दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, December 2, 2013

काशी से कैलास तक का सफरनामा



हेमंत शर्मा की किताब "द्वितीयोनास्ति" कई मायनों में अद्भुत है। रविवार को संत मोरारी बापू के हाथों से इस पुस्तक का दिल्ली में लोकार्पण हुआ। करीब तीन घंटे का यह समारोह आध्यात्मिक, राजनीतिक, साहित्य और पत्रकारिता के दिग्गजों का एक दुर्लभ संगम था। एक तरफ सुप्रसिद्ध कथा वाचक मोरारी बापू और स्वामी रामदेव थे तो दूसरी तरफ साहित्य के आचार्य स्वामी नामवर सिंह और मीडिया मुगल रजत शर्मा। एक तरफ भाजपा के राजनाथ सिंह तो दूसरी तरफ कांग्रेस के मोतीलाल वोरा। दिलचस्प संयोग है कि ये सब लोग कहीं न कहीं काशी या कैलास से एक पर्वत श्रृंखला की तरह जुड़े रहे हैं। मसलन संत मोरारी बापू तो हेमंत शर्मा को यात्रा के दौरान कैलास पर कथा बाचते मिल गए थे। और वोराजी ने यूपी का गवर्नर रहते हेमंतजी को पहली बार हिमालय के हेलीकाप्टर से दर्शन कराए थे। कैलास जाना था रजत जी को लेकिन मौसम खराब होने के कारण बीच रास्ते से हेलीकाप्टर वापस मुड़वना पड़ा। लेकिन अगले ही साल हेमंत शर्मा काशी की सेना लेकर कैलास पर्वत छू आए। और लौटे भी तो खाली हाथ नहीं अनुभव और अनुभूति दोनों की गठरी अपने साथ ले आए।
संत मोरारी बापू ने एक बहुत अच्छी बात कही कि हम जो भी लिखते हैं, कहते हैं, वह सिर्फ हमारा अनुभव है। अनुभूति इसके ऊपर की चीज है। जहां शब्द खत्म हो जाते हैं। तब संवाद संभव नहीं हो पाता। अनुभूति प्रकट होती है आंसुओं से, जो झरने से झर झर कर बहने लगते हैं। कैलास का यह यात्रा वृतांत ऐसा ही है। मैंने इलाहाबाद में इस किताब का पहला ड्राफ्ट पढ़ा था जिसे हेमंतजी ने मेल किया था। अब किताब सामने है। मैं देख रहा हूं जहां शब्द खो गए वहां अनुभूति को हेमंत जी ने किसी प्रोफेशलन प्रेस फोटेग्राफर की तरह कैमरे में कैद कर लिया। प्रभात प्रकाशन ने उन तस्वीरों को ज्यों का त्यों छाप दिया। नामवर सिंह ने कहा-कैलास यात्रा पर इतनी अच्छी किताब उन्होंने आज तक नहीं पढ़ी। संत मोरारी बापू ने कहा इस किताब का लोकार्पण करके उनके हाथ शुद्ध हो गए। मेरे बगल में बैठे वरिष्ठ खेल पत्रकार पद्मपति शर्मा तो बापू की भावुक कथा सुन कर रोने ही लगे। भोजपुरी में कहने लगे-सागर, कसिए वाले ही अइसा लिख सकते हैं। उनका आशय काशी वालों से था। मैंने देखा है काशी वाले खुद को काशी का होने का क्रेडिट देने से कभी चूकते नहीं। सब चलते फिरते इश्तेहार हैं। नामवर हो या पद्मपति शर्मा या खुद हेमंत शर्मा। लेकिन सब में एक बात कॉमन है-कबीर वाला फक्कड़पन। इसलिए हेमंत शर्मा ने कहा-ये किताब मैंने गणेश की तरह लिखी भर है। काशी स्वर्ग का द्वार है
तो कैलास स्वर्ग। इसलिए हम स्वर्गवासी हो गए।
प्रो. कृष्‍णनाथ ने इस किताब की अद्भुत समीक्षा की है। लिखा है-हेमंत के साथ कैलास मानसरोवर की अंतर्यात्रा कर आया। कैलास का दरस-परस और मानसरोवर के जल में स्नान-मज्जन तथा पान और तर्पण। ऐसा पहली बार हुआ। क्या भाव है। क्या भाषा। ऐसी भाषा काशी में ही लिखी जा सकती है। अन्यत्र नहीं। वैसा इसका वर्णन अनेक  बार पढ़ चुका हूं। किन्तु ऐसा डूब कर नहीं। क्या ऐसा फिर हो पाएगा? कोई बताए।

Saturday, November 23, 2013

एक पत्रकार का प्रायश्चित


तहलका ने इस बार गजब का तहलका मचा दिया। तरूण तेजपाल अपने किए का प्रायश्चित करना चाहते हैं। उन्होंने अपने पहले खत में लिखा उनसे फैसला करने और स्थिति का सही आकलन करने में भूल हुई। ये बहुत अर्थपूर्ण लाइन है। इसका मतलब यह है कि वह समझ नहीं पाए कि नशे में गर्क वह कन्या उनसे क्या चाहती है। वह गफलत के शिकार हो गए। जैसा कि लड़की ने अपने खत में जाहिर किया है उन्हें लगा कि उनकी बेटी की सहेली सिर्फ उन्हें प्रेम करती है। तभी उन्होंने अपनी असभ्य हरकतों को जस्टिफाई करते हुए कहा-"क्या एक से ज्यादा लोगों से प्यार करना सही है?" वह लड़की भी बिहार के किसी गांव की नहीं थी। वह मुम्बई-दिल्ली में काम करने वाली तहलका की एक तेजतर्रार पत्रकार है। उसके ब्लाग में मैंने बहुत बोल्ड और विचारोत्तेजक लेख पढ़े हैं। लेकिन स्थिति का आकलन करने में उससे भी चूक हो हुई। वर्ना एक ही तरह के हादसे का वह दो बार शिकार न होती। 
हैरत की बात है कि बड़े-बड़े खुलासे करने वाले ये खोजी और अनुभवी पत्रकार ‌‌इस नाजुक हालात का सटीक आकलन नहीं कर पाए। जाहिर है नशा बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। मशहूर लेखक व चिंतक लियो टालस्टाय अव्वल दर्जे के शराबी थे। वह अपने जीवन के अंत तक शराब नहीं छोड़ पाए। वह कहते थे इंसान शराब मजे के लिए नहीं पीता। वह इसलिए पीता है ताकि उसे अपनी अंतरात्मा के विरोधपूर्ण स्वर न सुनाई दें।  इसलिए कोई हैरत की बात नहीं कि तहलका के थिंक फेस्ट के शुरूआती भाषण में तेजपाल ने अपने सहकर्मियों को  ज्ञान का सूत्र इस उद्धोष के साथ ‌दिया  कि '...अब, जबकि आप गोवा में हैं, जितना पी सकते हैं, पीजिए, खाइए और... स्लीप विद हूएवर यू थिंक ऑफ...।'
शराब या अन्य नशीले पेय के इस्तेमाल से मनुष्य जितना अधिक चेतना शून्य बनता चला जाता है वह बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से भी उतना ही नीरस, निष्क्रिय और मंद बन जाता है। शराब का सेवन करने वाला हर शख्स यह अनुभव आसानी से कर सकता है। और मैं भी  इसका अपवाद नहीं। बावजूद इसके सारी दुनिया में शराब लोकप्रिय है। और आज से नहीं वैदिक युग से। वाल्मीकि की रामायण में भी मुझे सोम रस सेवन की लोकप्रियता के कई चौंकाने वाले प्रसंग मिले। सोम रस जितना लोकप्रिय लंका में था उतना ही अयोध्या में भी। खैर मैं तर्क देकर शराब सेवन को प्रोत्साहित नहीं कर रहा। मेरा मानना है कि शराब अपने आप में कोई नफरत करने की चीज नहीं। अहम ये है कि शराब पीने वाला कौन है। बंदर के हाथ में आप उस्तरा देकर यह उम्मीद नहीं कर सकते कि उसका या आपका चेहरा सही सलामत बचेगा। दरअसल शराब आपकी प्रवृत्तियों को बाहरी सतह पर लाकर खड़ा कर देता है। हर इंसान के दो चेहरे होते हैं। एक चेहरा सार्वजनिक है और दूसरा निजी। सार्वजनिक चेहरे वाला सामाजिक प्राणी हिपोक्रेट होता है। वह जो नहीं है और होना चाहता है वही चेहरा समाज के सामने पेश करता है। लेकिन शराब ये सारे आवरण हटा कर आपका असली चेहरा सामने ले आती है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को अगर आपको जानना समझना है तो उसे चार पांच पैग लगवा दीजिए। फिर देखिए वह किसी किताब की तरह खुलता चला जाएगा। यह प्रयोग मैं कर चुका हूं और इसके नतीजों से मैं सौ फीसदी आश्वस्त हूं।

तरूण तेजपाल से जिन्दगी में मेरी सिर्फ एक मुलाकात है। मैं उनसे कोई चार साल पहले दिल्ली में केसी कुलिश अवार्ड फंक्‍शन में मिला था। उन्होंने मुझे अवार्ड के लिए गले मिलकर बधाई दी थी। उनकी टीम के भी  किसी सदस्य को ये अवार्ड मिला था। पहली मुलाकात में मैं किसी के बारे में अपनी राय कायम नहीं करता। तहलका की कई खोजपरक खबरों से मैं प्रभावित था हालांकि मैं जानता था कि तहलका के पीछे कई राजनीतिज्ञों  का पैसा और दिमाग लगा है। वह खबरें वैसी खालिस खबरें नहीं जैसी हम यूपी बिहार के पत्रकार ब्रेक करते हैं। हमारे पास न इतने संसाधन है न आजादी।
खैर लड़की के बयान पर यकीन करें तो तेजपाल ने जो हरकत की वह वाकई बेहद शर्मनाक है और कानून की धाराओं में जो भी सजा दर्ज है वह उन्हें मिलनी चाहिए। इस पर किसी डिबेट या बहस की जरूरत नहीं है। यह बहस भी बेकार है कि यह हरकत एक संपादक ने की या राजनेता या संत ने। क्योंकि संपादक भी हाड़ मांस का एक इंसान है। संत परम्परा वाले इस देश में आसाराम जैसे संत भी हुए हैं। वे कोई स्वयंभू संत नहीं  हैं। हजारों लाखों लोग आसाराम अनुयायी हैं।ऐसे में अगर मेरे विद्वान मित्र जस्टिस काटजू देश की 90 फीसदी  जनता को मूर्ख मानते हैं तो वह गलत नहीं हैं। सोचिए इस देश अधिसंख्य जनता मूर्ख न होती तो क्या फूलनदेवी, धनंज्जय सिंह, मुख्तार अंसारी और भी न जाने कितने ऐसे लोग संसद तक पहुंच पाते। मूर्ख जनता के देश में ही चाभी से चलने वाले पुतले जैसे प्रधानमंत्री होते हैं।
मैं शायद अपने मूल विषय से भटक गया। मैं बात कर रहा था तेजपाल के प्रायश्चित की। प्रायश्चित के भी लोगों के अलग अलग ढंग हैं। महात्मा गांधी को अगर गंदे सपने भी आ जाते थे तो भी प्रायश्चित करते थे। वह सुबह तीन बजे उठ कर बिस्तर पर कूदने लगते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो.निर्मल कुमार बोस ने अपनी किताब माई डेज विद गांधी में इसका विस्तृत और रोचक वर्णन किया है। नोआखली के एक वीरान आश्रम के दृश्य का उन्होंने दिलचस्प वर्णन किया। देखिए-" सवेरे 3 बजकर 20 मिनट पर मैंने गांधीजी को सुशीला नैयर से जोर से बातचीत करते हुए सुना। उनकी आवाज में परेशानी झलक रही थी। एकाएक हमें आकुल क्रंदन सुनाई पड़ा। यह गांधीजी का आवाज थी। और तब हमने दो थप्पड़ मारे जाने की आवाज सुनी। ....और बाद में जोरों की रुलाई सुनाई दी।" निर्मल दौड़ते हुए उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे। भीतर देखा बापू आंख बंद किए बैठे थे। उनकी पीठ दीवार से लगी थी और आंखों में आंसू की बूंदे साफ झलक रही थीं। करीब खड़ी सुशीला भी सुबक रही थी। निर्मला की हिम्मत नहीं हुई ‌कि कुछ पूछें। वे दरवाजे से ही लौट आए। सुशीला भी उनकी बेटी की उमर की थी। इस प्रसंग को मैंने वाणी प्रकाशन से छपी अपनी किताब  "महात्मा गांधी ब्रहम्चर्य के प्रयोग" में विस्तार से लिखा है। इतिहास इसी लिए मुझे रोचक लगता है क्योंकि वह वर्तमान की बड़ी से बड़ी घटना से चौंकने का मौका नहीं देता। क्योंकि वर्तमान में ऐसा कुछ नया नहीं हो रहा जो पहले न हो चुका हो। 
वक्त और व्यक्तित्व के हिसाब से प्रायश्चित के तौर तरीके भी बदलते जाते हैं। मैं नहीं जानता कि तेजपाल के प्रायश्चित का क्या प्लान है। हो सकता है कि गोवा या दमन ‌द्वीव के किसी समन्दर के किनारे नवम्बर दिसम्बर की हसीन धूप में एकान्तवास के दौरान वह बीयर की चुस्कियां लेकर सोचें कि उनसे कहां कैसे चूक हो गई। बुद्धिजीवी टाइप के लोग अपने अपराध की सजा खुद तय करते हैं। आप मचाते रहिए हल्ला। गोवा में भाजपा की सरकार उन्हें प्रायश्‍चित के लिए जेल की शांत कोठरी मुहैया कराना चाहती है। हिसाब बराबर करने के ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते हैं। कलम की नोक तलवार से भी ज्यादा धारदार होती है। यह बात तरूण तेजपाल अब बखूबी समझ रहे होंगे।
    
