दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, July 24, 2014

नौकरशाहों के जूते के नीचे लोकतंत्र


हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति अरूण दिवाकर नाथ वाजपेयी अपने हरदोई के हैं। उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की डिग्री ली। लम्बा डील डौल, लम्बी श्वेत-श्याम दाढ़ी, तेज से भरी आकर्षक आंखें। पहली दफा उन्हें देखा तो यह कहे बिन नहीं रह पाया कि आपके व्यक्तित्व में जबलपुर झलक रहा है। वह मेरा इशारा समझ कर खूब जोर से हंसे। बोलो-जबलपुर में रहकर आप ओशो से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। खैर ब्यूरोक्रेसी एंड डेवलपमेंट विषय पर आयोजित सेमिनार में मुझे बुलाया गया था। मुख्य अतिथि नागालैंड के पूर्व गवर्नर डा. अश्विनी कुमार थे जो हिमाचल विवि के ही प्रोडक्ट हैं। आमतौर पर मैं आकदमिक किस्म के सेमिनारों में जाने से बचता हूं। लेकिन कुलपति साहब का विशेष आग्रह था। कार्ड में नाम भी छप गया था। सो जाना पड़ा। वक्ताओं में कई आईएएस, आईपीएस मौजूद थे। मैंने अपने व्याख्यान के शुरू में ही कह दिया था कि वाइसचांसलर साहब ने मुझे बुलाकर बहुत जोखिम भरा काम किया है। क्योंकि नौकरशाहों के बारे में मेरा अनुभव व मेरी राय कतई अच्छी नहीं। मनरेगा हो स्कूलों में सिलाई मशीन योजना। नौकरशाहों ने कैसे इन अच्छी योजनाओं को लूटखसोट का केन्द्र बना दिया।
शुरूआत मैंने रोम से की। लोकतंत्र का जन्‍म एथेंस में हुआ था। लोकतंत्र एक ग्रीक धारण है। लेकिन इतिहास कहता कि जिस आदमी लोकतांत्रिक मूल्‍यों के विचार को जन्‍म दिया था उसी को एथेंस के लोगों ने जहर देकर मार डाला। लेकिन अगर आप रोम के इतिहास को बारीकी से पढ़ें तो पाएंगे सुकरात को एथेंस के लोगों ने नहीं, एथेंस की ब्‍यूरोक्रेसी और सत्ता ने मारा था।
उसी रोम में एक मशहूर दार्शनिक हुआ है काटो। उसे काटो द यंगर भी कहते थे। उसका जन्म ईसा मसीह के जन्म से कोई ९५ साल पहले हुआ था।  देखिए सदियों पहले ब्यूरोक्रेसी के बारे में उसकी क्या राय थी। उसने कहा था, ‘एक नौकरशाह सबसे घृणित व्यक्ति होता है। हालांकि गिद्धों की तरह उसकी भी जरूरत होती है, पर शायद ही कोई गिद्धों को पसंद करे। गिद्धों और नौकरशाहों में अजीब तरह की समानता है। मैं अभी तक किसी ऐसे नौकरशाह से नहीं मिला हूं, जो क्षुद्र, आलसी, क़रीब-क़रीब पूरा नासमझ, मक्कार या बेवकूफ़, जालिम या चोर न हो। वह ख़ुद को मिले थोड़े-से अधिकार में ही आत्ममुग्ध रहता है, जैसे कोई बच्चा गली के कुत्ते को बांधकर ख़ुश हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर कौन भरोसा कर सकता है?’
मैंने पैनल में साथ बैठे नौकरशाहों से माफी मांगते हुए साफ कहा कि अकादमिक बहस के लिए सौम्य भाषा मेरे पास नहीं। मेरे शब्दकोष में ऐसे ही तीखे शब्द हैं जैसे रोमन दार्शनिक काटो के पास थे। मुझे अच्छा लगता है जब अपने अखबार में टाइम्स आफ इंडिया आईएएस के लिए बाबू शब्द का प्रयोग करता है।
 आप देखिए सदियों पहले ब्यूरोक्रेसी के बारे में जो राय दार्शनिकों की थी उसमें आज भी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। वह रोम हो या भारत। दरअसल सिविल सर्विसेज को ब्रिटिश हुकमत भारत ले कर आई। उनका मकसद आईएएस के जरिए भारतीय गुलामों पर राज करना था। और वह इसमें कामयाब भी हुए।  आजादी के बाद हमारे आईएएस इस मानसिकता से उबर नहीं पाए। वह खूद को उसी एलीट क्लास में रखते हैं और जमीन और उसकी जरूरतों से दूर चले जाते हैं। और सरकार ने उन्हें एक खास तरह की इम्युनिटी दे रखी है जिसका वह रिटायर होने तक फायदा उठाते हैं। मजे की बात है कि खुद ब्रिटेन में आज नौकरशाही केवल महारानी के दरबार तक महदूद है।  वहां पब्लिक से टेक्नोक्रेट और विशेषज्ञ डील करते हैं। करीब करीब सभी ‌‌विकसित देशों में यही चलन है। लेकिन आपनी जोड़तोड़ की राजनीति में मशगूल हमारे नेताओं के पास जनता के लिए वक्त नहीं। उन्होंने हुकूमत के सारे अधिकार नौकरशाहों को दे रखे हैं। और जब सत्ता संभालते मोदी ने ब्यूरोक्रेट्स के पंख खोलने की बात की तो मैं समझ गया इन नौकरशाहों के भरोसे भारत में अगले पांच सालों में अच्छे दिन नहीं आने वाले।

