिवार क्या तब भी इतना बिलखता अगर एक बेटी उनसे जुदा हो रही होती। बेशक इसका जवाब हां या ना दोनों में हो सकता है। मानवीय स्वभाव और प्रवृत्तियों के बारे में कुछ भी यकीन से कह पाना लगभग असंभव है।
सबसे अच्छी बात यह कि हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद सौहार्दपूर्ण माहौल में मामला निपट गया। दोनों परिवार पूरे हो गए। एक बेटा और एक बेटी। एक हादसे ने अपर और लोअर हिमाचल के दो परिवारों के बीच एक ऐसा रिश्ता बना दिया, जिसका कोई नाम नहीं।
लेकिन अनिल-शीतल की इस लड़ाई का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि केएनएच और इसी तरह के अन्य जच्चा बच्चा अस्पतालों के होश ठिकाने आ गए। केएनएच में अब बच्चे के जन्म के तुरंत बाद उसके फुटप्रिंट लिए जाने लगे। अब अस्पताल वाले बच्चे के जन्म के वक्त उनके अटेंडेंट को लेबर रूम में बुला लेते हैं और बच्चे को दिखाकर नाल काटते हैं। लेकिन इसकी अलग दिक्कतें हैं जो बाद में सामने आएंगी। यह घटना सारे अस्पतालों के लिए एक सबक है।       
                                              

सोचा न था विश्वकप पर मर्सिया लिखना पड़ेगा



क्रिकेट मे मेरी ‌दिलचस्पी वर्ल्डकप तक है। क्योंकि वर्ल्डकप चार साल में एक बार आता है। मैं भी उन लोगों में से हूं जो एक जमाने से मानते हैं कि क्रिकेट वक्त को बर्बाद करने वाला खेल है। टेस्ट मैच में तो ये बात सौ फीसदी सही थी। लेकिन वन डे और फिर 20-20 ने खेल को थोड़ा दिलचस्प बना दिया। इसीलिए विश्वकप-19 के भारत के तकरीबन सारे मैच देख डाले। टीम इंडिया सर्वाधिक सात मैच जीत कर टैली के टॉप पर पहुंच गई थी। ये वाकई सम्मानजनक स्थिति थी। पूरे देश में उत्साह की लहर थी। सबको उम्मीद थी कि इस बार टीम संतुलित है। हम लगातार मैच जीत रहे हैं। इसलिए अंत में विश्व कप हमारा है। लेकिन सेमीफाइनल का तकरीबन जीता हुआ मैच हम जिस तरह हारे उससे सवाल उठा कि क्या वाकई विराट टीम विश्वकप की ट्राफी को जीतने के लिए तैयार थी? क्या हमारा खेल वाकई चैम्पियन वाला था? आप भावुक होकर नहीं बल्कि बिलकुल तथ्यों और तर्कों के आधार पर नतीजा निकालिए।
केएल राहुल, रोहित शर्मा और कोहली के अलावा तीसरा कौन-सा बल्लेबाज था जिस पर हम हमेशा यकीन कर सकते थे? इसी तरह बुमराह के अलावा और कौन-सा गेंदबाज था ‌जिसे बल्लेबाज के ठीक कदमों पर गेंद फेंकने का जादू आता हो। आप कह सकते हैं कि हर गेंदबाज बुमराह नहीं हो सकता जैसे हर बल्लेबाज सचिन नहीं हो सकता। बेशक भुवनेश्वर कुमार, चहल, या बाद में आए शमी या जड़ेजा की गेंदबाजी बुमराह के साए तले आत्मविश्वास से लबरेज रही। इसलिए इस श्रृंखला में गेंदबाजों से किसी को कोई शिकायत नहीं हो सकती। ये अच्छे संकेत हैं क्योंकि इस विश्वकप में भारत के पास पहली बार अच्छे गेंदबाजों की एक फौज तैयार थी। वर्ना हमेशा भारतीय टीम अपने बल्लेबाजों के दम पर ही मैदान में उतरती थी। बुमराह के रूप में हमें गेंदबाजी का बादशाह मिल गया है।