  

Tuesday, November 19, 2013

नरक ले जाने वाली लिफ्ट में राजेंद्र यादव


कल रात मेरी किताबों की रैक में अचानक राजेंद्र यादव की किताब "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' दिख गई। अचानक दिमाग में एक बेतुका ख्याल कौंधा  इस वक्त राजेन्द्र यादव कहाँ होंगे? क्या इसी लिफ्ट में होंगे ? या अपने गंतव्य स्थल तक पहुंच गए होंगे ?
मैं गहरी सोच में पड़ गया।  मौत के बाद इंसान कहां जाता है। ये कोई नहीं जानता। साइंस भी इस सवाल पर खामोश है। हम मौत से शायद डरते ही इसलिए हैं क्योंकि हम इस रहस्य से अनजान हैं कि मौत के बाद इंसान कहां जाता है ?  जन्नत और ज़हन्नुम जैसी जगहें  मज़हबी मुनाफाखोरों ने अपने मतलब के लिए इज़ाद की हैं। मजहबी किताबों में वो स्वर्ग की हसीन तस्वीर दिखा कर भरमाते हैं और नरक का खौफ़नाक मंजर दिखा कर डराते  हैं। करीब  दो साल पहले  मेरी मां इस दुनिया से विदा हुई।  तेरह दिन के उन तकलीफदेय शोक के दिनों मैं पूरी गरूण पुराण पढ़ गया। सिर्फ ये जानने के लिए कि मां इस समय कहां होगी ? कैसी होंगी ? शायद इस किताब से कोई सुराग मिले। गरूण पुराण में कोई उन्नीस हज़ार श्लोक हैं। बाद के आधे हिस्से में सारे श्लोक मौत के बाद के जीवन से जुड़े हैं। इस किताब में न जाने कितने तरह के नरक का ब्यौरा है। हर अपराध के लिए अलग दंड है और हर दंड के लिए अलग नरक। दो नरकों के बीच में भी एक नरक है। मैंने थक कर किताब बंद कर दी। अच्छे लोग मर कर कहां जाते हैं इस बारे मैं ये किताब कुछ नहीं बताती। अगर में गरूण पुराण को ठीक समझा हूँ तो आज की  दुनिया का एक आदमी भी स्वर्ग के सफ़र पर जाने के लिए इलेजिबिल नहीं है। महात्मा गांधी से लेकर अन्ना तक कोई नहीं।  मैं तो कत्तई नहीं। दिलचस्प है कि इस किताब में सारे वर्जित गुनाह करने के बावजूद नरक से बचने के तमाम उपाय दिए गए हैं। लेकिन हर उपाय की  अनिवार्य शर्त ये है कि आप पंडितओं  और पुरोहितों  की  जेबें  गर्म करें।  मूर्ख से मूर्ख इंसान भी गरुण पुराण पढ़ कर समझ जाएगा कि  ये किताब इस देश की गरीब, अनपढ़ और अनघड़ जनता को ठगने का षड्यंत्र है। और ये साजिश ज़ाहिरा तौर पर ब्राह्मणों ने रची  है क्योंकि अपने फायदे के लिए पुराण वुराण लिखना उन्हीं का काम था।  
 "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' में राजेंद्र जी ने दुनिया की  बेहतरीन कहानिओं का अनुवाद किया है। "नरक ले जाने वाली लिफ्ट' इस किताब की अंतिम कहानी है जिसके लेखक हैं पार लागर क्विस्ट। यह कहानी एक बेवफ़ा बीवी की है जो अपने शौहर से लड़ कर अपने प्रेमी मि.स्मिथ के साथ अच्छा वक्त बिताने एक होटल में जाती है। दोनों एक साथ लिफ्ट से नीचे कमरे में जाने के लिए उतारते हैं। लिफ्ट में ही उनका  रोमांस शुरू हो जाता है।  तभी  अचानक उन्हें महसूस होता है कि लिफ्ट तो रुक ही नहीं रही।  वह नीचे  और नीचे की  तरफ दौड़ी चली जा रही है। दरअसल  लिफ्ट ख़राब हो गई थी और वह सीधे नरक की ओर जा रही थी। दोनों सचमुच नरक पहुंच जाते हैं।  वहाँ शैतान उन्हें रोमांस के लिए एक नारकीय कमरा मुहैया करता है। इससे पेशतर वे रोमांस शुरू करें कोई दरवाज़ा खटखटाता है। वह वेटर होता है जो नीम अँधेरे कमरे में रखे गिलास में शराब डालता है। उसकी कनपटी पर गोली का एक ताज़ा निशान है।  लैंप कि रौशनी में वह औरत वेटर का चेहरा देख कर चीख उठती है।  हे ईश्वर आर्वेड तुम ? वह कोई और नहीं बल्कि उसका शौहर था !
खैर इस कहानी का मेरी इस पोस्ट से कोई लेना देना नहीं।  मेरी दिलचस्पी राजेंद्र यादव  में है।  उम्र के लम्बे फासले के बावजूद वो मेरे दोस्त थे।  उम्र का लिहाज़ न करके मैं उनसे कोई भी अटपटा सवाल पूछ सकता था। लेकिन उनके प्रति एक अनोखे तरह के सम्मान का भाव हमेशा रहता। अगर मैं उनसे संवाद कायम कर पता तो जरुर पूछता की आप कहाँ हैं? इस नामुराद दुनिया के उस पार का जहान कैसा है ? क्या वहाँ आपको सिगार मिल जाती है। लिखने के लिए कागज़ कलम देते हैं वो लोग ! क्या वहाँ शराब का इंतज़ाम है। क्या वहाँ भी कमीने ब्राह्मण दलितों और पिछड़ों को सताते हैं ? क्या वहाँ भी रेप होते हैं। वहाँ किसी तरह का स्त्री विमर्श होता है ? क्या आपको कहीं परमानंद श्रीवास्तव या ओम प्रकाश वाल्मीकि दिखे जो आप के पीछे -पीछे ही गए हैं?  हो सकता है वो अभी नरक की लिफ्ट में  हों। पर मुंशी प्रेमचंद तो वहाँ जरुर होंगे। उनको गए तो एक ज़माना हो गया। उन्होंने तो छूटते बनारसी अंदाज़ की भोजपुरी में आपसे पूछा होगा-" का हो राजेन्दर हमार हंस के तू कउआ बना देहलअ"  इस पर राजेन्द्र जी हंस कर कहते होंगे -घबराइए नहीं मुंशी जी आपकी खबर लेने वाले दलित चिंतक पीछे आ रहे हैं।
ये मज़ाक नहीं एक पीड़ा है जो मेरे अंदर घनीभूत हो रही है। हंस शायद आगे भी छपे पर अब उसमें कांटे की बात नहीं होगी।  कहानियां होंगी पर उसमें राजेंद्र यादव की  छाया नहीं होगी। एक बात तो तय है कि राजेंद्र यादव जहाँ भी होंगे मस्त होंगे। उन्हें दुनिया कि हर खूबसूरत चीज़ से मुहब्ब्त थी।  मौत भी उनके लिए यक़ीनन खूबसूरत रही होगी।

Saturday, November 16, 2013

मोदी के देस में भंसाली की रासलीला



बस अभी अभी रात एक बजे नोएडा के वेव सिनेमा से रामलीला देखकर वापस लौटा हूँ और मूड इतना ख़राब है सोचता हूँ कि फ़िल्म पर अभी कुछ लिख कर अपना गुस्सा शान्त कर लूं. लेकिन इसे अपने ब्लॉग पर कल ही पोस्ट करूंगा जिसमें से कुछ गुस्सा सुबह तक जरुर एडिट हो जाएगा।
सच कहूं तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया की फाइव स्टार रेटिंग और रामलीला के नाम पर हो रहे विवाद को देखकर गोलिओं की  रासलीला देखने का मन इतनी जल्दी बना लिया। और थोड़ी और ईमानदारी से कहूं तो टीवी के प्रोमो में रात दिन चल रहीं दीपिका की दिलकश आदाएं भी काफी हद तक  इस जल्दबाज़ी के लिए जिम्मेदार थीं। दीपिका पादुकोण को मैं सम्भावनाशील अभिनेत्री मानता हूं। उसमें गज़ब की  शोखी,शरारत और तीखापन है। कई दफा वो आँखों से डायलॉग करती नज़र आती है। ये जवानी है दीवानी और चेन्नई एक्सप्रेस जैसी हाल की  फिल्मों  में अलग किस्म का किरदार निभाया। वह किसी भी कैरेक्टर में वैसे ही डूब है जैसे समंदर में मछली। फिर उस गहराई से वह किसी जलपरी की  तरह बाहर  निकल कर सबको चौंका देती है। वह सचमुच बेहतरीन अदाकारा है इस फ़िल्म में ये साबित भी हो गया क्योंकि भंसाली के इशारे पर उसने छिछोरेपन के अभिनय में रणवीर का जो भरपूर साथ दिया वह यादगार रहेगा । अंग्रेजी के फ़िल्म क्रिटिक इसे दोनों के बीच कामयाब कमेस्ट्री का नाम दे रहे हैं।  रणवीर सिंह तो छिछोरेपन के अभिनय का सुपरस्टार है। मुझे याद है कि उसकी पहली फ़िल्म बैंड,बाजा बारात के एक गाने में उसकी हीरोइन ने उसे चल हट छिछोरे कहा था।  पर वह छिछोरापन फ़िल्म की कहानी का हिस्सा  था. भंसाली ने इसे अपनी फ़िल्म में छिछोरे पन का ये तत्व डाल कर फ़िल्म को हल्का और कमज़ोर बना  दिया है। मुझे याद नहीं आता कि भंसाली की  किसी फ़िल्म में एक भी गोली  चली हो लेकिन इस फ़िल्म में उन्होंने अपना ये कोटा भी पूरा कर दिया है। फ़िल्म में  गोलिओं की ऐसी रासलीला रची गई है कि  गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की श्रंखला पीछे छूट गई है। 
 भंसाली ने फ़िल्म में पहले ही बता दिया था की ये फ़िल्म रोमिओ जूलियट के नाटक पर आधारित है. रोमिओ जूलियट शेक्सपीयर का एक दुखान्त नाटक है जिसमें दो पुराने इज्जतदार घरानों की आपसी आन की लड़ाई दिखाई गई है. आख़िर में दोनों एक दूसरे की  रज़ामंदी से बेहद नाटकीय तरीके से मर जाते हैं।  शेक्सपीयर की रोमिओ जूलियट की  कथावस्तु तो इटली से ली गई है लेकिन भंसाली ने अपनी देसी रोमिओ जूलियट के लिए मोदी के गुजरात को चुना। मोदी का नाम मैंने यहाँ ज़बरदस्ती इसलिए लिया क्योंकि उनके बिना आजकल कोई कहानी बनती और बिकती नहीं। मोदी ने अपना राजनीतिक करियर भले चाय बेच कर शुरू किया हो पर आजकल वह अपमार्केट का हिस्सा हैं। मोदी के नाम पर आप कुछ भी बेच सकते हैं. मैं देख रहा हूँ मोदी के नाम पर रिपोर्टर खूब बाई लाइन बटोर रहे हैं और नरेश अग्रवाल जैसे नेता टीवी फुटेज पा रहे हैं। । भारत रत्न लता जी से लेकर गुजरात के ब्रांड एम्बेस्डर बच्चन जी तक सबकी दूकान मोदी जी के नाम पर चल रही है. रोमिओ जूलियट में मोटांग्यू- कैप्युलेट दुश्मन घराने गुजरात के रजोड़ी और सनाड़ी से कही मेल नहीं खाते और वहां बिकने वाले हथियार गांधी के गुजरात की बेमेल तस्वीर दिखाते हैं।
 ख़ैर मैं रामलीला और रोमिओ जूलियट की बात कर रहा था. भारत में इस कथावस्तु पर कोई दो हज़ार फ़िल्में बन चुकी होंगी। भंसाली ने भी एक बचकाना प्रयोग किया है. शेक्सपीयर का  रोमिओ भी दिलफेक तबियत का नायक है उसके प्रेम की  शुरुआत भी वासना और रूप की  जलन के साथ दैहिक होती है लेकिन अंत में जाकर दिल में अटक जाती है। ऐसा ही राम यानी रोमिओ रणवीर और लीला यानी जूलियट दीपिका के साथ भी होता हैं। भंसाली की  ये प्रेम कहानी बिना किसी भूमिका के सीधी देह से शुरू होकर रास लीला को विस्तार देती चली जाती है। शेक्सपीयर से प्रेरणा लेकर लिखी गई ऐसी कहानी पर भला कौन यकीन करेगा जिसमे पहली ही मुलाक़ात में नायिका अपने ही घर में  अपने होठों से रंग लगा कर शत्रु परिवार के प्रेमी से होली खेलती हो। फ़िल्म में कहीं कहीं कुछ रोमांचक दृश्य एकदम से बांध लेते हैं लेकिन जल्द ही वे किसी छिछोरी पतंग की  डोर की  तरह हत्थे से कट जाते हैं। बाज दफा ऐसा  लगता है फ़िल्म के कुछ हिस्से भंसाली ने डायरेक्ट किये हैं और कुछ ज्यादा हिस्से डेविड धवन ने। और अगर आप घर परिवार वाले शरीफ इंसान हैं तो रामलीला दिखाने  के चक्कर में बच्चों को थियेटर लेकर मत चले जाइएगा क्योंकि अगर गोली न चली होती तो भंसाली ने कामसूत्र की एक कला तो लगभग दिखा ही दी थी।
हम दिल दे चुके सनम, ब्लैक और देवदास जैसी फ़िल्में देखने के बाद  मैं संजय लीला भंसाली काबिल डायरेक्टर  मानने लगा था. लेकिन इस फ़िल्म ने निराश किया। कच्छ के रेगिस्तान में रंग बिरंगे संगीतमय दृश्य डाल कर पब्लिक को बहुत ज्यादा देर तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। भंसाली सेट को भव्य बनाने और वस्त्र सज्जा की कला में माहिर हैं।  फिल्मों में लोक तत्व फ़िल्म में भंसाली ने एक गाने में प्रियंका चोपड़ा को आइटम गर्ल की तरह इस्तेमाल किया। इस गाने में रोमिओ राम के हाथ में बियर दिखती है और वह प्रियंका चोपड़ा का मुजरा देख रहे होते हैँ।  अब ये सब देख कर अगर धर्म भीरु लोग नाराज़ हो रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं.जिन्होंने वाल्मीकि रामयण पढ़ी है वो तो सब्र कर लेंगे लेकिन तुलसी के राम भक्तों का नाराज होना स्वाभाविक है. भंसाली पर इन लोगों की भावनाओं की गैर इरादतन हत्या का सीधा मामला बनता है। लेकिन हमारे देश में अभिव्यक्ति की रासलीला का अधिकार कोई कैसे छीन सकता है। जज साहब ने रामलीला के टाइटिल पर प्रतिबन्ध लगा दिया फिर भंसाली के राम फ़िल्म में जो चाहे सो करते रहें।  ये तुमने कैसी लीला रची है भंसाली प्रभु  !

