दयाशंकर शुक्ल सागर

Monday, March 3, 2014

वायलन बजाने वाले भिखारी और काल्विन कालेज

मेरी यूरोप डायरी-5

कल ही तय हो गया था कि आज शहर घूमना है। इलसा तीन दिन से शहर दिखाने के लिए पीछे पड़ी थी। मैं ही लगातार टाल रहा था। सुबह आकर होटल के रिसेप्‍शन पर डेरा डाल दिया। रिेसेप्‍शन से फोन आया कि नीचे इलसा मेरा इंतजार कर रही है। मैँ बस नहा के निकला ही था। घड़ी देखी ठीक दस बज रहे थे। मैं जानता हूं इलसा वक्त की पक्की है। मुझे कई बार लगा कि स्वीट्जरलैंड की सारी घड़ियों में वक्‍त इलसा ही सेट करती है। न एक मिनट इधर न उधर। समय के पाबंद लोगों से मुझे बहुत घबराहट होती है। लगता है कि किसी फौजी कैम्प में हूं। मैं उससे कहता कि तुम जरूर हिटलर के खानदान की होगी। हालांकि वह मूलतः जर्मन है लेकिन हिटलर का नाम सुन कर भड़क जाती। उसे हैरत होती है कि हम हिन्दुस्तानी कितनी सहजता से हिटलर का नाम ले लेते हैं।
मैँ तैयार होकर नीचे आता हूं तो देखता हूं वह गुस्से में बैठी है। सोचता हूं दुनिया की सारी लड़कियां एक जैसा गुस्सा क्यों दिखाती हैं। सफाई देने के बजाए मैं ब्रेकफास्ट के लिए होटेल के रेस्‍त्रां की तरह बढ़ जाता हूं। वह पीछे से अंग्रेजी में कहती है-तुम नहीं सुधरोगे। इलसा  की बेतकल्‍लुफी मुझे पसंद है। कन्वेशन से पहले ही वह भारत में फोन से मेरे सम्पर्क में थी। प्रायोजक संस्‍था ने उसे हमारी देखभाल के लिए नियुक्त किया था। हमउम्र थी इसीलिए औपचारिकताएं बहुत जल्द विदा हो गई थीं। मुझे शहर घुमाना उसके शेड्यूल लिस्ट में नहीं था। लेकिन एक चीज जो हमारे शेड्यूल में पहले दिन ही शामिल हो गई थी वह थी- दोस्ती।
ब्रेकफास्ट के दौरान मैंने उसे दोस्ताना लिहाज में हिदायत दी कि वह मुझसे किसी टुरिस्ट गाइड की तरह बर्ताव न करे। वैसे भी यहां मेरे शरीर की घड़ी का वक्‍त कलाई में बंधी घड़ी से मैच नहीं कर रहा। भोर में चार बजे तो नींद आती है। आधी रात खिड़की से देखता हूं कि सड़क पर क्या तमाशा हो रहा है। मैंने उसे उस रात सड़क पर चल रहा प्रेमी-प्रेमिका के झगड़े का किस्सा सुनाया। वह खूब हंसी। उसे भरोसा नहीं हुआ। उसने कहा-यू आर लायिंग। मैंने कहा-नहीं सच वह लड़की उसे बार-बार छू रही थी और लड़का बार-बार बोल रहा था-डोंट टच मी। वह खूब हंसी और इस हंसी में उसका गुस्सा जाने कहां गिर गया।   

