दयाशंकर शुक्ल सागर

Sunday, December 8, 2019

घर लौटते फिल्मी परिंदे


 मकाऊ डायरी 4


और अब घर वापसी का वक्त आ गया है। किसी को दिल्ली  की फ्लाइट पकड़नी है तो किसी को मुंबई की। लेकिन इसके लिए पानी के छोटे समुद्री जहाज फैरी से हांगकांग एयरपोर्ट तक जाना होगा। सब फैरी पकड़ने की हड़बड़ी में हैं। इन सब में वह सैलानी नहीं हैं जो आईफा के बहाने मकाऊ  घूमने  आए थे। इसमें केवल वे हैं जो सिर्फ आइफा अवार्ड के लिए यहां आए थे। सब यानी एक टूटा हाथ लिए  शाहरुख  खान नई फिल्म 'गुलाबी गैंग' के साथ फिल्मों में  वापस आ रही माधुरी दीक्षित, पूरे अवार्ड फंक्शन में शाहरुख के साथ चिपकी रही अनुष्का शर्मा, बिना ऐश्वर्या के अभिषेक बच्चन, कामयाबी की आधी अधूरी खुशी लिए शुक्राणुओं के नए दानवीर विक्की डोनर उर्फ आयुष्मान खुरान, अपने स्‍मार्ट शौहर सिद्धार्थ की बांहें थामे विद्या बालन, खूबसूरत दिया मिर्जा, हारे हुए खिलाड़ी शाहिद कपूर, फिल्मों के बोझा की गठरी से दबे अनुपम खेर, शबाना को मिस करते जावेद अख्तर, दक्षिण भारतीय डांसर प्रभुदेवा, प्रियंका की चंचल बहन परिणीति  चोपड़ा  आइफा के 14 अवार्ड का दांव जीते बर्फी के निर्देशक अनुराग बसु और मैं।
इत्तेफाक से हम सबकी टिकटें फैरी के स्पेशल क्लास में उपर के डैक पर थी। मै समझ गया कि अब मजा आने वाला है। अब जो होगा उसकी स्क्रिप्ट जावेद अखतर नहीं, मैं लिखूंगा और ये फिल्मी कहानी नहीं बल्कि एक रिएलिटी शो होगा। और बिलकुल यहीं हुआ। शाहरुख, अनुष्का और माधुरी के साथ वीआईपी केबिन में बंद हो गए। ये सब खुद को सुपर स्टार की श्रेणी में रखना ज्यादा पसंद करते हैं। आईफा अवार्ड में यह लोग अलग-अलग रहे। इन लोगों ने अपने साथ बाडीगार्ड रख छोड़े थे। इनके बाडीगार्ड सलमान खान की तरह शालीन नहीं थे। वह फैन्स को इनके पास फटकने तक नहीं दे रहे थे। जाहिर है, उनकी गलती नहीं क्योंकि वे अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे थे।
लेकिन बाकी सब डैक पर पहुंचते ही मस्ती के मूड में आ गए। यह तय हुआ कि अब डम्ब शॅराड्स खेला जाएगा। दो टीमें बनेंगी। एक टीम का कोई सदस्य एक्टिंग कर इशारों से किसी फिल्म का टाइटल बताएगा। दूसरी टीम  को उस फिल्म का सही नाम बताना होगा। पर किस टीम में कौन होगा। अनुपन ने कहा ब्वायज वर्सेज गर्ल्स की टीम बन जाए। दीया ने कहा नहीं प्लीज वी आर नॉट  स्कूल गोइंड किड्स। यानी हम स्कूल जाते बच्चे नहीं हैं। जावेद ने कहा ठीक है मैं गर्ल्स  की टीम में हो जाता हूं। खेर ने कहा हां आप उसी साइड के हैं। सब हंसने लगते हैं। और खेल शुरू हो गया और साथ में शोर भी। जैसे सकूली बच्चे खेल रहें हों। हंसी-मजाक, किस्से कहानियां सब साथ-साथ चल रहे थे। खेर किसी के बारे में बता रहे थे। ओके विक्की डोनर हो गया अब वार्सिलोना। उसने कहा क्या बाहर से लो ना। मैनो कहा नहीं वार्सिलोना। सब हंसने लगे।
खेर और सिद्धार्थ आयुष्मान खुराना को लेकर डैक के कोने में चले जाते हैं। वहां एक फिल्म का नाम तय होता है। फिल्म का नाम बंदिनी है। खुराना डिब्बा बंद करने का इशारा करते हैं। लड़कियां बंद तक पहुंच जाती हैं। खुराना कहते हैं इसके आगे छोटा सा वर्ड है। दीया कहती हैं बंदना। पर ये कोई फिल्म नहीं। लेकिन बंद से बंदिनी समझाना उन्हें मुश्किल पड़ता है। अंत में झल्लाकर उनके मुंह बंदिनी निकल जाता हैं। लड़कियां चिल्लाती हैं बंदिनी बंदिनी। खेर कहते हैं, चिटिंग चिटिंग। इसने बता दिया था। परिणीति कहती है नहीं बताया था। लड़कियां कहती हैं  हे हे हे हम जीत गए। खेर कहते हैं मैंने पहली बार किसी हारी हुई टीम को इतना खुश देखा है। सब हंसने लगते हैं। शहिद कहते हैं अब मैं जा रहा हूं। और वहा दूसरी ओर खड़े हो जाते हैं। अब जावेद साहब 'पार' फिल्म का  समझाने की कोशिश करते हैं। लड़कियां नहीं समझा पा रहीं। काफी देर हो गई खेर कहते हैं, भई मैं तो अब सोने जा रहा हूं।
खेल काफी देर तक चलता रहा। बीच-बीच में राजनीति भी चल रहीं हैं। चीन में बर्फी को आईफा के चैदह अवार्ड लड्डू मिले। शुगर ज्यादा हो गई। जावेद मेरे बगल में खड़े अनुपम खेर के कान में  कुछ फुसफुसाते हैं- 'डोंट टेल मी यार कि अनुराग बसु को अंग्रेजी  नहीं आती। अगर नहीं आती तो वह हालीवुड की फिल्में कैसे देखता।' फिर दोनों को जोर से हंसने लगते हैं। बताते चलें कि बालीवुड में चर्चा हैं कि अनुराग की फिल्म बर्फी के कुछ सीन हालीवुड की फिल्म 'द नोटबुक' से उड़ाए गए हैं। बहरहाल जो भी इतना तो समझ में आ गया कि  आईपीएल के मैचों की तरह फिल्‍मों के सारे अवार्ड फिक्‍स होते हैं। बर्फी में शानदार अदाकारी के बावजूद प्रियंका चोपडा को बेस्‍ट हीरोइन का अवार्ड नहीं मिलना था सो वह नहीं आईं। उनकी बहन परिणित चोपडा आईं उन्‍हें परफार्म करना था। विद़या बालन आईं क्‍योंकि उन्‍हें बेस्‍ट एक्‍टेस का अवार्ड लेना था। जिन्‍हें पता था कि उन्‍हें अवार्ड मिलना है वो आते हैं। या फिर वे आते हैं जिन्‍हें अवार्ड फंकशन में पैसे लेकर नाचना गाना है।
  किनारा आ गया। और सफर खत्म हुआ। अब हम सबको अपने-अपने जहाज पकड़ने हैं। फिल्म वालों को पहली बार इतने करीब देखा है। मुझे न जाने क्यों लगा ये बेचारे दोहरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं।
सार्वजनिक जीवन में ये चमकते सितारे हैं। पर इनकी प्राइवेट लाइफ हमारी आप की तरह है। कभी खुशी कभी गम, कभी हंसी मजाक तो कभी जलन और ईर्ष्या। उस दिन ग्रीन कारपेट पर चलते वक्त अनुपप खेर को देखकर भीड़ खुशी के मारे चीखी थी। खेर ने अपने सभी फैन्स से हाथ जरूर मिलाया लेकिन उनका चेहरा भाव शून्य था। वह  थोड़ा  आगे बढ़े तो मैंने उनसे अकेले में पूछा था- उनसे हाथ मिलाते वक्त कम से कम एक मुस्कुराहत तो आप के चेहरे पर ला सकते थे। मेरे सवाल पर खेर नाराज हो गए थे शायद। कहने लगे खुशी अंदर होती है, जरूरी नहीं कि वह दिखई जाए। मैंने कहा रहने दीजिए, ये कहने की बातें हैं। खेर ने चिढ़ कहा आप कुछ भी सोचिए। और वह आगे बढ़ गए।
सच पूछिए तो तब मुझे बुरा नहीं लगा  था। खेर के अभिनय का मैं कायल हूं। खेर ही नहीं हर सफल कलाकार के अंदर कुछ ऐसा होता है जो उसे असाधारण बनाता है। और एक पूरी टीम होती है जो सुपर मैन या सुपर वुमन बना देती है। वर्ना बिना मेकअप के रूप रंग से ये सारे कलाकार उतने ही साधारण हैं जितने कि हम और आप। यह रहस्य न खुल जाए इसलिए वे हमसे दूरी बनाकर रहते हैं। खैर शाम ढल गई है। परिंदे घर लौट रहे हैं। मेरा भी मन भर गया। अब घर लौटने का वक्‍त आ गया है। अलविदा मकाउ।

