वह सावन के रिमझिम महीने की एक खुशनुमा दोपहर थी। आसमान पर गहरे काले बादल छाए थे। मां और पापा दोनों घर की क्यारी में पिछले दो घंटे से व्यस्त थे। मुझे धुंधला-सा याद है कि पापा उस किचन गार्डन की मिट्टी में दबी तमाम पुरानी ईंटों को बाहर निकाल रहे थे। ये काफी परिश्रम भरा काम था क्योंकि ईंटें काफी नीचे तक दबी थीं। मैं यूनिवर्सिटी के लिए निकल रहा था। उस छोटे-से करीब दस बाई चार फीट के किचन गार्डन में आम का एक पौधा लगाने का 'यज्ञ' चल रहा था। पूछने पर पता चला कि ये आम्रपाली की कोई कलम थी, जो हमारे मामा बस्ती की किसी नर्सरी से खरीद कर लाए थे। मुझे याद है मैंने बड़ी बेपरवाही से पूछा था कि-'अब ये आम्रपाली क्या बला है?' तो पापा ने बताया कि यह दशहरी और नीलम के क्रॉस से बनी संकर प्रजाति है। इसकी जड़ें गहरी जाती हैं लेकिन पेड़ बहुत ऊंचा नहीं जाता। पांच छह साल में ये मीठे फल देने लगता है। फिर मिट्टी में दबी एक ईंट दिखाते हुए बोले-'नीचे जडों के फैलने के लिए जगह बना रहा हूं.' मैंने हैरानी से मुस्कुराते हुए सिर्फ 'अच्छा' कहा था। पापा ने वो पौधा मां के हाथों से लगवाया। ये कहते हुए कि- 'तुम्हारी मां के हाथ के लगे पौधे जी जाते हैं.' मैं यूनिवर्सिटी पढ़ने निकल गया। अगले दिन देखा तो पापा किसी फेवरीकेटर को बुलवा कर सड़क से सटे उस किचन गार्डन में लोहे की जाली लगवा रहे थे। फिर मैंने उस पौधे पर कभी ध्यान नहीं दिया। हां शाम को यूनिवर्सिटी से लौटते वक्त रोजाना सिर्फ इतना जरूर देखता कि मां रबर के पाइप से उस क्यारी में पानी दे रही होतीं। वह हमेशा स्कूटर बाहर खड़ा रखने को कहतीं ताकि कीचड़ से सने टायर लेकर मैं अंदर का बरामदा गंदा न कर दूं।
दिन, महीने और साल बीतते गए। वह आम का पेड़ मेरी स्मृतियों से कभी अलग नहीं हो पाया। घर में जब भी अनुष्ठान होता, घर के ही आम के पेड़ की सूखी लकड़ियां और पल्लव पूजा-हवन के काम आते। इतने बरसों में घर में कई मांगलिक कार्यक्रम हुए। आम के उस पेड़ की हरी पत्तियों से ही घर में तोरण द्वार बनाए जाते। कलश में पंच पल्लव डाल कर उसके ऊपर घी का दीया जलाया जाता। लखनऊ जैसे ठेठ शहर की कालोनी के घर में आम का 'अपना' पेड़ होना मां और पापा को कितनी खुशी का अहसास देता होगा इसका अंदाजा मैं अब इस उम्र में आकर लगा सकता हूं। अब हमारे घर आने वाले हर बसंत का स्वागत आम का यही पेड़ करता। फरवरी-मार्च के महीने में वह आम्रपाली का पेड़ बौर से लकदक हो जाता। और कभी बारिश होती तो बसंती हवा के साथ मिलकर उस अमौरी की खुशबू सांसों में जादू-सा नशा भर देती। सुबह जब पहली मंजिल की बालकनी से नीचे किचन गार्डन की तरफ देखता तो ओस की बूंदों के साथ आम के बौर चमेली के सफेद फूलों की तरह जमीन और सड़क पर बिखरे पड़े रहते। उस पेड़ पर चिड़ियों के झुंड के झुंड चहचहाते रहते। आम तौर पर कम हाइट तक बढ़ने वाले इस पेड़ का कद, हमारे दो मंजिला घर से भी ऊंचा निकल गया। जब आम का सीजन आता तो लगता कि किसी ने पेड़ पर हरे बल्ब की झालर टांग दी हो। इसके बाद एक लम्बा सिलसिला शुरू होता आम की रखवाली का। क्योंकि पेड़ घर के बाहर सड़क के किनारे था सो आम्रपाली के ललचाने वाले सुंदर आम राहगीरों के कदम रोकने लगे थे। भरी दोपहरी मां पेड़ पर पत्थर फेंकने वालों लड़कों को डपटतीं। कभी प्यार से बुलाकर टूटे हुए आम उन्हें बांट देतीं।