हम टहलते हुए कार्नवीन मेट्रो स्टेशन पहुंचते हैँ। सिर्फ दो सड़कें पार करनी पड़ीं। इसके सामने हमें ट्राम पकड़नी है। इस इंटरचेंज स्टेशन पर हर सुबह वायलन वादकों का झुंड दिखता है। आज भी दिख रहा है। सब के सब लम्बे पुराने ओवर कोट में हैं और हाथ में वायलन है। मैँ इलसा से पूछता हूं ये ढेर सारे वायलन वादक कौन हैं? वह इशारे से कहती है अभी पता चल जाएगा। हम शहर की तरफ जाने वाली ट्राम में बैठ जाते हैं। अंदर से ट्रामें हमारी दिल्ली की मेट्रो जैसी हैं। लेकिन भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं है। कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों के बाहर पूरा शहर साफ दिखता है। मैं खिड़की से बाहर देखने लगता हूं। ड्राम में वायलन की एक धुन सुनाई पड़ती है। मुझे पता नहीं चला ये वायलन बजाने वाले कब ट्राम में आ गए। वायलन की धुन सुखद लगती है। लेकिन मैं देखता हूं बाकी यात्री अपने में गुम हैं। थोड़ी देर बाद वह वायलन बजाना बंद करके अपने ओवरकोट की जेब से एक गिलास निकलता है। यात्री उसमें सिक्के डालने लगते हैं। मैं इलसा को बताता हूं-ऐसा मैंने अपने देश में पूर्वांचल और नार्थ ईस्ट की ट्रेनों में खूब देखा है। कभी कोई बांसुरी बजा कर पैसा मांगता है कभी इकतारा बजा कर। वह वायलन वादक मेरे पास आता है। मैं भी अपनी जेब से एक सिक्का निकाल कर उसके गिलास में डाल देता हूं। उस वक्त ध्यान नहीं रहता कि वह सिक्का कितने का था। बाद में याद आया वह स्विज फ्रेंस था। एक यूएस डालर के बराबर। यानी करीब पचास रुपए। ईनाम थोड़ा महंगा हो गया। बाद में सोचता हूं।
किसी भी दूसरे यूरोपीय शहर की तरह जिनेवा शहर को भी हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं। एक नया और दूसरा पुराना। जाहिरी तौर पर पुराना शहर ज्यादा खूबसूरत है। इमारतों में प्राचीन रोमन वास्तु ‌शिल्प दिखता है जो मैंने और भी कई यूरोपीय देशों में देखा है। ये खामोश इमारतें आपको खास तरह से आकर्षित करती हैं। इलसा ने जब मुझे काल्विन कालेज की इमारत दिखाई तो मैं चौंका। एक तन्हा सी खामोश इमारत। मैंने सानिया को बताया कि एक काल्विन कालेज हमारे लखनऊ में भी है। इस बार चौंकने की बारी इलसा की थी। क्योंकि जान काल्विन जिनेवा की रूह हैं। इस शहर को बसाने में और यहां के लोगों में रूहानियत भरने में जॉन काल्विन का बड़ा नाम हैं। वह जिनेवा के आध्यात्मिक गुरु थे जैसे हमारे यहां कभी गौतम बुद्ध या महावीर रहे हों। ऐसे जॉन काल्विन का लखनऊ से भी कोई रिश्ता हो सकता है क्या? मैं मजा ले रहा था। क्योंकि मैं जानता था कि लखनऊ में गोमती नदी के ठीक किनारे 'कॉल्विन ताल्लुकेदार कॉलेज' की नींव 11 मार्च 1891 को अवध और आगरा प्रान्त के मुख्य आयुक्त सर आक्लैन्ड काल्विन ने रखी थी। तब इस कालेज में केवल रजवाडों और ताल्लुक़ दार के बच्चे ही दाखिला ले सकते थे। इसमें दाखिला लेने की अकेली और आखिरी शर्त थी कि वह राजघराने या किसी ताल्लुकदार का बेटा हो या उनका गोद लिया हुआ हो। यह संस्था विशुद्ध रूप से पैसे वाले बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा दिलाने के लिये स्थापित की गयी थी। लेकिन इलसा अंत तक इस बात पर डटी रही कि ब्रिटिश कमिश्नर आक्लैंड का खानदान कहीं न कहीं से हमारे जॉन काल्विन से जुड़ा होगा। इस बात को न मानने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी।
सारा दिन हम शहर में भटकते रहे। इस खूबसूरत शहर के मैं अपनी आंखों में बसा लेना चाहता हूं। बेहद साफ सुथरी सड़कें, खूबसूरत चौराहे, चमचमाती दुकानें और एक से एक खूबसूरत इमारतें। इलसा  मुझे हर इमारत के बारे में बता रही थी। वह बताती है कि जिनेवा का पूरा पुराना शहर हैरिटेज साइट के रूप में घोषित है। यहां ज्यादातर इमारतें 1830 से 1945 के बीच की बनी हैँ। एक इमारत देख कर मैं चौंका था। वह ‌रशियन आर्थोडक्स चर्च है। उसे ये लोग रुस द जिनेवा कहते हैँ। इस इमारत के गुम्बद स्वर्ण के हैँ। इन गुम्बदों के ऊपर क्रास के निशान बने हैं। पता नहीं क्यों ये गुम्बद मुझे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के गुम्बदों की याद दिला रहे हैँ।
शाम ढलने लगी है। हम थक चुके हैं। सड़क के किनारे बने एक ओपन रेस्‍त्रां में बैठ गए। काफी और कुछ स्नैक्स का आर्डर दिया। मैंने इलसा से पूछा उसके नाम का मतलब क्या है? उसका जवाब था- गॉड आफ माई ओथ। ज्यादातर जर्मन लड़कियों के नाम का यही अर्थ है। वह मुस्कुराने लगी। मैंने कहा- कुछ समझ में नहीं आया-गॉड आफ माई ओथ? क्या मतलब हुआ इसका? उसने मुस्कुराते हुए कहा- By my oath, you can trust me. यानी मेरी कसम तुम मेरा यकीन कर सकते हो। मैं लाजवाब हो जाता हूं।

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