Tuesday, October 29, 2013

देखो ये चिता कितना धुंआ छोड़ती है




दिल्ली के लोधी रोड के उस आर्य समाजी श्मशान घाट पर मुझे घाट कहीं नहीं दिखा। राजेन्द्र यादव की जलती हुई चिता दिखी और लकड़ियों के तेज आग के बीच से खूब सारा धुंआ दिखा। उस धुंए में कई सारे उदास चेहरे दिखे। इन चेहरों में एक चेहरा मन्नु भण्डारी का था। एक शांत और भाव शून्य चेहरा। दाम्पत्य जीवन में बड़े बड़े संकट आसानी से कट जाते हैं लेकिन इस रिश्ते में पति और पत्नी के बीच एक अघोषित युद्ध हमेशा चलता रहता है। और ये युद्ध अक्सर श्मशान घाट या किसी कबि्रस्तान में उस वक्त खत्म होता है जब दोनों में से कोई एक नहीं रहता।
राजेन्द्र यादव की मौत मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। वह परसों तक हंस के दफ्तर में काम कर रहे थे। कल रात जिस वक्त उनकी तबियत बिगड़ी उनके घर पर कोई नहीं था। नौकर कालोनी के सिक्यो्रटी गार्ड को लेकर उन्हें अस्पताल ले गया। लेकिन रास्ते में हंस उड़ गया। डाक्टर ने सिर्फ घोषणा की कि राजेन्द्र जी नहीं रहे।
मयूर विहार के आकाश दर्शन अपार्टमेंट के उस कोने में सारा आकाश आकर सिमट गया था। राजेन्द्र जी के घर के ठीक सामने कोने में बच्चों का एक छोटा सा पार्क है। उस पार्क के सारे झूले आज वीरान पडे हैं। राजेन्द्र जी की देह को अंतिम दर्शन के लिए बाहर ही रखा गया है। देह के करीब ही कुर्सी पर मन्नु बैठी हैं। उनकी सफेद साड़ी पर मु्रझाए फूल के रंगीन प्रिंट टके हैं। घर पर ज्यादा भीड़ नहीं है। हंस से जुड़े रहे संजीव अपना गांधी झोला टांगे सामने ही खड़े हैं। बेटी रचना, दामाद, मैत्रेयी पुष्पा, निर्मला जैन, सुनील, विवेक मिश्र,अजय नावरिया, बाराबंकी के सत्यवान कुछ और करीबी लोग। सब अंतिम तैयारियों में जुटे हैं। मैं वहीं किनारे खड़ा हो गया हूं। टीवी चैनल और प्रेस के फोटोग्राफर खामोशी के साथ अलग अलग कोण से फूलों से सजी अर्थी की तस्वीरें खींच रहे हैं। सोच रहा हूं पत्रकारिता भी कितना संवेदनहीन और नामुराद धंधा है। दुख के पलों में भी ये कम्बखत अपनी तस्वीर को खूबसूरत बनाने में जान लगा देते हैं।

लेकिन मन्नु भण्डारी किसी और उधेड़बुन में हैं। वे कितने सालों से अलग हैं एक दूसरे से। बिना तलाक लिए दोनों दाम्पत्य का निर्वासित जीवन जी रहे थे। सार्वजनिक जीवन में वे एक अर्से से आमने सामने आना नहीं चाहते थे। पर अब आमने सामने आना पड़ा। राजेन्द्र यादव का चेहरा अर्थी पर चढ़े ढेर सारे फूलों के बीच छुपा है। बरबस मुझे यानिस की एक कविता याद आ जाती है- मैं मामूली चीजों के पीछे छुपता हूं। ताकि तुम मुझे पा सको। तुम मुझे नहीं पाओगी। तो उन चीजों को पाओगी। तुम उसे छुओगी जिसे मेरे हाथों ने छुआ है और हमारे हाथों की छाप आपस में मिल जाएगी।

लोदी रोड के उस श्मशान घाट पर लेखक, साहित्यकारों पत्रकारों का मेला जुटा है। नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, विश्वनाथ तिवारी, संगम पांडे, डीपी तिवारी, अशोक चक्रधर, ओम थानवी, दिबांग, प्रसून वाजपेयी और भी न जाने कौन कौन। मन्नु भण्डारी यहां भी आईं और एक बेंच पर बैठ गईं हैं। मैंने देखा राजेन्द्र यादव जीवन भर कर्मकाण्डों का विरोध करते रहे। लेकिन उनके अंतिम संस्कार में सारे वैदिक कर्मकाण्ड हुए। राम नाम सत्य है के उदघोष के साथ घर से अर्थी उठी और श्मशान में पंड़ित जी ने गायत्री मंत्र का पाठ किया। सोच रहा हूं मौत इंसान को कितना असहाय और निरीह बना देती है। मैंने करीब खड़े ओम थानवी जी से भी यही कहा। वे बोले ये मौत का सच है। क्रूर सच। मेरे बगल में बैठे नामवर सिंह एनडीटीवी के एक रिपोटर से बात कर रहे थे। उनसे कह रहे थे-बड़े लोगों की मौत के बाद अक्सर ये कहा जाता है कि है इनकी जगह कोई और नहीं भर पाएगा। राजेन्द्र यादव के बारे में यह कहावत एक दम सच है। अब कोई दूसरा राजेन्द्र यादव नहीं होगा।

कमलेश्वर की तरह राजेन्द्र यादव की चिता को मुखागि्न उनकी बेटी रचना ने दी। उनकी चिता में एक लकड़ी मैंने भी सजा दी। यही मेरी श्रद्धाजलि है। अपने युग के एक महान लेखक और संपादक के लिए मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाया। देखते-देखते चिता की धूं धूं करके चलने लगी। लकड़ियां सूखी थीं फिर भी गहरा घुंआ था। लखनऊ में लिए एक इंटरव्यू में मैंने उनसे उनके दुख के बारे में पूछा था। तो उन्होंने हंसते हुए एक शेर सुनाया था-जब्ते गम क्या है तुझे कैसे समझाऊं। देखना मेरी चिता कितना धुंआ छोड़ती है। राजेन्द्र जी को मैंने हमेशा हंसते देखा। क्या उनके सीने में सचमुच इतना गम था। जलती हुई अर्थी से निकलता धुंए का गुबार तो यही कहता है।







Sunday, October 27, 2013

अलविदा इलाहाबाद



‘न दोस्त है न रकीब है तेरा शहर कितना अजीब है।’ कुछ इसी अंदाज से तीन साल पहले इलाहाबाद आना हुआ था। सब कुछ रुका-रुका-सा थमा-थमा-सा। जैसे जिंदगी ठहर गई हो। पहली नजर में यह शहर सोया-सोया, उनींदा-सा लगा था। हमारे अखबार ने ‘आओ संवारे इलाहाबाद’ की मुहिम शुरू की। शुरुआत सिविल लाइन्स के एमजी रोड से करनी थी। सवाल था लखनऊ का हजरतगंज संवर सकता है तो इलाहाबाद का सिविल लाइन्स क्यों नहीं? हमने शहर के जिम्मेदार लोगों को दफ्तर में बुला उन्हें कमिश्नर से लेकर डीएम तक से रूबरू कराया। सब उत्साहित थे। हमने यहां के अर्किटेक्ट और इंजीनियरों की एक टीम बनाई जिसे संवरे हुए सिविल लाइन्स का ब्लू प्रिंट तैयार करना था। इसके लिए वे स्वेच्छा से सामने आए थे। लेकिन मैं इस टीम के हर सदस्य को फोन करते-करते थक गया। पर मुझे आज तक उनसे ब्लू प्रिंट नहीं मिला। सब शहर की चिन्ता छोड़ अपने अपने काम में मशगूल हो गए। हमें लगा कि हम अकेले पड़ गए। लेकिन हिम्मत नहीं हारी। कलम की मुहिम जारी रही। और एक दिन एडीए ने वह ब्लू प्रिंट और सिविल लाइन्स के सुंदरीकरण का इस्टीमेट प्लान हमारे हाथ पर रख दिया। प्रस्ताव अब शासन के पास फण्ड के लिए रुका हुआ है। मैंने सीएम अखिलेश यादव से बात करनी चाही लेकिने उनके चेलों ने इस बारे में कोई मदद करने से इंकार कर दिया।
लेकिन मैं जानता हूं आज नहीं तो कल ये फण्ड मंजूर भी हो जाएगा। इलाहाबाद के नौजवान डीएम राजशेखर खुद इस काम में लगे हैं। लेकिन उनकी भी समीमाएं हैं। नगर विकास के प्रमुख सचिव कुंभ के लिए जो पैसा दिल्ली से आया वो इलाहाबाद पर खर्च नहीं करना चाहते। इलाहाबाद के विकास प्राधिकरण ने अपना फण्ड कुंभ पर खर्च कर दिया। अब राज्य सरकार वो पैसा वापस करने को तैयार नहीं। गजब नौटंकी चल रही है। खैर असल सवाल है कि इलाहाबाद के जिम्मेदार लोगों के पास अपने शहर के लिए वक्त क्यों नहीं है? या वह नींद से जागने को राजी नहीं हैं? जब मेरे एक मित्र विपिन गुप्ता ने इस शहर को ‘स्लीपिंग सिटी’ का फतवा दे दिया तोे मुझे यकीन करना पड़ा कि ये वाकई एक सोया हुआ शहर है। इसका कुछ नहीं हो सकता।
लेकिन मेरी यह धारणा बहुत जल्द धराशायी हो गई। आप किसी शहर को तब तक पूरी तरह नहीं समझ सकते जब तक आप खुद उसका हिस्सा नहीं बन जाते। शहर की धड़कन को एक टूरिस्ट की नजर से नहीं पकड़ा जा सकता। त्योहारों के मौसम में मैंने अपने दोस्तों के साथ इस शहर को बहुत करीब से जिया। पथरचट्टी की रामलीला में मैंने आसमान से ठीक नीचे बने कृत्रिम हिमालय की श्रृंखलाओं के बीच शिव द्वारा पार्वती को रामकथा सुनाते साक्षात देखा। देखा दशहरे में पूरा शहर कैसे रामदल की यात्राओं को उत्सव बना देता है। कैसे नवरात्र में गली-गली भव्य दुर्गा प्रतिमाएं सज जाती हैं। कैसे हाईकोर्ट की छूट के बावजूद श्रद्धालु अपनी देवी प्रतिमाओं को नदियों के बजाए झील और तालाबों में विसर्जित करने की होड़ करने लगते हैं ताकि हमारी गंगा-यमुना मैली न हो।
मैंने देखा कैसे मोहर्रम में शिया हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में दर्दनाक आवाज में मर्सिया पढ़ते-पढ़ते छुरीदार हंटर से खुद को लहुलुहान कर लेते हैं। चौक के रानीमंडी जैसे पुराने इलाके में ऐसा जूनन भरा माहौल होता है कि किसी अजनबी का दहशत से गला खुश्क हो जाए। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब का गजब संगम यहां सड़कों पर दिखा। दिसम्बर के जाड़ों में शहर के चर्च ऐसे सज जाते हैं मानो ईसा मसीह यहीं इलाहाबाद में ही पुनर्जन्म लेने वाले हों। मैंने देखा कुंभ में कैसे करोड़ों श्रद्धालु संगम में डुबकी लगा कर वापस लौट जाते हैं और शहर के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं होती। इको-स्पोट्र्स के जमाने में यहां गहरेबाजी के दौरान घोड़ों की रेस आज भी होती है, सड़क पर कबूतर लड़ाते और उड़ाते लोगों की भीड़ देखी। हाईकोर्ट में महत्वपूर्ण फैसले देने के बाद इलाहाबादी मूल के जजों को लोकनाथ में कचौड़ी की दुकान पर बड़ी सादगी से कहते सुना-‘का यार कुछ खिलौबो-पिलौबो नाही।’
कभी आरक्षण के पक्ष और विरोध में यहां कई-कई दिन तक शहर ठप हो जाता है लेकिन जल्द ही सलोरी-अल्लापुर इलाके में ठाकुर और यादवजी अपने नोट्स के संग गलबहियां डाले घूमते दिखते हैं। तो कभी जरा-सी बात पर काले कोट वाले पढ़े लिखे वकील, नादान छात्रों की तरह उपद्रवी बन शहर को सिर पर खड़ा कर लेते हैं। चोर यहां पूरा का पूरा एटीएम उखाड़ कर गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं और पुलिस दारू पीकर नाले में लोटपोट करती रहती है। कभी छेड़छाड़ से त्रस्त कोई लड़की लफंगे की बाइक में पेट्रोल छिड़क कर सरेआम आग लगा कर दुर्गा बन जाती है तो कभी इश्क में बेतरह डूबे लड़के यमुना के नए बने पुल से कूद कर बेवजह जान दे देते हैं। ‘गुनाहों के देवता’ यहां आज भी भटकते हैं।
अब ये गजब का शहर छोड़ रहा हूं। मैं समझ सकता हूं कि हरिवंश राय बच्चन से लेकर रवीन्द्र कालिया तक ने ये शहर क्यों छोड़ा। सब कुछ होने के बावजूद इस शहर ने तरक्की के सारे रास्ते बंद कर रखे हैं। लेकिन ये सच है यहां हर किस्सा पल भर में अफसाना बन जाता है और हर अफसाना एक मुकम्मल नॉवल। सब अपनी जिन्दगी में इस कदर मशगूल हैं कि कोई यह मानने को तैयार नहीं कि दुनिया चांद पर पहुंच चुकी है। जिस ‘गॉड पार्टिकल’ पर हिग्स-इंगलर्ट को इस साल नोबल के लिए चुना गया उसे इलाहाबादियों ने संगम की रेती के किनारे न जाने कब का खोज निकाला है। इतनी ठसक और विविधाता से भरा जीवन्त शहर आपको और कहां मिलेगा। क्या बता सकते हैं आप?