लेकिन हमारी बल्लेबाजी और उसका क्रम जरूर सोचने जैसा है। शिखर धवन के जाने के बाद आखिरी मैच तक हमें चार नम्बर का खिलाड़ी नहीं मिला। हर दूसरे मैच में प्रयोग हुए। मैं अंत तक नहीं समझ पाया कि घोनी यें वर्ल्डकप क्यों खेल रहे हैं? सिर्फ रिटायरमेंट से पहले विश्वकप खेलने की अपनी अंतिम हसरत पूरी करने के लिए। ये वही धोनी थे जिनने कप्तान रहते टीम इंडिया के शानदार खिलाड़ियों को सिर्फ इसलिए चलता कर दिया था कि वे उम्रदराज हो गए हैं और वे अब फुर्तीले नहीं रहे। इस ‌विश्वकप में धोनी टेस्ट मैच की तरह मैच खेल रहे थे। वह चाह कर भी लम्बी शॉट नहीं खेल पा रहे थे क्योंकि बढ़ती उम्र के कारण उनका रिफलेक्स एक्‍‍शन कमजोर हो चुका है। गेंद की गति मैदान में उनके दिमाग के सोचने समझने की गति से कहीं तेज थी। और ऐसा भी नहीं कि हमें एक योग्य विकट कीपर की सख्त जरूरत थी। एक जमाना था जब हम वीकट के पीछे दस्ताने पहने खड़े एक योग्य कीपर के लिए तरसते थे। लेकिन सेमीफाइनल में हम तीन-तीन विकेटकीपरों के साथ खेल रहे थे। श्रृषभ पंत और दिनेश कार्तिक ये दोनों कीपर- बैड्समैन हैं जिन्हें हमने बतौर बल्लेबाज ये मैच खिलाया। क्या हम इन दोनों में किसी एक को कीपर बना कर धोनी की जगह एक अच्छा बल्लेबाज नहीं खिला सकते थे?
हमारा मध्यक्रम अपाहिज था। टीम के पास कोई फिनीशर नहीं था। धोनी के अंध भक्तों का एक समूह था जिसने उन्हें मोदी मान पर नारा गढ़ दिया-माही है तो मुमकिन है। जबकि सब जानते हैं कि ये सच नहीं है। लता दीदी को भी धोनी के लिए बहुत भावुक होने की जरूरत नहीं। उम्र के साथ भटके हुए सुर से निराश होकर हम रेडियो बंद कर सकते हैं लेकिन एक उम्रदराज खिलाड़ी का खराब खेल करोडों लोगों के दिल तोड़ जाता है।
हमने इस पर अंत तक ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि राहुल ,रोहित और कोहली की तिकड़ी ही इतने ज्यादा रन बना रही थी कि बाद के खिलाड़ियों पर किसी का ध्यान नहीं गया। रोहित ने 7 मैच में 5 शतक जड़े। एक शतक राहुल का भी था। कोहली के पास तो खैर हाफ संचुरी की श्रृंखला रही। किसी ने नहीं सोचा कि शुरू के ये तीनों बल्लेबाज शुरू के तीन ओवर में ही निपट गए तो क्‍या होगा? और वही हुआ। क्रिकेट तकनीक से ज्यादा दिमाग का खेल है। ये खेल आप दबाव में सहज रूप से नहीं खेल सकते। अंतिम तक जीत के लिए एक जुझारूपन और एक जिद बहुत जरूरी है। ये जुझारूपन हमारी क्रिकेट में न पहले कभी था न अब है। खैर हम टूर्नामेंट से बाहर हो गए। क्या फर्क पड़ता है। गालिब के शेर को थोड़ा बदल के कहूं तो क्रिकेट-ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं रोइए जार जार क्या,