Wednesday, July 23, 2014

तुम निर्भया हो तो क्या हुआ



तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
रहती हो
दरिंदों के शहर में
यहां 170 फीट गहरे हैंडपम्प से
पानी की जगह निकलता है लाल खून
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
21 करोड़ की आबादी में
किसी अस्पताल
किसी स्कूल की चहारदीवारी में
किसी भूखे भेड़िए की तरह
दरिंदे तुम्हारे जिस्म को नोचेंगे
चीखती रहोगी तुम
रात के सन्नाटे में
तुम्हें कोई बचाने नहीं आएगा
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
तुम डरोगी जब तक तुम्हारी आत्मा
तहस नहस न हो जाए
वो तुम्हारी नंगी लाश पर चादर डालने से पहले
तस्वीरें खींचेंगे फिर
फेसबुक पर शेयर करेंगे
तुम्हें झूठे नाम देंगे
तुम्हें दूसरी निर्भया कहेंगे
चौराहे पर तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर रखकर
सूखी मोमबत्तियां जलाएंगे
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
भेडियों के इस शहर में
तुम्हें डरना होगा
डर कर रहना होगा
तुम अकेली हो
तुम निर्भया हो तो क्या हुआ
वो कल तुम्हें भूल जाएंगे
और अपने गुस्से को समेट कर
रख लेंगे
किसी तीसरी निर्भया के लिए !


 