Thursday, October 17, 2013

साहित्य के माफिया डॉन के लिए


 मैं राजेन्द्र यादव का न वकील हूं न कोई जज। महामंडलेश्वर भी नहीं जो उन्हें धर्मात्मा की उपाधि दूं। मैंने उनके बारे में अपनी निजी राय और अनुभव फेसबुक पर ‘राजेन्द्र यादव के नाम एक खत’ के रूप में शेयर किए हैं। इस पर कई तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। कि मैं उन्हें क्लीन चिट दे रहा हूं या धर्मात्मा के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा हूं। हो सकता है आप या अन्य महानुभव उससे सहमत न हों। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन आप उनकी तुलना आसाराम जैसे धूर्त आदमी से कतई नहीं कर सकते जो अपने भोले भाले पर बेवकूफ भक्तों की आध्यात्मिक भावनाओं को ठगता है और उनकी बेटियों को अपने आश्रम में बुलाकर तरह तरह की तांत्रिक क्रियाएं करता है। आसाराम की आंखों में मैंने हमेशा एक चालक लोमड़ी वाली चमक देखी है। पर मुझे याद नहीं आता कि ‘बीमार विचारों’ वाले इस साहित्यकार पर कभी किसी हिंसक या वनैले जानवर की तरह किसी महिला पर टूट पड़ने का आरोप लगा हो। साहित्यिक समारोहों की रिपोर्टिंग के दिनों में मैंने उन्हें हमेशा महिला फैन्स और लेखिकाओं के बीच में घिरे हुए देखा है। सिगार का कश लगाते वक्त वह और भी खतरनाक लगने लगते हैं। मैंने यह भी देखा कि उन समारोहों के लंच या डिनर के दौरान अन्य बुजुर्ग-युवा साहित्यकार और कथाकार कैसे जलन भरी नजरों से इस दिलफेक बुड्ढे को देखते थे। उनमें से कइयों की आंखों में मैंने तब भी आसाराम की आंखों वाली चमक देखी थी। मैंने कई बार अपनी अखबारी रिपोर्ट लिखा भी कि काला चश्मा पहने ये आदमी मुझे हमेशा मारियो पूजो के उपन्यास के नायक ‘गॉडफादर’ जैसा डराता है। कुछ कुछ फ्रांसिस फोर्ड की अमेरिकी फिल्म ‘दि गॉडफादर’ के नायक जैसा। हालांकि गॉडफादर ने परिवार की परिकल्पना को एक गजब की ऊंचाई दी। शायद इसलिए अमेरिका ने उसे नायकत्व प्रदान किया। पर इस मामले में राजेन्द्र यादव एकदम उलट हैं। मैंने उन्हें हमेशा साहित्य की दुनिया का माफिया डॉन कहा। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह अपनी शर्तों पर कहानियां छापते हैं। प्रगतिशीलता की उनकी परिभाषा एकदम अलग है। वह मुंशी प्रेमचंद की ‘हंस’ के संपादक हैं लेकिन उनकी ‘हंस’ में प्रेमचंद कहीं नहीं दिखते। ज्यादातर कहानियां अब प्यारेलाल आवारा टाइप लेखक/लेखिकाओं की सस्ती कथाओं जैसी होती हैं। साहित्य की अंधेरी कोठरी की घुटन से मुक्त होकर कई लेखिकाएं ‘ अब हंस’ में सेक्स पर खुल कर लिख पा रही हैं। और राजेन्द्र यादव उन पर निर्मल बाबा की तरह ‘कृपा’ बरसा रहे हैं। युवा लेखकों को ये बात बेशक तकलीफदेह लगती होगी। लेकिन माफिया दूसरों की तकलीफों की परवाह कहां करते हैं। मैं कहानियां न पढ़ता हूं न लिखता हूं। सच तो ये है कि मेरे पास ‘हंस’ पढ़ने का वक्त नहीं है। किसी कहानी की चर्चा हो जाती है तो पुराना अंक निकाल कर वह कहानी पढ़ लेता हूं।
पर इतना जानता हूं कि राजेन्द्र यादव ने किसी न किसी बहाने बाकायदा लिखत पढ़त में अपने कई सारे गुनाह कबूल किए हैं। ये आसान बात नहीं है। गांधी भी ये नहीं कर पाए थे। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ लिखते वक्त वह अपनी कथित ‘आध्यात्मिक पत्नी’ श्रीमती सुशीला देवी का पूरा प्रसंग छुपा ले गए। फिर राजेन्द्र यादव खुदा नहीं हैं और न धर्मात्मा जिनसे हमेशा सच बोलने की उम्मीद की जाए। उन्होंने कभी गांधी की तरह सत्य के प्रयोग का दावा भी नहीं किया। मेरी समझ से ये बिलकुल गैरजरूरी विवाद है जिसे कथित बाप-बेटी के बीच ही महदूद रखा जाना चाहिए। आप उन पर बेशक पत्थर बरसाइए। मैं उनके बारे में अपनी राय तब तक नहीं बदलूंगा जब तक मुझे यकीन नहीं हो जाएगा कि इस बुड्ढे का दिमाग अब सचमुच खराब हो गया है और उन्हें अब किसी दिमागी अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत है।

Tuesday, October 15, 2013

राजेन्द्र यादव के नाम एक खत


 

प्रिय राजेन्द्र जी,
मुझे आप पर पूरा यकीन है। मनु, सुशीला, आभा जैसी लड़कियों से गांधी के अनर्गल संबंधों को लेकर भी कम्बखत लोग इसी तरह से दुष्प्रचार करते रहे हैं। आपसे मेरी जितनी मुलाकातें हुईं हैं उन सब में मुझे आप कभी बनावटी, झूठे और मक्कार नहीं लगे। आपने खुद को गुनाहों का देवता माना। कई साल पहले आप कथाक्रममें हिस्सा लेने लखनऊ आए थे। और मैंने एक अखबार के लिए आपका इंटरव्यू लिया था। जिसमें मैंने आपसे पूछा था कि आपके दोस्त बताते हैं कि आप अपनी फ्रिज में वियाग्रा रखते हैं?’ और तब आपने हंसते हुए कहा था कि-तुम भी यार वियाग्रा भी कोई फ्रिज में रखने की चीज है।तब मुझे अपनी नासमझी पर अफसोस भी हुआ था। फिर आपकी महिला मित्रों को लेकर कुछ सवाल हुए थे। इंटरव्यू हू बहू छपा। आपका तो फोन नहीं आया लेकिन दिल्ली से आपकी उस महिला मित्र और नामचीन बोल्ड लेखिका ने फोन पर मुझसे बड़ी मासूमियत से पूछा था-क्या मैं आपको ऐसी औरत लगती हूं।और सच कहूं तो उस दिन से मंटो की तरह मेरी भी बोल्ड लेखिकाओं के बारे में धारणा बदल गई। लेसबियन औरतों पर लिखी विवादित कहानी लिहाफके बारे में इस्मत चुगताई से मंटो ने एक दफा पूछा था कि-आखिर तूने लिहाफ में झांक कर ऐसा क्या देखा जो तेरी चीख निकल गई?’ इस्मत बेतरह शरमा गई। मंटो ने कहा-कम्बखत आखिर ये भी औरत निकली। 

खैर, पुरानी बातें जाने दीजिए। आप पहले ही बता चुके हैं कि आदमी की निगाह में औरत एक शरीर है, सेक्स है और वहीं से उसकी स्वतंत्रता की चेतना और स्वतंत्र व्यवहार पैदा होते हैं। अब इस सत्य का आपको बखूबी अंदाजा भी हो गया होगा। अनिल यादव भी मेरा दोस्त है और जितना मैं उसे जानता हूं वह लिखने पढ़ने में काफी हद तक ईमानदार है। सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए वह अनर्गल बातें कभी नहीं लिखेगा।
ज्योति कुमारी ने एक बुजुर्ग को मुसीबतों के कटघरे में खड़ा कर रखा है। दोनों तरफ विश्वसनीयता का गजब संकट है। दोनों कसमे खा-खा कर एक दूसरे को बाप-बेटी मान रहे हैं लेकिन कम्बखत दुनिया यह यकीन नहीं कर पा रही। लानत है ऐसी दुनिया पर। मैं ज्योति मोहतरमा को तो नहीं जानता लेकिन आपको बखूबी जानता हूं। और जितना जानता हूं उसकी बिना पर कह सकता हूं कि औरतों की आजादी को लेकर आपमें एक खास तरह का पागलपन की हद तक उत्साह है। ज्योति जैसी लड़कियों को ज्वालाबनाने की जो तरक्कीपसंद मुहिम आपने बा-जरिए हंसछेड़ी थी, अब मान लीजिए उसमे आप खासे कामयाब हो गए हैं। गांधी के प्रयोग तो नाकाम रहे लेकिन आपके क्रान्तिकारी प्रयोग आपके जीते जी सफल हो रहे हैं। बधाई।

खुदा आपको लम्बी उम्र दे और परहेज करने की ताकत अता फरमाए।

 

