दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, October 7, 2013

शुक्रिया जौनपुर के पत्रकार दोस्तों






जौनपुर के पत्रकारों ने अपने प्रेस क्लब के 10वें स्थापना दिवस के मौके पर मुझे बुलाया था। पीटीआई जौनपुर के पत्रकार डा. मधुकर तिवारी का न जाने कितनी दफा फोन आया। मैं दुबई से लौटा और बेतरह थका हुआ था। लेकिन ग्रामीण अंचल के पत्रकारों को लेकर मेरे भीतर एक अलग तरह का लगाव है। बहुत इच्छा थी कि जाऊं पर विन्रमता से क्षमा मांग ली। फिर सिराज मेहंदी साहब का फोन आ गया। उन्होंने न केवल पुरानी दोस्ती का हवाला दिया बल्कि कहीं से गाड़ी का इंतजाम करके मेरे घर के सामने खड़ी करा दी। सो इलाहाबाद से निकल पड़ा और टूटी फूटी सड़कों को पार करते हुए तीन घंटे में मैं जौनपुर प्रेस क्लब के सामने था।
तय वक्त से तीन घंटे देरी से पहुंचा। देखा वहां हमारी उप्र मान्यता कमेटी के अध्यक्ष हेमंत तिवारी भी मौजूद है। वह जौनपुर के हैं मेरे सीनियर भी रहे हैं। जौनपुर के सभी अखबारों और चैनलों के पत्रकार जिस बेचैनी से मेरा इंतजार कर रहे थे उससे मैं अभिभूत हो गया। मैं खुद पत्रकार हूं और जानता हूं कि हम पत्रकार किसी को सेटते नहीं। होगा कोई तुर्रम खान। सबसे समझौता कर लेंगे स्वाभिमान से नहीं। और फिर मैंने देखा कि एक पत्रकार दूसरे पत्रकार का कैसे सम्मान करता है। जैसे एक राजा दूसरे राजा का करता है। जैसा सम्मान सिकंदर ने पराजित राजा पोरस के साथ किया होगा। कमरे में कोई सौ सवा सौ पत्रकार रहे होंगे और सबने एक एक करके मुझे गेंदे की माला पहनाई। ये सब मुझे बहुत अटपटा लग रहा था। बहुत संकोच लग रहा था क्योंकि ऐसा बर्ताव मैंने अब तक सिर्फ राजनेताओं के साथ होते हुए देखा था। लेकिन अपने पत्रकार मित्रों के सम्मान और स्नेह के आगे मैं नतमस्तक था। समझ नहीं पाया कि क्या लोग सम्मानित होने के लिए उतावले भी होते हैं? क्या सम्मान जैसी चीज खरीदी जा सकती है? क्या ये जुगाड़ से हासिल की जा सकती है?
मैं जानता हूं जौनपुर के ये पत्रकार किसी संपादक का सम्मान नहीं कर रहे थे। ये अपने बीच के एक पत्रकार का सम्मान कर रहे थे क्योंकि उन्होंने मुझे बताया कि पिछले 20 सालों से वे मेरी लिखी खबरें पढ़ते रहे हैं। और खबरें बता देती हैं कि आप कितने ईमानदार या बेईमान हैं? खैर बातचीत शुरू हुई और मैंने उन्हें बताया कि असली खबरें गांव से निकलती हैं। अब तक दो खबरों पर मुझे पत्रकारिता के दो बड़े अवार्ड मिले। दोनों खबरें शहर में बैठ कर नहीं लिखी गईं। सीतापुर में मनरेगा घोटाला और बाराबंकी का सिलाई मशीन घोटाला गांव में बेहद नंगे और भेदस रूप में मिला। मैंने देखा किस तरह गरीब मजदूरों का मनरेगा का पैसा ग्राम प्रधान, सहकारी बैंक, बीडीओ और डीएम मिल कर खा रहे हैं। मैंने उसका पर्दाफाश और उसके बाद राज्य सरकार को नियम बनाना पड़ा कि अब मजदूरों का पैसा राष्ट्रीयकृत बैंकों से ही भुगतान करना होगा। 
खैर वहां से गदगद होकर लौटा तो अगले दिन जौनपुर से लोकेश त्रिपाठी का फोन आया। मेरी उनसे एक बार की कभी मुलाकात है। बहुत नाराज थे। कहने लगे आप आए और बताया भी नहीं। मैंने बताया कि बहुत हड़बड़ी में आया। लेकिन जौनपुर वालों ने जो सम्मान दिया उससे मैं गदगद हूं। तो उन्होंने कहा एक कहानी सुनिए-‘एक शराबी को नाले में एक चमकता हुआ पत्थर मिला। उसने उठा लिया। सोचा बेच दूंगा तो दो दिन दारू का इंतजाम हो जाएगा। वह चमकदार पत्थर लेकर आगे बढ़ा तो चरवाहे ने वह पत्थर देखकर उसे खरीदने की इच्छा जताई। चरवाहे ने सोचा ये चमकदार पत्थर भेड़ के गले में लटका दूंगा तो उन्हें रात के अंधेरे में भी पहचान लूंगा। उसने 10 रुपए में शराबी से पत्थर खरीद लिया। चरवाहा आगे बढ़ा तो एक जौहरी उधर से गुजरा। जौहरी ने देखा एक बहुमूल्य पत्थर भेड़ के गले में लटका है। उसने 100 रुपए में वह चमकदार पत्थर चरवाहे से खरीद लिया। जैसे ही वह पत्थर जौहरी के हाथ में आया उसकी चमक गायब हो गई। जौहरी हतप्रभ था। तभी पत्थर में से आवाज आई-‘शराबी और चरवाहा मेरा मूल्य नहीं जानते थे। पर तुम तो जानते थे। फिर भी तुमने मेरी कीमत 100 रुपए लगाई। तुम मेरे लायक नहीं हो।’
त्रिपाठी जी बोले-‘आप वैसे ही चमकदार पत्थर हैं। और हम जौनपुर वाले मूर्ख जौहरी नहीं हैं।’ अब बताइए मैं उनसे क्या बोलूं। जौनपुर के एक लगभग अपरिचित पत्रकार ने मेरी बोलती बंद कर दी।
         

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