दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, October 16, 2014

तुम अब तक कहां थे कामरेड


मुझे उन दोस्तों से कतई हमदर्दी है जिन्हें साहित्य में जरा भी दिलचस्पी नहीं। वह नहीं जानते कि जीवन में वह क्या खो रहे हैं। लेखक तो खैर लिखने के लिए अभिशप्त है। वह ता-उम्र शब्दों और कल्पना की उड़ानों से मुक्त नहीं हो पाता। नहीं लिखता फिर भी झटपटाता रहता है। वह पिंजरे में बंद किसी पक्षी की तरह फड़फड़ाता है। कोई पन्द्रह साल पहले एक कथा संग्रह 'कामरेड का कोट' मेरे हाथ लगा था। यह कथा संग्रह सृंजय नाम के किसी लेखक का था। यह कहानी पहली दफा हंस के शायद फ़रवरी, १९८९ अंक में छपी थी। तब इस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। लेकिन कहानी एकदम से चर्चा में आ गई। यह कहानी आज़ाद भारत में वामपंथ की पोल खोलती है। रूस परस्त कामरेड अपनी सारी बौद्धिकता के बावजूद कैसे जमीनी सच्चाइयों ‌कितनी दूरी बना लेते हैं। कामरेड का कोट हिन्दुस्तानी कम्युनिज्म के खोखलेपन को नंगा करती है। यह कहानी पढ़ कर आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि हिन्दुस्तान में कम्युनिज्म का प्रयोग क्यों फेल हो गया?
मुझे याद है एक रूसी लाल कोट को प्रतीक बना कर सृंजय ने कैसे भारत के वामपंथियों को हिला कर रख दिया था। उन दिनों साहि‌त्यिक सम्मेलनों में मैं राजेन्द्र यादव व नामवर जैसे आलोचकों से 'कामरेड का कोट' की तारीफ में कसीदे पढ़ते सुना करता था। लेकिन जितना में अपने कम्युनिस्ट मित्रों को जानता हूं वह इस कहानी के लिए सृंजय को आज तक माफ नहीं कर पाए। हिन्दी साहित्य पर काबिज कम्युनिस्ट लेखकों के गिरोह ने सृंजय जैसे शानदार लेखक को साहित्य से ही बेदखल कर दिया।
मेरी नजर में सृंजय वाकई एक क्रान्तिकारी लेखक हैं। ये उन गिने चुने लेखकों में हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहता हूं लेकिन मेरी बदकिस्मती ये हैं कि अब वह लिखते नहीं। 'कामरेड का कोट' में जब कथा का नायक कमलाकांत उपाध्याय गुस्से में पार्टी के एक बड़े नेता रक्तध्वज से उनका रूसी लाल कोट छीनता है उनके चेहरे के भाव देखने वाले होते हैं। यह वही कामरेड रक्तध्वज थे जो कहते थे "क्रांति के लिए जरूरी है, पहले खुद को डी-क्लास करना।" क्या कामरेड रक्तध्वज खुद 'डी-क्लास' हो पाए थे। सृंजय अपनी इस कालजयी कहानी के क्लाइमेक्स में लिखते हैं-"कमलाकांत ने अट्टहास किया, "ठंड से बचने का एक हथियार है कोट,... आपने कहा था न कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा."
जैसा मैंने पहले कहा मैं सृंजय की कहानियों से बेतरह प्रभावित हूं। मैं इस लेखक उनकी कहानियों के लिए बधाई देना चाहता था। एक इच्छा थी कि उनसे बात करूं। मुझे पता चला कि वह आसनसोल में कहीं रहते हैं। पिछले १५ सालों में कई बार मैंने उनका फोन नम्बर तलाशने की कााशिश की लेकिन निराशा हाथ लगी। जरूर मेरी कोशिश में कहीं कोई कमी रही होगी। क्योंकि मेरा साफ मानना है कि जो आप सचमुच हासिल करना चाहते हैं वह देर सबेर कर ही लेते हैं। अगर नहीं कर पाते तो इसका अर्थ है आपके प्रयास में कहीं कोई कमी है। अभी तीन दिन पहले मैंने अपने पुराने लेखक मित्र व बेहतरीन साहित्यक पत्रिका तत्‍भव के संपादक अखिलेश जी से यूं ही सृंजय जी के बारे में पूछ लिया। उन्होंने बताया कि वह आसनसोल में हैं और शायद वहां बीएसएनएल में काम कर रहे हैं। उन्होंने तत्काल वह नम्बर मुझे एसएमएस कर दिया। और फिर मैंने उन्हें उसी रात फोन किया। पहली बार में फोन नहीं उठा। लेकिन दस मिनट बाद उन्होंने रिंग बैक किया। और इसके बाद आप समझ सकते हैं कि एक गुमनाम पाठक की अपने उस प्रिय लेखक के साथ क्या बातें हुई होंगी जो उन्हें १५ साल से खोज रहा था। लेखक और पाठक के बीच एक दीवार थी जो अब ढह गई। आज मैं सार्वजनिक रूप से सृंजय जी को उनकी कालजयी रचना कामरेड का कोट के लिए एक बार फिर बधाई देता हूं।




2 comments:

sagar said...


"तुम अब तक कहां थे कामरेड"

Anonymous said...

वो मेरे परिचित रहे हैं और कुछ दिन हमारे घर मेहमान रहे। मुझे उनका नंबर दे सकते हैं ? 9810050610