Monday, October 7, 2013

शुक्रिया जौनपुर के पत्रकार दोस्तों






जौनपुर के पत्रकारों ने अपने प्रेस क्लब के 10वें स्थापना दिवस के मौके पर मुझे बुलाया था। पीटीआई जौनपुर के पत्रकार डा. मधुकर तिवारी का न जाने कितनी दफा फोन आया। मैं दुबई से लौटा और बेतरह थका हुआ था। लेकिन ग्रामीण अंचल के पत्रकारों को लेकर मेरे भीतर एक अलग तरह का लगाव है। बहुत इच्छा थी कि जाऊं पर विन्रमता से क्षमा मांग ली। फिर सिराज मेहंदी साहब का फोन आ गया। उन्होंने न केवल पुरानी दोस्ती का हवाला दिया बल्कि कहीं से गाड़ी का इंतजाम करके मेरे घर के सामने खड़ी करा दी। सो इलाहाबाद से निकल पड़ा और टूटी फूटी सड़कों को पार करते हुए तीन घंटे में मैं जौनपुर प्रेस क्लब के सामने था।
तय वक्त से तीन घंटे देरी से पहुंचा। देखा वहां हमारी उप्र मान्यता कमेटी के अध्यक्ष हेमंत तिवारी भी मौजूद है। वह जौनपुर के हैं मेरे सीनियर भी रहे हैं। जौनपुर के सभी अखबारों और चैनलों के पत्रकार जिस बेचैनी से मेरा इंतजार कर रहे थे उससे मैं अभिभूत हो गया। मैं खुद पत्रकार हूं और जानता हूं कि हम पत्रकार किसी को सेटते नहीं। होगा कोई तुर्रम खान। सबसे समझौता कर लेंगे स्वाभिमान से नहीं। और फिर मैंने देखा कि एक पत्रकार दूसरे पत्रकार का कैसे सम्मान करता है। जैसे एक राजा दूसरे राजा का करता है। जैसा सम्मान सिकंदर ने पराजित राजा पोरस के साथ किया होगा। कमरे में कोई सौ सवा सौ पत्रकार रहे होंगे और सबने एक एक करके मुझे गेंदे की माला पहनाई। ये सब मुझे बहुत अटपटा लग रहा था। बहुत संकोच लग रहा था क्योंकि ऐसा बर्ताव मैंने अब तक सिर्फ राजनेताओं के साथ होते हुए देखा था। लेकिन अपने पत्रकार मित्रों के सम्मान और स्नेह के आगे मैं नतमस्तक था। समझ नहीं पाया कि क्या लोग सम्मानित होने के लिए उतावले भी होते हैं? क्या सम्मान जैसी चीज खरीदी जा सकती है? क्या ये जुगाड़ से हासिल की जा सकती है?
मैं जानता हूं जौनपुर के ये पत्रकार किसी संपादक का सम्मान नहीं कर रहे थे। ये अपने बीच के एक पत्रकार का सम्मान कर रहे थे क्योंकि उन्होंने मुझे बताया कि पिछले 20 सालों से वे मेरी लिखी खबरें पढ़ते रहे हैं। और खबरें बता देती हैं कि आप कितने ईमानदार या बेईमान हैं? खैर बातचीत शुरू हुई और मैंने उन्हें बताया कि असली खबरें गांव से निकलती हैं। अब तक दो खबरों पर मुझे पत्रकारिता के दो बड़े अवार्ड मिले। दोनों खबरें शहर में बैठ कर नहीं लिखी गईं। सीतापुर में मनरेगा घोटाला और बाराबंकी का सिलाई मशीन घोटाला गांव में बेहद नंगे और भेदस रूप में मिला। मैंने देखा किस तरह गरीब मजदूरों का मनरेगा का पैसा ग्राम प्रधान, सहकारी बैंक, बीडीओ और डीएम मिल कर खा रहे हैं। मैंने उसका पर्दाफाश और उसके बाद राज्य सरकार को नियम बनाना पड़ा कि अब मजदूरों का पैसा राष्ट्रीयकृत बैंकों से ही भुगतान करना होगा। 
खैर वहां से गदगद होकर लौटा तो अगले दिन जौनपुर से लोकेश त्रिपाठी का फोन आया। मेरी उनसे एक बार की कभी मुलाकात है। बहुत नाराज थे। कहने लगे आप आए और बताया भी नहीं। मैंने बताया कि बहुत हड़बड़ी में आया। लेकिन जौनपुर वालों ने जो सम्मान दिया उससे मैं गदगद हूं। तो उन्होंने कहा एक कहानी सुनिए-‘एक शराबी को नाले में एक चमकता हुआ पत्थर मिला। उसने उठा लिया। सोचा बेच दूंगा तो दो दिन दारू का इंतजाम हो जाएगा। वह चमकदार पत्थर लेकर आगे बढ़ा तो चरवाहे ने वह पत्थर देखकर उसे खरीदने की इच्छा जताई। चरवाहे ने सोचा ये चमकदार पत्थर भेड़ के गले में लटका दूंगा तो उन्हें रात के अंधेरे में भी पहचान लूंगा। उसने 10 रुपए में शराबी से पत्थर खरीद लिया। चरवाहा आगे बढ़ा तो एक जौहरी उधर से गुजरा। जौहरी ने देखा एक बहुमूल्य पत्थर भेड़ के गले में लटका है। उसने 100 रुपए में वह चमकदार पत्थर चरवाहे से खरीद लिया। जैसे ही वह पत्थर जौहरी के हाथ में आया उसकी चमक गायब हो गई। जौहरी हतप्रभ था। तभी पत्थर में से आवाज आई-‘शराबी और चरवाहा मेरा मूल्य नहीं जानते थे। पर तुम तो जानते थे। फिर भी तुमने मेरी कीमत 100 रुपए लगाई। तुम मेरे लायक नहीं हो।’
त्रिपाठी जी बोले-‘आप वैसे ही चमकदार पत्थर हैं। और हम जौनपुर वाले मूर्ख जौहरी नहीं हैं।’ अब बताइए मैं उनसे क्या बोलूं। जौनपुर के एक लगभग अपरिचित पत्रकार ने मेरी बोलती बंद कर दी।
         

Wednesday, October 2, 2013

दुबई का मुशायरा और एक आतंकी की खता

अरबों के देश में-2



दुबई के उस शानदार हिन्दुस्तानी स्कूल के बड़े से आडिटोरियम में मुशायरे की सारी तैयारी पूरी हो चुकी है। लेकिन इस बार ऐन मौके पर राहत इंदौरी नहीं आए। राहत भाई के शायरी पढ़ने के अंदाज पर दुबाईवाले भी गजब फिदा हैं। शेर पढ़ने का उनका नाटकीय ढंग सबको भाता है-‘किसने दस्तक दी ये दिल पे, कौन है? फिर राहत भाई इस लाइन को अपने खास अंदाज में एक-एक लफ्ज पर जोर देकर तीन बार दोहराएंगे। फिर मुशायरे में थोड़ा समां बांधेंगे-‘मैं शेर पढ़ कर बताता हूं मुन्नवर भाई आप सुन कर बताइएगा।’ फिर अगली लाइन में चौकाएंगे-‘आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है?’ इस तरह पब्लिक को किसी हुनरमंद मदारी की तरह खुश करके राहत भाई खूब तालियां बटोरते हैं। लेकिन इस बार वह दुबई नहीं आए। रेहान भाई ने बताया कि उनके जिस्म में शक्कर की गिनती अचानक इतनी बढ़ गई है कि डाक्टर ने घर से निकलने से मना कर दिया। ये अफवाह नहीं पक्की खबर थी। क्योंकि इस मामले में राहत भाई अक्सर ये कह कर सब पर इलजाम लगाते हैं कि ‘अफवाह थी कि मेरी तबियत खराब है/ लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया।’ अरे भाई लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया कि आप खुद बे-परहेजी के शिकार हो गए। पर मैं जानता हूं शायरों की दुकान ऐसे ही चलती है।
लेकिन मकबूल शायर मुन्नवर राना सुबह की फ्लाइट से वक्त पर आ गए। मुशायरे का अब सारा दारोमदार उन्हीं पर है। मुन्नवर राना को दुबई के ये बच्चे ‘बाबा’ कहते हैं। बाबा ने मंच का जिम्मा बखूबी संभाला। उन्होंने शुरूआत एक कहानी से की- एक हवाई जहाज बादलों के तूफान में फंस गया। सारे मुसाफिर डरे हुए थे। सबके होश उड़े थे। लेकिन एक लड़का निडर बैठा खेल रहा था। लोगों ने उससे पूछा ‘तुम्हें डर नहीं लग रहा।’ लड़के ने कहा ‘नहीं क्योंकि ये जहाज मेरा बाप चला रहा है।’ ऐसे ही इन बच्चों ने ये जिम्मेदारी मुझे दी है। अब इस जहाज को मुझे संभालना है। बच्चे बेफिक्र हो गए। 
मुन्नवर भाई अपने फन में माहिर हैं। उन्हें मुशायरा हिट करने का हुनर मालूम है। अच्छे शेरों का उनके पास खजाना है। आसान और मुख्तसर से लफ्जों में वह गहरी बात कह जाते हैं। मां और बेटियों पर नाजुक शेर पढ़ते हुए बाजवक्त वे इतने जज्बाती हो जाते हैं कि उनकी बड़ी-बड़ी आंखें भर आती हैं। और तब उनकी आंखों में ममता का समन्दर साफ दिखता है जो बेशक उस अरब सागर से भी गहरा होता है जिसे हम लांघ कर यहां तक आए हैं। ‘सरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम जो इस मुल्क की मिट्टी को मां कहते हैं।’उनकी शायरी मीर तकी मीर की शायरी की तरह क्लासिकल है गालिब की तरह अर्थपूर्ण लेकिन उनकी हर शायरी में दर्द मरसिये जैसा है। उनके अंदर का शायर न मायखाने से लड़खड़ाते हुए बाहर निकलता दिखता है और न तवायफ के कोठे से उतरता हुआ। न ये शायर हसिनाओं की जुल्फों से खेलता है और न हुस्नो इश्क के कसीदे पढ़ता है। ये शायर कभी नन्हा फरिश्ता बनकर मां के आंचल से लिपटना चाहता है कभी बूढ़ा बाप बनकर आंगन से विदा होती चिड़ियों को जाते देखकर फूट फूट कर रोना चाहता है।
खैर इससे पहले मुशयरा शुरू हो जनाब आफताब अल्वी यानी हमारे राजी भाई ने अवार्ड के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। और अब उनकी स्क्रिप्ट का चौंकाने वाला आगाज और अंदाज देखिए-‘लीटररी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए हमने जिस शख्सियत का इंतखाब किया है उनके किरदार और उनकी कलम के कई पहलू हैं और तमाम पहलू बड़े रोशन और मुस्तनद हैं। कभी उनका कलम तलवार होता है तो कभी उसी कलम से वो मजलूमों के जख्मों पे मरहम भी रख देते हैं। दयाशंकर शुक्ल सागर कलम का ऐसा ही सिपाही है जिसने कम उम्र में अपनी कलम से ऐसा इंकलाब बरपा किया है जिसकी सताइश सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं उन तमाम मुमालिक में की जा रही है जहां इंसानी दर्द पर आंसू बहाने वाले लोग मौजूद हैं। और उनके कलम की रोशनी वहां वहां महसूस की जा रही है जहां जहां जुल्म के अंधेरे सिर उठाने की कोशिश कर रहे हैं। आप सब जानते हैं ये अवार्ड उन्हें उस बा-मकसद और बा-मानी बहरीर के लिए पेश किया जा रहा है जिसका उनवान था ‘इस आंतकवादी की खता क्या है।’
उर्दू के ये दिलफरेब लफ्ज ऐसे थे जैसे दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा सौदा लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की शान में कसीदे पढ़ रहे हों। अगर मैं सच में नवाब होता तो सौदा की तरह राजी मियां को भी ‘मलिकुश्शुअर’ यानी कवि सम्राट की उपाधि से नवाज देता। कसीदे ऐसे ही होते हैं जैसे फ्रांस के फूलों के त्योहार में लोग एक दूसरे पर फूलों की बौछार करते हैं। खैर मेजबान का फर्ज भी है कि वह अपने मेहमान की शान में कसीदे पढ़े वह भी ऐसा मेहमान के जिसे अवार्ड दिया जाना है। वरना मैं नाचीज कलमकार अपनी हैसियत बखूबी जानता हूं। मैं अपने बरक्स कोई मुगालता नहीं पालता। मेरा दिल जानता है कि तनख्वाह के लिए महीने की पहली तारीख का मुझे कितनी शिद्दत से इंतजार रहता है। जानता हूं हमारे मुल्क में कलम से इंकलाब लाना नामुमकिन है जहां की हर चीज बिकाऊ है। बाजार में एक चीज जो सबसे सस्ती है वह ईमान है। अखबारनवीसी के शुरूआती दौर में जब मैंने पहली बार बसपा की बीट देखनी शुरू की तो बाबू सिंह नाम का एक शख्स मायावती का चपरासी हुआ करता था। बाद में वह केबिनेट मंत्री बन गया। देखते देखते वह करोड़पति हो गया। सुनते हैं वह किसी अखबार का मालिक भी बन गया है। आजकल जेल में है। कल छूट जाएगा। न जाने कितने पत्रकारों को नौकरी देगा। क्या आप सोचते हैं वहां नौकरी करने वाले पत्रकार इंकलाब लाएंगे?
लालच और मुफलिसी ने हर दूसरे इंसान को इस हद तक खुदगर्ज बना दिया है कि कोई किसी के लिए फिक्रमंद नहीं। संवेदनाएं मर चुकी हैं और जज्बात कत्ल हो रहे हैं। उस दिन मैं अखबारनवीसी के अपने पच्चीस साल के अनुभव से पहली नजर में आतंकवादी की उस मां को देखकर समझ गया कि उसका बेटा आतंकवादी नहीं है। जिसके घर में एक बूढ़ी मां और पांच अनब्याही बहनें हो वह आतंकवादी कैसे हो सकता है? लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में जब बम के धमाके हो रहे थे तब वह कलकत्ता के कलपुर्जे जोड़ने वाले एक बड़े कारखाने में काम कर रहा था। उसकी लाचार मां कारखाने का हाजिरी रजिस्टर और बैंक में उसके मुफलिस एकाउंट के दस्तावेज लेकर लखनऊ की कचहरी में जमानत के लिए घूम रही थी। उसके वकील ने मुझे उसकी मां से मिलवाया था। बेशक आतंकी का वह हिम्मती वकील भी अपने दूसरे साथी वकीलों की नफरत का शिकार था। सारे दस्तावेज इकट्ठा करने के बाद मैं पूछते पूछते थक गया लेकिन यूपी पुलिस के डीजीपी से लेकर इस केस के इंक्वाइरी आफिसर तक ये बताने को राजी नहीं हुए कि उसके खिलाफ ऐसा क्या सबूत मिल गया कि वह आतंकी है। सिवाए इसके कि उसका नाम बांगलादेश के किसी आतंकी से मिलता जुलता है।  उस ‘आतंकी’ के पास तो मोबाइल फोन तक नहीं था कि पुलिस साबित करती कि वह पाकिस्तान या दुबई के लश्कर-ए-तोएबा के किसी आतंकी सरगना के सम्पर्क में है। पुलिस प्रेस कान्फ्रेंस में उसे बांग्लादेश का एक खूंखार आतंकवादी बता रही थी जबकि उसका स्थायी पता बंगल के नार्थ 24 परगना जिले का था। खबर छपी और आखिर यूपी की पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा। लेकिन आतंकवादी होने का जेल में उसने जो सदमा उठाया उसका क्या? मुझे तो इस स्टोरी के लिए वजीरे आजम तक से इंटरनेशनल अवार्ड मिल गया पर उन बेगुनाहों की खबर कौन लिखेगा जो आज भी ‘आतंकवादी’ बने हिन्दुस्तानी जेलों में एडिया रगड़ रहे हैं। ये सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है। इसलिए राजी की इंकलाब लाने वाली लफ्फाजी पर मैं बहुत खुश नहीं हुआ।
खैर अब हम मुशायरे पर वापस लौटते हैं। मुन्नवर भाई, हबीब हाशमी, वासिफ फारुखी, डा. तारिक कमर, उस्मान मिनाई, अनिल चौबे, नजमा नूर, शाहिद नूर, अनु सपन, नोमान शौक और अलताफ जिया सबने बारी बारी से अपनी शायरी की। इनमें शायद ही कोई ऐसा शायर या कवि हो जिसे दुबई की पब्लिक ने शोर मचा कर दोबारा पढ़ने के लिए न बुलाया हो। ईटीवी के डा. तारिक कमर ने अपनी खूबसूरत नज्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ पढ़ी। गंगा पर सूफिययाना अंदाज में शायरी मैंने पहली दफा सुनी। बनारस से आए हास्य कवि अनिल चौबे ने अपने चचा एनडी तिवारी पर खूब  फिकरे कसे। बोले-बेचारे बुजुर्ग तिवारीजी खून लेने के लिए पूरा देश पीछे पड़ गया। कोर्ट कचहरी पुलिस वाले सब। फिर चौबे जी ने चौपाई पढ़ी -‘नही कोई जोर चलता है, महज रिक्वेस्ट होता है/इश्क में दौलत-ए-दिल का बड़ा इनवेस्ट होता है/जवानी में मुहब्बत की जिन्हें गिनती नहीं आती /बुढ़ापे में उन्हीं का तो डीएनए टेस्ट होता है।’ सबसे ज्यादा तालियां चौबेजी ने बटोरी। बाद में मैंने और हमारे दुबई के दोस्त हरीश मिश्रा ने चुटियाधारी चौबेजी की खूब खिंचाई की। चौबेजी खुद दुबले पतले मरियल से हैं। हरीश बोले-पंड़ितजी आपका तो बुढ़ापे में डीएनए टेस्ट भी नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए खून चाहिए। मैंने कहा-अपनी चोटी से पकड़े जाएंगे क्योंकि अब तो कम्बखत बाल भी दिल की फिसलन के राज फाश कर देते हैं। बेचारे हास्य कवि चौबे जी संकुचा गए। बताते चले कि यह वही कवि हैं जिन्होंने कलयुग में सूपनखा को खोज निकाला। वो तो भला हो अखिेलेश यादव का कि चुनाव जीत कर सरकार बना ली वरना मायावती के राज में पंड़ित जी जेल में रामचरित मानस के लिए चौपाई लिख रहे होते।   
और यकीन जानिए दुबई के शेख राशिद आडिटोरियम में मुशायरा सचमुच सुपर हिट रहा। सुबह साढे़ तीन बजे तक पूरा आडिटोरियम खचाखच भरा था। काली शेरवानी में रेहान, अफताब और फरहान के चेहरे दमक रहे थे। चटक गुलाबी ब्लाऊज और गुलाबी किनारे वाली क्रीम साड़ी के खालिस हिन्दुस्तानी लिबास में खूबसूरत शाजिया की खुशी से चहक रही थी। जैसे निकाह के बाद घर से बेटी की बारात विदा हुई हो।
जारी

