दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, October 17, 2013

साहित्य के माफिया डॉन के लिए


 मैं राजेन्द्र यादव का न वकील हूं न कोई जज। महामंडलेश्वर भी नहीं जो उन्हें धर्मात्मा की उपाधि दूं। मैंने उनके बारे में अपनी निजी राय और अनुभव फेसबुक पर ‘राजेन्द्र यादव के नाम एक खत’ के रूप में शेयर किए हैं। इस पर कई तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। कि मैं उन्हें क्लीन चिट दे रहा हूं या धर्मात्मा के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा हूं। हो सकता है आप या अन्य महानुभव उससे सहमत न हों। इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन आप उनकी तुलना आसाराम जैसे धूर्त आदमी से कतई नहीं कर सकते जो अपने भोले भाले पर बेवकूफ भक्तों की आध्यात्मिक भावनाओं को ठगता है और उनकी बेटियों को अपने आश्रम में बुलाकर तरह तरह की तांत्रिक क्रियाएं करता है। आसाराम की आंखों में मैंने हमेशा एक चालक लोमड़ी वाली चमक देखी है। पर मुझे याद नहीं आता कि ‘बीमार विचारों’ वाले इस साहित्यकार पर कभी किसी हिंसक या वनैले जानवर की तरह किसी महिला पर टूट पड़ने का आरोप लगा हो। साहित्यिक समारोहों की रिपोर्टिंग के दिनों में मैंने उन्हें हमेशा महिला फैन्स और लेखिकाओं के बीच में घिरे हुए देखा है। सिगार का कश लगाते वक्त वह और भी खतरनाक लगने लगते हैं। मैंने यह भी देखा कि उन समारोहों के लंच या डिनर के दौरान अन्य बुजुर्ग-युवा साहित्यकार और कथाकार कैसे जलन भरी नजरों से इस दिलफेक बुड्ढे को देखते थे। उनमें से कइयों की आंखों में मैंने तब भी आसाराम की आंखों वाली चमक देखी थी। मैंने कई बार अपनी अखबारी रिपोर्ट लिखा भी कि काला चश्मा पहने ये आदमी मुझे हमेशा मारियो पूजो के उपन्यास के नायक ‘गॉडफादर’ जैसा डराता है। कुछ कुछ फ्रांसिस फोर्ड की अमेरिकी फिल्म ‘दि गॉडफादर’ के नायक जैसा। हालांकि गॉडफादर ने परिवार की परिकल्पना को एक गजब की ऊंचाई दी। शायद इसलिए अमेरिका ने उसे नायकत्व प्रदान किया। पर इस मामले में राजेन्द्र यादव एकदम उलट हैं। मैंने उन्हें हमेशा साहित्य की दुनिया का माफिया डॉन कहा। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वह अपनी शर्तों पर कहानियां छापते हैं। प्रगतिशीलता की उनकी परिभाषा एकदम अलग है। वह मुंशी प्रेमचंद की ‘हंस’ के संपादक हैं लेकिन उनकी ‘हंस’ में प्रेमचंद कहीं नहीं दिखते। ज्यादातर कहानियां अब प्यारेलाल आवारा टाइप लेखक/लेखिकाओं की सस्ती कथाओं जैसी होती हैं। साहित्य की अंधेरी कोठरी की घुटन से मुक्त होकर कई लेखिकाएं ‘ अब हंस’ में सेक्स पर खुल कर लिख पा रही हैं। और राजेन्द्र यादव उन पर निर्मल बाबा की तरह ‘कृपा’ बरसा रहे हैं। युवा लेखकों को ये बात बेशक तकलीफदेह लगती होगी। लेकिन माफिया दूसरों की तकलीफों की परवाह कहां करते हैं। मैं कहानियां न पढ़ता हूं न लिखता हूं। सच तो ये है कि मेरे पास ‘हंस’ पढ़ने का वक्त नहीं है। किसी कहानी की चर्चा हो जाती है तो पुराना अंक निकाल कर वह कहानी पढ़ लेता हूं।
पर इतना जानता हूं कि राजेन्द्र यादव ने किसी न किसी बहाने बाकायदा लिखत पढ़त में अपने कई सारे गुनाह कबूल किए हैं। ये आसान बात नहीं है। गांधी भी ये नहीं कर पाए थे। आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ लिखते वक्त वह अपनी कथित ‘आध्यात्मिक पत्नी’ श्रीमती सुशीला देवी का पूरा प्रसंग छुपा ले गए। फिर राजेन्द्र यादव खुदा नहीं हैं और न धर्मात्मा जिनसे हमेशा सच बोलने की उम्मीद की जाए। उन्होंने कभी गांधी की तरह सत्य के प्रयोग का दावा भी नहीं किया। मेरी समझ से ये बिलकुल गैरजरूरी विवाद है जिसे कथित बाप-बेटी के बीच ही महदूद रखा जाना चाहिए। आप उन पर बेशक पत्थर बरसाइए। मैं उनके बारे में अपनी राय तब तक नहीं बदलूंगा जब तक मुझे यकीन नहीं हो जाएगा कि इस बुड्ढे का दिमाग अब सचमुच खराब हो गया है और उन्हें अब किसी दिमागी अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत है।

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