दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, March 3, 2014

लुगानो यानी स्वर्ग का एक शहर

मेरी यूरोप डायरी-7

लुगानो स्टेशन पर उतरा तो लगा किसी हिल स्टेशन की दोपहर है। हवाओं में खास तरह की ठंडक है। सांस लीजिए तो बर्फ अंदर तक अटक जाती है। वह बर्फ नहीं सिर्फ उसका अहसास है। यूरो रेल का प्लेटफार्म किसी एयरपोर्ट के लाउंच जैसा साफ सुथरा है। बनावट में ये स्टेशन हिन्दुस्तान के किसी सामान्य रेलवे स्टेशन से अलग नहीं है। लेकिन भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं। दूर दूर तक बमुश्किल दो चार लोग नजर आ रहे हैँ। चारों तरफ एक अजीब तरह का सन्नाटा पसरा है। कहीं कोई आवाज नहीं शोर नहीं आवाज नहीं। ट्रेन आगे सरक कर धीरे-धीरे आंखों से ओझल हो गई। सामने पहाड़ दिखने लगे।
मैं पलटा तो पीछे अनादि खड़ा था। जैसा कि मैंने बताया था वह यूनिवर्सिटी ऑफ लुगानों से पीजी कर रहा है। शायद कंप्यूटर सांइस में। यहां हास्टल में रहता है नहीं शायद ‌किराए के मकान में। अनादि ने बताया कि यहां मकान महंगे नहीं है। दो तीन स्टूडेंट मिल कर एक फ्लैट ले लेते हैँ। काम चल जाता है। मैं अनादि को वह सामान देता हूं जो उसकी मां ने उसके लिए बहुत प्‍यार से भेजा था।। मालपुआ, गुझिया, मठरी यही सब कुछ होगा उस डिब्बे में।  
हम सीढ़ियों से चढ़कर उसके रूम तक पहुंचते हैं। उसे रूम कहना गलत होगा। यह एक हवादार घर है। खुला खुला सा। सामने शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियां हैं। और खिड़कियों के उस पार प्राकृतिक सौंदर्य। पर्वत, झरने, नदी, पेड़, हरियाली सब कुछ। उनके इधर इस पार खूबसूरत पुरानी इमारतें, चौड़ी सड़कें, पार्क और सलीके से बसे लोग। अनादि बताता है कि यहां का जीवन कितना शांत और ठहरा हुआ है। लेकिन जिन्दगी ऐसी नहीं है। जिन्दगी झरने से बहती हुई है। अगर आपकी जेब में स्विज फ्रेंस हैं तो सारे ऐश्‍वर्य आपके लिए हैँ। दिलचस्प है कि यूरोप में होने के बावजूद स्वीटजरलैंड में यूरो डालर नहीं चलता। क्योंकि तकनीकी तौर पर स्वीटजरलैंड यूरोपीयन यूनियन का हिस्सा नहीं। पूरे स्वीटजरलैँड में स्विज फ्रेंस नाम की करेंसी चलती है। अनादि अपने आधुनिक किचन में जाकर जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार करता है क्योंकि हमें अभी बाहर घूमने के लिए निकलना है।
 लुगानो स्वीट्जरलैंड का एक मशहूर पर्यटन स्‍थल है। चारों तरफ से पहाडों से घिरा एक खुशनुमा शहर। करीब आधा दर्जन से ज्यादा म्यूजियम और पुरानी ऐतिहासिक इमारतें इस खामोश शहर की पहचान हैं। कैंटोनल डी आर्ट म्यूजियम में बाइबिलिक आर्ट की गजब चित्रकारी हैँ। ओक की लकड़ी पर ये ऑयल पेंटिंग शायद मि‌मलिंग हैंस की है। सूली पर चढ़ाने से पहले ईसा मसीह को जनता के दर्शन के लिए लाया जा रहा है। अद्भुत....पहली सदी के राजनीतिक महौल की एक जीवंत तस्वीर। शायद पन्द्रहवीं सदी की। ऐसी कई और दुर्लभ तस्वीरें हैँ यहां। एक मूर्ति यहां 16वीं सदी के ईसाई संत ऑथानासियुस की है। उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा है। उन्हें जब शहर की एक मशहूर वेश्या से मिलवाया गया तो वह जोर जोर से रोने लगे। पूछा गया कि क्यों रो रहे हैं आप? संत बोले-मुझे दो बातों को लेकर गहरा दुख हुआ। एक तो यह कि इस वेश्या का कोई भविष्य नहीं। और दूसरी बात यह कि मैं ईश्वर को हासिल करने के लिए इतनी कोशिशें नहीं करता जितनी ये और बदचलन मर्दों को खुश करने के लिए करती है। 

