दयाशंकर शुक्ल सागर

Thursday, August 29, 2013

ईद, नन्हे हामिद का चिमटा और मैं


जब ईद आती है? तो पता नहीं चाँद अँधेरे बादलों में कंही दूर क्यों छिप जाता है ? वह देखने में इतने नखरे क्यों दिखाता है? लेकिन बादल कितने भी घने क्यों न हो वह एक बार दिखता जरुर है। मौलानाओ की शातिर निगाहों से वह एक बार भले बच जाए लेकिन ईद का इंतजार कर रहे मासूम बच्चों की नजरों से वह छुप नहीं पाता। और उस नन्हे शर्मीले चाँद को देखने के बाद बच्चे ऐसे मचलते हैं जेसे खुश...ियों की सौगात उनके आँगन में उतर आई हो।
बच्चे अपने अब्बू का कुरता खींचते हुए ईदगाह जाने के लिए वैसे ही मचलते हैं जैसे चार पाँच साल का नन्हा हामिद मचला होगा। वालिदैन का साया भले हामिद के सर पर न था लेकिन दादी अमीना के प्यार का आँचल उसे हमेशा घेरे रहता था।
यकीन मानिए जेब में तीन पैसे रखकर उस दिन मेले का जितना लुत्फ़ हामिद ने उठाया महमूद, नूरे, सम्मी, जैसे उसके किसी दोस्त ने नहीं उठाया होगा। फिर दादी के लिए चिमटा खरीद कर तो उस नन्हे सिकंदर ने जैसे सारी दुनियां फतह कर ली। ईदगाह के मेले में खिलौने और गोल-गोल घूमने वाली चर्खियों में खो जाने के बावजूद उसके अवचेतन में कहीं दादी की वह झुर्रीदार उन्गिलिया भी थी जो तवे से रोटियां उतारते वक्त जल जाती थीं। तब हामिद थोड़ी देर के लिए खुद अब्बू बन गया था। हामिद ने सोचा होगा उसके अब्बूजान न जाने कब थैलियाँ लेकर लौटें? अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से बड़ी-बड़ी चींजें लाये और उन चीजो में दादी का चिमटा न हो तब उसके मासूम मन में सोचा होगा की दादी यह तौफ़ा देखकर कितना खुश हो जाएँगी। लेकिन ये क्या? अमीना ने तो छाती पीट ली। दोपहर हुई, न कुछ खाया न पिया लाया क्या ये लोहे का चिमटा? मासूम हामिद तो जैसे मुजरिम बन गया। रुआंसा होकर बोला तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं। इसलिए तीन पैसे में खरीद लिया। मुंशी प्रेमचंद ने 'ईदगाह' के अंत में लिखा- 'और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद ने इस चिमटे से भी विचित्र। हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी दामन फैला कर हामिद को दुआएं देती जाती थी। हामिद उसका रहस्य क्या समझता।
सिविल लाईन्स के सुभाष चौराहे के कोने वाली इमारत में सरस्वती प्रेस का छोटा बोर्ड देखकर जैसे मुंशी प्रेमचंद याद आ जाते हैं, वैसे ही जब भी ईद आती है, तो न जाने क्यों ये कहानी याद आ जाती है। पांचवीं या छठी जमात में जब पहली दफा स्कूली किताब में यह कहानी पढ़ी थी. तब साहित्य की एकदम समझ नहीं थी। यह रहस्य आज तक नहीं समझ पाया की क्यों हर ईद में बच्चो को सजा धज देखता हूँ तो हामिद और उसका चिमटा याद आ जाता है एक विचित्र बात यह हुई की चिमटा स्मृतियों से ऐसा चिपटा की एक दिन तो मै खुद हामिद बन गया। तब मै कोई बारह तेरह बरस का रहा होऊंगा। माँ को मैंने कई बार रसोई गैस की तेज लपटों पर रोटियों को फुलाते देखा था। बहुत बारीकी से देखता क़ि गैस के चूल्हे की लपटों के बीच किसी हुनरमंद बावर्ची की तरह माँ जलती आग से रोटियां बाहर निकल लेती। इस खेल में उनकी उँगलियाँ कभी नहीं जलती, या कभी जलती भी होंगी तो मौन पीड़ा या खामोशी से उसे सह लेती होंगी। उनकी रसोई में चिमटा नहीं था। मैंने कभी उन्हें पिता जी से चिमटे की फ़र्माइस करते भी नहीं सुना। फिर भी न जाने क्यों एक दिन मै स्कूल से लौटते वक्त अपने जेब खर्च से स्टील; का चिमटा ले आया वह मेरे हाथ में चिमटा देखकर चौंकी जैसे अमीना चौकी होंगी फिर मैंने माँ को बताया की मैं रोज उन्हें रोटियों के साथ आग से खेलती हुए देखता हूँ। मैंने उन्हें जिद से भरी सख्त हिदायत दी की वह अब चिमटे से ही रोटियां सेंकें। मैंने देखा की मेरी माँ की पलकों के दोनों किनारे भींग गए थे। आग से खेलने वाली उनकी वह उंगलिया मेरे धूल से भरे बालों को देर तक सहलाती रहीं। मुझे पक्का यकीन है की मन ने कभी ईदगाह कहानी नहीं पढी होगी। मैंने देखा मन कुछ दिनों तक चिमटे का इस्तेमाल किया। फिर किनारे रख दिया। शायद मां अपने और अपने हाथ से बनी रोटियों के बीच उस चिमटे को नहीं आने देना चाहती थी।
मां जब तक जिन्दा रही उसी तरह आग की लपटों पर रोटियां सेकती रहीं। लेकिन उनकी उंगलिया कभी नहीं जलतीं। यह रहस्य भी मै आज तक नहीं समझ पाया। मुझे लगता है कि मां के दुःख और उसकी कोमलता से जुड़े कई रहस्य कभी नहीं समझे जा सकते। मां से जुडी हर घनीभूत पीड़ा एक परिकथा बन कर अवचेतन स्मृतियों में कंही जम जाती है। फिर हम उन स्मृतियों के सहारे पूरे साहस के साथ जिन्दगी के तमाम अँधेरे झेलते चले जाते है। प्रेमचंद का नन्हा हामिद तो कब का बूढ़ा हो चला होगा। अमीना तो न जाने कब कि गुजर चुकी होगी लेकिन मै जनता हूँ कि हामिद को तवे से उतरती दादी कि उन रोटियों का स्वाद याद होगा पर अफ़सोस वह बूढ़ा हामिद मेरी तरह अपनी दादी के उन आंसुओं का रहस्य अब तक नहीं समझ पाया होगा। पर नहीं मैं गलत सोच रहा हूँ हामिद कभी बूढ़ा नहीं हो सकता। हामिद जैसे लायक बच्चे कभी बूढे नहीं होते। क्यों गलत कहा मैने ?

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