अतृप्त सपनों के शहर में


 मकाऊ डायरी 1


नई दिल्ली से हांगकांग एयरपोर्ट तक आने में केवल पांच घंटे लगे। अंतर्राष्ट्रीय विमान आमतौर पर 750 और 950 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार का चलते हैं। एक लम्बी झपकी लेने के बाद पता ही नहीं चलता कि कब तकरीबन पूरा चीन पार करके आप उसकी अंतिम सीमा तक आ गए। और मजा देखिए आप प्लेन में रात एक बजे सोते हैं और पांच घंटे के सफ़र के बाद आँख खुलने पर पता चलता है कि हांगकांग में सूरज को निकले चार घंटे बीत चुके हैं। लेकिन हर तरफ से पहाडियों से घिरा और चकाचौंध से भरा हांगकांग उस वक्त आकर्षित नहीं करता जब आपको सपनों का कोई और दूसरा शहर बुला रहा हो।

दफ़तर की तरफ से  मकाऊ जाने का जब न्‍यौता मिला तो सच जानिए इस शहर के बारे में कुछ जानकारी नहीं थी सिवाए इसके कि वहां जबरदस्‍त तरीके से जुआ खेला जाता है। लेकिन जुए में मेरी कोई दिलचस्‍पी नहीं थी क्‍योंकि फ़लश के सिवा मुझे जुए का कोई खेल नहीं आता। ये जुआ भी मैं सिर्फ दीपावली की रातों में खेलता हूं वह भी ज्‍यादातर अपने भाई और बहनोई के साथ जिन्‍हें लूटने और जिनसे लुटने में खूब मजा आता है। हारे तो गम नहीं और जीते तो मजा ही मजा। खैर मकाऊ में बालीवुड के फिल्‍मी सितारों का मेला जुटने वाला था और मुझे आईफा अवार्ड का आंखों देखा हाल लिखना था। मैं जानता था इस काम में मजा आने वाला है। पर मन में थोडी घबराहट थी कि मेरे पास  मकाऊ का वीजा नहीं है।     
हालांकि मुझे बार बार बताया गया कि चिन्‍ता की कोई जरूरत नहीं क्‍योंकि मकाऊ घूमने के लिए बीजा की आवश्‍यक नहीं। लेकिन बिना वीजा के देश की सीमा लांघना डरावना जोखिम है। पर जोखिम उठाने का भी तो अपना मजा है। बताया गया था कि हांगकांग एयरपोर्ट तक हवाई जहाज से जाना है। इसके आगे का सफ़र आपको छोटी-सी फैरी पूरा कराएगी। फैरी यानी समंदर में चलने वाला एक छोटा जहाज। इस जहाज का बंदरगाह ठीक हांगकांग का एयरपोर्ट से जुडा है। हांगकांग का इमिग्रशन बिना पार किये आप एक भूमिगत शटल से ठीक फैरी के अन्दर तक पहुँच जायंगे। पर शर्त यह है की आपको फैरी का टिकट भारत में ही नेट के जरिये ख़रीदना होगा। ये टिकट ही वीजा का काम करता है। एअरपोर्ट से मकाऊ का रास्ता  एक घंटे का है। मकाऊ एक प्रायदीप है। पहाडियों से घिरी खाड़ी के नीले पानी पर फैरी फिसलती हुई चलती है। इस पानी से धोड़ा ही ऊपर उड़ान भरते या एअरपोर्ट पर हवाई जहाज गजब का कौतुक पैदा करता है।