Tuesday, October 1, 2013

डरावना रेगिस्तान और दोस्तों का दुबई


अरबों के देश में-1


 

लखनऊ से पाकिस्तान और फिर अरब सागर पार करते हुए दुबई का सफर सचमुच दिलचस्प है। अरब सागर पार करें तो हवाई जहाज से नीचे डरावना रेगिस्तान साफ दिखने लगता है। ये रेगिस्तान फिल्मों में दिखने वाला साफ सुथरा और सलीकेदार नहीं है। बल्कि ये सीमेंट जैसी काली परतदार रेत का रेगिस्तान है जिसमें रेत की गहरी और खौफनाक खाइयां हैं। ये बहुत नया रेगिस्तान है जहां कभी अरब सागर रहा होगा। दूर-दूर तक सिर्फ सन्नाटा। सभ्यता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं। न कोई दरख्त, न पौधा, न हरियाली, न परिंदे, न जिंदगी का कोई और नामो निशान।  जहाज की खिड़की से इस रेगिस्तान को देखते हुए जिस्म कई दफा इस ख्याल से सिहर गया कि खुदा न खास्ता कोई गरीब यहां इस वीराने में फंस जाए तो उसका क्या अंजाम हो?

लेकिन जहाज जैसे दुबई के आसमान पर पहुंचा तो नजारा बदला हुआ था। एक तरफ ईरान दूसरी ओर ईराक और तीसरी तरफ सऊदी अरब। इन तीन देशों के ठीक बीच परर्शियन गल्फ में समन्दर के किनारे दुनिया की सबसे शानदार और खूबसूरत इमारतों का जंगल।  दुबई के अल-मकदूम इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एयर इंडिया एक्सप्रेस का थका हुआ जहाज हॉफते-हॉफते सही पर वक्त से थोड़ा पहले पहुंच गया। सामने इमीग्रेशन काउंटर पर सिर से पांव तक अरब के परम्परागत सफेद लिबास में लिपटे इमीग्रेश्न के अफसर। दो काउंटर पर काले लिबास में महिला अफसर बैठी हैं। सबके सिर ढके हुए हैं। लेकिन चेहरे पर बुर्का नहीं। वे मर्दों से भी डील कर रही हैं। फितरत से सब के सब सरल और सहज। न सिक्योर्टी का तामझाम न तलाशी की दहशत। मेरे पास वीजा की सिर्फ फोटो स्टेट कापी है। पासपोर्ट देखने के बाद उस अरबी अफसर ने उसी फोटो स्टेट वीजा पर ठप्पा लगाया और अरबी में कुछ बोला जिसका मतलब था- दुबई का आपका स्वागत है।दुबई का ये एयरपोर्ट दुनिया का अकेला एयरपोर्ट है जहां आप सिर्फ 20 सकेंड में इमीग्रेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी कर स्मार्ट गेट से शहर में दाखिल हो सकते हैं। मुझे अमेरिका के न्यू जर्सी का इमीग्रेशन काउंटर याद आया जहां तलाशी के नाम पर बस कपड़े नहीं उतारे थे। 

किसी भी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से बाहर निकलने से पहले मैं फॉरन करेंसी एक्सचेंज से रुपए को उस देश की मुद्रा में परिवर्तित कराता हूं। इससे थोड़ी सहूलियत हो जाती है। मैंने दस हजार रुपए दिए बदले में 540  दिरहम मिले। दिरहम दुबई की करेंसी है। सौ-सौ के 5 नोट और दस के 4 नोट।  सरदार मनमोहन सिंह के राज में अपने देश के रुपए की औकात देखकर हमेशा की तरह फिर शर्मिदगी हुई। चुपचाप नोट मैंने अपने पर्स में रख लिए।

दुबई में मैं मुशायरा और कवि सम्मेलन के एक जलसे में शिरकत करने आया हूं। यह सालाना जलसा हमारी एसोसिएशननाम की संस्था कराती है। अप्रवासी भारतीयों की यह संस्था हर साल मुन्नवर राना, राहत इंदौरी, इकबाल अशार, डा. तारिक कमर जैसे शायरों और कुमार विश्वास जैसे कवियों को आमंत्रित करती है। साथ में किसी एक हिन्दुस्तानी साहित्यकार या पत्रकार को मोइन-उर-रहमान किदवाई लिटररी एक्सीलेंस अवार्डसे नवाजती है। इस साल के अवार्ड के लिए मुझे चुना गया था। मुझे बताया गया कि ये अवार्ड मेरी स्टोरी इस आंतकी की खता क्या हैऔर महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोगजैसी नामुराद किताब के लिए दिया जा रहा है जिसे तारीफ कम और लानते ज्यादा मिलीं।  दुबई में हमारी ऐसोसिएशनकोई पांच साल पहले वजूद में आई। रेहान लखनऊ से और शाजिया किदवई और फरहान वास्ती बाराबंकी से कई साल पहले दुबई में नौकरी करने आए थे। रेहान लाजवाब स्वाद वाली आईसक्रीम कंपनी बास्किन राबिन से जुड़े हैं। शाजिया अबूधाबी कामर्शियल बैंक से। आफताब अल्वी मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस ग्रुप से जुड़े हैं और बाराबंकी मसौली के मीठी जवान वाले फरहान वास्ती भी किसी मल्टी नेशनल कंपनी के कारिंदे हैं। सभी तरक्कीपसंद और शेरो शायरी के जबरदस्त शौकीन हैं। अरबों के इस देश में बाराबंकी के बड़ा गांव की शाजिया का आत्मविश्वास तो गजब है। वह पढ़ी लिखी होशमंद और खूबसूरत खातून हैं। अपने दिल को बखूबी समझती हैं और परदेस में अपनी मुशकिलात से वाकिफ हैं। अपनी ड्यूटी से वक्त निकाल कर हिन्दुस्तान की ये बिटिया अपने दोस्तों के साथ मुशायरे को कामयाब बनाने की तैयारियों में जुटी है। उनके शौहर भी साथ में हैं। शाजिया कहती हैं ये सिलसिला एक शौक के रूप में शुरू हुआ था जो अब एक जूनन बन गया है। 

दुबई में आधी से ज्यादा आबादी हिन्दुस्तानियों की है। ये सब अपने मुल्क को बेतरह मिस करते हैं। सो एक दिन ख्याल आया कि क्यों न यहां हर साल एक मुशायरा और कवि सम्मेलन कराया जाए। दुबई हिन्दुस्तानी कल्चर से बावस्ता होगा। शुरू में तो इन लोगों ने अपनी तनख्वाह के पैसे जोड़ कर मुशायरा कराया। यह प्रोग्राम कामयाब हुआ तो दुबई में कुछ बड़ी कंपनियों के स्पांसर भी मिल गए। यू-ट्यूब पर जारी मुशायरे के वीडियो को अब तक लाखों लाइक हासिल हो चुकी हैं। बाद के सालों में हमारी एसोसिएशन ने आर्थिक रूप से कमजोर शायर व कवियों की मदद के लिए बैनेफिशरी अवार्ड शुरू किया। पिछले दो साल में ये अवार्ड शायर अजमल सुल्तानपुरी व बुद्ध देव शर्मा को दिया गया। हमारी एसोसिएशन ने साहित्यकारों के लिए लिटररी अवार्ड भी शुरू किया। पिछले साल ये अवार्ड प्रो. वली उल्लाह हक अंसारी को मिला। प्रो. अंसारी लखनऊ में पर्शियन के अकेले प्रोफेसर हैं जिन्हें राष्ट्रपति अवार्ड भी मिल चुका है। इस साल के लिटटरी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए इस खाकसार को चुना गया। सबसे बड़ी बात जिस मुहब्बत और खुलूस से नौजवान अप्रवासियों की ये टोली भारत से आए मेहमान शायरों और कवियों की खातिरदारी में पलक पावड़े बिछा देती है वह वाकई दिल छू लेने वाली है।

मुझे बताया गया था कि एयरपोर्ट की लॉबी आपको कोई रिसीव करने आएगा। लेकिन लॉबी में मुझे कोई नहीं दिखा। मैं वहीं एयरपोर्ट पर कोस्टा कैफे में मीडियो अमेरिकैनो का आर्डर देकर उनका इंतजार करने लगा। वहीं बगल की कुर्सियों पर लखनऊ के डा. तारिक कमर के संग कुछ और शायर भी बैठे अपने मेजबान का इंतजार कर रहे थे। हालांकि मैं तब उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। आधा घंटा बीत गया पर कोई नहीं आया। ऐसा पहली दफा हुआ कि मेरे पास आयोजकों का स्थानीय फोन नम्बर भी नहीं था। न पता था कि कहां जाना है। अजनबी देश में यह अनुभव सचमुच खौफनाक है। कुछ रेगिस्तान के वीराने में फंसने की दहशत सरीखा अनुभव जो मैंने जहाज पर महसूस किया था। लेकिन अल्लाह का शुक्र है ये हालात ज्यादा देर नहीं टिके। भीड़ में रेहान का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा तो राहत की सांस ली। रेहान ने आते ही देरी के लिए माफी मांगी और बताया कि वे शाम के ट्रैफिक में फंस गए थे। रेहान भाई से तीन महीने पहले लखनऊ में मुलाकात हुई थी इंन्दिरा प्रतिष्ठान के एक मुशायरे में। उनसे एक पुराने दोस्त आफताब अल्वी ने मिलवाया था। रेहान मियां बेहद शरीफ और सलीकेदार इंसान हैं। उनके चहेरे का भोलापन आकर्षित करता है। उनके चेहरे में एक खास तरह की खुद एतिमादी यानी आत्म विश्वास झलकता है ये कहने की जरूरत नहीं कि ये खुद एतिमादी इंसान के किरदार के लिए कितनी जरूरी है। 

