दयाशंकर शुक्ल सागर

Tuesday, October 1, 2013

डरावना रेगिस्तान और दोस्तों का दुबई


अरबों के देश में-1


 

लखनऊ से पाकिस्तान और फिर अरब सागर पार करते हुए दुबई का सफर सचमुच दिलचस्प है। अरब सागर पार करें तो हवाई जहाज से नीचे डरावना रेगिस्तान साफ दिखने लगता है। ये रेगिस्तान फिल्मों में दिखने वाला साफ सुथरा और सलीकेदार नहीं है। बल्कि ये सीमेंट जैसी काली परतदार रेत का रेगिस्तान है जिसमें रेत की गहरी और खौफनाक खाइयां हैं। ये बहुत नया रेगिस्तान है जहां कभी अरब सागर रहा होगा। दूर-दूर तक सिर्फ सन्नाटा। सभ्यता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं। न कोई दरख्त, न पौधा, न हरियाली, न परिंदे, न जिंदगी का कोई और नामो निशान।  जहाज की खिड़की से इस रेगिस्तान को देखते हुए जिस्म कई दफा इस ख्याल से सिहर गया कि खुदा न खास्ता कोई गरीब यहां इस वीराने में फंस जाए तो उसका क्या अंजाम हो?

लेकिन जहाज जैसे दुबई के आसमान पर पहुंचा तो नजारा बदला हुआ था। एक तरफ ईरान दूसरी ओर ईराक और तीसरी तरफ सऊदी अरब। इन तीन देशों के ठीक बीच परर्शियन गल्फ में समन्दर के किनारे दुनिया की सबसे शानदार और खूबसूरत इमारतों का जंगल।  दुबई के अल-मकदूम इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एयर इंडिया एक्सप्रेस का थका हुआ जहाज हॉफते-हॉफते सही पर वक्त से थोड़ा पहले पहुंच गया। सामने इमीग्रेशन काउंटर पर सिर से पांव तक अरब के परम्परागत सफेद लिबास में लिपटे इमीग्रेश्न के अफसर। दो काउंटर पर काले लिबास में महिला अफसर बैठी हैं। सबके सिर ढके हुए हैं। लेकिन चेहरे पर बुर्का नहीं। वे मर्दों से भी डील कर रही हैं। फितरत से सब के सब सरल और सहज। न सिक्योर्टी का तामझाम न तलाशी की दहशत। मेरे पास वीजा की सिर्फ फोटो स्टेट कापी है। पासपोर्ट देखने के बाद उस अरबी अफसर ने उसी फोटो स्टेट वीजा पर ठप्पा लगाया और अरबी में कुछ बोला जिसका मतलब था- दुबई का आपका स्वागत है।दुबई का ये एयरपोर्ट दुनिया का अकेला एयरपोर्ट है जहां आप सिर्फ 20 सकेंड में इमीग्रेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी कर स्मार्ट गेट से शहर में दाखिल हो सकते हैं। मुझे अमेरिका के न्यू जर्सी का इमीग्रेशन काउंटर याद आया जहां तलाशी के नाम पर बस कपड़े नहीं उतारे थे। 

किसी भी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से बाहर निकलने से पहले मैं फॉरन करेंसी एक्सचेंज से रुपए को उस देश की मुद्रा में परिवर्तित कराता हूं। इससे थोड़ी सहूलियत हो जाती है। मैंने दस हजार रुपए दिए बदले में 540  दिरहम मिले। दिरहम दुबई की करेंसी है। सौ-सौ के 5 नोट और दस के 4 नोट।  सरदार मनमोहन सिंह के राज में अपने देश के रुपए की औकात देखकर हमेशा की तरह फिर शर्मिदगी हुई। चुपचाप नोट मैंने अपने पर्स में रख लिए।

दुबई में मैं मुशायरा और कवि सम्मेलन के एक जलसे में शिरकत करने आया हूं। यह सालाना जलसा हमारी एसोसिएशननाम की संस्था कराती है। अप्रवासी भारतीयों की यह संस्था हर साल मुन्नवर राना, राहत इंदौरी, इकबाल अशार, डा. तारिक कमर जैसे शायरों और कुमार विश्वास जैसे कवियों को आमंत्रित करती है। साथ में किसी एक हिन्दुस्तानी साहित्यकार या पत्रकार को मोइन-उर-रहमान किदवाई लिटररी एक्सीलेंस अवार्डसे नवाजती है। इस साल के अवार्ड के लिए मुझे चुना गया था। मुझे बताया गया कि ये अवार्ड मेरी स्टोरी इस आंतकी की खता क्या हैऔर महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोगजैसी नामुराद किताब के लिए दिया जा रहा है जिसे तारीफ कम और लानते ज्यादा मिलीं।  दुबई में हमारी ऐसोसिएशनकोई पांच साल पहले वजूद में आई। रेहान लखनऊ से और शाजिया किदवई और फरहान वास्ती बाराबंकी से कई साल पहले दुबई में नौकरी करने आए थे। रेहान लाजवाब स्वाद वाली आईसक्रीम कंपनी बास्किन राबिन से जुड़े हैं। शाजिया अबूधाबी कामर्शियल बैंक से। आफताब अल्वी मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस ग्रुप से जुड़े हैं और बाराबंकी मसौली के मीठी जवान वाले फरहान वास्ती भी किसी मल्टी नेशनल कंपनी के कारिंदे हैं। सभी तरक्कीपसंद और शेरो शायरी के जबरदस्त शौकीन हैं। अरबों के इस देश में बाराबंकी के बड़ा गांव की शाजिया का आत्मविश्वास तो गजब है। वह पढ़ी लिखी होशमंद और खूबसूरत खातून हैं। अपने दिल को बखूबी समझती हैं और परदेस में अपनी मुशकिलात से वाकिफ हैं। अपनी ड्यूटी से वक्त निकाल कर हिन्दुस्तान की ये बिटिया अपने दोस्तों के साथ मुशायरे को कामयाब बनाने की तैयारियों में जुटी है। उनके शौहर भी साथ में हैं। शाजिया कहती हैं ये सिलसिला एक शौक के रूप में शुरू हुआ था जो अब एक जूनन बन गया है। 

