दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, February 18, 2019

ऐसे लेंगे पाकिस्तान से बदला


आज मुझे इंदिरा याद आ रही हैं। 71 की जंग से पहले पूरी दुनिया इंदिरा के खिलाफ थी। शांतिवादी कबूतरों ने शांति पाठ पढ़ना शुरू कर दिया था जैसे एक वर्ग अब कर रहा है। नवम्बर 71 में इंदिरा अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मिली थीं। निक्सन ने साफ चेतावनी दी थी कि अगर भारत पाक पर सैन्य कार्रवाई करता है तो नतीजे खतरनाक होंगे। इंदिरा लौटीं और जंग शुरू हो गई। दो हफ्ते में जंग खत्म हो गई। 90000 पाकिस्तानी सैनिको को युद्धबंदी बना लिया गया था।
राष्ट्रपति निक्सन दुखी था। उसने अपने मुख्य सलाहाकार हेनरी किसिंजर से कहा -हमने उस धूर्त और दुष्ट औरत को चेतावनी थी फिर भी उसने ऐसा किया। क्या हमने उससे कुछ ज्यादा सख्ती से बर्ताव किया था। उस चालक बूढ़ी औरत की बातों में आकर हमने भारी गलती कर दी। दरअसल अमेरिका भारतीय फौज की सैन्य शक्ति का सही आकलन नही कर पाई थी। उनकी रिपोर्ट थी कि भारतीय ऐसे खराब पायलट होते हैं जो बमवर्षक जहाज उड़ा नही सकते। लेकिन वे गलत साबित हुए। तब हमें पाक की अक्ल ठिकाने लगाने के सिर्फ बारह दिन लगे थे। पाक सैनिकों ने रेंगते हुए आत्मसम्पर्ण किया था। यह जग एक नासूर है जिसे पाकिस्तान कभी नहीं भूल पाया।
लेकिन पिछले तीन चार दशकों में से हमारी ना की बहुत उपेक्षा हुई। मनमोहन सरकार ने रक्षा खर्च में जबरदस्त कटौतियां कीं। रक्षा मंत्रायल में बैठे बाबुओं ने अच्छी क्वालटी के जूतों तक के लिए सेना को रुला डाला। सालों साल सैनिकों को ट्रेनिंग के लिए कारतूस तक नहीं दिए गए। मोदी सरकार में सेना पर बजट बढ़ा लेकिन वह भी नाकाफी है।
अब आज की ही घटना को देखें। काफी चीजें साफ हो जाएंगी। कश्मीर में हमारे जवानों ने 32 घंटों के अंदर पुलवामा हमले के तीन आतंकियों को खोज के मार डाला। हमले की घटना के तुरंत बाद ही इस पूरे इलाके को कार्डन आफ कर लिया गया था। इसलिए ये आतंकी पुलवामा से बाहर नहीं निकल पाए। आज की मुठभेड़ में एक मेजर समेत हमारे भी तीन जवान शहीद रहे। यह हैरत की बात थी क्योंकि यह मुठभेड़ सरहद पर नहीं चल रही थी। दूसरी तरफ सिर्फ तीन से पांच आतंकी छुपे थे। सुरक्षा बलों ने पूरे गांव को घेर रखा है। फिर एनकाउंटर में हमारे चार जवान कैसे शहीद हो गए? पता किया तो मालूम चला भोर में धुंध बहुत थी। दो मीटर से ज्याद दृश्यता नहीं थी। हमारी टीम के पास एंटी फॉग बाइनोकुलर टेलीस्कोप तक नहीं थे जिससे धुंध और कोहरे में भी साफ दिखाई देता है। कई और अत्याधुनिक उपकरण नहीं हैं जो दूसरी तरफ मुहैया हैं। सामने से एक घर में छुपे आतंकियों ने अचानक अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी थी। जिसकी चपेट में ये सब आ गए।
तो आप ऐसे जंग लड़ेंगे। ऐसे पाकिस्तान से बदला लेंगे?



कीजिए हाय हाय क्यूँ




पुलवामा में 40 जवानों की शहादत ने मुझे जरा भी विचलित नही किया। जब मौतें इकठ्ठा होती है तो संख्या बड़ी दिखती है। पिछले करीब चार साल से कश्मीर में औसतन हर हफ्ते एक सैनिक मरता है और उसकी लाश खामोशी से ताबूत में रख कर उसके घर भेज दी जाती है। तब टीवी चैनल सिर्फ टीज़र में खबर निपटा देते है। क्या वे सैनिक सैनिक नही थे। क्या सामूहिकता शहादत को ज्यादा महान बना देती है? जम्मू में रहते मुझे हैरत होती थी कि कोई देश इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है। शांतिकाल में भी बार्डर पर हमारे सैनिक रोज मर रहे हैं और किसी को कोई परवाह नही। लिख लिख कर थक गया और अंत में मैने हथियार डाल दिये।
यकीन मानिए इन मौतों के लिये पाकिस्तान जिम्मेदार नही। दुश्मन से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो आपको कोई नुकसान नही पहुँचायेगा। इसके लिये जिम्मेदार हमारे ही देश की राजनीति है। मोदी की कश्मीर और पाकिस्तान की नीति वही है जो नेहरू की थी और अटल की थी।
केंद्र की तरीबन हर सरकार ने अलगाववादियों को पालने का काम किया है। मंत्रालय में बैठे अफसरों ने समझा रखा है कि कश्मीर को शांत रखना है तो अलगावादियों को मत छेड़ो। जबकि सच ये है कि इन अलगावादियों को आम कश्मीरी भी इज़्ज़त की नज़र से नही देखता।
अब आप देखिये पिछले दो साल से सुप्रीम कोर्ट 35A पर सुनवाई शुरू करने के लिये केंद्र और राज्य सरकार से रिपोर्ट मांग रहा है और सरकार अलगावादियों के दबाव में मंजूरी नही दे रही।
कश्मीर में मैं सैनिक कैम्पों में रहा हूँ। एक सैनिक को अकेले बाजार जाने तक की इजाज़त नही। बिना लोकल पुलिस के वे कोई कार्रवाई नही कर सकते। एक आतंकी की मौत पर लाखों की भीड़ उसके जनाजे में शामिल होती है। यही ग्लैमर देख कर नए आतंकी पैदा होते है। सेना, सीआरपीएफ यहाँ तक कश्मीर पुलिस केंद्र सरकार को लिख चुकी है कि आतंकी की लाश उसके घर वालो को न दी जाए। लेकिन पीएमओ इस फ़ाइल पर आज तक निर्णय नही ले सका।


तो आप देखिये दुःख और ग़म के इस माहौल में भी सब अपने काम कर रहे है। मोदी जी चुनावी रैलियां कर रहे हैं। जेबकतरे उनकी रैलियों में लोगों की जेबें साफ कर रहे हैं। राहुल भी पूरी संजीदगी से विपक्षी दल की भूमिका निभा रहे हैं। तेजस्वी यादव आलीशान बंगला छोड़ कर छोटे सरकारी आवास में शिफ्ट हो रहे हैं। टीवी चैनल वाले टीआरपी टीआरपी खेल रहे है।
ऐसे में ग़ालिब का एक शेर याद आ रहा है

ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