दयाशंकर शुक्ल सागर

Wednesday, January 30, 2019

कश्मीर की आजादी का सच

कश्मीर डायरी 7


खूबसूरत पहलगाम में घूमते हुए मैं खच्चर वालों की तरफ निकल आया। मैं जानना चाहता था ये क्या सोचते हैं कश्मीर की आजादी के बारे में। ये कश्मीर का आम इंसान हैं। बिना पढ़े लिखे। मजदूर चरवाहे। सीजन था पर उस दिन टूरिस्ट बिलकुल नहीं थे। सब खाली बैठे थे। मेरे साथ कोई लोकल सूत्र नहीं था। बस मेरा टैक्सी ड्राइवर था जो बारामूला का था। फिर उसी ने खच्चर वालों को कश्मीरी में बताया कि मैं नीचे यानी हिन्दुस्तान से आया हूं। मीडिया से हूं। उनसे बात करना चाहता हूं। और उन सबने मुझे घेर लिया। मैंने उन्हें सहज करने के लिए सामने पड़े पाइप पर बैठे कर बात करने का न्योता दिया। शायद मैं उन्हे ये बताना चाहता था कि मैं उनके बीच का ही एक आदमी हूं। बेशक यह प्रयोग सफल रहा अब वे थोड़ा सहज थे।

मैंने सीधा सवाल पूछा-आजादी, आखिर आपको किससे आजादी चाहिए? सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। फिर एक ने कहा-हिन्दुस्तानी फौज से चाहिए आजादी। मैंने पूछा क्यों? क्या उन्होंने तुम्हें कहीं जाने से रोका। तुम पर अपना हुक्म चलाया? तुम्हारे पैसे छीने? सब चुप थे। फिर एक बोला-वो बड़े जालिम हैं। हमें मारते हैं। हमारी बहू बेटियों गलत नजर रखते हैं। वो कोई बीस-पच्चीस लोग थे। मैंने पूछा-तुम में से कोई एक हो जिसे फौज ने परेशान किया हो? कोई एक? सब फिर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। हमने वायरल वीडियो देखे हैं। फिर एक बोला-हमारे गांव में एक लड़का है, उसे फौज ने बेवजह पीटा। मैंने कहा-ये नहीं चलेगा। तुम मे से कोई हो तो बताए?

कोई नहीं सामने आया। फिर एक खच्चर वाले उमर ने अपना दुख बताया। उसने कहा कि उसका भाई अनंतनाग डिग्री कालेज में पढ़ता है। उसकी पढ़ाई क खर्च मैं निकालता हूं। उसने मुझसे मोबाइल फोन मांगा था। मैंने सोलह हजार का नया फोन खरीद कर उसे दिया था। लेकिन पत्थेरबाजी में इलजाम में वहां की स्थासनीय पुलिस ने वो फोन छीन ‌लिया और अब लौटा नहीं रहे। मैंने पूछा किस थाने में फोन है। उसने बताया सदर थाने में। मैंने उसका फोन नम्बर लेकर अपनी नोटबुक में लिख लिया और कहा कि दो दिन तुम्हारे भाई को फोन वापस मिल जाएगा। वह खुश हो गया। उसने अपना फोन नम्बर लिखवा दिया। ‌फिर उसके कान में किसी ने कुछ कहा। उमर ने मुझसे कहा कि मैं उसका नम्बर मिटा दूं।

हमें फोन नहीं चाहिए। मैंने पूछा- क्यों? मैं दिलवा दूंगा। मेरी पहचान है वहां। उसने कहा-नहीं वो और दुश्मन हो जाएंगे। कहीं गुस्से में भाई का पर्चा काट दिया तो उसकी जिन्दगी तबाह हो जाएगी। मैंने उसे संतुष्ट करने के लिए उस नम्बर को पेन से काट दिया। पहले मैंने सोचा था कि अनंतनाग के रिपोर्टर से कह कर उसका फोन कश्मीर पुलिस से लौटवा दूंगा। पर सोचा रहने दूं। कहीं सच में उसका भाई मुश्किल में न पड़ जाए। बमुश्किल तीन दिन बाद मैंने उमर को फोन लगा दिया। उससे टूरिस्टों की आमद के बारे में पूछना था। वह मेरी आवाज सुन कर खुश हो गया। बोला पुलिस ने भाई का फोन लौटा दिया, शुक्रिया। अब मैं उससे क्या कहता? इस शुक्रिया का मैं हकदार नहीं। पर मैं कुछ नहीं बोला। मैंने उमर से पूछा कि अब आजादी के बारे में उसका क्या ख्याल है? उधर फोन पर उसने कहा-सर आज बहुत भीड़ है यहां टूरिस्टों की। बस ऐसी ही भीड़ रहे हमें और क्या चाहिए? यही असली आजादी है।

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