सपनों का शहर यानी मकाऊ दक्षिणी चीन सागर के किनारे बसे सारे देश मकाऊ को 'सिटी ऑफ़ ड्रीम्स' के नाम से ही जानते हैं। मकाऊ और हांगकांग अलग देश नहीं है। ये दोनों चीनी जनवादी गणराज्य का हिस्सा है। इन्हें सन 2000 शुरू होने से थोडा ही पहले  चीन ने विशेष प्रसाशनिक क्षेत्र का दर्जा दिया। एक ज़माने में मकाऊ पुर्तगाल का उपनिवेश हुआ करता था। जैसे कभी हमारा गोवा था। 16 वी सदी के शुरू में ही पुर्तगालियो ने गोवा और मकाऊ जैसे समंदर के किनारे बसे इलाको को व्यापारिक ठिकाना बनाया और धीरे से इन इलाको की हूकुमत अपने कब्जे में ले ली। गोवा को तो पुर्तगालियो ने सीधे फतह किया था लेकिन मकाऊ पर कब्ज़ा बड़ी चालाकी से किया। 1513 में जार्ज एलबर्स पहला पुर्तगाली था जिसने चीन की धरती पर कदम रखा। फिर पुर्तगाली व्यापारियों ने मकाऊ के समुद्री किनारे को एक बंदरगाह के रूप में विकसित किया। उन्होंने 20 किलोग्राम सालाना चांदी के बदले मकाऊ बंदरगाह को किराये पर ले लिया। 1863 तक ये सिलसिला जरी रहा। तब तक कई पुर्तगाली यहाँ के वाशिंदे बन चुके थे। वह सत्ता में प्रशासनिक दखल चाहने लगे। 1883 में पुर्तगाली तानाशाहों का दौर ख़त्म हुआ। ये सीनेट सिर्फ सामाजिक और आर्थिक मामले देखने के लिए बनी थी वह भी एक चीनी प्राधिकारी की निगरानी में। लेकिन एक शुरुआत तो हो गई। अफीम युद्ध के बाद मकाऊ अधिकारिक रूप से पुर्तगाल के कब्जे वाला इलाका हो गया। 70 के दशक में पुर्तगाली तानाशाह का दौर ख़त्म हुआ। और 1974 में नई पुर्तगाली सरकार या अपने उपनिवेशों को मुक्त करने का फैसला लिया। पुर्तगाल ने पहली बार मकाऊ को चीन का एक हिस्सा माना। और उसे चीनी जनवादी गणराज्य का एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र माना। चीन-पुर्तगाल के संयुक्त समझौते के तहत मकाऊ 1999 में अगले 50 साल के लिए चीनी गणराज्य का हिस्सा हो गया। लेकिन यहाँ एक देश और दो प्रणाली के सिद्धान्त की शुरुआत हुई। यानि विदेश मामले और रक्षा को छोड़ हांगकांग और मकाऊ पर चीन का कई दखल नहीं है। दोनों की अपनी अलग करेंसी है अलग पुलिस और अलग इमिग्रेशन व्यवस्था है। उनकी अर्थव्यवस्था स्वतंत्र है और जीवन शैली पूरी तरह का आजाद। यहाँ की 90 प्रतिशत आबादी चीनी है लेकिन चीन के लड़ाका अंदाज़ का अलग एक अनोखे तरह की संप्रभुता का मजा ले रही है। सरकार के मुखिया के नाम पर यहाँ एक चीफ है जिसकी कैबिनेट में पाँच नीति सचिव हैं। ये सचिव एक 11 सदस्यों की कमेटी की सलाह पर कम करते हैं। यहां के  स्थानीय निवासियों ने अपनी पूरी राजनीतिक सम्पभुता न कभी पुर्तगालियो को दी न दबंग चीन को। और समंदर के किनारे एक खुबसूरत सा देश बसा लिया जहां सपनो के इन्द्रधनुष में रंग भरे जाते हैं। 