Wednesday, July 16, 2014

चर्चिल के गाल पर बेटियों का तमाचा


शिमला का ऐतिहासिक पीटरहाफ कभी ब्रिटिश वायसरायों और गर्वनर जनरलों का शानदार घर हुआ करता था। वे यहां गर्मियां बिताते थे। आजादी के बाद यह महल पंजाब हाईकोर्ट में तब्दील हो गया। कहते हैं महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे पर मुकदमा यहीं चला था। हिमाचल जब अलग राज्य बना तो इस भवन को राजभवन बना दिया गया। लेकिन यह भवन इतना बड़ा था कि बाद के देसी गर्वनरों ने इसमें रहने से ही इंकार कर दिया। कुछ लोग कहते हैं कि एक गर्वनर को तो यहां रात में वायसराय का भूत सताने लगा था। इसी दहशत में यहां बड़ी भारी आग लग गई थी। और तब इस महल को ठीक ठाक करके हिमाचल के पर्यटन विभाग ने महंगे होटल में तब्दील कर दिया। जिस घर में कभी भारत के गर्वनर जनरल रहते हों उस घर में रात बिताने का अपना अलग और रोमांचक अनुभव है। होटल में दाखिल होते ही आपको इसकी भव्यता का अंदाजा आसानी से हो जाएगा जो बेशक दुनिया के बड़े से बड़े सात सितारा होटल में संभव नहीं है।
खैर इस आलीशान महल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। मेरी दिलचस्पी सिर्फ उन बच्चों में थी जिन्होंने रात दिन मेहनत कर मेरिट में अपनी जगह बनाई। मुझे शिमला आकर पता चला कि देश में प्रतिभाओं को सम्मानित करने की परम्परा सबसे पहले 2002 में जिस अखबार ने शुरू की, वह अमर उजाला था। बाद में इसी आइडिया को दूसरे अखबारों ने यूपी व अन्य राज्यों में अपनाया। खैर यह भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात नहीं। अहम बात यह है कि मीडिया समूह इन आयोजनों के जरिए सामाजिक सरोकारों से सीधे जुड़ रहे हैं। यह एक अच्छी पहल है। बिनोवा भावे ने प्रतिभा की बड़ी सटीक व्याख्या की है। प्रतिभा का मायने है बुद्धि में नयी नयी कोपलों का फूटते रहना। नई कल्पना, नया उत्साह, नई खोज और नई स्फूर्ति। ये सब प्रतिभा के लक्षण हैं। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के हाथों मैडल पा कर हिमाचल के सुदूर गांवों से आए बच्चों के चेहरों पर मैंने आज प्रतिभा की यही चमक, यही उत्साह और स्फूर्ति देखी। एक गरीब बच्ची ने तो मुख्यमंत्री  को बीच रास्ते में रोक लिया। अपने असहाय पिता की ओर इशारा करते हुए बोली-देखिए मेरे पापा चल फिर नहीं सकते। उनके पास मुझे आगे पढ़ाने के लिए पैसे नहीं है। मुख्यमंत्री ने अपने सक्रेट्री से कहा कि इस बच्ची और उसके पिता को सचिवालय ले आओ। मुख्यमंत्री के काफिले में ही ये बिटिया सचिवालय गई। मुख्यमंत्री ने फौरी राहत के लिए उसे दस हजार रुपए दिए और उसकी आगे की पढ़ाई की निजी तौर पर जिम्मेदारी ले ली।  यह सब मेरी आंखों के सामने हुआ। मैं गांव की उस बहादुर लड़की का हौसला देखकर दंग था। आज देश की हर लड़की को इसी तरह के हौसले की जरूरत है। बेटियां पढ़ेंगी तभी आगे बढ़ेंगी। और अपना हक हासिल करेंगी।

लौटते वक्त में पीटरहाफ की शानदार इमारत को देख रहा था। बेशक इन बच्चों को सम्मानित करने के लिए हमने एकदम सटीक जगह का चुनाव किया था। आत्माओं में मुझे यकीन नहीं लेकिन वायसराय की अगर रुहें यहां होगी तो यह देखकर बेशक चकित होंगी कि उनके छोड़े भारत में दूध बेचने वाले, राजगीर, मजदूर और गरीब किसानों की बेटियां कामयाबी के किस शानदार सफर पर आगे बढ़ रही हैं। मुझे चर्चिल भी याद आया जो कहा करता था-भारत के लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि वे देश और आजादी को संभाल सकें। बेटियों की ये कामयाबी चर्चिल के मुंह पर एक करारा तमाचा है।


  