दुबई में आधी से ज्यादा आबादी हिन्दुस्तानियों की है। ये सब अपने मुल्क को बेतरह मिस करते हैं। सो एक दिन ख्याल आया कि क्यों न यहां हर साल एक मुशायरा और कवि सम्मेलन कराया जाए। दुबई हिन्दुस्तानी कल्चर से बावस्ता होगा। शुरू में तो इन लोगों ने अपनी तनख्वाह के पैसे जोड़ कर मुशायरा कराया। यह प्रोग्राम कामयाब हुआ तो दुबई में कुछ बड़ी कंपनियों के स्पांसर भी मिल गए। यू-ट्यूब पर जारी मुशायरे के वीडियो को अब तक लाखों लाइक हासिल हो चुकी हैं। बाद के सालों में हमारी एसोसिएशन ने आर्थिक रूप से कमजोर शायर व कवियों की मदद के लिए बैनेफिशरी अवार्ड शुरू किया। पिछले दो साल में ये अवार्ड शायर अजमल सुल्तानपुरी व बुद्ध देव शर्मा को दिया गया। हमारी एसोसिएशन ने साहित्यकारों के लिए लिटररी अवार्ड भी शुरू किया। पिछले साल ये अवार्ड प्रो. वली उल्लाह हक अंसारी को मिला। प्रो. अंसारी लखनऊ में पर्शियन के अकेले प्रोफेसर हैं जिन्हें राष्ट्रपति अवार्ड भी मिल चुका है। इस साल के लिटटरी एक्सीलेंस अवार्ड के लिए इस खाकसार को चुना गया। सबसे बड़ी बात जिस मुहब्बत और खुलूस से नौजवान अप्रवासियों की ये टोली भारत से आए मेहमान शायरों और कवियों की खातिरदारी में पलक पावड़े बिछा देती है वह वाकई दिल छू लेने वाली है।

मुझे बताया गया था कि एयरपोर्ट की लॉबी आपको कोई रिसीव करने आएगा। लेकिन लॉबी में मुझे कोई नहीं दिखा। मैं वहीं एयरपोर्ट पर कोस्टा कैफे में मीडियो अमेरिकैनो का आर्डर देकर उनका इंतजार करने लगा। वहीं बगल की कुर्सियों पर लखनऊ के डा. तारिक कमर के संग कुछ और शायर भी बैठे अपने मेजबान का इंतजार कर रहे थे। हालांकि मैं तब उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। आधा घंटा बीत गया पर कोई नहीं आया। ऐसा पहली दफा हुआ कि मेरे पास आयोजकों का स्थानीय फोन नम्बर भी नहीं था। न पता था कि कहां जाना है। अजनबी देश में यह अनुभव सचमुच खौफनाक है। कुछ रेगिस्तान के वीराने में फंसने की दहशत सरीखा अनुभव जो मैंने जहाज पर महसूस किया था। लेकिन अल्लाह का शुक्र है ये हालात ज्यादा देर नहीं टिके। भीड़ में रेहान का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा तो राहत की सांस ली। रेहान ने आते ही देरी के लिए माफी मांगी और बताया कि वे शाम के ट्रैफिक में फंस गए थे। रेहान भाई से तीन महीने पहले लखनऊ में मुलाकात हुई थी इंन्दिरा प्रतिष्ठान के एक मुशायरे में। उनसे एक पुराने दोस्त आफताब अल्वी ने मिलवाया था। रेहान मियां बेहद शरीफ और सलीकेदार इंसान हैं। उनके चहेरे का भोलापन आकर्षित करता है। उनके चेहरे में एक खास तरह की खुद एतिमादी यानी आत्म विश्वास झलकता है ये कहने की जरूरत नहीं कि ये खुद एतिमादी इंसान के किरदार के लिए कितनी जरूरी है। 