जारी


Tuesday, July 16, 2019

ये मोह मोह के धागे

ये मोह के धागे वाकई अनूठे रिश्तों में जाकर उलझ गए। दूध के रिश्ते के आगे खून के रिश्ते फीके पड़ गए। जिसे नौ महीने अपने गर्भ में पाला। जो उन्हीं के खून का अंश है। उसके लिए एक भी आंसू नहीं। उसे देखने की कोई तड़प नहीं। उससे मिलने की कोई बेताबी नहीं। मातम है तो उससे बिछड़ने का, जिसे पांच महीने सीने से लगा कर रखा। आप इन अभिभावकों के चेहरे देखिए। पोर पोर में बसी हुई इस अबूझ पीड़ा को कोई भला क्या नाम दे सकता है। शायद ईश्वर ने इंसान को ऐसा ही बनाया है।
उस दिन कोर्ट में दोनों मांएं बिलख रही थीं। बेटी की मां अंजना ने कोर्ट में एक बार कहने की कोशिश भी की कि मुझे अब तक विश्वास नहीं हो रहा कि डीएनए रिपोर्ट सही है। इस पर कोर्ट को बताना पड़ा कि डीएनए की एक नहीं तीन-तीन रिपोर्ट सामने हैं। सब एक ही बात कह रही हैं। इस मामले को आप लोग खुद निपटा लें तो बेहतर है। हम कोई आदेश जारी नहीं करना चाहते। मामले के निपटारे के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। बेटे के माता-पिता चाहते थे कि उनका बेटा उन्हें तुरंत मिल जाए। ये पांच महीने उनके लिए पांच जनम की तरह लग रहे हैं। लेकिन बिटिया के मां बाप बेटे को अपने पास कुछ दिन और रखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अन्नप्राशन के धार्मिक अनुष्ठान तक रुक जाने का आग्रह किया। बेटे की मां शीतल और पिता अनिल को लगा, जब पांच महीने इंतजार कर लिया तो पांच दिन और सही। वे इस परिवार से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते थे। क्योंकि उस मुंहबोली बेटी अमानत से उन्हें दोबारा भी मिलना था। इसलिए मान गए। अब सब कुछ ठीक रहा तो 26 अक्तूबर को दोनों बच्चों की अदला बदली हो जाएगी।
यह सब एक फिल्मी पटकथा की तरह है। एक बुरे दु:स्वप्न की तरह। दोनों दंपति कमला नेहरू अस्पताल की लापरवाही का शिकार हुए। अंजना का एक प्यारा सा बेटा पहले से है। इसलिए इस दंपति पर शक नहीं किया जा सकता कि इस पूरे प्रकरण में इनकी कोई गलती हो सकती है। जैसा कि अंजना और उनके पति ने कहा कि उन्होंने अस्पताल वालों की बात पर यकीन किया। जो उन्होंने कहा, वह मान लिया। अब कोई अपना बच्चा कैसे किसी को दे दे। दूसरी तरफ शीतल और अनिल का दर्द भी जायज था। उनकी साढे़ तीन साल की एक प्यारी बेटी अराध्या पहले से है। उन्हें पहले बताया - बेटा हुआ है, फिर गोद में बेटी थमा दी। पहली डीएनए रिपोर्ट में ही साफ हो गया था कि वह बेटी उनकी नहीं। हर डीएनए रिपोर्ट उनके पक्ष में थी। तो अपना बेटा पाने के लिए उनकी लड़ाई जायज थी।
लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं है। मानव स्वभाव अजीब है। वह हर क्षण सुख में जीना चाहता है। वही ठहर जाना चाहता है। वह दुख को भी सुख में बदलना चाहता है। चाहे सच उसके विपरीत हो। मासूम और प्यारी अमानत जैसी बेटी पाकर कौन उसके मोह में न पड़ जाए। अनिल बताते हैं, उसे घर में सब काकू कहते हैं। वह सबको पहचानने लगी है। उसे बोलो- हैलो काकू तो वह पलट कर देखती है और हंसने लगती है। कहीं बाहर रहता हूं तो फोन पर मेरी आवाज सुनना चाहती है। साढ़े तीन साल की छोटी अराध्या को भी उससे प्यार हो गया है। कहती है - मुझे अराध्या मत कहो। काकू की दीदी कहो। वह अपने पिता से कहती है - पापा यार, मत दो इसे। न्यू काकू को भी ले आओ। बेटे की मां ने अदालत से दरख्वास्त की कि उसे पांच दिन की छुट्टी दी जाए ताकि वह ज्यादा से ज्यादा वक्त अपनी अमानत के साथ बिता सके।
उधर, जितेंद्र-अंजना का हाल इससे भी ज्यादा बुरा है। पूरा परिवार एक अजीब तरह के मातम में डूबा है। सारे रिश्तेदार घर पर जमा हैं। अंजना का रो-रो कर बुरा हाल है। वह चौबीस घंटे दूसरे के बेटे को सीने से चिपटाए रखती है। उसे एक पल के लिए भी अलग नहीं होने देती। सारी रात जगकर बेटे को निहारती रहती है। जितेंद्र को घर जाने से डर लगता है। वह दिन भर खलीनी के जंगल में अपने दोस्तों के साथ बैठा रोता रहता है। जितेंद्र कहते हैं - किसी के साथ इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। हमें बेटे की ऐसी कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन अब इसके साथ मन जुड़ गया है सबका। इसे अपने से दूर करने की हम कल्पना करके ही सिहर जाते हैं।
तो आप देखिए ये माया मोह के धागे कितने मजबूत होते हैं। कई बार खून के रिश्ते भी इसके आगे बेमानी हो जाते हैं। सब गहरी पीड़ा और सदमे में हैं। जिंदगी भी कभी-कभी कैसे मजाक करती है।
लेकिन यहां डरावना सवाल बेटे बेटी के बीच फर्क का है। अनिल-शीतल का परिवार क्या तब भी ऐसी ही लड़ाई लड़ता अगर उनकी बेटी बदली होती? जितेंद्र-अंजना का परिवार क्या तब भी इतना बिलखता अगर एक बेटी उनसे जुदा हो रही होती। बेशक इसका जवाब हां या ना दोनों में हो सकता है। मानवीय स्वभाव और प्रवृत्तियों के बारे में कुछ भी यकीन से कह पाना लगभग असंभव है।
सबसे अच्छी बात यह कि हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद सौहार्दपूर्ण माहौल में मामला निपट गया। दोनों परिवार पूरे हो गए। एक बेटा और एक बेटी। एक हादसे ने अपर और लोअर हिमाचल के दो परिवारों के बीच एक ऐसा रिश्ता बना दिया, जिसका कोई नाम नहीं।
लेकिन अनिल-शीतल की इस लड़ाई का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि केएनएच और इसी तरह के अन्य जच्चा बच्चा अस्पतालों के होश ठिकाने आ गए। केएनएच में अब बच्चे के जन्म के तुरंत बाद उसके फुटप्रिंट लिए जाने लगे। अब अस्पताल वाले बच्चे के जन्म के वक्त उनके अटेंडेंट को लेबर रूम में बुला लेते हैं और बच्चे को दिखाकर नाल काटते हैं। लेकिन इसकी अलग दिक्कतें हैं जो बाद में सामने आएंगी। यह घटना सारे अस्पतालों के लिए एक सबक है।       
                                              