और फिर एक दिन मां नहीं रहीं। जब वह घर से अंतिम यात्रा के लिए निकल रही थीं तो मैंने महसूस किया कि उस दिन हम सबको को बिलखता देख वह पेड़ भी रोया था। दुख, पीड़ा और संताप के उन तेरह दिनों में मैं उस पेड़ को कई बार एकटक देखा करता था और तब आंखों में आंसुओं के गुबार में मुझे आम्रपाली का पौधा रोपती मां की वह पुरानी धुंधली तस्वीर दिखाई देती थी। मैं तब उन पुरानी स्मृतियों को एक झटके से अपनी यादों के धुंधलके से निकाल देना चाहता था क्योंकि वह मुझे तकलीफ पहुंचा रही होती थीं। जीवन में ऐसे क्षण कई बार आते हैं जब जिन्दगी और मौत के बीच, सुख और दुख के बीच, आशा और निराशा के बीच, ठहरे हुए किसी एक लम्हे में इंसान अपनी सारी स्मृतियों को किसी गहरे समन्दर में दफन कर देना चाहता है। मुझे अच्छी तरह से याद है उस साल इस आम्रपाली पर एक भी बौर नहीं आया. और तब मैंने महसूस किया था कि पेड़ पौधे भी अपनी तरह से शोक मनाते हैं जब शिद्दत से जुड़ा कोई हिस्सा उनसे टूट जाता है। फिर चाहे वह पेड़ से अलग हुई कोई डाली या टहनी हो या कोई पत्ता क्यों न हो।
मां के चले जाने के बाद वह घर जैसे छूट ही गया। कभी कभी मुझे लगता है कि मां खूंटे से बंधी किसी गाय की तरह होती है जिसके आस पास एक दुनिया बस जाती है। उसके चले जाने के बाद ममता का वह आंचल जो कभी नीला आसमान बनकर आपके ऊपर लहराता रहता है, हट जाता है और आप खुद को सूरज की तपती धूप के नीचे खड़े असहाय महसूस पाते हैं। हम सब वह घर छोड़ कर बाहर जिन्दगी की जद्दोजहद में मशगूल हो गए। अब उस घर में कोई नहीं रहता। मैं अपनी दुनिया में हूं, भाई और बहन अपने-अपने जहान में। और हम तीनों की दुनिया के बीच कहीं हमारे पापा हैं। जो एक अदृश्य और अंतरंग कड़ी बन कर हम तीनों से कहीं गहरे जुड़े हुए हैं। लेकिन हमारा वह घर वहीं है, आम का वो पेड़ वहीं हैं, उस पेड़ के पत्तों के झुरमुट में झांकता नीला आकाश वहीं है और मां से जुड़ी वह तमाम यादें वहीं उस घर के हर दरवाजे, हर खि़ड़की, और हर रोशनदान से आती सूरज की रोशनी की तरह मौजूद हैं अपने पूरे अस्तित्व के साथ। हर साल जब भी गर्मियां आती हैं उस आम्रपाली पर हजारों आम लद जाते हैं। ज्यादातर आम तो पकने से पहले ही सड़क से गुजरने वाले लड़के तोड़ ले जाते हैं। लेकिन हमारे पडोसी और पुराने मित्र विनय पांडे और उनकी सुसंस्कारी पत्नी रितु भरी दुपहरी हो या शाम, उन आमों की भरसक रखवाली करते हैं। हर साल चार पांच पेटी आम दूसरे शहरों में बसे हम भाई बहनों के घर पहुंच जाते हैं। हालांकि इन आमों को पहुंचाने का खर्च इनकी कीमत से