लेक लुगानों का खास आकर्षण है। इस झील का विस्तार कई किलोमीटर तक है। लुगानों के पश्चिम में एक टूरिस्ट स्पॉट है गेनड्रिया। बस का ड्राइवर हमें उस पहाड़ी हाईवे पर उतार देता है। हाईवे पर एक तरफ चट्टाने हैं, दूसरी तरफ नीचे बहुत गहराई में लम्बी झील। नीचे नीली झील के किनारे खूब सारे झोपड़नुमा घर बनें हैं। वीकएंड में यहां लोग छुट्टी मनाने आते है। हम झील के किनारे घूम रहे हैं। तस्वीरें खींच रहे हैं। ऊपर हाईवे पर आए तो वापसी की कोई बस नहीं दिख रही। हम पैदल आगे बढ़ते गए। एक टनल के नीचे अकेला पुलिस वाला दोनों तरफ से आने वाली कारों की चेकिंग कर रहा था। यह स्विट्जरलैंड और इटली का बार्डर है। पुलिस वाला बताता है कि इटली में शराब, सिगरेट और मांस सस्ता है। इटली से आने वाला हर वाहन चालक रुककर पुलिसवाले को बताता है कि उसके पास यह सब नहीं है। कार के अंदर सरसरी निगाह डालकर वह उसे जाने देता है। जिस वाहन पर उन्हें शक होता है उन्‍हें किनारे रोक कर वे ठीक से तलाशी लेते हैं। पूरी शालीनता से।  लौटते वक्त हमें कोई बस नहीं मिलती। हम पैदल लुगानों की तरफ बढ़ जाते हैं। इशारा करने पर एक दम्पत्ति अपनी कार रोक देते हैं। पूछते हैं यू आर इंडियन्स? हम हां में सिर हिला देते हैं। हिन्दू ऑर मुस्लिम। हम दोनों एक दूसरे का चेहरा देखने लगते हैं। अनादि धीमें से हिन्दू बोलता है। और कार का दरवाजा हमारे खुल जाता है और हम आधे घंटे के सफर के बाद लुगानों सिटी पहुंच जाते हैं। अनादि बताता है कि आतंकवाद खासकर 9/11 की घटना के बाद यहां के लोग डरे हुए हैं। यहां कोई पाकिस्तानी या किसी भी मुसलमानों को लिफ्ट नहीं देता। सोच कर अफसोस होता है। चंद अहमक लोग कैसे पूरी कौम को बदनाम कर देते हैं।
जारी