सोचा न था विश्वकप पर मर्सिया लिखना पड़ेगा



क्रिकेट मे मेरी ‌दिलचस्पी वर्ल्डकप तक है। क्योंकि वर्ल्डकप चार साल में एक बार आता है। मैं भी उन लोगों में से हूं जो एक जमाने से मानते हैं कि क्रिकेट वक्त को बर्बाद करने वाला खेल है। टेस्ट मैच में तो ये बात सौ फीसदी सही थी। लेकिन वन डे और फिर 20-20 ने खेल को थोड़ा दिलचस्प बना दिया। इसीलिए विश्वकप-19 के भारत के तकरीबन सारे मैच देख डाले। टीम इंडिया सर्वाधिक सात मैच जीत कर टैली के टॉप पर पहुंच गई थी। ये वाकई सम्मानजनक स्थिति थी। पूरे देश में उत्साह की लहर थी। सबको उम्मीद थी कि इस बार टीम संतुलित है। हम लगातार मैच जीत रहे हैं। इसलिए अंत में विश्व कप हमारा है। लेकिन सेमीफाइनल का तकरीबन जीता हुआ मैच हम जिस तरह हारे उससे सवाल उठा कि क्या वाकई विराट टीम विश्वकप की ट्राफी को जीतने के लिए तैयार थी? क्या हमारा खेल वाकई चैम्पियन वाला था? आप भावुक होकर नहीं बल्कि बिलकुल तथ्यों और तर्कों के आधार पर नतीजा निकालिए।
केएल राहुल, रोहित शर्मा और कोहली के अलावा तीसरा कौन-सा बल्लेबाज था जिस पर हम हमेशा यकीन कर सकते थे? इसी तरह बुमराह के अलावा और कौन-सा गेंदबाज था ‌जिसे बल्लेबाज के ठीक कदमों पर गेंद फेंकने का जादू आता हो। आप कह सकते हैं कि हर गेंदबाज बुमराह नहीं हो सकता जैसे हर बल्लेबाज सचिन नहीं हो सकता। बेशक भुवनेश्वर कुमार, चहल, या बाद में आए शमी या जड़ेजा की गेंदबाजी बुमराह के साए तले आत्मविश्वास से लबरेज रही। इसलिए इस श्रृंखला में गेंदबाजों से किसी को कोई शिकायत नहीं हो सकती। ये अच्छे संकेत हैं क्योंकि इस विश्वकप में भारत के पास पहली बार अच्छे गेंदबाजों की एक फौज तैयार थी। वर्ना हमेशा भारतीय टीम अपने बल्लेबाजों के दम पर ही मैदान में उतरती थी। बुमराह के रूप में हमें गेंदबाजी का बादशाह मिल गया है।
लेकिन हमारी बल्लेबाजी और उसका क्रम जरूर सोचने जैसा है। शिखर धवन के जाने के बाद आखिरी मैच तक हमें चार नम्बर का खिलाड़ी नहीं मिला। हर दूसरे मैच में प्रयोग हुए। मैं अंत तक नहीं समझ पाया कि घोनी यें वर्ल्डकप क्यों खेल रहे हैं? सिर्फ रिटायरमेंट से पहले विश्वकप खेलने की अपनी अंतिम हसरत पूरी करने के लिए। ये वही धोनी थे जिनने कप्तान रहते टीम इंडिया के शानदार खिलाड़ियों को सिर्फ इसलिए चलता कर दिया था कि वे उम्रदराज हो गए हैं और वे अब फुर्तीले नहीं रहे। इस ‌विश्वकप में धोनी टेस्ट मैच की तरह मैच खेल रहे थे। वह चाह कर भी लम्बी शॉट नहीं खेल पा रहे थे क्योंकि बढ़ती उम्र के कारण उनका रिफलेक्स एक्‍‍शन कमजोर हो चुका है। गेंद की गति मैदान में उनके दिमाग के सोचने समझने की गति से कहीं तेज थी। और ऐसा भी नहीं कि हमें एक योग्य विकट कीपर की सख्त जरूरत थी। एक जमाना था जब हम वीकट के पीछे दस्ताने पहने खड़े एक योग्य कीपर के लिए तरसते थे। लेकिन सेमीफाइनल में हम तीन-तीन विकेटकीपरों के साथ खेल रहे थे। श्रृषभ पंत और दिनेश कार्तिक ये दोनों कीपर- बैड्समैन हैं जिन्हें हमने बतौर बल्लेबाज ये मैच खिलाया। क्या हम इन दोनों में किसी एक को कीपर बना कर धोनी की जगह एक अच्छा बल्लेबाज नहीं खिला सकते थे?
हमारा मध्यक्रम अपाहिज था। टीम के पास कोई फिनीशर नहीं था। धोनी के अंध भक्तों का एक समूह था जिसने उन्हें मोदी मान पर नारा गढ़ दिया-माही है तो मुमकिन है। जबकि सब जानते हैं कि ये सच नहीं है। लता दीदी को भी धोनी के लिए बहुत भावुक होने की जरूरत नहीं। उम्र के साथ भटके हुए सुर से निराश होकर हम रेडियो बंद कर सकते हैं लेकिन एक उम्रदराज खिलाड़ी का खराब खेल करोडों लोगों के दिल तोड़ जाता है।
हमने इस पर अंत तक ध्यान इसलिए नहीं दिया क्योंकि राहुल ,रोहित और कोहली की तिकड़ी ही इतने ज्यादा रन बना रही थी कि बाद के खिलाड़ियों पर किसी का ध्यान नहीं गया। रोहित ने 7 मैच में 5 शतक जड़े। एक शतक राहुल का भी था। कोहली के पास तो खैर हाफ संचुरी की श्रृंखला रही। किसी ने नहीं सोचा कि शुरू के ये तीनों बल्लेबाज शुरू के तीन ओवर में ही निपट गए तो क्‍या होगा? और वही हुआ। क्रिकेट तकनीक से ज्यादा दिमाग का खेल है। ये खेल आप दबाव में सहज रूप से नहीं खेल सकते। अंतिम तक जीत के लिए एक जुझारूपन और एक जिद बहुत जरूरी है। ये जुझारूपन हमारी क्रिकेट में न पहले कभी था न अब है। खैर हम टूर्नामेंट से बाहर हो गए। क्या फर्क पड़ता है। गालिब के शेर को थोड़ा बदल के कहूं तो क्रिकेट-ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं रोइए जार जार क्या,

