दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, July 16, 2019

सोचा न था विश्वकप पर मर्सिया लिखना पड़ेगा



क्रिकेट मे मेरी ‌दिलचस्पी वर्ल्डकप तक है। क्योंकि वर्ल्डकप चार साल में एक बार आता है। मैं भी उन लोगों में से हूं जो एक जमाने से मानते हैं कि क्रिकेट वक्त को बर्बाद करने वाला खेल है। टेस्ट मैच में तो ये बात सौ फीसदी सही थी। लेकिन वन डे और फिर 20-20 ने खेल को थोड़ा दिलचस्प बना दिया। इसीलिए विश्वकप-19 के भारत के तकरीबन सारे मैच देख डाले। टीम इंडिया सर्वाधिक सात मैच जीत कर टैली के टॉप पर पहुंच गई थी। ये वाकई सम्मानजनक स्थिति थी। पूरे देश में उत्साह की लहर थी। सबको उम्मीद थी कि इस बार टीम संतुलित है। हम लगातार मैच जीत रहे हैं। इसलिए अंत में विश्व कप हमारा है। लेकिन सेमीफाइनल का तकरीबन जीता हुआ मैच हम जिस तरह हारे उससे सवाल उठा कि क्या वाकई विराट टीम विश्वकप की ट्राफी को जीतने के लिए तैयार थी? क्या हमारा खेल वाकई चैम्पियन वाला था? आप भावुक होकर नहीं बल्कि बिलकुल तथ्यों और तर्कों के आधार पर नतीजा निकालिए।
केएल राहुल, रोहित शर्मा और कोहली के अलावा तीसरा कौन-सा बल्लेबाज था जिस पर हम हमेशा यकीन कर सकते थे? इसी तरह बुमराह के अलावा और कौन-सा गेंदबाज था ‌जिसे बल्लेबाज के ठीक कदमों पर गेंद फेंकने का जादू आता हो। आप कह सकते हैं कि हर गेंदबाज बुमराह नहीं हो सकता जैसे हर बल्लेबाज सचिन नहीं हो सकता। बेशक भुवनेश्वर कुमार, चहल, या बाद में आए शमी या जड़ेजा की गेंदबाजी बुमराह के साए तले आत्मविश्वास से लबरेज रही। इसलिए इस श्रृंखला में गेंदबाजों से किसी को कोई शिकायत नहीं हो सकती। ये अच्छे संकेत हैं क्योंकि इस विश्वकप में भारत के पास पहली बार अच्छे गेंदबाजों की एक फौज तैयार थी। वर्ना हमेशा भारतीय टीम अपने बल्लेबाजों के दम पर ही मैदान में उतरती थी। बुमराह के रूप में हमें गेंदबाजी का बादशाह मिल गया है।
लेकिन हमारी बल्लेबाजी और उसका क्रम जरूर सोचने जैसा है। शिखर धवन के जाने के बाद आखिरी मैच तक हमें चार नम्बर का खिलाड़ी नहीं मिला। हर दूसरे मैच में प्रयोग हुए। मैं अंत तक नहीं समझ पाया कि घोनी यें वर्ल्डकप क्यों खेल रहे हैं? सिर्फ रिटायरमेंट से पहले विश्वकप खेलने की अपनी अंतिम हसरत पूरी करने के लिए। ये वही धोनी थे जिनने कप्तान रहते टीम इंडिया के शानदार खिलाड़ियों को सिर्फ इसलिए चलता कर दिया था कि वे उम्रदराज हो गए हैं और वे अब फुर्तीले नहीं रहे। इस ‌विश्वकप में धोनी टेस्ट मैच की तरह मैच खेल रहे थे। वह चाह कर भी लम्बी शॉट नहीं खेल पा रहे थे क्योंकि बढ़ती उम्र के कारण उनका रिफलेक्स एक्‍‍शन कमजोर हो चुका है। गेंद की गति मैदान में उनके दिमाग के सोचने समझने की गति से कहीं तेज थी। और ऐसा भी नहीं कि हमें एक योग्य विकट कीपर की सख्त जरूरत थी। एक जमाना था जब हम वीकट के पीछे दस्ताने पहने खड़े एक योग्य कीपर के लिए तरसते थे। लेकिन सेमीफाइनल में हम तीन-तीन विकेटकीपरों के साथ खेल रहे थे। श्रृषभ पंत और दिनेश कार्तिक ये दोनों कीपर- बैड्समैन हैं जिन्हें हमने बतौर बल्लेबाज ये मैच खिलाया। क्या हम इन दोनों में किसी एक को कीपर बना कर धोनी की जगह एक अच्छा बल्लेबाज नहीं खिला सकते थे?
हमारा मध्यक्रम अपाहिज था। टीम के पास कोई फिनीशर नहीं था। धोनी के अंध भक्तों का एक समूह था जिसने उन्हें मोदी मान पर नारा गढ़ दिया-माही है तो मुमकिन है। जबकि सब जानते हैं कि ये सच नहीं है। लता दीदी को भी धोनी के लिए बहुत भावुक होने की जरूरत नहीं। उम्र के साथ भटके हुए सुर से निराश होकर हम रेडियो बंद कर सकते हैं लेकिन एक उम्रदराज खिलाड़ी का खराब खेल करोडों लोगों के दिल तोड़ जाता है।
हमने इस पर अंत तक ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि राहुल ,रोहित और कोहली की तिकड़ी ही इतने ज्यादा रन बना रही थी कि बाद के खिलाड़ियों पर किसी का ध्यान नहीं गया। रोहित ने 7 मैच में 5 शतक जड़े। एक शतक राहुल का भी था। कोहली के पास तो खैर हाफ संचुरी की श्रृंखला रही। किसी ने नहीं सोचा कि शुरू के ये तीनों बल्लेबाज शुरू के तीन ओवर में ही निपट गए तो क्‍या होगा? और वही हुआ। क्रिकेट तकनीक से ज्यादा दिमाग का खेल है। ये खेल आप दबाव में सहज रूप से नहीं खेल सकते। अंतिम तक जीत के लिए एक जुझारूपन और एक जिद बहुत जरूरी है। ये जुझारूपन हमारी क्रिकेट में न पहले कभी था न अब है। खैर हम टूर्नामेंट से बाहर हो गए। क्या फर्क पड़ता है। गालिब के शेर को थोड़ा बदल के कहूं तो क्रिकेट-ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं रोइए जार जार क्या,

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