दयाशंकर शुक्ल सागर

Saturday, January 11, 2014

विश्व शांति के शहर जिनेवा में

मेरी यूरोप डायरी-1


जिनेवा यानी शांति का शहर। दुनिया भर के देश आपस में झगड़ते हैं। कभी सरहद के लिए, कभी ईंधन के लिए कभी वर्चस्व, तो कभी हथियारों पर कब्जे के लिए। लेकिन अंत में उन्हें शांति की तलाश में जिनेवा आना पड़ता है। ये शांति प्रतीकात्मक है। लाल बत्ती से फर्राटा भरती कारों के अलावा पूरे शहर में आपकों कहीं कोई शोर गुल नहीं मिलेगा। पत्थरों की विशालकाय इमारतों के सामने से गुजरती चौड़ी सड़कों पर पैदल चलते लोग खामोशी से मुस्करा
कर आपका स्वागत करेंगे कि आप विदेशी है और यहां शांति की तलाश में आए है।
मार्च बीतने वाला है लेकिन सर्दी यहां अभी विदा नहीं हुई। शून्य से 4 डिग्री कम तापमान में ठिठुरन बिल्कुल नहीं है। धूप इतनी मीठी और गुनगुनी है कि ठंड का अहसास केवल खुली सड़कों पर पैदल चलने पर होता है। पर इस ठंड में भी यहां के लोगों की गर्मजोशी हथेलियों में महसूस होती है। मेट्रो ट्रेन से एयरपोर्ट से जिनेवा शहर आने में बमुश्किल दस मिनट लगे। कार्नवीन मेट्रों स्टेशन पर उतरा तो होटल का पता करना मुश्किल पड़ रहा है। ज्यादातर लोग फ्रेंच बोलते हैं। जो फ्रेंच नहीं जानते वह जर्मन या इतालवी में बात करने लगते हैं। भाषा को लेकर उनके भीतर एक खास तरह का आग्रह है। इन्हें न अंग्रेजी बोलना पसंद है न सुनना। लेकिन इससे उनकी भलमसाहत में कोई कमी नहीं आती। मेट्रो स्टेशन पर करीब अस्सी साल की एक भद्र बुजुर्ग महिला ने दो बार इतालवी में होटल क्रिस्टल का नाम दोहराया। होतेल क्रिस्तल। ओके। फिर वह पीछे आने का इशारा करते हुए आगे बढ़ गई। यकीन कीजिए करीब डेढ़ किलोमीटर चलकर किसी शार्टकर्ट रास्ते से मेट्रो स्टेशन के बाहर पहुंची। बाहर निकलते ही मैनें पाया कि मैं होटल क्रिस्टल के सामने खड़ा हूं। मैने पीछे पलट कर देखा वह भद्र महिला बिना शुक्रिया पाने का इंतजार किए वापस स्टेशन के भीतर जा रही थीं। शायद उन्हें कोई ट्रेन पकड़नी थी। मुझे शुक्रिया कहने के लिए वापस दौड़कर उनके सामने जाना पड़ा।
दोपहर में सड़कों पर अकेले घूमते वक्त न जाने कब भूख लग गई। मैकडॉनल्ड से बर्गर लिया जो साढ़े छह स्विज फ्रैंक का था यानी भारतीय मुद्रा के हिसाब से करीब 300 रूपए का। यूरोप में अगर आप कुछ खरीदते समय यूरो या स्विज फ्रैंक को भारतीय मुद्रा में बदलते रहें तो यकीन मानिए आपको कई रातें बिना खाए गुजारनी पडेंगी। रेस्त्रां के बाहर सड़क के किनारे पत्थर की मेज पर अपनी प्लेट रख देता हूं। सामने सड़क पर तेजी से स्केट करते लड़को को देखने लगता हूं। अचानक मेरी पत्थर की मेज पर एक गौरेया आकर बैठ जाती है। एकदम निडर। मुझे लगता है कि वह खाने की मेज पर मेरा साथ देने आई है। मैं बर्गर का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़कर उस चिड़िया की तरफ बढ़ता हूं। वह अपने दो नन्हे कदम आगे बढ़ी है। मैं अपना हाथ थोड़ा और आगे करता हूं। वह मेरे हाथों से बर्गर का टुकड़ा लेकर वही चुपचाप खाने लगती है स्विट्जरलैंड के पक्षियों में भी इतनी आत्मीयता है। मेरा दिल भर जाता है।

1 comment:

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत उम्दा जानकारी मिली आभार |