वायलन बजाने वाले भिखारी और काल्विन कालेज

मेरी यूरोप डायरी-5

कल ही तय हो गया था कि आज शहर घूमना है। इलसा तीन दिन से शहर दिखाने के लिए पीछे पड़ी थी। मैं ही लगातार टाल रहा था। सुबह आकर होटल के रिसेप्‍शन पर डेरा डाल दिया। रिेसेप्‍शन से फोन आया कि नीचे इलसा मेरा इंतजार कर रही है। मैँ बस नहा के निकला ही था। घड़ी देखी ठीक दस बज रहे थे। मैं जानता हूं इलसा वक्त की पक्की है। मुझे कई बार लगा कि स्वीट्जरलैंड की सारी घड़ियों में वक्‍त इलसा ही सेट करती है। न एक मिनट इधर न उधर। समय के पाबंद लोगों से मुझे बहुत घबराहट होती है। लगता है कि किसी फौजी कैम्प में हूं। मैं उससे कहता कि तुम जरूर हिटलर के खानदान की होगी। हालांकि वह मूलतः जर्मन है लेकिन हिटलर का नाम सुन कर भड़क जाती। उसे हैरत होती है कि हम हिन्दुस्तानी कितनी सहजता से हिटलर का नाम ले लेते हैं।
मैँ तैयार होकर नीचे आता हूं तो देखता हूं वह गुस्से में बैठी है। सोचता हूं दुनिया की सारी लड़कियां एक जैसा गुस्सा क्यों दिखाती हैं। सफाई देने के बजाए मैं ब्रेकफास्ट के लिए होटेल के रेस्‍त्रां की तरह बढ़ जाता हूं। वह पीछे से अंग्रेजी में कहती है-तुम नहीं सुधरोगे। इलसा  की बेतकल्‍लुफी मुझे पसंद है। कन्वेशन से पहले ही वह भारत में फोन से मेरे सम्पर्क में थी। प्रायोजक संस्‍था ने उसे हमारी देखभाल के लिए नियुक्त किया था। हमउम्र थी इसीलिए औपचारिकताएं बहुत जल्द विदा हो गई थीं। मुझे शहर घुमाना उसके शेड्यूल लिस्ट में नहीं था। लेकिन एक चीज जो हमारे शेड्यूल में पहले दिन ही शामिल हो गई थी वह थी- दोस्ती।
ब्रेकफास्ट के दौरान मैंने उसे दोस्ताना लिहाज में हिदायत दी कि वह मुझसे किसी टुरिस्ट गाइड की तरह बर्ताव न करे। वैसे भी यहां मेरे शरीर की घड़ी का वक्‍त कलाई में बंधी घड़ी से मैच नहीं कर रहा। भोर में चार बजे तो नींद आती है। आधी रात खिड़की से देखता हूं कि सड़क पर क्या तमाशा हो रहा है। मैंने उसे उस रात सड़क पर चल रहा प्रेमी-प्रेमिका के झगड़े का किस्सा सुनाया। वह खूब हंसी। उसे भरोसा नहीं हुआ। उसने कहा-यू आर लायिंग। मैंने कहा-नहीं सच वह लड़की उसे बार-बार छू रही थी और लड़का बार-बार बोल रहा था-डोंट टच मी। वह खूब हंसी और इस हंसी में उसका गुस्सा जाने कहां गिर गया।   

