दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, March 3, 2014

स्विट्जरलैंड के गांव में एक शाम

मेरी यूरोप डायरी-6

दूर तक फैली आल्पस की पर्वत शृंखला। नीचे लाल खपडैल के बने घर। छतों पर, पेड़ों की बारीक टहनियों पर, रसोई की चिमनियों पर, बिजली के तारों पर हर तरफ बर्फ की हल्की चादर। झरने, झीलें और खुला आसमान। ट्रेन की विशालकाय खिड़कियों से दिख रहे ये अद्भुत नजारे आंखों को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि हां, ये हकीकत है और आप जन्नत की सैर पर हैं।
जिनेवा में मेरा काम खत्म हो चुका है। मेरे पास चार दिन और बचे हैं। हम लोगों को दैनिक खर्च के लिए 75 यूएस डालर मिलते हैं। पूरे ट्रिप के पैसे एडवांस में मिल गए हैं। मैं हिसाब लगाता हूं मेरी जेब में करीब 700 यूएस डालर हैं। यह बहुत काफी हैं। इस पैसे से मैं यूरोप के कुछ और देश घूम सकता हूं। मैं जानता हूं संजैन वीजा मेरे पास है। इस वीजा पर मुझे कोई रोकेगा नहीं।
मेरे सामने स्वीट्जरलैँड का टूरिस्ट मैप है। इसकी एक सीमा जर्मनी से मिलती है दूसरी फ्रांस से और तीसरी इटली से। इलसा बताती है कि समय के इस बजट में आप सिर्फ एक तरफ निकल सकते हैँ। मैंने इटली जाना तय किया। क्योंकि वह लुगानों के रास्ते में हैं। वहां मेरा रिश्ते का भाई अनादि यूनिवर्सिटी ऑफ लुगानों से पीजी कर रहा है। सबसे पहले मुझे वहीं जाना है। लेकिन घूमते हुए।
 जिनेवा से लुगानों पहुंचने के लिए मुझे स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न, ज्यूरिख पार करते हुए इटली की सीमा तक पहुंचना था। करीब 800 किलोमीटर का सफर। स्विट्जरलैंड घूमने का इससे अच्छा बहाना क्या हो सकता था। एक एयरबैग में दो-तीन दिन के कपड़े भर कर यूरो ट्रेन में सवार हो गया। यूरो रेल अन्तराष्ट्रीय ट्रेन है। ये यूरोप के तमाम देशों को एक दूसरे से जोड़ती है। इसकी रफ्तार कई दफा हवाई जहाज को मात करती है। ट्रेन के अंदर का दृश्य किसी रेस्टोरेंट जैसा है। साफ सुथरा और भीड़ भाड़ से दूर। आपकी चेयर के आगे एक छोटी मेज भी होगी जिस पर आप लैपटाप रखकर अपना काम कर सकते हैँ।
ट्रेन की खिड़की से देखता हूं स्विट्जरलैंड के गांव अब शहर से जुड़े फार्म हाउस में तब्दील हो गए हैं। दीवारें पत्थर की और छतें खपड़ैल की जैसे हमारे देश में होती हैं। हर घर के बाहर कार और गाएं बंधी है। पहचान के लिए गायों पर रंग लगाए गए है। शायद अपने गोरुओं पर पहचान के लिए रंग लगाने की परंपरा करीब-करीब सभी संस्कृतियों में रही है। मेरा पहला ठिकाना मुंड है। इलसा ने मुझे बताया था कि स्‍वीट्जरलैँड की हसीन वादियों में खोना है तो मुंड जरूर रूकना। ये लगभग ग्रामीण इलाका है। समुद्र तल करीब 1200 मीटर ऊपर बसे इस इलाके को यूनेसको ने इसे वल्ड नेचुरल हैरिटेज साइट घोषित किया है।