Friday, July 4, 2014

गालिब की डायरी


शिमला के हसीन मौसम में अपने प्यारे शायर मिर्जा गालिब की डायरी दस्तम्बू पढ़ रहा हूं। देख रहा हूं मिर्जा 1857 के बागियों से किस कदर नफरत करने लग गए थे। उन कम्बख्तों ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया था। दरअसल उन्होंने इंसाफपंसद और सितारों जैसी चमक रखने वाली मल्लिका विक्टोरिया के सम्मान में कसीदा लिखा था। जो दिल्ली से मुम्बई होता हुआ लंदन पहुंचा था। उन्हें उम्मीद थी कि मल्लिका उन्हें सोने के गहनों के अलावा मेहरखान की उपाधि से नवाजेंगी। साथ ही जिन्दगी भर घर बैठे तनख्वाह देंगी जिसे अंग्रेजी में पेंशन कहते हैं। लेकिन बुरा हो इन बागियों का। एहसान फरामोश और गद्दार सिपाहियों ने इंकलाब लाकर सब चौपट कर दिया।
पता नहीं क्यों ये सब पढ़कर गालिब के लिए गुस्सा नहीं आया। हर शायर या कवि से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इंकलाब का झंडा बुलंद करे। उसकी अपनी जिन्दगी है। अपना फैसला है।
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
मिर्जा गालिब का यह शेर बचपन से सुनता आ रहा था। इतना तो अंदाजा था कि गालिब शराब के बेइंतिहा शैकीन रहे होंगे। बाद में यह भी समझ में आ गया कि वह हमारे जफर भाई और तमाम तरक्कीपसंद मुस्लिम दोस्तों की तरह अधूरे मुस्लिम संस्कारों और धार्मिक बंधनों से आजाद थे। अपनी दिलचस्प डायरी दस्तम्बू में उन्होंने लिखा कि रात के वक्त वह सिवाए विलायती शराब के और कुछ नहीं पीते थे। जिस दिन नहीं मिलती थी उन्हें नींद नहीं आती थी। 1857 के उस दौर में दिल्ली में अंग्रेजी शराब बला की महंगी हो गई थी और हमारे गालिब साहिब फक्कड़ थे। ऐसे में उन्हें महेश दास नाम का एक दोस्त मिल गया। देखिए गालिब साहेब उनके लिए क्या लिखते हैं- 'अगर ईश्वर से प्रेम करने वाला और दूसरों पर लुटाने वाला समन्दर जैसे दिल वाला महेश दास देशी शराब जो रंग में विलायती शराब की तरह और खुशबू में उससे ज्यादा बेहतर शराब मेरे लिए नहीं भेजते तो न जाने मेरा क्या होता। मैं जिन्दा न रहता और इसी प्यास में अल्लाह को प्यारा हो जाता। ...ज्ञानी महेश दास ने मुझे वह अमृत मुहैया करा दिया है जिसे सिकन्दर ने अपने लिए खोजा था।'
गदर के वक्त मुसलमानों को वैसे भी शक की नजर से देखा जाता था। एक अंग्रेज अफसर ने गालिब को बुलवा लिया। टूटी फूटी हिन्दी में पूछा- तुम मुसलमान है? गालिब हंस कर बोले-आधा। अंग्रेज अफसर हैरत में पड़ गया। बोला-ये क्या बात है। मिर्जा बोले-शराब पीता हूं सुअर नहीं खाता। अफसर ने हंस कर उन्हें छोड़ दिया।
यह सब पढ़कर मुझे एक और किस्सा याद आ गया जो फिराक गोरखपुरी साहेब सुनाया करते थे। यह किस्सा मैंने इलाहाबाद में फिराक के दोस्त अकील रिजवी साहेब से सुना था। गालिब से एक मौलाना ने कहा-शराब पीना गुनाह है। गालिब का सेंस आफ ह्यूमर गजब था। वह बोले-पीएं तो क्या होता है? मौलाना ने कहा-सबसे बड़ी बात यह कि उसकी दुआ कबूल नहीं होती। मिर्जा बोले आप जानते हैं शराब कौन पीता है? अव्वल तो वह कि जिसके सामने ओल्ट टाम (ब्रिटिश राज में मशहूर शराब) की बोतल बा-सामान सामने हा‌जिर हो। दूसरे जिन्दगी बे-फिक्र हो और तीसरी सेहत अच्छी हो। अब आप फरमाइए जिसके पास ये तीनों चीजें हों उसे और क्या चाहिए जिसके लिए वह दुआ करे?