खैर आफताब को हम लोग राजी के नाम से जानते हैं। राजी अखबारनवीसी के शुरूआती दिनों के दोस्त हंै। तब वे अपने बड़े भाई शहाब अल्वी के साथ हफ्तेवार अखबार मानस मेलनिकाला करते थे। तब मैंने उर्दू हफ्तेवार जदीद मरकजसे अपना करियर शुरू किया था। आफसेट प्रेस जमाना था। कटिंग पेस्टिंग से अखबार निकलता था। खबर लिखने से लेकर उसे ब्राडशीट पर चिपकाने तक का काम हमें खुद करना पड़ता था। हमारे एडीटर हिसाम सिद्दीकी नफासतपंसद और जिन्दा दिल इंसान थे। तनख्वाह कम देते थे लेकिन काम की पूरी आजादी देते थे। वह कलम से इंकलाब लाने के कायल थे। तब मुलायम की नाक के बाल हुआ करते थे। उन्होंने समाजवादी जिन्दाबाद के खूब नारे लगाए। मुलायम को मुसलमानों का कायल बनाने के गुनाह में वह भी शामिल थे। पर अब सुनते हैं समाजवादी लीडर खंजर लेकर उनकी तलाश में हैं। खैर प्रेस में बेहद घरेलू माहौल था और उनकी शरीके हायात और हमारी साहेबा भाभी लाजवाब बिरयानी बनाती और सबको प्यार से खिलाती थीं। जुमे रात को देर रात तक काम चलता और हम अखबार बिछा कर डुंडे के कबाव और आलमगीर की दुकान के मस्त पराठे और सालन खाते थे। क्या हसीन दिन थे वे। मेरे पिताजी कहते लड़का मलेच्छहो गया और हाथ से जाता रहा। वे मेरे पेशे पर लानत मलानत भेजते नहीं थकते। लेकिन वक्त सब बदल देता है। वक्त के साथ राजी से राब्ता भी टूट गया। वह मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस डिवीजन का नेशनल हैड बन गया और मैं कम्बखत अखबारनवीसी की गलियों में भटकते हुए दुनिया भूला बैठा।  

अल-मकदूम एयरपोर्ट से हमारी कार बाहर निकली तो बातें शुरू हो गईं। बातचीत हिन्दुस्तान के हालात से शुरू होकर मुजफ्फर नगर के दंगों पर खत्म हुई। रेहान ने बताया कि यहां हम सबका दिल कैसे हर वक्त हिन्दुस्तान में अटका रहता है। स्टेलाइट डिश टीवी से घर पर हर वक्त सिर्फ हिन्दुस्तानी चैनल चलते रहते हैं। ये चैनल मुल्क से बिछड़ने का दर्द कम कर देते हैं। बालिका वधु, कामेडी विद कपिल, सीआईडी जैसे टीवी सीरियल हर हिन्दुस्तानी घर में मकबूल हैं। घर की चहारदीवारी में लगता ही नहीं कि आप परदेस में हैं। रेहान याद करते हैं कि कैसे वह दस साल पहले दुबई में भारत-पाक क्रिकेट के लिए वह अपने एक पाकिस्तानी रिश्तेदार से भिड़ गए थे। और फोन पर उन्होंने अपने पाकिस्तानी रिश्तेदार की मादर-फादर कर दी थी। बातचीत में मेरे लिए एक नई चीज ये निकल कर आई कि नई पीढ़ी पूरी तरह से हिन्दुस्तानी हो गई है। अब भारत-पाक मैच में पाक जीतने पर गलियों में पटाखे नहीं फूटते। 80 और 90 के दशक में ऐसा खूब होता था। दरअसल भारत के तमाम मुसलमानों के रिश्तेदार पाकिस्तान में बसे थे। पाकिस्तान से उनका एक स्वभाविक लगाव था। वह पराया मुल्क नहीं था। जबकि हिन्दुओं ने मुल्क के तकसीम होते ही पाकिस्तान को दुश्मन देश मान लिया। मुसलमान ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि उनके चचा, मामू, खालू सब वहीं बस गए थे। वे दुश्मन कैसे हो सकते थे। लेकिन मुसलमानों की नई पीढ़ी का पाकिस्तान से ऐसा कोई सीधा लगाव नहीं रह गया। यहीं इतना बड़ा कुनबा हो गया कि उनको कौन याद करे। अब पाकिस्तान, हिन्दुस्तानी सैनिकों की लाशें सरहद से इधर भेजता है तो उनका भी खून खौल उठता है। यह सच है। रेहान बताते हैं कि यहां दुबई में मेरे केवल एक जिगरी दोस्त हैं हरीश मिश्र जो लहसुन प्याज तक नहीं खाते । हमने अपने शाकाहारी पंड़ित मेहमानों को संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं को दी है।फिर मैंने पूछा नान वेज पंड़ित मेहमानों के लिए क्या इंतजाम है? रेहान भाई ने हंसते हुए कहा उनके लिए तपन दुबे हैं ना, वह भी मिश्राजी की तरह इंदौर से हैं। अपन तपन वाले। अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल वाले तपन मुस्कुराने लगे।

जारी

 

 

Monday, September 16, 2013

मीरगंज की इन तवायफों का क्या किया जाए?



देश के जिन जवानों को तिब्बत की सीमा पर शहीद होना चाहिए था उनका खून मीरगंज की बदनाम गलियों में बेवजह बह गया। यह झगड़ा न किसी तवायफ के साथ पैसे के लेनदेन से जुड़ा था न किसी एकतरफा इश्क से। यह एक दलाल टाइप के आशिक का क्षणिक आक्रोश था जिसे कुछ महीने पहले ही जिला प्रशासन ने बड़े सम्मान से राइफल का लाइसेंस दिया था। वह मुस्कान नाम की एक तवायफ का दलाल था और उसी के सामने जवानों ने उसे गिरा कर पीट दिया था। सो उसने राइफल से गोली दाग कर सरकारी लाइसेंस का हक अदा कर दिया। एक मायने में ये एक ऑनर किलिंग का केस था बस। दो दिन हल्ला मचा फिर सब शांत। मीरगंज फिर गुलजार है।
इसमें जवानों पर कोई बहुत ज्यादा हिकारत भरी नजर से नहीं देखा जा सकता क्योंकि अंग्रेजों ने मीरगंज का ये इलाका उन अंग्रेज फौजियों की यौन इच्छाओं की तृप्ति के लिए ही बसाया था जो लंदन से दूर हिन्दुस्तानियों पर हुकूमत कर रहे थे। अंग्रेजी फौज को गए जमाने बीत गए लेकिन मीरगंज के इस इलाके में आज भी ये धंधा बदस्तूर जारी है। आखिर क्यों? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? पुलिस, प्रशासन, देश का कानून या फिर खुद हम?
इसकी पड़ताल बहुत जरूरी है। इलाहाबाद में सबको पता है कि मीरगंज के इसी इलाके में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ था। यह इलाका तब भी इतना ही बदनाम था। मोतीलाल नेहरू की वकालत जब चल निकली तो उनका परिवार चमक दमक वाले सिविल लाइन्स के 9 एलिगन रोड के एक किराए के बंगले में आकर बस गया था। इसके बाद नेहरू परिवार आनंद भवन चला गया। नेहरू परिवार ने तरक्की की लेकिन मीरगंज के सभी लोग इतने किस्मत वाले नहीं थे। वह इलाका आज भी उतना ही बदनाम और दयनीय है जितना तब था।
शरीफ लोग मीरगंज की उन गलियों की तरफ नहीं जाते। इसलिए अगर आप ये समझते हैं कि मीरगंज बहुत मौज मस्ती और ग्लैमर से भरपूर कोई तड़क भड़क वाली जगह है तो आप बिलकुल गलत हैं। इन गलियों में परचून और चांदी गलाने की छोटी-छोटी अंधेरी दुकानों के बीच मकानों की सीढ़ियों पर आपको पाउडर और लिपिस्टक से रंगे हुए बेनूर और मुरझाए हुए चेहरे दिखेंगे जिनकी आंखों में उदासी और छटपटाहट के सिवा कुछ नहीं। छोटी बच्चियां जिनकी उम्र फ्रॉक पहन कर स्कूल जाने की है वह आपको यहां बेहद भदेस ढंग से जिस्म की नुमाइश करती मिलेंगी। पहली नजर में आपको पता लग जाएगा कि इन नाबालिग जिस्मों को जानवरों को दिए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन देकर खास इसी देह व्यापार के मकसद से तैयार किया गया है। यकीन जानिए इनमें कोई भी लड़की अपनी मर्जी या खुशी से इस धंधे में नहीं आई। इनमें ज्यादातर लड़कियां बलात्कार की शिकार हुईं या घर से भाग कर यहां आईं। या अपने ही परिवार के किसी सदस्य या दलालों द्वारा इस मंडी में बेच दी गईं। या फिर घर में गरीबी से तंग आकर यहां फंस गईं।



 दुनिया में जिस्मफरोशी को लेकर तीन तरह की व्यवस्थाएं हैं। पहली, जो जिस्मफरोशी को खतरनाक मानती है और इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है। इसे मानने वाले अमेरिका के अधिकांश राज्य और तकरीबन सारे मुस्लिम देश हैं जिनके यहां किसी भी तरह की जिस्म फरोशी कानूनन जुर्म है। इन देशों में वेश्या, ग्राहक और दलाल सबके लिए दंड की व्यवस्था है। बावजूद इसके इनमें से हर देश में जिस्मफरोशी का धंधा अवैध रूप से चल रहा है।
दूसरी व्यवस्था में जर्मनी, वियना, स्विट्जरलैंड जैसे देश हैं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दे दी है। इन देशों की मान्यता है कि वेश्याएं समाज में ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम करती हैं। ये शरीफ औरतों को मर्दो के यौन आक्रमण से बचाती हैं। इस व्यवस्था में इन वेश्याओं के लिए शहर के खास इलाके चिन्हित किए जाते हैं। उन्हें वहीं रखा जाता है। उनकी नियमित मेडिकल जांच होती है और वे सरकार को बाकायदा अपनी कमाई से टैक्स देती हैं। ब्रिटेन और भारत में पहले यही व्यवस्था थी। दिल्ली में जीबी रोड, मेरठ में कबाड़ी बाजार और इलाहाबाद में मीरगंज जैसे इलाके तभी बसे थे। तब हर शहर में इस तरह के ‘रेड लाइट’ इलाके होते थे।
तीसरी व्यवस्था ‘सहनशील व्यवस्था’ के नाम से प्रचलित हुई। 1949 के देह व्यापार और वेश्या शोषण के दमन संबंधी संयुक्त राष्ट्र संघ के समझौते पर कई देशों ने दस्तखत किए। इनमें ब्रिटेन, फ्रांस और हमारा महान भारत भी शामिल था। इस प्रणाली की मान्यता है कि जिस्म फरोशी का धंधा उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। ये सामाजिक बुराई है लेकिन इसे खत्म करना असंभव है। ज्यादा से ज्यादा इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ताकि सामाजिक स्वास्थ्य के लिए खतरा न पैदा करे। इस प्रणाली के तहत वेश्यावृत्ति अपराध नहीं। वह अपराध तब है जब उसे देह व्यापार का रूप दिया जाए और उसमें दलाल जैसे अन्य लोग भी शामिल हों। इस प्रणाली में भी वेश्या को दंडित करने की व्यवस्था नहीं है लेकिन अलग-अलग देशों ने और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इस बहाने वेश्याओं को दंडित करने का कानून बना दिया। लेकिन किसी भी देश ने ग्राहक को दंड देने का कानून नहीं बनाया क्योंकि जब वेश्यावृत्ति अपराध नहीं तो दण्ड काहे का।
समझौते के सात साल बाद भारत में नेहरूजी के जमाने में महिला और बालिका अनैतिक देह व्यापार दमन एक्ट (सीता) 1956 बनाया गया। इसमें कई कमियां दिखी तो 1987 में एक्ट को संशोधन कर इसे अनैतिक देह व्यापार नियंत्रण एक्ट (टीपा) का नाम दिया गया। यह कानून भी जिस्मफरोशी पर सीधे रोक नहीं लगाता। ये कानून औरतों व लड़कियों की खरीद फरोख्त करने वालों और दलालों को अपराधी मानता है।
अब देखिए कितनी विचित्र स्थिति है। जिस्मफरोशी अपराध नहीं क्योंकि भारत का कानून व्यस्क स्त्री-पुरुष को सहमति से यौन संबंध बनाने की इजाजत देता है। शर्त यह है कि यह संबंध सार्वजनिक तौर पर न बनाए जा रहे हों। फिर भी पुलिस वसूली के लिए वेश्याओं और ग्राहकों को परेशान करती है। इस एक्ट की धारा 3 कहती है कि किसी सार्वजनिक स्थल पर वेश्यालय नहीं चलाया जा सकता फिर भी मीरगंज में ये धंधा सार्वजनिक तौर पर खुलेआम चल रहा है। उसके दस कदम पर बादशाही मंडी पुलिस चौकी है। कानून का ऐसा मजाक दुनिया के किसी और कोने में शायद ही उड़ता हो। जाहिर है इलाहाबाद पुलिस और प्रशासन ने पीढ़ियों से इस धंधे को अघोषित रूप से कानूनी मान्यता दे रखी है। मेरी इस बात पर डीएम राजशेखर ने सख्त ऐतराज किया और कहा कि कोई शिकायत तो करें। ठीक है कोई शिकायत नहीं करता। या शिकायत करता भी है तो उसे फाइलों के कूड़ेदान में डाल दिया जाता है। मीरगंज मोहल्ले में कई घर ऐसे हैं जहां तख्ती टंगी है कि ‘ये फैमिली क्वार्टर है। ऊपर चढ़ना मना है।’ आप ये मनोस्थिति समझ सकते हंै जब किसी को अपने घर में तख्ती लगानी पड़ती है कि ‘ये चकलाघर नहीं है कृपया अंदर न आएं।’
क्या ऐसे में प्रशासन की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है? प्रशासन को शायद परवाह नहीं कि मीरगंज में एशिया में सबसे बड़ा ‘ओपन एचआईवी डिस्टीब्यूशन सेंटर’ चल रहा है। इन लड़कियों की न कोई मेडिकल जाँच होती है न मानीटरिंग। यहां की कितनी ही लड़कियां एचआईवी और दूसरे यौन संक्रमण रोगों से ग्रस्त हैं और अपने ग्राहकों को एड्स बांट रही हैं।
एनजीओ के दबाव में प्रशासन कभी-कभी अभियान चला कर इन मजबूर लड़कियों को वेश्यालयों से छुड़ाता है और उन्हें सरकारी सुरक्षा गृहों में भेज देता है जिसे नारी निकेतन का नाम दिया गया है। लेकिन सच तो यह है कि उन्हें इन नारी निकेतनों में भी न सिर्फ अपमानित किया जाता है बल्कि जरूरी सुविधाओं से महरूम रखा जाता है।
समाज इन्हें स्वीकार नहीं करता और सरकार के पास इनके पुनर्वासन की कोई योजना नहीं। आखिर में थक हार कर डाल का पक्षी वापस अपनी डाल पर आ जाता है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। अब सवाल है दुनिया के सबसे प्राचीन धंधे के चक्रव्यूह में फंसी इन बेचारी बेकसूर लड़कियों का क्या किया जाए? क्या आप कोई रास्ता बता सकते हैं?