पहली बार मुंड नाम सुन कर मैँ चौंका था। क्योंकि पुरानी भूली बिसरी स्मृतियों में यह शब्द कुछ जाना पहचाना था। याद आया लखनऊ के हमारे स्कूल में मधुमिता मुंड नाम की एक खूबसूरत लड़की पढ़ती थी। उसके पिता शायद फौज में थे। उसके बाल अजीब तरह से घुंघराले थे। वह शायद मुंड जनजाति से थी। ये जनजाति शायद छोटा नागपुर के पास की है। ये लोग झारखण्ड, उडीसा से लेकर पश्चिम बंगाल तक फैले हैँ। महान क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा शायद इसी जनजाति से हों। पता नहीं । लेकिन मैंने कभी उससे पूछा नहीं। खैर मुंड स्विट्जरलैँड की एक पुरानी मुंसीपैलटी थी। अब एक छोटा सा कस्बा कह लीजिए। ऊंची पर्वतश्रृंखलाओं के बीच बसा एक मोहक कस्बा। जंगली लकड़ियों के बने पुराने घर। लकड़ियों के रंग वक्त के साथ काले पड़ गए हैं। उनकी ढलानदार छतें उन छतों पर शाख से टूटे पत्ते। मुझे बताया गया कि सर्दी के दिनों में ये ढलानदार छतें सफेद बर्फ की चादर से से ढक जाती हैं। पेडों पर भी बर्फ होती है टहनियों और पत्तियों पर भी। पर इन दिनों बर्फ नहीं है। मौसम साफ और चमकदार है। धूप में गर्माहट है। वर्ना साल के नौ महीने यहां बर्फ रहती है। दूर पहाडी पर बड़ी नोकदार सींगों वाली भेड़े दिख रही हैं। सफेद और काली भेंड़े। उनके शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल हैं जो बर्फ से उनकी हिफाजत करते हैं। प्रकृति ने उन्हें यहां जीने लायक बना दिया है।

 मैं आसापास घूम रहा हूं। अकेले। यहां के लोग अंग्रेजी नहीं जानते। सिर्फ जर्मन बोलते हैँ। इसलिए किसी से बातचीत भी संभव नहीं। जिन्दगी में पहली बार ऐसा हुआ कि आप किसी से बात करना चाहते हो पर नहीं कर सकते। अंग्रेजी के सिर्फ कुछ शब्द मदद कर रहे थे। एक सस्ता सा होटल मिल गया। पूरी तरह लकड़ी से बना एक साफ सुथरा होटल।  टूरिस्ट नहीं हैं इसलिए भीड़ भाड़ भी नहीं है। शाम ढल चुकी है। अब क्या करुं? सोचता हूं। होटल के बार में जाकर बैठूं। हां ये विचार दिलचस्प है। बार में हल्की पीली रोशनी है। चारों तरफ बिखरी कुर्सियों पर लोग बैठे हैं। स्‍त्री-पुरुष सब हैँ। बीच में बॉन फायर का इंतजाम है। शायद इसीलिए इस बड़े कमरे में गर्माहट है। मैँ एक मेज के किनारे अपना ग्लास लेकर बैठ जाता हूं। धीमा स्वीज संगीत पूरे वातावरण में तारी है। बाइस साल पुरानी बैलविनी सिंगल माल्ट के साथ अब ये संगीत धीरे धीरे मेरी चेतना पर हावी हो रहा है। जीवन के बारे में सोच रहा हूं और किस्मत के बारे में। कितनी अप्रत्याशित है जिन्दगी। आज यहां स्वीट्जलैंड की अनजान सी जगह मुंड में हूं। फिर स्कूल के दिन याद आते हैं। मधुमिता याद आती है। उसके दोस्त याद आते हैं। अपने दोस्त याद आते हैं। वे दिन कितने मस्त थे। स्कूल कैम्पस में इमली का पेड़ था। हम इमली अपने लिए नहीं तोड़ते थे। वो सारी शरारतें याद आती हैं। होटों पर मुस्कुराहट आ जाती है।     
मैं अपने कमरे में लौट आता हूं। दूर लकड़ी के बने तमाम घरों में रोशनी है। कितनी शांति है चारों तरफ। चांदनी रात में पूरा कस्बा जगमग है। दूर अंधेरे में पहाडों का रंग और स्याह होता जा रहा है। मैं थक गया हूं। अब सोना चाहता हूं।      

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