दयाशंकर शुक्ल सागर

Sunday, August 24, 2014

शुक्रिया दोस्तों


मुझे याद नहीं आता कि आखिरी जन्मदिन मैंने कब मनाया था। मैं हमेशा से इसी ‌सिद्धान्त को मानता आया हूं कि कोई भी जन्मदिन, जन्म की कम और मौत की याद ज्यादा दिलाता है। हम पीछे की तरफ देखते हैं, आगे की तरफ नहीं देखते। हर जन्मदिन का मतलब सिर्फ यह है कि आदमी एक साल और मर गया, जिंदगी का एक साल और कम हुआ। आप कहेंगे ये सोच नकारात्मक है। पर सच तो यही है। ऐसे में मुझे मनोवैज्ञानिक जुंग की बात याद आती है जो कहता था आदमी मौत से इतना घबरा गया है कि उसने मृत्यु को अपने चेतन मन से बाहर कर दिया है। वह भूल कर भी मौत की बात नहीं करता। मौत का ख्याल भी कभी मन में नहीं लाता। इसी डर से शायद हम मृत्यु को बाहर रखते हैं और जन्म को भीतर रखते हैं।
इसलिए कोई हैरत की बात नही कि मनुष्य ने जन्मदिन को उत्सव में बदलने की कला विकसित कर ली। एक ऐसा उत्सव जिसकी पूरी परिकल्पना झूठ पर खड़ी है। फिर भी रात बारह बजे से फेसबुक के इनबाक्स पर जन्मदिन की बधाइयां जिस रफ्तार से गिरनी शुरू हुईं मन का एक कोना कहीं भीग गया। इतने दोस्त और शुभचिन्तक कब बन गए पता ही नहीं चला। यह बेशक एक मीठा अहसास है। इसी मिठास के साथ मैं उन आपने तमाम जाने अनजाने मित्रों को साधुवाद देता हूं जिन्होंने मुझे मेरे जन्मदिन पर शुभकामनाओं के फूल भेंट किए।

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