Friday, September 13, 2013

अपनी बात




मां सावित्री शुक्ला

और पिता

पं. श्री सीताराम शुक्ल

के चरणों में

सादर समर्पित

जिनका कहना है कि

गांधी को समझने के लिए

तुम्हें कई और जन्म लेने होंगे


आभार

इतिहास से गुजरना एक अंधे युग से गुजरने जैसा है। एक सीमा पर आकरनो - इंट्रीकी तख्ती लग जाती है कि आप उपलब्ध साक्ष्यों के आगे नहीं बढ़ सकते। मैं शुक्रगुजार हूं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन प्रकाशित महात्मा गांधी संपूर्ण वाङ्मयके उन अज्ञात शोधार्थियों का जिन्होंने रात - दिन मेहनत करके महात्मा गांधी द्वारा लिखित सामग्री दुनिया के हर कोने से एकत्र की। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार का भी आभारी हूं जिसने अतीत को जिंदा रखने के लिए तमाम दुर्लभ पत्र और अन्य दस्तावेज संजोकर रखे हैं।

इस किताब को लिखते वक्त महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य व्रत को लेकर मेरी सर्वश्री नवीन जोशी, एम.एम. बहुगुणा, बृजेश शुक्ल, उमेश रघुवंशी, मंजरी मिश्र, हेमंत शर्मा, तारा पाण्डे, राकेश मंजुल, शैली, .एस.पांडेय, शशांक तिवारी और ऋतिका आदि से लंबी - लंबी बहसें हुईं। कई बार तो झगड़े तक हुए। इन बहसों और आलोचनाओं ने प्रेरणा और प्रोत्साहन का काम किया। प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश, प्रभाष जोशी, ज्ञानरंजन, विष्णु नागर, डॉ. जय नारायण बुधवार, आदि लेखक - संपादकों ने समय - समय पर मार्ग दर्शन किया। लेखक - पत्रकार दयानंद पांडेय और अयोध्या के युवा कवि यतींद्र मिश्र का विशेष रूप से आभारी हूं, जिन्होंने इस कार्य को अंतिम रूप देने में मेरी मदद की। मैं लखनऊ के गांधी भवन पुस्तकालय के लाइब्रेरियन सुशील चंद्र गुप्त का भी आभारी हूं जिन्होंने इसयज्ञके लिए सामग्री जुटाने में हर संभव मदद की।

मैं अपनी पत्नी ज्योति और बेटी अरुंधती का भी आभारी हूं जिनके हिस्से का काफी वक्त मैंने इस किताब को दिया। मेरे शुभचिंतक जगदीश यानी काकाजी छोटा भाई सचिन, उसकी पत्नी तूलिका और बिटिया आनंदिनी अगर पीछे नहीं पड़ते तो यह किताब दो - तीन साल और आगे खिंच जाती।

- दयाशंकर शुक्ल सागर

अपनी बात

सत्य के मुखमंडल पर

एक स्वर्णावरण चढ़ा हुआ,

प्रभु! इस आवरण को

हटाओ

ताकि मैं यथार्थ में

सत्य के दर्शन कर सकूं।

- ईशावास्य उपनिषद् से
महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु से ठीक एक साल पहले कहा था किमैं शारीरिक इच्छा से मुक्त हूं या नहीं, इस बात का पता शायद मेरी मृत्यु के बाद लगे।लेकिन दुर्भाग्य है कि गांधीजी की मौत के बाद बुद्धिजीवियों ने इस प्रश्न पर चालाकी से चुप्पी साध ली। उन्हें डर था कि यह प्रश्न अगर उठाया गया तो गांधीजी की महान तसवीर खंडित होगी। गांधीवाद के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकना और दुकान चलाना कठिन हो जाएगा। इसलिए इसमहान प्रयोगसे जुड़े तमाम सारे सवाल खामोशी से दफन कर दिए गए। सत्य और अहिंसा के अलावा महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य पर कीमती प्रयोग किए। महात्मा के सत्य और अहिंसा से जुड़े प्रयोगों पर बहुत काम हुआ लेकिन ब्रह्मचर्य के प्रयोग को इतिहास की रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।

चीन के बौद्धिक जगत में एक कहावत मशहूर है - हर महापुरुष एक सामाजिक संकट है।महात्मा गांधी के बारे में भी यह बात बहुत दिनों तक कही जाती रही। लेकिन हत्यारे नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में तीन गोलियां उतार कर महात्मा गांधी के जीवन और उनके विचारों पर चलने वाली तमाम बहसों को हमेशा के लिए शांत कर दिया। महात्मा गांधी अगर अपनी स्वाभाविक मौत मरते तो निःसंदेह उनके विचारों, आदर्शों और उनके प्रयोगों पर आलोचनात्मक ढंग से टीकाएं सामने आतीं। तब हम अपने महात्मा को शायद संपूर्णता से समझ पाते और उनके बारे में अपनी कोई राय कायम करते। लेकिन भारत का धर्मभीरु समाज मृतकों को उनके सारे गुनाहों के लिए केवल माफ कर देता है बल्कि उन पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझता।

गांधीजी पर बहुत लिखा गया और थोड़ा - बहुत उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर भी। इस संदर्भ में मैंने जितने लेख, किताबें और टिप्पणियां आदि पढ़ीं उनमें इस प्रयोग का जिक्र टुकड़ों में पाया। सब कुछ बहुत दबे - ढके शब्दों में था ताकि गांधीजी कामहात्मापनकहीं आहत हो। सच तो यह है कि इन आधी - अधूरी जानकारियों ने ही गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के बारे में गलतफहमी का माहौल पैदा किया।

ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर पश्चिम के विद्वानों ने काफी काम किया। आर्थर कोएलस्कर ने 1960 मेंदॅ लोटस एंड दॅ रैबिटलिखी। एरिक एच एरिक्सन ने 1969 मेंगांधी ट्रूथ : आन ओरिजिन्स आफ मिलीटेंट नान - वायलेंसलिखी। वेद मेहता ने 1976 मेंमहात्मा गांधी एंड हिज अपोसेल्सनाम से एक बेहतरीन किताब लिखी। लेकिन अंग्रेजी में लिखी ये किताबें आम हिन्दी पाठकों की समझ और पहुंच से बहुत दूर थीं। पर इन किताबों और लेखों ने यह प्रेरणा जरूर दी कि इस गंभीर विषय पर एक लंबे और सार्थक काम की जरूरत है।

महात्मा के ब्रह्मचर्य प्रयोग पर काम करते वक्त कई मित्रों ने पूछा कि मैं कीचड़ में कंकड़ डालने का काम क्यों कर रहा हूं? जाहिर था कि वे लोग मेरे इस काम से प्रसन्न नहीं थे। मजे की बात यह थी कि इनमें से अधिकांश लोग गांधीजी के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। उन लोगों ने कभी गांधीजी के बारे में पाठ्य पुस्तकों में दर्ज बातों के अलावा कुछ आगे पढ़ने की जहमत की थी। लेकिन फिर भी वह गांधीजी के खिलाफ कुछ भी पढ़ने - सुनने को राजी नहीं थे।

कुछ मित्रों का कहना था कि हिन्दी में यह किताब महात्मा की छवि ध्वस्त करेगी। राष्ट्रपिता के बारे में ऐसी बातों से कितनों की भावनाएं और आस्थाएं आहत होंगी। एक आदमी जो इस दुनिया में जीवित नहीं है उसके बारे में लिखने का क्या मतलब? मुझे यह तर्क बेमानी लगा। इस देश में गांधीजी की छवि इतनी कमजोर नहीं जो एक मामूली - से धक्के से टूट कर बिखर जाए। ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर यह बहस उस समय भी हुई थी जब खुद महात्मा जिंदा थे। उन्होंने अपने ऊपर लगे एक - एक आरोप का जवाब दिया। ये जवाब बाकायदा लिखत - पढ़त में आज भी मौजूद और सार्वजनिक हैं। यह अलग बात है कि ये जवाब कई दफा बहुत ज्यादा संतोषजनक और तर्कसंगत नहीं दिखते। लेकिन अगर पाठकों को उन जवाबों से संतुष्टि मिल जाती है तो यह गांधीजी और उनके प्रयोग की सफलता कही जा सकती है या फिर गांधीजी के प्रति उनकी कोरी आस्था। इस विषय में अंतिम फैसला मैंने पाठकों पर ही छोड़ दिया है।

इतिहास का पुनर्लेखन या कहें पुनर्पाठ एक खतरे से भरा खेल है। वक्त के साथ घटनाओं के संदर्भ और अर्थ बदल जाते हैं। समय उन ऐतिहासिक घटनाओं को समझने का नजरिया बदल देता है। एड्स के इस खतरनाक युग में ब्रह्मचर्य की अपनी महत्ता और जरूरत है। गांधीजी के युग में ब्रह्मचर्य चाहे इतनी बड़ी समस्या रही हो लेकिन आज के युग में ब्रह्मचर्य केवल प्रासंगिक है बल्कि यह प्रश्न अनिवार्य भी होता जा रहा है। अब समय गया है जब हम ब्रह्मचर्य पर नए और आधुनिक ढंग से सोचें और उसे पुनर्परिभाषित करें। और इसकी शुरुआत अगर महानायक महात्मा गांधी से हो तो क्या बुरा है।

डीजी तेंदुलकर की महान ग्रंथ शृंखलामहात्माकी भूमिका लिखते वक्त जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - महात्मा गांधी के जीवन की असली कहानी वही लिख सकता है जो उनके जैसा महान हो।लेकिन मुझे लगता है कि अब वक्त गया है जब हम नए नजरिए से अपने महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखें। और ऐसा करते वक्त हम किसी शल्य चिकित्सक की तरह तटस्थ हों। तब मन में उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा -भक्ति हो, घृणा या तिरस्कार का कोई भाव। एक तरह की अनासक्ति हो। यह जोखिम भरा काम है। पर ये जोखिम उठाने होंगे।

महात्मा के ब्रह्मचर्य का प्रयोग उनके जीवन के अंतिम समय तक चलता रहा। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इससे पहले महात्मा यह कभी नहीं बता पाए कि उनके ब्रह्मचर्य के महान प्रयोग का क्या नतीजा निकला। वह इस अद्भुत प्रयोग के नतीजे दुनिया को नहीं दे पाए। महात्मा नहीं बता सके कि वह युवा लड़कियों के साथ नग्न सो कर पूर्ण ब्रह्मचर्य प्राप्त कर सके अथवा नहीं। उनके प्रयोग का रहस्य उनकी राख के साथ ही गंगा की पवित्र धारा में बह गया। लेकिन इस प्रयोग से जुड़े कई सवाल वह पीछे छोड़ गए। जिनके जवाब खोजने का साहस पुरानी पीढ़ी तो नहीं जुटा सकी, शायद नई पीढ़ी खोज ले।

2अक्टूबर 2006