हम टहलते हुए कार्नवीन मेट्रो स्टेशन पहुंचते हैँ। सिर्फ दो सड़कें पार करनी पड़ीं। इसके सामने हमें ट्राम पकड़नी है। इस इंटरचेंज स्टेशन पर हर सुबह वायलन वादकों का झुंड दिखता है। आज भी दिख रहा है। सब के सब लम्बे पुराने ओवर कोट में हैं और हाथ में वायलन है। मैँ इलसा से पूछता हूं ये ढेर सारे वायलन वादक कौन हैं? वह इशारे से कहती है अभी पता चल जाएगा। हम शहर की तरफ जाने वाली ट्राम में बैठ जाते हैं। अंदर से ट्रामें हमारी दिल्ली की मेट्रो जैसी हैं। लेकिन भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं है। कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों के बाहर पूरा शहर साफ दिखता है। मैं खिड़की से बाहर देखने लगता हूं। ड्राम में वायलन की एक धुन सुनाई पड़ती है। मुझे पता नहीं चला ये वायलन बजाने वाले कब ट्राम में आ गए। वायलन की धुन सुखद लगती है। लेकिन मैं देखता हूं बाकी यात्री अपने में गुम हैं। थोड़ी देर बाद वह वायलन बजाना बंद करके अपने ओवरकोट की जेब से एक गिलास निकलता है। यात्री उसमें सिक्के डालने लगते हैं। मैं इलसा को बताता हूं-ऐसा मैंने अपने देश में पूर्वांचल और नार्थ ईस्ट की ट्रेनों में खूब देखा है। कभी कोई बांसुरी बजा कर पैसा मांगता है कभी इकतारा बजा कर। वह वायलन वादक मेरे पास आता है। मैं भी अपनी जेब से एक सिक्का निकाल कर उसके गिलास में डाल देता हूं। उस वक्त ध्यान नहीं रहता कि वह सिक्का कितने का था। बाद में याद आया वह स्विज फ्रेंस था। एक यूएस डालर के बराबर। यानी करीब पचास रुपए। ईनाम थोड़ा महंगा हो गया। बाद में सोचता हूं।
किसी भी दूसरे यूरोपीय शहर की तरह जिनेवा शहर को भी हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं। एक नया और दूसरा पुराना। जाहिरी तौर पर पुराना शहर ज्यादा खूबसूरत है। इमारतों में प्राचीन रोमन वास्तु ‌शिल्प दिखता है जो मैंने और भी कई यूरोपीय देशों में देखा है। ये खामोश इमारतें आपको खास तरह से आकर्षित करती हैं। इलसा ने जब मुझे काल्विन कालेज की इमारत दिखाई तो मैं चौंका। एक तन्हा सी खामोश इमारत। मैंने सानिया को बताया कि एक काल्विन कालेज हमारे लखनऊ में भी है। इस बार चौंकने की बारी इलसा की थी। क्योंकि जान काल्विन जिनेवा की रूह हैं। इस शहर को बसाने में और यहां के लोगों में रूहानियत भरने में जॉन काल्विन का बड़ा नाम हैं। वह जिनेवा के आध्यात्मिक गुरु थे जैसे हमारे यहां कभी गौतम बुद्ध या महावीर रहे हों। ऐसे जॉन काल्विन का लखनऊ से भी कोई रिश्ता हो सकता है क्या? मैं मजा ले रहा था। क्योंकि मैं जानता था कि लखनऊ में गोमती नदी के ठीक किनारे 'कॉल्विन ताल्लुकेदार कॉलेज' की नींव 11 मार्च 1891 को अवध और आगरा प्रान्त के मुख्य आयुक्त सर आक्लैन्ड काल्विन ने रखी थी। तब इस कालेज में केवल रजवाडों और ताल्लुक़ दार के बच्चे ही दाखिला ले सकते थे। इसमें दाखिला लेने की अकेली और आखिरी शर्त थी कि वह राजघराने या किसी ताल्लुकदार का बेटा हो या उनका गोद लिया हुआ हो। यह संस्था विशुद्ध रूप से पैसे वाले बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा दिलाने के लिये स्थापित की गयी थी। लेकिन इलसा अंत तक इस बात पर डटी रही कि ब्रिटिश कमिश्नर आक्लैंड का खानदान कहीं न कहीं से हमारे जॉन काल्विन से जुड़ा होगा। इस बात को न मानने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी।
सारा दिन हम शहर में भटकते रहे। इस खूबसूरत शहर के मैं अपनी आंखों में बसा लेना चाहता हूं। बेहद साफ सुथरी सड़कें, खूबसूरत चौराहे, चमचमाती दुकानें और एक से एक खूबसूरत इमारतें। इलसा  मुझे हर इमारत के बारे में बता रही थी। वह बताती है कि जिनेवा का पूरा पुराना शहर हैरिटेज साइट के रूप में घोषित है। यहां ज्यादातर इमारतें 1830 से 1945 के बीच की बनी हैँ। एक इमारत देख कर मैं चौंका था। वह ‌रशियन आर्थोडक्स चर्च है। उसे ये लोग रुस द जिनेवा कहते हैँ। इस इमारत के गुम्बद स्वर्ण के हैँ। इन गुम्बदों के ऊपर क्रास के निशान बने हैं। पता नहीं क्यों ये गुम्बद मुझे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के गुम्बदों की याद दिला रहे हैँ।
शाम ढलने लगी है। हम थक चुके हैं। सड़क के किनारे बने एक ओपन रेस्‍त्रां में बैठ गए। काफी और कुछ स्नैक्स का आर्डर दिया। मैंने इलसा से पूछा उसके नाम का मतलब क्या है? उसका जवाब था- गॉड आफ माई ओथ। ज्यादातर जर्मन लड़कियों के नाम का यही अर्थ है। वह मुस्कुराने लगी। मैंने कहा- कुछ समझ में नहीं आया-गॉड आफ माई ओथ? क्या मतलब हुआ इसका? उसने मुस्कुराते हुए कहा- By my oath, you can trust me. यानी मेरी कसम तुम मेरा यकीन कर सकते हो। मैं लाजवाब हो जाता हूं।