कहीं ज्यादा बैठ जाता है। लेकिन हमारे अंतस की अतल गहराइयों से जुड़े ये आम इतने स्वादिष्ट और दिव्य हैं कि ये हम तक पहुंचते-पहुंचते ये बेशकीमती हो जाते हैं। पतली गुठली के ये रसीले खुशबुदार आम इतने स्वादिष्ट हैं जिनका मुकाबला दुनिया में आम की किसी अन्य वैरायटी से नहीं किया जा सकता। ये मैं इसलिए नहीं कह रहा कि इन आमों से हमारा कोई भावनात्मक रिश्ता है। आप खुद नेट पर सर्च कर सकते हैं। दुनिया भर के बाजार में आम्रपाली की सबसे ज्यादा मांग है क्योंकि इस किस्म के आमों में कैरोटीन की मात्रा सबसे अधिक रहती है। हर साल हम सब बहुत बेसब्री और बेताबी से अपने घर के आमों का इंतजार करते हैं। कभी-कभी तो सोचता हूं कि सावन की उस खुशनुमा दोपहरी में मेरी मां के आंचल तले पौधे के रूप में एक और शिशु ने करवट ली थी। जो अब बड़ा होकर अपने परिवार के बाकी सदस्यों को हर साल ये मीठे तोहफे भेजता है।
लखनऊ दशहरी और तमाम तरह के नवाबी आमों का गढ़ है लेकिन मेरे भांजे को इस पेड़ सिवा कोई और आम अच्छा ही नहीं लगता। उसे इन आमों में 'नानी की खुशबू ' महसूस होती है क्योंकि उसकी नानी उसके लिए पके आम हमेशा सबसे अलग छुपा कर रखतीं थीं। दिल्ली में अपने दादू के साथ रह रही मेरी प्यारी भतीजी सारे सीजन सिर्फ 'अपने घर' के आम का इंतजार करती है। परसों उसे आम मिले तो भावुक हो गई। बोली- 'बड़े पापा इस आम के पेड़ को कभी कटने मत दीजिएगा.' और इन आमों के शिमला पहुंचते ही मेरी शरारती बेटी को ताराहाल कान्वेंट की अपनी क्लास की दोस्तों को जलाने का मौका मिल जाता है। शिमला की हर लड़की के पास अपने गांव के सेब बागान के किस्से हैं। उसके जवाब में वह दादी के इस पेड़ और इसके मीठे आमों का बखान करते नहीं थकती। वह इतराते हुए कहती है-"तुम्हे क्या पता मेरी ग्रैंड मां हर साल हमें 'ईडन आफ गार्डन' से ये मीठे आम भेजती हैं।" अब तो मुझे भी लगने लगा है कि ये दिव्य आम हमारे किचन गार्डन के नहीं वाकई ईडन आफ गार्डन यानी ईश्वर के बागीचे से ही आते होंगे।
तो आप देखिए आम के एक अदद पेड़ के बहाने कैसे बच्चे अपनी प्यारी दादी-नानी को आज भी याद करते हैं। इस संस्मरण का यही संदेश है। कैसे एक छोटा सा पौधा व्यक्ति को पर्यावरण से एकाकार करता है। आप भी अपने मां-पिता के हाथों मीठे आम का एक पेड़ लगवाइए। कहीं भी। उस पर थोड़ा-सा ध्यान दीजिए उसकी रक्षा कीजिए। यकीन जानिए वे खुद बड़े हो जाएंगे। वो पेड़ उनके न रहने पर भी बरसों बरस उन्हें स्मृतियों में जिंदा रखेगा। देह मर जाती है लेकिन उस देह की कृति और कीर्ति कभी नहीं मरती। वह इंसान हो या कोई पेड़। आप कभी महसूस कीजिएगा कोई भी पौधा लगाते वक्त आपकी हथेलियों की गर्माहट उस पौधे की जडों के साथ हमेशा के लिए जमीन में बची रह जाती है, जैसे ढलता हुआ सूरज अपनी तमाम तपिश खोने के बावजूद दूसरों के लिए अपनी थोड़ी-सी गर्माहट अपने अंदर हमेशा बचाए रखता है।
End
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