Monday, February 18, 2019

ऐसे लेंगे पाकिस्तान से बदला


आज मुझे इंदिरा याद आ रही हैं। 71 की जंग से पहले पूरी दुनिया इंदिरा के खिलाफ थी। शांतिवादी कबूतरों ने शांति पाठ पढ़ना शुरू कर दिया था जैसे एक वर्ग अब कर रहा है। नवम्बर 71 में इंदिरा अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मिली थीं। निक्सन ने साफ चेतावनी दी थी कि अगर भारत पाक पर सैन्य कार्रवाई करता है तो नतीजे खतरनाक होंगे। इंदिरा लौटीं और जंग शुरू हो गई। दो हफ्ते में जंग खत्म हो गई। 90000 पाकिस्तानी सैनिको को युद्धबंदी बना लिया गया था।
राष्ट्रपति निक्सन दुखी था। उसने अपने मुख्य सलाहाकार हेनरी किसिंजर से कहा -हमने उस धूर्त और दुष्ट औरत को चेतावनी थी फिर भी उसने ऐसा किया। क्या हमने उससे कुछ ज्यादा सख्ती से बर्ताव किया था। उस चालक बूढ़ी औरत की बातों में आकर हमने भारी गलती कर दी। दरअसल अमेरिका भारतीय फौज की सैन्य शक्ति का सही आकलन नही कर पाई थी। उनकी रिपोर्ट थी कि भारतीय ऐसे खराब पायलट होते हैं जो बमवर्षक जहाज उड़ा नही सकते। लेकिन वे गलत साबित हुए। तब हमें पाक की अक्ल ठिकाने लगाने के सिर्फ बारह दिन लगे थे। पाक सैनिकों ने रेंगते हुए आत्मसम्पर्ण किया था। यह जग एक नासूर है जिसे पाकिस्तान कभी नहीं भूल पाया।
लेकिन पिछले तीन चार दशकों में से हमारी ना की बहुत उपेक्षा हुई। मनमोहन सरकार ने रक्षा खर्च में जबरदस्त कटौतियां कीं। रक्षा मंत्रायल में बैठे बाबुओं ने अच्छी क्वालटी के जूतों तक के लिए सेना को रुला डाला। सालों साल सैनिकों को ट्रेनिंग के लिए कारतूस तक नहीं दिए गए। मोदी सरकार में सेना पर बजट बढ़ा लेकिन वह भी नाकाफी है।
अब आज की ही घटना को देखें। काफी चीजें साफ हो जाएंगी। कश्मीर में हमारे जवानों ने 32 घंटों के अंदर पुलवामा हमले के तीन आतंकियों को खोज के मार डाला। हमले की घटना के तुरंत बाद ही इस पूरे इलाके को कार्डन आफ कर लिया गया था। इसलिए ये आतंकी पुलवामा से बाहर नहीं निकल पाए। आज की मुठभेड़ में एक मेजर समेत हमारे भी तीन जवान शहीद रहे। यह हैरत की बात थी क्योंकि यह मुठभेड़ सरहद पर नहीं चल रही थी। दूसरी तरफ सिर्फ तीन से पांच आतंकी छुपे थे। सुरक्षा बलों ने पूरे गांव को घेर रखा है। फिर एनकाउंटर में हमारे चार जवान कैसे शहीद हो गए? पता किया तो मालूम चला भोर में धुंध बहुत थी। दो मीटर से ज्याद दृश्यता नहीं थी। हमारी टीम के पास एंटी फॉग बाइनोकुलर टेलीस्कोप तक नहीं थे जिससे धुंध और कोहरे में भी साफ दिखाई देता है। कई और अत्याधुनिक उपकरण नहीं हैं जो दूसरी तरफ मुहैया हैं। सामने से एक घर में छुपे आतंकियों ने अचानक अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी थी। जिसकी चपेट में ये सब आ गए।
तो आप ऐसे जंग लड़ेंगे। ऐसे पाकिस्तान से बदला लेंगे?



कीजिए हाय हाय क्यूँ




पुलवामा में 40 जवानों की शहादत ने मुझे जरा भी विचलित नही किया। जब मौतें इकठ्ठा होती है तो संख्या बड़ी दिखती है। पिछले करीब चार साल से कश्मीर में औसतन हर हफ्ते एक सैनिक मरता है और उसकी लाश खामोशी से ताबूत में रख कर उसके घर भेज दी जाती है। तब टीवी चैनल सिर्फ टीज़र में खबर निपटा देते है। क्या वे सैनिक सैनिक नही थे। क्या सामूहिकता शहादत को ज्यादा महान बना देती है? जम्मू में रहते मुझे हैरत होती थी कि कोई देश इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है। शांतिकाल में भी बार्डर पर हमारे सैनिक रोज मर रहे हैं और किसी को कोई परवाह नही। लिख लिख कर थक गया और अंत में मैने हथियार डाल दिये।
यकीन मानिए इन मौतों के लिये पाकिस्तान जिम्मेदार नही। दुश्मन से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो आपको कोई नुकसान नही पहुँचायेगा। इसके लिये जिम्मेदार हमारे ही देश की राजनीति है। मोदी की कश्मीर और पाकिस्तान की नीति वही है जो नेहरू की थी और अटल की थी।
केंद्र की तरीबन हर सरकार ने अलगाववादियों को पालने का काम किया है। मंत्रालय में बैठे अफसरों ने समझा रखा है कि कश्मीर को शांत रखना है तो अलगावादियों को मत छेड़ो। जबकि सच ये है कि इन अलगावादियों को आम कश्मीरी भी इज़्ज़त की नज़र से नही देखता।
अब आप देखिये पिछले दो साल से सुप्रीम कोर्ट 35A पर सुनवाई शुरू करने के लिये केंद्र और राज्य सरकार से रिपोर्ट मांग रहा है और सरकार अलगावादियों के दबाव में मंजूरी नही दे रही।
कश्मीर में मैं सैनिक कैम्पों में रहा हूँ। एक सैनिक को अकेले बाजार जाने तक की इजाज़त नही। बिना लोकल पुलिस के वे कोई कार्रवाई नही कर सकते। एक आतंकी की मौत पर लाखों की भीड़ उसके जनाजे में शामिल होती है। यही ग्लैमर देख कर नए आतंकी पैदा होते है। सेना, सीआरपीएफ यहाँ तक कश्मीर पुलिस केंद्र सरकार को लिख चुकी है कि आतंकी की लाश उसके घर वालो को न दी जाए। लेकिन पीएमओ इस फ़ाइल पर आज तक निर्णय नही ले सका।


तो आप देखिये दुःख और ग़म के इस माहौल में भी सब अपने काम कर रहे है। मोदी जी चुनावी रैलियां कर रहे हैं। जेबकतरे उनकी रैलियों में लोगों की जेबें साफ कर रहे हैं। राहुल भी पूरी संजीदगी से विपक्षी दल की भूमिका निभा रहे हैं। तेजस्वी यादव आलीशान बंगला छोड़ कर छोटे सरकारी आवास में शिफ्ट हो रहे हैं। टीवी चैनल वाले टीआरपी टीआरपी खेल रहे है।
ऐसे में ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है

ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ

Wednesday, January 30, 2019

कश्मीर की आजादी का सच

कश्मीर डायरी 7


खूबसूरत पहलगाम में घूमते हुए मैं खच्चर वालों की तरफ निकल आया। मैं जानना चाहता था ये क्या सोचते हैं कश्मीर की आजादी के बारे में। ये कश्मीर का आम इंसान हैं। बिना पढ़े लिखे। मजदूर चरवाहे। सीजन था पर उस दिन टूरिस्ट बिलकुल नहीं थे। सब खाली बैठे थे। मेरे साथ कोई लोकल सूत्र नहीं था। बस मेरा टैक्सी ड्राइवर था जो बारामूला का था। फिर उसी ने खच्चर वालों को कश्मीरी में बताया कि मैं नीचे यानी हिन्दुस्तान से आया हूं। मीडिया से हूं। उनसे बात करना चाहता हूं। और उन सबने मुझे घेर लिया। मैंने उन्हें सहज करने के लिए सामने पड़े पाइप पर बैठे कर बात करने का न्योता दिया। शायद मैं उन्हे ये बताना चाहता था कि मैं उनके बीच का ही एक आदमी हूं। बेशक यह प्रयोग सफल रहा अब वे थोड़ा सहज थे।

मैंने सीधा सवाल पूछा-आजादी, आखिर आपको किससे आजादी चाहिए? सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। फिर एक ने कहा-हिन्दुस्तानी फौज से चाहिए आजादी। मैंने पूछा क्यों? क्या उन्होंने तुम्हें कहीं जाने से रोका। तुम पर अपना हुक्म चलाया? तुम्हारे पैसे छीने? सब चुप थे। फिर एक बोला-वो बड़े जालिम हैं। हमें मारते हैं। हमारी बहू बेटियों गलत नजर रखते हैं। वो कोई बीस-पच्चीस लोग थे। मैंने पूछा-तुम में से कोई एक हो जिसे फौज ने परेशान किया हो? कोई एक? सब फिर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। हमने वायरल वीडियो देखे हैं। फिर एक बोला-हमारे गांव में एक लड़का है, उसे फौज ने बेवजह पीटा। मैंने कहा-ये नहीं चलेगा। तुम मे से कोई हो तो बताए?

कोई नहीं सामने आया। फिर एक खच्चर वाले उमर ने अपना दुख बताया। उसने कहा कि उसका भाई अनंतनाग डिग्री कालेज में पढ़ता है। उसकी पढ़ाई क खर्च मैं निकालता हूं। उसने मुझसे मोबाइल फोन मांगा था। मैंने सोलह हजार का नया फोन खरीद कर उसे दिया था। लेकिन पत्थेरबाजी में इलजाम में वहां की स्थासनीय पुलिस ने वो फोन छीन ‌लिया और अब लौटा नहीं रहे। मैंने पूछा किस थाने में फोन है। उसने बताया सदर थाने में। मैंने उसका फोन नम्बर लेकर अपनी नोटबुक में लिख लिया और कहा कि दो दिन तुम्हारे भाई को फोन वापस मिल जाएगा। वह खुश हो गया। उसने अपना फोन नम्बर लिखवा दिया। ‌फिर उसके कान में किसी ने कुछ कहा। उमर ने मुझसे कहा कि मैं उसका नम्बर मिटा दूं।

हमें फोन नहीं चाहिए। मैंने पूछा- क्यों? मैं दिलवा दूंगा। मेरी पहचान है वहां। उसने कहा-नहीं वो और दुश्मन हो जाएंगे। कहीं गुस्से में भाई का पर्चा काट दिया तो उसकी जिन्दगी तबाह हो जाएगी। मैंने उसे संतुष्ट करने के लिए उस नम्बर को पेन से काट दिया। पहले मैंने सोचा था कि अनंतनाग के रिपोर्टर से कह कर उसका फोन कश्मीर पुलिस से लौटवा दूंगा। पर सोचा रहने दूं। कहीं सच में उसका भाई मुश्किल में न पड़ जाए। बमुश्किल तीन दिन बाद मैंने उमर को फोन लगा दिया। उससे टूरिस्टों की आमद के बारे में पूछना था। वह मेरी आवाज सुन कर खुश हो गया। बोला पुलिस ने भाई का फोन लौटा दिया, शुक्रिया। अब मैं उससे क्या कहता? इस शुक्रिया का मैं हकदार नहीं। पर मैं कुछ नहीं बोला। मैंने उमर से पूछा कि अब आजादी के बारे में उसका क्या ख्याल है? उधर फोन पर उसने कहा-सर आज बहुत भीड़ है यहां टूरिस्टों की। बस ऐसी ही भीड़ रहे हमें और क्या चाहिए? यही असली आजादी है।

अधिग्रहण विवाद में ही हुआ था बाबरी मस्जिद का विध्वंस




जिस कथित गैर विवादित 67 एकड़ जमीन पर आज परिंदा भी पर नहीं मार सकता वहां मोदी सरकार राम मंदिर निर्माण शुरू करने का सपना देख रही है। ये अर्जी उस सुप्रीम कोर्ट में दी गई जो 2003 में असलम भूरे मामले के फैसले में पहले ही कह चुका है कि, विवादित और गैर-विवादित जमीन अलग करके नहीं देखा जा सकता। सिर पर चुनाव हैं और कुंभ में साधु संत गुस्से में हैं। सो रातों रात चौंकाने वाले फैसले लेने वाली मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के अंदाज में नया दांव खेल दिया है। करीब 26 साल पहले इसी जमीन के अधिग्रहण के खेल में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था। तब यूपी की तत्कालीन कल्याण सरकार राम जन्मभूमि ट्रस्ट को यह जमीन लौटना चाहती थी। जबकि मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन था।

इस दांव का एक मकसद तो साफ है। सरकार हिन्दू वोटरों में यह संदेश देना चाह रही है कि हम राममंदिर बनाने के लिए उतने ही उत्सुक हैं जितने की आप। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाथ बांध रखे हैं। संघ परिवार को एक तबका सुनवाई टलने पर पहले से ही सुप्रीम कोर्ट पर लानत मलानत भेज रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी दिखा दिया है कि उसे भी इस मामले में कोई खास दिलचस्पी नहीं है और न खास जल्दबाजी ही है। सुप्रीम कोर्ट में जैसे हजारों मुकदमे लंबित हैं उनमे से एक ये भी है। यह बात सुप्रीम कोर्ट खुलेआम इसके इशारे भी कर रहा है। जैसा कि अयोध्या मामले की इस साल की पहली ही सुनवाई में संविधान पीठ ने कहा- क्या ये अयोध्या विवाद का केस है? और एक सेंकड में सुनवाई खत्म कर अगली तारीख दे दी। यह घटना अगले दिन सारे अखबारों ने रिपोर्ट की।