स्विट्जरलैंड के गांव में एक शाम

मेरी यूरोप डायरी-6

दूर तक फैली आल्पस की पर्वत शृंखला। नीचे लाल खपडैल के बने घर। छतों पर, पेड़ों की बारीक टहनियों पर, रसोई की चिमनियों पर, बिजली के तारों पर हर तरफ बर्फ की हल्की चादर। झरने, झीलें और खुला आसमान। ट्रेन की विशालकाय खिड़कियों से दिख रहे ये अद्भुत नजारे आंखों को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि हां, ये हकीकत है और आप जन्नत की सैर पर हैं।
जिनेवा में मेरा काम खत्म हो चुका है। मेरे पास चार दिन और बचे हैं। हम लोगों को दैनिक खर्च के लिए 75 यूएस डालर मिलते हैं। पूरे ट्रिप के पैसे एडवांस में मिल गए हैं। मैं हिसाब लगाता हूं मेरी जेब में करीब 700 यूएस डालर हैं। यह बहुत काफी हैं। इस पैसे से मैं यूरोप के कुछ और देश घूम सकता हूं। मैं जानता हूं संजैन वीजा मेरे पास है। इस वीजा पर मुझे कोई रोकेगा नहीं।
मेरे सामने स्वीट्जरलैँड का टूरिस्ट मैप है। इसकी एक सीमा जर्मनी से मिलती है दूसरी फ्रांस से और तीसरी इटली से। इलसा बताती है कि समय के इस बजट में आप सिर्फ एक तरफ निकल सकते हैँ। मैंने इटली जाना तय किया। क्योंकि वह लुगानों के रास्ते में हैं। वहां मेरा रिश्ते का भाई अनादि यूनिवर्सिटी ऑफ लुगानों से पीजी कर रहा है। सबसे पहले मुझे वहीं जाना है। लेकिन घूमते हुए।
 जिनेवा से लुगानों पहुंचने के लिए मुझे स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न, ज्यूरिख पार करते हुए इटली की सीमा तक पहुंचना था। करीब 800 किलोमीटर का सफर। स्विट्जरलैंड घूमने का इससे अच्छा बहाना क्या हो सकता था। एक एयरबैग में दो-तीन दिन के कपड़े भर कर यूरो ट्रेन में सवार हो गया। यूरो रेल अन्तराष्ट्रीय ट्रेन है। ये यूरोप के तमाम देशों को एक दूसरे से जोड़ती है। इसकी रफ्तार कई दफा हवाई जहाज को मात करती है। ट्रेन के अंदर का दृश्य किसी रेस्टोरेंट जैसा है। साफ सुथरा और भीड़ भाड़ से दूर। आपकी चेयर के आगे एक छोटी मेज भी होगी जिस पर आप लैपटाप रखकर अपना काम कर सकते हैँ।
ट्रेन की खिड़की से देखता हूं स्विट्जरलैंड के गांव अब शहर से जुड़े फार्म हाउस में तब्दील हो गए हैं। दीवारें पत्थर की और छतें खपड़ैल की जैसे हमारे देश में होती हैं। हर घर के बाहर कार और गाएं बंधी है। पहचान के लिए गायों पर रंग लगाए गए है। शायद अपने गोरुओं पर पहचान के लिए रंग लगाने की परंपरा करीब-करीब सभी संस्कृतियों में रही है। मेरा पहला ठिकाना मुंड है। इलसा ने मुझे बताया था कि स्‍वीट्जरलैँड की हसीन वादियों में खोना है तो मुंड जरूर रूकना। ये लगभग ग्रामीण इलाका है। समुद्र तल करीब 1200 मीटर ऊपर बसे इस इलाके को यूनेसको ने इसे वल्ड नेचुरल हैरिटेज साइट घोषित किया है।