खैर आफताब को हम लोग राजी के नाम से जानते हैं। राजी अखबारनवीसी के शुरूआती दिनों के दोस्त हंै। तब वे अपने बड़े भाई शहाब अल्वी के साथ हफ्तेवार अखबार मानस मेलनिकाला करते थे। तब मैंने उर्दू हफ्तेवार जदीद मरकजसे अपना करियर शुरू किया था। आफसेट प्रेस जमाना था। कटिंग पेस्टिंग से अखबार निकलता था। खबर लिखने से लेकर उसे ब्राडशीट पर चिपकाने तक का काम हमें खुद करना पड़ता था। हमारे एडीटर हिसाम सिद्दीकी नफासतपंसद और जिन्दा दिल इंसान थे। तनख्वाह कम देते थे लेकिन काम की पूरी आजादी देते थे। वह कलम से इंकलाब लाने के कायल थे। तब मुलायम की नाक के बाल हुआ करते थे। उन्होंने समाजवादी जिन्दाबाद के खूब नारे लगाए। मुलायम को मुसलमानों का कायल बनाने के गुनाह में वह भी शामिल थे। पर अब सुनते हैं समाजवादी लीडर खंजर लेकर उनकी तलाश में हैं। खैर प्रेस में बेहद घरेलू माहौल था और उनकी शरीके हायात और हमारी साहेबा भाभी लाजवाब बिरयानी बनाती और सबको प्यार से खिलाती थीं। जुमे रात को देर रात तक काम चलता और हम अखबार बिछा कर डुंडे के कबाव और आलमगीर की दुकान के मस्त पराठे और सालन खाते थे। क्या हसीन दिन थे वे। मेरे पिताजी कहते लड़का मलेच्छहो गया और हाथ से जाता रहा। वे मेरे पेशे पर लानत मलानत भेजते नहीं थकते। लेकिन वक्त सब बदल देता है। वक्त के साथ राजी से राब्ता भी टूट गया। वह मुम्बई में श्रीराम जनरल इंशोरेंस डिवीजन का नेशनल हैड बन गया और मैं कम्बखत अखबारनवीसी की गलियों में भटकते हुए दुनिया भूला बैठा।  

अल-मकदूम एयरपोर्ट से हमारी कार बाहर निकली तो बातें शुरू हो गईं। बातचीत हिन्दुस्तान के हालात से शुरू होकर मुजफ्फर नगर के दंगों पर खत्म हुई। रेहान ने बताया कि यहां हम सबका दिल कैसे हर वक्त हिन्दुस्तान में अटका रहता है। स्टेलाइट डिश टीवी से घर पर हर वक्त सिर्फ हिन्दुस्तानी चैनल चलते रहते हैं। ये चैनल मुल्क से बिछड़ने का दर्द कम कर देते हैं। बालिका वधु, कामेडी विद कपिल, सीआईडी जैसे टीवी सीरियल हर हिन्दुस्तानी घर में मकबूल हैं। घर की चहारदीवारी में लगता ही नहीं कि आप परदेस में हैं। रेहान याद करते हैं कि कैसे वह दस साल पहले दुबई में भारत-पाक क्रिकेट के लिए वह अपने एक पाकिस्तानी रिश्तेदार से भिड़ गए थे। और फोन पर उन्होंने अपने पाकिस्तानी रिश्तेदार की मादर-फादर कर दी थी। बातचीत में मेरे लिए एक नई चीज ये निकल कर आई कि नई पीढ़ी पूरी तरह से हिन्दुस्तानी हो गई है। अब भारत-पाक मैच में पाक जीतने पर गलियों में पटाखे नहीं फूटते। 80 और 90 के दशक में ऐसा खूब होता था। दरअसल भारत के तमाम मुसलमानों के रिश्तेदार पाकिस्तान में बसे थे। पाकिस्तान से उनका एक स्वभाविक लगाव था। वह पराया मुल्क नहीं था। जबकि हिन्दुओं ने मुल्क के तकसीम होते ही पाकिस्तान को दुश्मन देश मान लिया। मुसलमान ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि उनके चचा, मामू, खालू सब वहीं बस गए थे। वे दुश्मन कैसे हो सकते थे। लेकिन मुसलमानों की नई पीढ़ी का पाकिस्तान से ऐसा कोई सीधा लगाव नहीं रह गया। यहीं इतना बड़ा कुनबा हो गया कि उनको कौन याद करे। अब पाकिस्तान, हिन्दुस्तानी सैनिकों की लाशें सरहद से इधर भेजता है तो उनका भी खून खौल उठता है। यह सच है। रेहान बताते हैं कि यहां दुबई में मेरे केवल एक जिगरी दोस्त हैं हरीश मिश्र जो लहसुन प्याज तक नहीं खाते । हमने अपने शाकाहारी पंड़ित मेहमानों को संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं को दी है।फिर मैंने पूछा नान वेज पंड़ित मेहमानों के लिए क्या इंतजाम है? रेहान भाई ने हंसते हुए कहा उनके लिए तपन दुबे हैं ना, वह भी मिश्राजी की तरह इंदौर से हैं। अपन तपन वाले। अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल वाले तपन मुस्कुराने लगे।

जारी

 

 

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