बेशक ये बात हिन्दुओं के एक वर्ग को चिढ़ा सकती है लेकिन यह सुप्रीम कोर्ट का विशेषाधिकार है कि वह चाहे तो मामले की संजीदगी देखते हुए आधी रात को अपने घर पर अदालत लगा सकता है। मामले की संजीदगी तय करने का विशेषाधिकार भी उसी का है। भारत का जो संविधान सुप्रीम कोर्ट को सुनवाई करने या बेवजह उसे टालने की छूट देता है वही संविधान केन्द्र सरकार को भी इस बात की छूट देता है कि वह किसी की अधिग्रहित की गई भूमि उसके मालिक को वापस दे दे।

बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद कांग्रेस की तत्कालीन राव सरकार ने 1993 में विवादित जमीन के आसपास की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। छह दिसम्बर की घटना से सबक लेते हुए ऐसा इसलिए किया गया ताकि विवाद के निपटारे के बाद विवादित जमीन पर कब्जे या उपयोग में कोई बाधा डाल सके। इसमे करीब 42 एकड़ की जमीन अकेले रामजन्म भूमि ट्रस्ट की थी। अधिग्रहण से पहले भी यह जमीन न्यास के पास ही थी लेकिन उसने यहां कभी मंदिर बनाने का इरादा नहीं बनाया क्योंकि ट्रस्ट जानता है कि हिंदू मंदिरों का निर्माण गर्भगृह से शुरू होता है जो फिलहाल उस0.313 एकड़ विवादित जमीन पर है जिस पर अभी सुप्रीम कोर्ट में ठीक से सुनवाई भी नहीं शुरू हुई है। अब ट्रस्ट अगर बाहरी चहारदीवारी से मंदिर निर्माण शुरू करना चाहता है तो बेशक बात अलग हो जाती है। क्योंकि यह हड़बड़ी सरकार को हो सकती है लेकिन ट्रस्ट को नहीं। इसीलिए साधु संत सरकार के इस दांव से बहुत खुश नहीं। खुद रामजन्म भूमि ट्रस्ट के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास ने कहा कि राम मंदिर वहीं बनेगा जहां रामलला विराजमान हैं। यानी विवादित स्थल पर।

दूसरा सबसे अहम सवाल यह भी है कि क्या सुप्रीम कोर्ट इस अर्जी को स्वीकार करेगा? क्या केन्द्र सरकार गांरटी ले सकती है कि गैर विवादित जमीन उसके मालिकों को लौटने के बाद विवादित जमीन पर कब्जा करने की वैसी कोशिश नहीं होगी जैसे दिसम्बर1992 में हुई थी?



याद रहे कि अधिगृहित जमीन के इसी लेनदेन के विवाद में बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया था। तत्कालीन राज्य सरकार ने विवादित इमारत के आसपास की 2.77 एकड़ जमीन को दस जनवरी1991 को अधिग्रहित कर लिया था। यह जमीन राम जन्म भूमि ट्रस्ट को दे दी गई। यह और आसपास की जमीन ट्रस्ट ने अलग अलग लोगों से मंदिर निर्माण के नाम पर खरीदी थी। इस जमीन पर दर्जनों छोटे बड़े मंदिर थे जो श्रीराम के भव्य मंदिर निर्माण के लिए जमींदोज कर दिए गए थे। इनमें हनुमानजी का एक प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर भी था जिसे तोड़ दिया गया और हनुमानजी की मूर्ति रातों रात कहीं और भेज दी गई। जमीन समतल इसलिए की जा रही थी ताकि विवादित स्थल तक जाने के रास्ते में कोई रुकावट न हो। ये सब तैयारी देख कर मुस्लिम पक्ष की चिन्ता जायज थी।मुस्लिम पक्ष का कहना था कि सरकार का यह अधिग्रहण अवैध है और उससे भी ज्यादा गलत है अधिगृहित जमीन का कब्जा ट्रस्ट को वापस देना। मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट में चला गया। हाईकोर्ट ने 3 नवंबर1992 फैसला रिजर्व कर दिया। 6 दिसम्बर1992 को कारसेवा का एलान था। हिंदू संगठन चाहते थे कि फैसला 6 दिसम्बर से पहले आ जाए। ऐसे में फैसला किसी के भी पक्ष में होता तो कारसेवा जायज हो जाती। और संभव है कारसेवकों में ऐसा उन्माद न होता कि वह गुंबद पर चढ़ कर उसे तोड़ने लगते। हाईकोर्ट का फैसला आया लेकिन बाबरी विध्वंस के 5दिन बाद 11 दिसम्बर 1992 को। इसमें हाईकोर्ट ने सरकार के अधिग्रहण के फैसले को गलत ठहरा दिया था। यही फैसला अगर पांच दिन पहले आ गया होता तो अयोध्या में हिंसा न भड़कती। आखिर इस 2.77 एकड़ जमीन पर छह महीने पहले भी शांतिपूर्वक कारसेवा हुई थी। लेकिन जब फैसला आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। विवादित ढांचा टूट चुका था। सुरक्षाबलों ने चप्पे चप्पे पर कब्जा कर लिया था। इस कब्जे को स्थायी रूप देने के लिए केन्द्र सरकार ने 0.313 एकड़ के विवादित स्थल के अलावा उसके आसपास की 2.77 एकड़ जमीन ही नहीं बल्कि उसके कहीं आगे बढ़कर 67.7 एकड़ जमीन का बड़ा दायरा अधिग्रहित कर लिया गया। इस अधिग्रहण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन 1994 में कोर्ट ने इस अधिग्रहण को वैध ठहराया और आगे भी कई केस में कोर्ट इसे वैध ठहराती रही है।

रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद जस का तस है। सुप्रीम कोर्ट में अभी सुनवाई, तारीखें और अंत में अंतिम फैसला आना बाकी है। कोई वजह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अधिग्रहण हटाने की इस अर्जी पर तुरंत फैसला कर दे। तो ये सारा तमाशा फिर किस लिए?