पहली बार मुंड नाम सुन कर मैँ चौंका था। क्योंकि पुरानी भूली बिसरी स्मृतियों में यह शब्द कुछ जाना पहचाना था। याद आया लखनऊ के हमारे स्कूल में मधुमिता मुंड नाम की एक खूबसूरत लड़की पढ़ती थी। उसके पिता शायद फौज में थे। उसके बाल अजीब तरह से घुंघराले थे। वह शायद मुंड जनजाति से थी। ये जनजाति शायद छोटा नागपुर के पास की है। ये लोग झारखण्ड, उडीसा से लेकर पश्चिम बंगाल तक फैले हैँ। महान क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा शायद इसी जनजाति से हों। पता नहीं । लेकिन मैंने कभी उससे पूछा नहीं। खैर मुंड स्विट्जरलैँड की एक पुरानी मुंसीपैलटी थी। अब एक छोटा सा कस्बा कह लीजिए। ऊंची पर्वतश्रृंखलाओं के बीच बसा एक मोहक कस्बा। जंगली लकड़ियों के बने पुराने घर। लकड़ियों के रंग वक्त के साथ काले पड़ गए हैं। उनकी ढलानदार छतें उन छतों पर शाख से टूटे पत्ते। मुझे बताया गया कि सर्दी के दिनों में ये ढलानदार छतें सफेद बर्फ की चादर से से ढक जाती हैं। पेडों पर भी बर्फ होती है टहनियों और पत्तियों पर भी। पर इन दिनों बर्फ नहीं है। मौसम साफ और चमकदार है। धूप में गर्माहट है। वर्ना साल के नौ महीने यहां बर्फ रहती है। दूर पहाडी पर बड़ी नोकदार सींगों वाली भेड़े दिख रही हैं। सफेद और काली भेंड़े। उनके शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल हैं जो बर्फ से उनकी हिफाजत करते हैं। प्रकृति ने उन्हें यहां जीने लायक बना दिया है।

 मैं आसापास घूम रहा हूं। अकेले। यहां के लोग अंग्रेजी नहीं जानते। सिर्फ जर्मन बोलते हैँ। इसलिए किसी से बातचीत भी संभव नहीं। जिन्दगी में पहली बार ऐसा हुआ कि आप किसी से बात करना चाहते हो पर नहीं कर सकते। अंग्रेजी के सिर्फ कुछ शब्द मदद कर रहे थे। एक सस्ता सा होटल मिल गया। पूरी तरह लकड़ी से बना एक साफ सुथरा होटल।  टूरिस्ट नहीं हैं इसलिए भीड़ भाड़ भी नहीं है। शाम ढल चुकी है। अब क्या करुं? सोचता हूं। होटल के बार में जाकर बैठूं। हां ये विचार दिलचस्प है। बार में हल्की पीली रोशनी है। चारों तरफ बिखरी कुर्सियों पर लोग बैठे हैं। स्‍त्री-पुरुष सब हैँ। बीच में बॉन फायर का इंतजाम है। शायद इसीलिए इस बड़े कमरे में गर्माहट है। मैँ एक मेज के किनारे अपना ग्लास लेकर बैठ जाता हूं। धीमा स्वीज संगीत पूरे वातावरण में तारी है। बाइस साल पुरानी बैलविनी सिंगल माल्ट के साथ अब ये संगीत धीरे धीरे मेरी चेतना पर हावी हो रहा है। जीवन के बारे में सोच रहा हूं और किस्मत के बारे में। कितनी अप्रत्याशित है जिन्दगी। आज यहां स्वीट्जलैंड की अनजान सी जगह मुंड में हूं। फिर स्कूल के दिन याद आते हैं। मधुमिता याद आती है। उसके दोस्त याद आते हैं। अपने दोस्त याद आते हैं। वे दिन कितने मस्त थे। स्कूल कैम्पस में इमली का पेड़ था। हम इमली अपने लिए नहीं तोड़ते थे। वो सारी शरारतें याद आती हैं। होटों पर मुस्कुराहट आ जाती है।     
मैं अपने कमरे में लौट आता हूं। दूर लकड़ी के बने तमाम घरों में रोशनी है। कितनी शांति है चारों तरफ। चांदनी रात में पूरा कस्बा जगमग है। दूर अंधेरे में पहाडों का रंग और स्याह होता जा रहा है। मैं थक गया हूं। अब सोना चाहता हूं।